बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ

 

पिछली बार जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली ने ठंडे पेय पदार्थों की हकीकत पर सवालिया निशान लगाया था और संयुक्त संसदीय जाँच समिति ने उनके दावों की जाँच कर उसे सही ठहराया था, तब रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने उत्साह में आकर नागपुर में ठंडे पेय पदार्थों की बिक्री पर ट्रेन और स्टेशनों पर प्रतिबन्ध की घोषणा की थी। उस घटना के महज कुछ घंटे के बाद ही लालू प्रसाद यादव ने नागपुर से पटना पहुँचते ही पेय पदार्थों पर प्रतिबन्ध हटाने की घोषणा भी कर दी। मंत्रालय या मंत्री का उत्साह इतनी जल्दी ठंडा क्यों पड़ जाता है?

हाल ही में सरकार ने दो ऐसे निर्णय लिये हैं, जो उसके लाचारीपन को दर्शाते हैं। पहला तो यह है कि शीतल पेय पदार्थों को क्लीन चिट देना और दूसरा सिगरेट व शराब के छद्म विज्ञापनों को हरी झंडी दे देना। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास के अनुसार 14 राज्यों से लिये गए शीतल पेय पदार्थों के 213 नमूनों में से मात्रा 28 नमूनों में कीटनाशक की मौजूदगी नहीं दर्शाई गई है। सवाल केवल ठंडे पेय पदार्थो में कीटनाशकों की मौजूदगी और गैर-मौजूदगी का नहीं है, सवाल तो केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा लिये गए निर्णय में जल्दबाजी दिखाने का है।

आखिरकार जल्दबाजी में लिये गए इस निर्णय का क्या मतलब है? यह सवाल तो करोड़ों जनता के हित से जुड़ा हुआ है। यह पर्यावरण की अनदेखी का मसला भी है। उनके हितों की अनदेखी क्यों की गई? क्या इसका मतलब आम जनता को यह मान लेना चाहिए कि सरकार केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे के बारे में ही सोचती है? जब सरकार ने 213 नमूनों की जाँच के आदेश दिये तो मात्रा 28 नमूनों की जाँच के आधार पर फैसले क्यों लिये गए?

सरकार द्वारा इस तरीके से फैसला लेना अलोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना नहीं तो और क्या है? कम-से-कम 100-125 नमूनों की जाँच तो होनी चाहिए थी। इस तरह की जाँच में और इतनी जल्दबाजी में लिये गए निर्णय से सरकार का जनता के प्रति कितना सरोकार है, इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा पहले लिये गए फैसलों की भी समीक्षा जरूरी है। सरकार के मंत्रालय के साथ-साथ अन्य पहलू, जो इनसे सीधे सम्बन्ध रखते हों, उनकी समीक्षा भी की जानी चाहिए।

मालूम हो, स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास ने पिछले ही साल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, (एम्स) नई दिल्ली में सेवा शुल्क में बढ़ोत्तरी का फैसला लिया था। इसके पीछे तर्क यह दिया कि यहाँ इलाज के लिये आने वालों में बहुत लोग गाड़ी और ऑटो या टैक्सी से आते हैं। गनीमत है कि वहाँ कार्यरत डॉक्टरों के एक धड़े ने एक लम्बी लड़ाई लड़कर इस सेवा शुल्क को पूरी तरह से वापस लेने पर स्वास्थ्य मंत्रालय को विवश कर दिया।

अब वहाँ किसी भी तरह का सेवा शुल्क नहीं है अन्यथा वहाँ पहले से लागू सेवा शुल्क में वृद्धि के नाम पर दो सौ से लेकर चार-छह सौ प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी कर दी गई थी। निश्चित तौर पर सेवा शुल्क में वृद्धि को निजीकरण की नीति का हिस्सा मानकर देखा जाना चाहिए।

एम्स में सेवा शुल्क में वृद्धि के प्रस्ताव के आते ही डॉक्टरों ने इसे जनविरोधी नीति बताकर इसका जमकर विरोध शुरू कर दिया था। शायद यह चिकित्सा संस्थान में चले अब तक किसी भी आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में सबसे बड़ा और संगठित आन्दोलन था। जल्दबाजी में लिये गए निर्णय का केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा लिया गया यह कोई पहला या दूसरा फैसला नहीं है सच तो यह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों या बाजार का दबाव किसी खास मंत्रालय तक ही सीमित नहीं है, यह दबाव पूरी व्यवस्था या पूरी सत्ता पर हावी है।

