बरास्ता गाँधी, जीवन बदलता एक पानीदार गाँव

30 Aug 2011
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मई माह में भी भरा पानी

रहिमन कह गए हैं, बिन पानी सब सून...., नागपुर से महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव ने पानी की महत्ता को कैसे समझा और स्वीकारा बता रहे हैं ….। इस बार वलनी के ग्राम तालाब की पार पर खड़ा हुआ तो दिल भर आया। हरे, मटमैले पानी पर हवा लहरें बनाती और इस किनारे से उस किनारे तक ले जाती। लगता दिल में भी हिलोरें उठ रही है। कहाँ था ऐसा तालाब ? जो था, वो सपनो में हीं था। सपने अगर सच हो जाएं तो दुनिया, दुनिया ना रह जाए। मगर आँखें तो सच देख रही थीं। कितने साल, मई की भरी दुपहरी में, जब भीतर तक जला देने वाली लू और देह से सारा जल निचोड़ लेने वाला सूरज धरती के सीने में भी बिबाई बो देता, तब उस सूखे तलहट में चहलकदमी करते हुए सोचा करते कि यहाँ से वहां तक, इधर से उधर तक, भर जाये पूरा तालाब पानी से। आमीन ! तथास्तु !!

अब तो मुग्ध आँखें नज़ारा देख रही हैं और कान सुन रहे हैं। पार्श्व से फूटती गूंजती आवाज़ में जैसे भविष्यवाणी हो रही है : 'इस बार जितना भरा है, उतना तो कई दशकों में नहीं भरा। अब नहीं सूखेगा ये। इसमें दो पुरुष से ज्यादा पानी है।'

पिछले 11 सालों में कितनी ही बार, इस 19 एकड़ के तालाब को पैदल चलते हुए, पार करते हुए, दिमाग में बेवजह हिंसक तस्वीरें बनने लगतीं, जैसे गाँववालों के दिल से रिसते खून से हीं भरेगा ये तालाब। ऐसे-वैसे मिला लो तो कोई 23 सालों का है ये संघर्ष। लेकिन, कोई कह दे कि बूँद भर खून भी माटी में गिरा हो। फिर केशव डम्भारे और योगेश अनेजा के चेहरे उभर आते और खिलखिलाती, मजबूत आवाज; ''हम तो ऐसे ही लड़ेंगे। एक कतरा भी खून नहीं गिरेगा। सिर्फ पानी से भरेगा तालाब।'' अचानक चौरी-चौरा की याद हो आई। गाँधी ने अहिंसा के व्रत के लिये कितना बड़ा त्याग किया था! सबके विरोध के बावजूद पूरा आन्दोलन रोक दिया। महात्मा के संकल्प को असली मायनों में ये लोग अपनी लड़ाई के मार्फ़त आगे बढ़ा रहे हैं। सचमुच, अनवरत संघर्ष से निकले पसीने और पानी ने ही यहाँ की धरती को सींचा है और उससे जो बेलें फूटी हैं, वे दुनिया को राह दिखने वाली हैं।

चलिए पहले वलनी का किस्सा सुनते हैं, और फिर हासिल की बात करते हैं।


मई माह में भी भरा पानीये समाज और सत्ता, जनता और जनार्दन, गण और तंत्र के बीच जारी अनवरत द्वंद्व की कथा है। विषय-वस्तु बस इतनी-सी है कि एक गाँव है; गाँव का एक निस्तारी तालाब है और मालगुजार/ जमींदार है। जमींदार तालाब हड़प लेता है और गाँव वाले उसे छुड़ाने के लिये अथक आन्दोलन करते हैं। सारी व्यवस्था, सत्ता और राजनीतिक तंत्र, न्याय प्रणाली जमींदार के पक्ष में अंगद के अंदाज़ में खड़ी है। जनता का मोर्चा भी लगा है। तालाब को ग्राम समाज ने अपने कब्जे में ले लिया है। अंततः उपसंहार का इंतजार है। लेकिन, इस तालाब और उसकी लड़ाई ने वलनी के जीवन को बदल दिया है, जीवन स्तर को आर्थिक और सामाजिक तौर पर सतह से बहुत ऊपर उठा दिया है। तालाब खुद भी तब्दील हो गया है, जीवनधारा में। उसने किसानों को जीने के नए मायने सिखाये हैं। अपनी जमीन और खेत से फिर से प्यार करना सिखाया है।

