बोतलबन्द पानी और निजीकरण

 

जल स्रोतों पर निजीकरण का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। पनबिजली निजी हाथों में चली गईं। सिंचाई की योजना भी धीरे-धीरे निजी हाथों के हवाले की ही जा रही है। तात्पर्य यह है कि पानी से मुनाफा हासिल करने का सिलसिला बोतलबन्द पानी तक ही सीमित नहीं है।

दुनिया भर में पानी की दिक्कतों को लेकर तनातनी का महौल है। पानी की दिक्कतों से पार पाने के लिये बहुत सारे संगठन समाज को बेहतर करने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। चर्चा, बहस और जमीनी स्तर पर कई कार्यक्रमों को अंजाम दिया जा रहा है। इन कार्यक्रमों से वह हिस्सा, जिसे निहायत कम पानी वाला मान लिया गया था, आज वहाँ का समाज भी अपनी पानी की साल भर की जरूरतें पूरी करने लगा है और साथ ही आपात स्थिति से लड़ने के लिये पर्याप्त जल संकट के समय के लिये भी बचा लेता है।

ऐसे समाज को पर्यावरणविदों ने साफ माथे का समाज और पानीदार समाज जैसे सम्मानसूचक शब्दों से पुकारना शुरू कर दिया है, परन्तु ऐसे छोटे या कम संख्या में पानी की दिक्कतों से पार पाने वाले समाज उदाहरण के तौर पर प्रेरणादाई तो हो सकते हैं, लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निजी लिप्साओं के सामने बौने ही साबित होते रहे हैं। इस सन्दर्भ में आप पानी को प्लास्टिक की बोतलों में बन्द होने की कहानी के रूप में देख सकते हैं। आज बोतलबन्द पानी का बाजार तेजी से फल-फूल रहा है। इससे भी ज्यादा तेजी से बोतल का पानी पीने की मानसिकता का प्रसार हो रहा है। पानी के लिये काम करने वालों में से एक माउदे बारलोव के अनुसार बोतलबन्द पानी का व्यापार प्रति वर्ष 400 अरब डॉलर का है।

विश्व बैंक का अनुमान है कि पानी का बाजार तेजी से बढ़ता हुआ 800 अरब डॉलर तक जल्द ही पहुँच जाएगा। ऐसा अनुमान तब लगाया जा रहा है, जब बोतलबन्द पानी के ग्राहक दुनिया की कुल आबादी का मात्र पाँच प्रतिशत हैं। इस कारोबार में परेशान करने वाली बात यह है कि पानी को बोतल बन्द करने (श्रम, मार्केटिंग व टैक्स को छोड़कर) की कुल लागत 2.85 से 4.25 रुपए तक आती है, जबकि इसे बाजार में 15-25 रुपए प्रति लीटर पर बेचा जाता है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मुनाफे कमाने की यह आजादी 11 करोड़ 80 लाख घरों में पानी पीने की दिक्कतों के बावजूद दी जा रही है।

आखिरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की इस खुली लूट पर हमारी सरकार की चुप्पी हमें कहाँ ले जाएगी, यह एक विचार का मसला है।

बोतलबन्द पानी ने कई स्तरों पर समाज को खतरे में डाला है। यह मामला केवल पर्यावरण के दुष्प्रभाव के रूप में आज हमारे सामने नहीं है, बल्कि समाज के जीवनयापन के बेहद सामान्य स्रोतों पर कम्पनियों के एकाधिकार के रूप में हमें संकटग्रस्त कर रहा है। निजीकरण के इस दुष्प्रभाव से मुक्ति पाने के लिये दुनिया के हर समाज में जबरदस्त विरोध दर्ज किये जा रहे हैं। भारत में केरल, छत्तीसगढ़ आदि में पानी के निजीकरण के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई में हासिल जीत से हम रूबरू हैं। ऐसी लड़ाई कोचाबाम्बा, बोलीविया के समाज ने भी लड़ी।

1999 में कोचाबाम्बा शहर का समूचा पानी आपूर्ति तंत्र एगुअस डेल तुनारी नामक निजी कम्पनियों के एक संघ के हवाले कर दिया गया। इस संघ की अगुवाई बेक्टेल नामक एक अमेरिकी कम्पनी कर रही थी। इस शहर के जल प्रदाय संस्थान अव्यवस्थाओं का शिकार हो चुके थे। दरअसल, निजीकरण के सिद्धान्त की जमीन असमर्थ और अराजक हो चुकी व्यवस्था के मद्देनजर ही तैयार होती है। अराजकता और असमानता के कारण आम लोगों के अन्दर यह तर्क विकसित हो जाता है कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार गहरे तक व्याप्त है। इन हालात में आम लोगों को अच्छी सेवाएँ मिल पाएँ, इसके लिये निजीकरण को एकमात्र विकल्प के तौर पर देखा जाये, इसके लिये कई स्तरों पर षडयंत्र भी चलाए जाते हैं।

निजीकरण के सिद्धान्त को अलादीन के चिराग की तरह पेश किया जाता है। फिलहाल, कोचाबाम्बा के संघर्ष की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। स्थानीय सरकार ने इन कम्पनियों को 12 हजार 500 करोड़ रुपए की रियायत चालीस वर्षों के लिये दी। इसके साथ कम्पनी को पूँजी निवेश पर 15 प्रतिशत लाभ की गारंटी भी दी गई और इसे अमेरिका के उपभोक्ता कीमत सूचकांक से जोड़ा गया।

अनुबन्ध के तहत कम्पनी को जिले के सभी तरह के जलस्रोतों पर पूरा अधिकार भी दिया गया। कम्पनी ने लोगों द्वारा पानी की दिक्कतों से लड़ने के लिये समाज के अपने साझा प्रयासों से खड़े किये गए ट्यूबवेल और नलों तक में मीटर लगा दिये और इसके खर्च भी वसूले जाने लगे। हालत ये हो गई कि औसतन एक मजदूर के वेतन का 25 फीसदी हिस्सा पानी के मासिक बिलों की भेंट चढ़ने लगा। बिल का भुगतान न करने वालों के पानी के कनेक्शन काटे जाने लगे। आम लोगों के जबरदस्त विरोध के बाद कम्पनियों को कोचाबाम्बा से वापस भागना पड़ा था।

जल स्रोतों पर निजीकरण का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। पनबिजली निजी हाथों में चली गईं। सिंचाई की योजना भी धीरे-धीरे निजी हाथों के हवाले की ही जा रही है। तात्पर्य यह है कि पानी से मुनाफा हासिल करने का सिलसिला बोतलबन्द पानी तक ही सीमित नहीं है।

बाजार मुनाफे के सारे रास्तों पर आँखें बिछाए हुए हैं। इस अनुपात में निजीकरण के खिलाफ समाज में गोलबन्दी की दर बहुत धीमी है। समाज को निजीकरण के दूसरे क्षेत्रों के नतीजों को सामने रखना होगा और विरोध की गति को रफ्तार देनी होगी।

 

 

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading