बंजर जमीन पर बहार लाना बड़ी चुनौती

9 Nov 2019
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बंजर जमीन पर बहार लाना बड़ी चुनौती
बंजर जमीन पर बहार लाना बड़ी चुनौती

आज देश में जबकि भोजन और पानी इंसान के बुनियादी अधिकारों में मानकर इसे आम आदमी इसे आदमी तक पहुँचाने की चिन्ता कानूनी बाध्यता बन चुकी है, इस हालात में अन्न उत्पादन को लेकर उभरती चुनौतियों से जूझना सरकार की नैतिक मजबूरी बन गई है। 

केन्द्र सरकार के बंजर भूमि को आबाद किए जाने के फैसले को दुनिया भर में सहारा गया है। वहीं दूसरी ओर, विश्व में तेजी से मरुस्थलीकरण के कारण वर्ष 2050 तक दुनिया की करीब 70 करोड़ की आबादी को पलायन के लिए मजबूर होने की खबर से मानव सभ्यता में खलबली मची हुई है। आंकलन है कि भूमि के बंजर होने से लगातार खेती का क्षेत्र घटता जा रहा है और भू-क्षरण बढ़ रहा है। जिससे निकट भविष्य में अनाज का भीषण संकट गहराने की सम्भावना जताई जा रही है।

इन्ही बातों को ध्यान में रखकर सितम्बर में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र के कान्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज यानी कॉप के 14 वें अधिवेशन में भारत ने स्पष्ट किया था कि केन्द्र सरकार बंजर जमीन को खेती के योग्य बनाने के लिए यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन के साथ समझौता भी करेगी। खास बात यह है कि समरोह में शिरकत कर रहे 196 देशों और यूरोपीय संघ के करीब 8 हजार प्रतिभागियों ने जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और बढ़ते रेगिस्तान जैसे मुद्दों का हल निकालने के सम्बन्ध में भारत के रुख की सहारना की थी। चिन्ता और सक्रियता अन्य देशों के लिए मायने रखती है। चूँकि दुनिया भर के तमाम मुल्कों में जल-जंगल के अबाध दोहन से विकट हालात पैदा हो चुके हैं। इस कारण जमीन का बंजर होना और बारिश के बिना सूखे के हालात निरन्त बने रहना एक बड़ी समस्या बन चुकी है। आज इंसानी सभ्यता के लिए मरुस्थलीकरण एक बहुत बड़ी समस्या है। आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया का 23 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण कीक चपेट में आ चुका है।

भारत की चिन्ता इस वजह से मायने रखती है क्योंकि देश की कुल जमीन का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल बन चुका है। जमीन का बंजर होना जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करता है। साथ ही इससे खाद्य आपूर्ति से लेकर सेहत पर भी असर पड़ता है। लिहाजा इससे निपटने के लिए सरकार को प्रयास करने होंगे। द गार्जियन अखबार में प्रकाशित ‘ग्लोबल फूड क्रइसिस लूम्स एज क्लाइमेट चेंज एंज पॉपुलेशन ग्रोथ स्ट्रिप फर्टाइल लैड’ शीर्षक लेख में चर्चा है कि 2007 में दुनिया की लगभग 40% कृषि योग्य भूमि का स्तर गम्भीर रूप से गिर गया। इनमें से ज्यादातर उर्वर भूमि उन आदिवासी इलाकों में जहाँ की जमीन रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से अछूती है। धान स्थित ‘इंस्टिट्यूट फॉर नेचुरल रिसोर्सेज इन अफ्रीका’ की रिपोर्ट के मुताबिक अगर अफ्रीका में मिट्टी के स्तर में गिरावट के मौजूदा रुझान जारी रहे तो यह महाद्वीप 2025 तक अपनी आबादी के सिर्फ 25% हिस्से को ही भोजन प्रदान करने में सक्षम होगा। उल्लेखनीय है कि अफ्रीका के आदिवासी बहुल इलाकों में कॉरपोरेट घुसपैठ और उनके द्वारा खेती की पद्धति में रोक-टोक के चलते भयंकर पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ है।