वलनी नागपुर से महज 21 किलोमीटर दूर है और वहां ये सब कुछ घट रहा है। ये हुआ कैसे और आखिर हुआ क्या?, जानने के लिये अतीत के झरोखों से तीन दशक पीछे झांकना पड़ेगा।

गाँधी ने अहिंसा के व्रत के लिये कितना बड़ा त्याग किया था! सबके विरोध के बावजूद पूरा आन्दोलन रोक दिया। महात्मा के संकल्प को असली मायनों में ये लोग अपनी लड़ाई के मार्फ़त आगे बढ़ा रहे हैं। सचमुच, अनवरत संघर्ष से निकले पसीने और पानी ने ही यहाँ की धरती को सींचा है और उससे जो बेलें फूटी हैं, वे दुनिया को राह दिखने वाली हैं।

सन 1983 की बात है। नौसेना से नौकरी छोड़कर एक नवयुवक अपने गाँव लौट आया। यानी केशव रामचंद्र डम्भारे। पिता रामचंद्र गाँव के सरपंच थे और किसान भी। लेकिन केशव को खेती नहीं करनी थी। उनके मन में एक दूसरा हीं ख्याल था। सहकारी समिति से लोन लेकर उसने चार भैंसें खरीदीं और डेयरी फार्म खोला। दूध की सप्लाई नागपुर होती। सालभर के भीतर चार से दस भैंसें हो गईं। आमदनी काफी बढ़ गई। लेकिन, एक समस्या बरक़रार थी। गाँव में पानी नहीं था। ग्राम-तालाब मार्च खत्म होते-होते सूख जाता। फिर शुरू होती असली कसर्त। केशव और उनका कर्मचारी रोजाना खेत के कुएं से प्रति भैंस आठ बाल्टी पानी खींचते। यह काम उन्हें इतना थका देता कि शेष कुछ नहीं हो पाता। बच्चों को भीषण गर्मी से निजात दिलाने के लिये वे कूलर खरीद लाये, पर उसमें पानी डालने के लिये रात 12 बजे तक का इंतजार करना पड़ता। इसके पहले तक गाँव के एकमात्र हैण्डपम्प पर महिलाओं का कब्ज़ा रहता, जो अपने घरों के लिये लड़ते-झगड़ते पीने का पानी भरतीं। नतीजा ये हुआ कि पानी के अभाव के मारे केशव ने डेयरी फार्म बंद करने का फैसला किया। इसके बावजूद उनके दिमाग को एक सवाल मथता रहता। गाँव में इतना बड़ा तालाब है, बारिश भी अच्छी होती है। इसके बावजूद पानी की इतनी किल्लत क्यों? नतीजे पर पहुंचे कि तालाब में गाद जमा हो गई है और जलग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) से पानी तालाब में बहकर नहीं आता है। अधसूखे तालाब में मार्च तक थोड़ा-बहुत पानी रहता है और फिर जून तक सूखा। बारिश आई तो भरा, वर्ना ढोर-डंगरों का काम किसी तरह चलाना पड़ता। गाद कोई निकालता नहीं। हर साल मिर्च, बैंगन, टमाटर, सेम, कद्दू लगाना हो तो बुजुर्गों के कहने पर तलछट से दो-चार छिटुए मिट्टी भर लाये और बीज बो दिए। अंकुर फूटे तो खेत में लगा दिए।

