बलिदान की निरंतरता

6 Jul 2012
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विस्थापन से लगातार पानी में समाहित होती जा रही कृषि भूमि का भी ख्याल नहीं रखा जा रहा है। इससे लगातार कम हो रही अनाज की उत्पादन क्षमता पर असर पड़ रहा है। जिससे इन क्षेत्रों में गरीबी और भुखमरी का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। इस परियोजना के बनने से विकिरण उत्पन्न होने से तरह-तरह की जानलेवा बीमारियां फैलेंगी वहीं बांध में मछली मारकर अपने परिवार का भरण पोषण करने वाले करीब एक हजार मछुआरों के परिवारों की जिंदगी संकट में आ जाएगी।

जल ही जीवन है। जल है तो कल है आदि नारे पानी को बचाने के लिए दिए गए हैं। लेकिन कुछ परिवारों के लिए इसके मायने ही बदल गए हैं। मध्यप्रदेश में कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहां पानी बचाने का उद्देश्य ही कई लोगों के लिए अभिशाप बन गया है। बरसात के आगमन की आहट ने एक बार फिर इन परिवारों को झकझोर कर रख दिया है। इन परिवारों के जहन में बरसात होने के पहले ही पानी से होने वाली परेशानियों को लेकर तरह-तरह के सवाल उठने लगे हैं। नर्मदा नदी पर बरगी बांध बनने के कारण 22 साल पहले विस्थापित हुए इन परिवारों के दिमाग में आज भी हर वर्ष 15 जून तक अपने मकानों को खाली कर अपनी जन्मभूमि से विरक्त होने का सरकारी फरमान कौंध जाता है। यह फरमान जलियावाला बाग हत्याकांड के आरोपी जनरल डायर से कम नहीं है। बरसात आने के आहट से ही इन परिवारों की रूह कांपने लग जाती है। इन्हें हर आने वाली बरसात में अपने घरौंदे टूटने का भय बना रहता है। इनमें कुछ परिवार तो ऐसे भी हैं जिन्हें एक से तीन बार तक अपने मकानों को बांध के लिए बलि देना पड़ा है।

सरकार द्वारा पानी बचाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसके अंतर्गत वह छोटे-छोटे स्टाप डेम के अलावा बड़े-बड़े बांधों तक का निर्माण कराती है, ताकि इस पानी से विकास की इबारत लिखी जा सके। लेकिन यही पानी बांधों से विस्थापित बहिष्कृत जीवन जी रहे परिवारों के लिए हर बरसात में मौत का फरमान लेकर आता है। जैसे-जैसे बांध में पानी भरता जाता है वैसे-वैसे इन परिवारों के सिर पर मौत तांडव करना शुरू कर देती है। इसके बाद भी इन परिवारों को इससे मुक्ति दिलाने वाला कोई नहीं है। न तो सरकार इनकी किसी तरह मदद करती है और न ही मानव परोपकार का दंभ भरने वाली सामाजिक संस्थाएं। इससे ये परिवार असमय ही काल कलवित हो रहे हैं। इसके बावजूद सरकार तमाशबीन बनी हुई है।

जबलपुर के पास रानी अवंतीबाई सागर परियोजना यानि बरगी बांध का निर्माण किया गया। यह बांध नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 बड़े बांधों में से पहला बांध है, जो देश की तरक्की के लिए बनाया गया है। इस बांध में 1660.80 करोड़ की राशि खर्च की गई ताकि इससे लोगों का व देश का विकास हो सके। इसमें 105 मेगावाट बिजली पैदा करना, 4.37 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई करना, 325 टन मछली का उत्पादन करना, 127 एमएलडी पानी जबलपुर शहर के लिए देने के साथ 10 लाख टन अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन करने का लक्ष्य रखा गया था। वो सब तो नहीं हो सका, लेकिन इसके उलट तीन जिलों के 162 गांवों के करीब 12 हजार परिवार इस विकास की भेंट चढ़ गए। इनमें जहां 82 गांव पूरी तरह जलाशय में डूब चुके हैं वहीं 11 गांव आज भी सरकारी रिकॉर्ड से लापता हैं।

इस बांध के बनने में 43 प्रतिशत आदिवासी, 12 प्रतिशत दलित, 38 प्रतिशत पिछड़ी जाति एवं 7 प्रतिशत अन्य समुदाय के लोगों को अपनी खुशियों की बलि देनी पड़ी है। इस बांध के बनने से देश के विकास में भले ही तमगा न जुड़ पाया हो, लेकिन 12 हजार परिवारों का विनाश जरुर हुआ है। आज ये परिवार अपने ही समाज के बीच बहिष्कृत जीवन जीने को मजबूर है। कभी धन धान्य से भरपूर थे ये गांव और यहां के ग्रामीण दाता कहलाते थे। लेकिन आज इनकी स्थिति याचक से भी बदतर है और ये खाने के लिए दाने-दाने के मोहताज हैं। इस पानी में डूबने से अब तक कई लोगों की मौत हो चुकी है। 26 अप्रैल 2012 को मंडला जिले के किरहु पिपरिया में डूबने से हुई 6 लोगों की मौत ने भले ही लोगों को हिला के रख दिया हो लेकिन इसके बाद भी सरकार के कान पर हूं तक नहीं रेंगी। इस बांध निर्माण के लिए हटाए गए परिवारों के संबंध में खुद सरकारी रिपोर्ट कह रही है कि सरकार ने इन बांध से विस्थापित परिवारों को यहां मरने के लिए छोड़ दिया है।

बरगी बांध के विस्थापित आदिवासी विरोध प्रदर्शन करते हुएबरगी बांध के विस्थापित आदिवासी विरोध प्रदर्शन करते हुएजब सरकार का तंत्र खुद यह कह रहा है तो इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसकी जमीनी हकीकत क्या होगी। इसके बाद भी सरकार को चैन नहीं मिला। उन्होंने बरगी बांध से विस्थापित परिवारों को जो इस समय में मंडला जिले के नारायणगंज विकासखंड के ग्राम चुटका, टाटीघाट एवं कुंडा में रह रहे हैं, के लगभग 350 परिवारों को एक बार फिर हटाने की तैयारी कर ली है। क्योंकि यहां पर परमाणु बिजलीघर प्रस्तावित किया गया है। इससे इन परिवारों को एक बार फिर विस्थापन की पीड़ा से गुजरना पड़ेगा। ऐसे में उनका दूसरी बार विस्थापन किए जाने से इनकी जिंदगी नर्क हो जाएगी। इसके साथ ही इस विस्थापन से लगातार पानी में समाहित होती जा रही कृषि भूमि का भी ख्याल नहीं रखा जा रहा है। इससे लगातार कम हो रही अनाज की उत्पादन क्षमता पर असर पड़ रहा है। जिससे इन क्षेत्रों में गरीबी और भुखमरी का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है, जो इन क्षेत्रवासियों सहित इन परिवारों के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। इस परियोजना के बनने से विकिरण उत्पन्न होने से तरह-तरह की जानलेवा बीमारियां फैलेंगी वहीं बांध में मछली मारकर अपने परिवार का भरण पोषण करने वाले करीब एक हजार मछुआरों के परिवारों की जिंदगी संकट में आ जाएगी।

आखिर इन सबके पीछे सरकार की मंशा क्या है यह समझ से परे है। क्या सरकार गरीब आदिवासी परिवारों को पानी में डुबे-डुबो के मारना चाहती है या फिर इनकी जलसमाधि देना चाहती है?

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