बिहार की गंडकी

25 Feb 2011
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छुटपन में मैंने इतना ही सुना था कि गंडकी नदी नेपाल से आती हैं और उसमें शालिग्राम मिलते हैं। शालिग्राम एक तरह के शंख जैसे प्राणी होते हैं; उन्हें तुलसी के पत्ते बहुत पसंद आते हैं; पानी में तुलसी के पत्ते डालने पर ये प्राणी धीरे-धीरे बाहर आते है और पत्ते खाने लगते हैं; उन्हें पकड़कर अंदर के जीवों को मार डालते हैं और काले पत्थर जैसे ये शंख साफ करके पूजा के लिए बेचे जाते हैं; लेकिन आज-कल के धूर्त लोग काले रंग की शिला का एक टुकड़ा लेकर उसमें सूराख करके नकली शालिग्राम बनाते हैं; ऐसी कई बातें सुनी थीं। इसलिए कई दिनों से मन में था कि ऐसी नदी को एक बार देख लेना चाहिये।

मुझे याद है कि स्वामी विवेकानंद ने कहीं लिखा है कि नर्मदा के पत्थर महादेव के बाणलिंग हैं और विष्णु के शालिग्राम बौद्ध स्तूपों के प्रतीक के तौर पर गंडकी में से लाये हुए पत्थर हैं। पेरिस की बड़ी प्रदर्शनी के समय उन्होंने किसी भाषण या लेख में जाहिर किया था कि बाणलिंग और शालिग्राम बौद्ध जगत के दो छोर सूचित करते हैं।

गंगा नदी का जहां उद्गम है, वहीं से वह दोनों ओर से कर-भार लेती हुई आगे बढ़ती है। उसकी मांडलिक नदियां अधिकांशतः उत्तर की ओर की यानी बायीं तरफ की है। चंबल और शोण को यदि छोड़ दें, तो महत्त्व की कोई नदी दक्षिण से उत्तर की ओर नहीं जाती। गंगा की दक्षिण-वाहिनी मांडलिक नदियों में गंडकी गंगा के लिए बिहार का पानी लाती है।

हम सब मुजफ्फरपुर गये थे तब एक दिन गंडकी में नहाने गये। बिहार की भूमि है अनासक्ति के आद्य प्रवर्तक सम्राट् जनक की कर्म-भूमि; अहिंसा-धर्म के महान प्रचारक महावीर की तपोभूमि; अष्टांगिक मार्ग के संशोधक बुद्ध भगवान की विहार-भूमि। ये सब धर्मसम्राट इस नदी के किनारे अहर्निश विचरते होंगे। उनके असंख्य सहायकों ने तथा अनुयायियों ने इसमें स्नान-पान किया होगा। सीता मैया ने छुटपन में इसमें कितना ही जल-विहार किया होगा। वही गंडकी मुझे अपने शैत्य-पावनत्व से कृतार्थ करे-इस संकल्प के साथ मैंने उसमें स्नान किया। नदी के पानी को किसी भी प्रकार की जल्दी नहीं थी। उसमें किसी प्रकार का उत्पात न था। वह शांति से बहती जाती थी, मानों मारको जीतने के बाद बुद्ध भगवान का चलाया हुआ अखंड ध्यान ही हो।

1926-27

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