इस संघर्ष ने केशव और योगेश को सिखाया कि हर बार गाँव की तरक्की का नया आइडिया खोजा जाये और उसे अमल में लाया जाए। पिछले साल यह हुआ कि पंचायत की मर्ज़ी के मुताबिक सड़क बनने वाले ठेकेदार ने मुरुम निकलने के लिये आधे से कुछ काम तालाब को 15 फुल गहरा खोद दिया। लेकिन, अब उसमें पानी भरने का संकट था, क्योंकि जलग्रहण क्षेत्र उसे पूरा नहीं कर पाता। यहाँ गाँव वालों की देशज समझ काम आई। उन्होंने ठेकेदार से गाँव के बाहर से तालाब तक एक छोटी नहर बनवा ली। बरसात में इस नहर से होता हुआ इतना पानी इस तालाब में आया कि वह पूरा भर गया और अब शायद ही कभी खाली हो।

तालाब को गहरा करने के लिये यह काफी नहीं था। हद तो तब हो गई, जब अचानक दो भाई भगवान और श्रावण नान्हे आए और तालाब में मछलियाँ पालने लगे। पता लगाया तो मालूम हुआ कि गाँव के तालाब का पॉँच एकड़ हिस्सा जमींदार/ मालगुजार रुद्रप्रताप सिंह पवार ने बेच दिया है। सवाल उठा: तालाब तो गाँव का था, जमींदार ने कैसे बेच दिया? तहसीलदार से शिकायत की तो नान्हे बंधुओं और जमींदार पवार का कब्जे की पुष्टि हो गई। यही नहीं, शेष 14 में से पॉँच एकड़ सीलिंग में चला गया। गाँव में हड़कंप मच गया। केशव ने दस्तावेज निकलवाए तो पता चला अंग्रेज सरकार के बंदोबस्त के मुताबिक 1911-12 में तालाब को जमींदार से सरकारी कब्जे में ले लिया गया था। लेकिन बाद में किसी तरह जमींदार ने उसे अपने नाम चढवा लिया। गाँव वाले इसके खिलाफ एक हो गए। तहसीलदार से लेकर कलेक्टर, ग्राम पंचायत से लेकर जिला परिषद तक, शिकायत की। कोई नतीजा नहीं निकला। साल दर साल निकलते गए। फिर आया वर्ष 1997। इस गाँव में योगेश अनेजा अपने दोस्त योगेश वानखेड़े के साथ पहुंचे। केशव और उनके साथियों ने उनका स्वागत किया और तालाब की बात निकली। योगेश ने सलाह दी कि तालाब किसी का भी हो पहले उसे खोद लिया जाये। गाँव वाले श्रमदान करें। शुरुआत हुई, पर बात नहीं बनी। हाथ से तालाब खोदना संभव नहीं था और गाँव में किसी के पास 'बेगार' के लिये समय भी नहीं था। तब गाँव में अलख जगाने के लिये केशव और योगेश के दस्ते ने वृक्षारोपण शुरू किया। धीरे-धीरे एक बात और समझ में आई कि बरसात का पानी गाँव में रुकता नहीं है, इसलिए खेतों में ही जलसंग्रह जरूरी है। सड़क बन रही थी तो ठेकेदार गाँव के गौण खनिज यानी मुरुम लूट रहा था। योगेश और केशव के दस्ते ने उसे रोका और राज़ी किया कि वे जहाँ से कहें, वहां से मुरुम निकली जाये. ठेकेदार मान गया और गाँव में पहली बार एक पोखर (छोटा तालाब) बन गया। पानी जमा हुआ तो कुओं का जलस्तर बढ़ गया। गाँव के किसानों का विश्वास इस हरावल दस्ते पर जमने लगा। ग्राम पंचायत के कोष से लोग शेततली (खेत तालाब) बनने के लिये राजी होने लगे। पानी रुकने लगा तो कुएं भरने लगे। सिंचाई ज्यादा होने लगी। लेकिन ग्राम-तालाब की हालत अब भी खराब थी। योगेश ने केशव के सहयोग से आमराय बनवाई कि जेसीबी मशीन से तालाब खोदा जाये। लेकिन, उसकी मिट्टी का क्या हो? बुजुर्गों का अनुभव और परंपरागत ज्ञान काम आया। तय हुआ कि हर खेत में एक टिप्पर मिट्टी डालने के 200 रुपये देने होंगे। नुकसान होने की सूरत में भरपाई की जिम्मेदारी भी ली। पहले हीं दिन एक लाख चार हज़ार रुपये इकट्ठे हो गए। नतीजा अच्छा रहा। तालाब खुदने लगा और जिन खेतों में ये मिट्टी डली, उसमें फसल भी कई गुना हो गई। आस-पास के गांवों से भी आर्डर आने लगे तो गाँव के किसानों की हिम्मत भी बढ़ी और साल दर साल काम चलता गया। कई बाधाएं आईं। मालगुजार ने लठैतों, अपराधियों, पुलिस, प्रशासन, नेताओं, अदालत; सबकी मदद ली और पूरा जोर लगा दिया कि तालाब उसके हाथ लग जाये। नान्हे बंधुओं ने भी काफी बाधाएं डालीं।