भारत के हालात भी सही नहीं दिख रहे हैं। आज जबकि भोजन और पानी इंसान के बुनियादी अधिकारी में मानकर उसे आम आदमी तक पहुँचाने की चिन्ता कानूनी बाध्यता बन चुकी है, इस हालात में अन्न उत्पादन को लेकर उभरती चुनौतियों से जूझना सरकार की नैतिक मजबूरी बन गई है। हालांकि भारत की सरकारों ने आदिवासी आबादी और वहाँ की जमीन का मनमाना इस्तेमाल किया है। हद तो तब हो गई कि झारखण्ड, ओडिशा और मध्यप्रदेश की लाल माटी की बेहद उपजाऊ जमीन पर ‘उत्तम खेती’ को लेकर सरकार ने तरीके से मन बनाया ही नहीं। अधिक उपज के नाम पर रासायनिक उर्वरकों से ठसाठस बाजार में पड़ा जहर खेतों में बिखेरा जाने लगा। प्रचार की वजह भले ही उन राज्यों में एक-से-एक बेहतर सुविधायुक्त कृषि अनुसंधान संस्थान खोले गए लेकिन कृषि वैज्ञानिकों ने जमीन पर पाँव रखना जरूरी नहीं समझा। इस वजह से माटी की सेहत की चिन्ता किए जाने वाली सोच और संस्कृति बिसर गई और समय के साथ जमीन बंजर होती गई।

आदिवासी इलाकों में नकारात्मक राजनीति और प्रशासन से दखल के कारण समाज का जमीन से नाता जुड़ा नहीं रह पाया। बल्कि जरूरतमंद आदिवासियों ने राहत और स्पेशल पैकेज के बूते जिन्दगी जीना बेहतर समझा। किसानों ने जमीन पर किसानों की बजाय राहत के पैकेज के अनाज से पेट भरकर खेत को परती छोड़ना मुनासिब समझा। वर्षा जल संचयन की न जाने कितनी पद्धतियों के नाम का अरबों का फण्ड किसी का साबित नहीं हुआ। नतीजतन कुछ प्रयोग नजीर जरूर बने लेकिन वर्षा जल के ठहराव नहीं होने के हाल में हर साल सूखा एक आयोजन बन गया।

देश में जंगलों के कटने से वर्षा चक्र का बाधित होना, धरती की कोख से पानी का खत्म होना और बंजर जमीनों का दायरा बढ़ना एक बड़ी चुनौती है। आज इंसानी सभ्यता के सामने अकाल का तात्कालीक उपाय निकल जाता है किन्तु मरुस्थलीकरण का समाधना न तो सहज है और न सस्ता। भारत में माटी की सेहत और देशज नस्ल के पेड़ों को बचाकर उन्हें लोकोपयोगी बनाने की दिशा में एक-से-एक प्रयोग किए जा चुके हैं। खासतौर से वॉटर शेड मैनेजमेंट यानी जलछाजन के जरिए सफलता और समृद्धि की एक-से-एक गाथाएँ देश के लोकमानस में गेय हैं। इसके लिए जरूरी है कि इलाकों में जिन जनपयोगी मॉडल की सफलता लोकसिद्ध हो चुकी है उसे भौगोलिक रचना माटी की तासीर और आवोहवा के मुताबिक क्यों ने बार-बार प्रयोग में लाया जाए। खेद की बात है कि इस तरह के उपायों के बदले हम सरकार को कोस रहे हैं कि अकाल क्यों है, सरकार कुछ करती क्यों नहीं। ऐसे में भविष्य भयावह लगता है, विशेषकर उस हालात में जब दुनिया भर में खेती के चौपट होने और जलवायु परिवर्तन से हो बर्बादी के उदाहरण किसी बड़े विनाश की दस्तक जैसे है।

यदि निवारण के रूप में जलछाजन के विभिन्न सफल प्रोजेक्ट्स और उससे सुनिश्चित कार्य योजना को अमल में लाए तो इसके परिणाम बेहतर होंगे। चूँकि जल छाजन से जल, जंगल, जमीन, जन एवं जानवर के विकास एवं संवर्धन के साथ-साथ टिकाऊ जीविकोपार्जन एवं खेती के विकास की दिशा ततय होती है, इसलिए जनसहभागिता और पारदर्शिता से कोई भी कार्यक्रम सफल हो सकता है। बंजर में बहार लाने की प्रतिबद्धता को सफल बनने के लिए पाश्चात्य अवधारणा को दरकिनार कर बन जन की पारम्परिक अवधारणा के पन्ने उलट-पुलट लें तो एक आसान सा मगर उपाय भरा रास्ता जरूर निकलेगा।
 

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