पिछली बार जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली ने ठंडे पेय पदार्थों की हकीकत पर सवालिया निशान लगाया था और संयुक्त संसदीय जाँच समिति ने उनके दावों की जाँच कर उसे सही ठहराया था, तब रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने उत्साह में आकर नागपुर में ठंडे पेय पदार्थों की बिक्री पर ट्रेन और स्टेशनों पर प्रतिबन्ध की घोषणा की थी। उस घटना के महज कुछ घंटे के बाद ही लालू प्रसाद यादव ने नागपुर से पटना पहुँचते ही पेय पदार्थों पर प्रतिबन्ध हटाने की घोषणा भी कर दी। मंत्रालय या मंत्री का उत्साह इतनी जल्दी ठंडा क्यों पड़ जाता है?

उत्साह के इतनी तेजी से ठंडा पड़ जाने से हमारी सरकार की वफादारी किनके प्रति है, यह साफ हो गया। अकारण नहीं है कि मार्च, 2006 के संसद के मानसून सत्र में साधारण नमक पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया गया। साधारण नमक बेचना और किसी भी तरीके से इस्तेमाल करना कानूनी तौर पर जुर्म करार दिया गया। आयोडीनयुक्त नमक खाने से शारीरिक विकृतियों के प्रमाण मिलने के बावजूद इस नमक कानून को बनाकर आम जनता पर जबरन लाद दिया गया है। इस मामले में भी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने बड़े ही गुपचुप तरीके से अपनी वेबसाइट पर अधिसूचना जारी कर आपत्तियाँ माँगी थीं।

देश के कई हिस्सों से विभिन्न स्तरों पर आपत्तियाँ दर्ज कराई गई थीं। इन आपत्तियों में वैज्ञानिक, चिकित्सक, वकील, पत्रकार, लेखक, साधारण नमक के व्यापार में लगे संगठनों सहित, विभिन्न जन-संगठनों ने ठोस तर्कों के साथ अपनी-अपनी आपत्तियाँ स्वास्थ्य मंत्रालय को भेजी थीं, परन्तु इन सबकी उपेक्षा करते हुए मंत्रालय ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हजारों करोड़ के मुनाफे को ध्यान में रखते हुए लोकतंत्र और संविधान के मौलिक अधिकारों का गला घोंटना उचित समझा।

विज्ञापन के जरिए जनता के चुनने की आजादी को गलत तरीके से प्रभावित करने के लिये निजी चैनलों के बीच की होड़ को भी समझा जाना चाहिए। इस झूठे विज्ञापन के खेल में निजी चैनल, मॉडल, अभिनेता और सूचना और प्रसारण मंत्रालय समान रूप से भागीदारी निभा रहे हैं। पिछली समय में जब ठंडे पेय पदार्थों की गुणवत्ता पर बवाल उठा था, तब आमिर खान निजी टीवी चैनलों के जरिए लोगों को यह बता रहे थे कि इसे देश-विदेश की प्रयोगशाला में जाँचा और परखा गया है।

इस बार बॉलीवुड के बादशाह शाहरुख खान ने मोर्चा सम्भालते हुए कहा कि अगर ठंडे पेय पदार्थ लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं तो सरकार इस पर प्रतिबंध लगा दे और हाँ, जब तक सरकार प्रतिबन्ध नहीं लगाती है, तब तक वे विज्ञापन करेंगे। उनके इस बयान के कई मायने हैं। एक तो यह कि पेय पदार्थों से अगर इतनी बड़ी आबादी को नुकसान होता है, तब भी उनकी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती है। आम जनमानस के स्वास्थ्य का ख्याल करना उनका दायित्व नहीं है। यह काम सरकार का है और जब तक सरकार इस पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती है, तब तक हम विज्ञापन करेंगे, क्योंकि इसके लिये उन्हें कुछ सेकेंड के विज्ञापन के लिए कई करोड़ रुपए जो मिलते हैं।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 

 

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