चुनावी राजीनति के चलते गाँव में बने दो गुट से भी काम प्रभावित हुआ। लेकिन, केशव के नेतृत्व और योगेश के मार्गदर्शन में गाँववाले अडिग रहे। ट्रैक्टर के सामने बिना डरे लेटे, लाठियां खाईं, अनशन किया, दौड़-भाग की, कागज-फाइलें फिरवाईं, महीनों कलेक्टर और अफसरों के दफ्तर के सामने बैठे, जेल गए। लेकिन, हारे नहीं। 15 साल से हर रोज़ किसी ना किसी मुसीबत से लड़ते-लड़ते आदत सी हो गई है। यह तब तक चलेगा, जब तक कि तालाब गाँव का ना हो जाये। एक अच्छा काम हुआ। केशव और उनके साथियों की संख्या बढती चली गई। अब हाल यह है कि पूरा गाँव एक है। राजनीतिक विरोधी भी साथ मिलकर ये काम कर रहे हैं। इस संघर्ष ने केशव और योगेश को सिखाया कि हर बार गाँव की तरक्की का नया आइडिया खोजा जाये और उसे अमल में लाया जाए। पिछले साल यह हुआ कि पंचायत की मर्ज़ी के मुताबिक सड़क बनने वाले ठेकेदार ने मुरुम निकलने के लिये आधे से कुछ काम तालाब को 15 फुल गहरा खोद दिया। लेकिन, अब उसमें पानी भरने का संकट था, क्योंकि जलग्रहण क्षेत्र उसे पूरा नहीं कर पाता। यहाँ गाँव वालों की देशज समझ काम आई। उन्होंने ठेकेदार से गाँव के बाहर से तालाब तक एक छोटी नहर बनवा ली। बरसात में इस नहर से होता हुआ इतना पानी इस तालाब में आया कि वह पूरा भर गया और अब शायद ही कभी खाली हो। दूसरे हिस्से की खुदाई के लिये पानी निकलने के वास्ते पम्प लगाना पड़ रहा है। दूर तक के कुएं भर गए हैं। नान्हे भी खुश है। उसके गाँव वालों से समझौता हो गया है। वह पूरे तालाब में मछलियाँ पालता है और लाखों की मछलियों के बदले सालाना सात हज़ार रुपये ग्राम पंचायत को देता है। यानी आम के आम, गुठलियों के दाम। इस एक तालाब ने गाँव का जीवन बदल दिया है। जरा आश्चर्य हो सकता है, पर योगेश कहते हैं : कोई लूट सके तो लूट ले हमारे गाँव की मिट्टी और मुरम को।

वर्षों के सत्याग्रह का नतीजा वलनी फार्मूले के तौर पर निकला है। अब यह बहुवचन हो गया है यानी 'फार्मूलों'।


1. पहला फार्मूला था कि तालाब को खोदो और उसकी गाद खेत में डालो। इससे फसल कई गुना बढ़ जाएगी। वलनी और आसपास के किसानों ने इस फार्मूले को अपनाया और बकौल योगेश, वे अब अपने उन खेतों से प्यार करते हैं, जिन्हें वे कभी पैदावार ना होने की वजह से बेचना चाहते थे। फसल दोगुनी होने से आमदनी बढ़ गई है। उनका जीवन स्तर सुधर गया है। गाँव में 100 से ज्यादा पक्के मकान बन गए हैं। गाँव का हर बच्चा स्कूल जाता है। शराब और क़र्ज़ की लत अपने आप कम हो गई है। महिलाओं की पिटाई लगभग बंद हो गई है। तालाब खोदने से

वलनी गांव के तालाब का एक सुंदर दृश्यवलनी गांव के तालाब का एक सुंदर दृश्य2. दूसरा फार्मूला पूरे गाँव और खेतों में खेत-तालाब बना दिए जाएं। गाँव में अब छोटे-बड़े 24 तालाब हैं। योगेश और केशव इसे 'ऑपरेशन तालाब' कहते हैं। इन तालाबों ने खेतों को पानीदार और उपजाऊ बना दिया। अब यहाँ गर्मियों की छोटी-मोटी फसलें और सब्जियों की खेती भी होने लगी। उनका लक्ष्य फ़िलहाल 100 तालाबों का है।

3. तीसरा फार्मूला बरसात में गाँव से बह जाने वाले पानी को रोकने और संग्रह करने का है। वलनी गाँव की कुल जमीन का 10-15 फ़ीसदी हिस्सा ऐसा था, जो बरसात के दौरान नालों में तब्दील हो जाता था। ये नाले जमीन को बंजर बना देते थे और जमीन के मालिक किसान परेशान थे। इन नालों के रास्तों की पहचान करके अब कुछ माध्यम आकर के तालाब बना दिए गए है। इससे पानी अब यहाँ जमा हो जाता है और वह जमीन काम में आने लगी। इससे किसानों को दोहरा फायदा हुआ।

4. चौथा फार्मूला गाँव के गौण खनिज का अपनी मर्जी से दोहन का है। योगेश बताते हैं कि पहले ठेकेदार 30 ट्रिप की रॉयल्टी देकर 300 ट्रिप मुरुम निकालता था। वह भी अपनी मर्जी से। इससे गाँव में कहीं भी बड़ा गड्ढा हो जाता था और कोई काम भी नहीं आता था। हमने उसे रोका और कहा हमारी मर्जी से मुरुम निकाले। यह तरकीब काम आई और वलनी में कई तालाब इसके भरोसे बन गए। योगेश को उम्मीद है कि ये फार्मूला अगर हर गाँव में अपना लिया जाए और कलेक्टर इस पर ध्यान दे तो तालाब खुदवाने पर अलग से खर्च करने की जरूरत नहीं है। पेयजल और निस्तार, दोनों इसी से निपट जाएं।

5. पांचवां फार्मूला बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने का है। गाँव में ऐसे कई खेत हैं, जो बंजर पड़े हैं। उन्हें उपजाऊ बनाने के लिये किसानों के पास पैसे नहीं हैं। हाल ही में वलनी में केशव और योगेश ने ये प्रयोग किया। एक बंजर जमीन पर तालाब की मिट्टी डलवाई और उस हिस्से में मंडवा लगाकर करेला, चौलाई, सेम, कद्दू, लौकी, तुरई जैसी बेलवर्गीय फसल लगाईं। नतीजा, चौंकाने वाला था। इतनी फसल हुई कि आसानी से कोई किसान लागत और मुनाफा निकाल ले। छोटे और भूमिहीन किसानों को ये प्रयोग पसंद आये और वे इन्हें बड़े पैमाने पर करने की तैयारी कर रहे हैं।

6. छठा फार्मूला श्रमदान का है, जो गाँव में परिवर्तन ले आया है। हर सप्ताह गाँव के कुछ लोग, बच्चे, बूढ़े और जवान चार घंटे ग्राम सफाई करते हैं। स्कूल के छात्र और अध्यापक भी। इससे गाँव में घर के आस-पास ही कूड़ा फ़ैलाने की प्रवत्ति पर रोक लगने लगी है। खासकर प्लास्टिक पन्नी से होने वाला कचरा कम हो गया है।

7. सातवाँ फार्मूला टिकोमा गौड़ी चौड़ी के बारहमासी फूलदार पौधे लगाने का है, ताकि गाँव सुन्दर दिखे। वलनी ने सफलतापूर्वक इस काम को पूरा किया और इसके लिये बेकार पड़ी चीजों से कठघरा भी तैयार किया है, ताकि पशु उसे खा ना जाएं।

8. आठवां फार्मूला ग्राम के हर घर में शौचालय का है। यह इस गाँव का अद्भुत प्रयोग था और श्रमदान के चलते अब यहाँ 99 फ़ीसदी घरों में शौचालय हैं। इसके लिये गाँव को राष्ट्रपति से निर्मल ग्राम पुरस्कार भी मिला।

9. नौवां फार्मूला हर घर में पेयजल के लिये नल का था। पंचायत ने इसके लिये टंकी बनाई और फिल्टर, शुद्ध जल सप्लाई किया जाता है। इससे लोगों के स्वास्थ्य में सुधार तो आया ही, पानी के लिये आपसी झगड़े भी बंद हो गए।

10. दसवां फार्मूला पीढ़ी दर पीढ़ी इस गहरे ज्ञान को बनाये रखने के लिये दी जाने वाली सीख है, ताकि भविष्य में भी ये सब चलता रहे।

योगेश अनेजा इस फार्मूले को कहते हैं : 1-100-1000-10000.


वलनी गांव के तालाब में भरा पानीवलनी गांव के तालाब में भरा पानीउनकी परिभाषा में एक का मतलब हर सप्ताह एक घंटे का श्रमदान। सौ का मतलब 100 छोटे-बड़े तालाब। 1000 का अर्थ एक हज़ार टिकोमा गौड़ी-चौड़ी के पेड़ लगाना, ताकि तितली, भौंरे, मधुमक्खी समेत मनुष्य-मित्र कीट बचे रहे। 10000 के मायने 10000 बेलवर्गीय खेती के मंडवे पूरे गाँव में तैयार करना, ताकि कोई भूखा ना रहे। वे कहते हैं देश के पॉँच लाख गाँव के बीच वलनी एक दरोगा की तरह खड़ा है कि पानी की लूट रोकी जा सके।

वलनी गाँव की कथा के ये कुछ अध्याय हैं। पूरी महागाथा सुनने और गुनने के लिये आपको आना होगा इस गाँव तक। ग्राम तालाब की लड़ाई अभी पूरी नहीं हुई है। तहसीलदार और कलेक्टर ने हाथ खड़े कर दिए हैं। कहते हैं सरकारी जमीन पर पंचायत को कब्ज़ा दिलाने के लिये बड़ी अदालत में मुक़दमा लड़ना पड़ेगा। सत्य के आग्रही इसे नहीं मानते। वे कहते हैं : शायद, जमींदार का दिल बदल जाए और वह अपना अवैध कब्ज़ा छोड़ दे। इन दिनों वे तालाब की पार तैयार करने में जुटे हैं।

 

 

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