बुन्देलखण्ड : संकट में उम्मीद का सहारा

15 Jan 2016
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बुन्देलखण्ड यात्रा के दौरान आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार के सदस्यों से मिलने पर बार-बार यह अहसास हुआ कि वे अपने को बहुत अकेला महसूस कर रहे हैं। आर्थिक तंगी के अतिरिक्त कई महिलाओं को और भी कई तरह की परेशानियों को झेलना पड़ रहा है जैसे उनसे ज़मीन छीनने के प्रयास हो रहे हैं। इस स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि उनकी समस्याओं पर तुरन्त ध्यान दिया जाये।

उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड अंचल के बाँदा जिले (बिसंडा ब्लाक) के ओरम गाँव में मन्नूलाल के घर में गहरी उदासी जैसे पसर कर बैठ गई है और वहाँ से जाने का नाम नहीं ले रही है। कुछ महीनों पहले मन्नूलाल ने इसी आँगन में दिन दहाड़े एक पेड़ से फाँसी लगा ली थी।

आसपास के कई लोग देखते रह गए और गहरे आवेश और अवसाद से त्रस्त मन्नूलाल ने गले में फंदा डालकर अपना जीवन समाप्त कर दिया।

उस समय तमाम अधिकारी आये और उन्होंने सहायता के आश्वासन दिये पर वास्तव में इस परिवार को कोई सहायता नहीं मिली। दिसम्बर माह में जब हम यहाँ पहुँचे तब उनकी पत्नी कहीं मजदूरी के लिये गई हुई थी।

एक बेटा प्रवासी मज़दूर के रूप में किसी दूर के क्षेत्र में जा चुका था, छोटा बेटा आसपास ही मजदूरी की तलाश में भटक रहा था व बेटी श्यामा बहुत उदास और अकेली बैठी हुई थी। वह इतनी दुखी और निराश थी कि कुछ बोल ही नहीं पा रही थी।

बुन्देलखण्ड यात्रा के दौरान आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार के सदस्यों से मिलने पर बार-बार यह अहसास हुआ कि वे अपने को बहुत अकेला महसूस कर रहे हैं। आर्थिक तंगी के अतिरिक्त कई महिलाओं को और भी कई तरह की परेशानियों को झेलना पड़ रहा है जैसे उनसे ज़मीन छीनने के प्रयास हो रहे हैं। इस स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि उनकी समस्याओं पर तुरन्त ध्यान दिया जाये।

बांदा जिले के सामाजिक कार्यकर्ता राजा भैया बताते हैं कि आत्महत्या से प्रभावित परिवारों की विस्तृत जानकारी एकत्र कर उन्होंने सरकार को उपलब्ध करवाई थी। इसके लिये लखनऊ में उच्चस्तर पर बातचीत भी हुई थी। कई परिवारों को सहायता राशि मिली भी है, पर मन्नूलाल जैसे कई परिवारों को बिना कोई कारण बताए इस सहायता से वंचित रखा गया।

महोबा जिले के सामाजिक कार्यकर्ता अभिषेक मिश्र ने भी आत्महत्या से प्रभावित अनेक परिवारों की जानकारियाँ जुटाने के लिये बहुत दौड़-धूप की थी। वे बताते हैं कि कई प्रयासों के बावजूद इन परिवारों को समुचित सहायता नहीं मिल सकी और प्रभावित महिलाएँ अपनी समस्याओं को लेकर भटक रही हैं।

इन विकट स्थितियों में उम्मीद को जीवित रखना बहुत जरूरी है। इस तरह के गम्भीर हादसों से प्रभावित परिवारों से प्रशासन को सम्पर्क रखना चाहिए और जो सरकारी सहायता स्वीकृत हुई है उसे सम्मानजनक ढंग से प्रभावित परिवारों तक पहुँचाना चाहिए। उनकी अन्य समस्याओं को भी प्राथमिकता के आधार पर सुलझाना चाहिए।

सूखाग्रस्त क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर उम्मीद बनी रहे, इसके लिये रोज़गार कार्य आरम्भ करने के साथ समय पर उचित मजदूरी का भुगतान करना भी बहुत जरूरी है।

मानिकपुर प्रखण्ड में एक नवनिर्वाचित ग्राम प्रधान ने बताया कि इस क्षेत्र में ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे जहाँ कई महीने पहले मनरेगा का कार्य करने वाले मज़दूरों को आज तक मजदूरी नहीं मिली है। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में तो ऐसा अन्याय कभी नहीं होना चाहिए कि देर तक मजदूरी ही न मिले।

इन कार्यों के अन्तर्गत जल व मिट्टी संरक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य करने की बड़ी सम्भावनाएँ हैं जिससे आगे चलकर किसानों को बेहतर उत्पादन प्राप्त करने में व कम वर्षा के समय में भी अपनी खेती-किसानी की रक्षा में बहुत मदद मिलेगी। विशेषकर खेत तालाब बनाने का कार्य काफी उपयोगी रहा है।

एक सवाल सामने है कि क्या मनरेगा व सूखा-राहत के बजट का सही उपयोग इस तरह हो सकेगा कि वास्तव में मिट्टी व जल संरक्षण की बड़ी उपलब्धि प्राप्त हो?

चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र में वाटरशेड परियोजनाओं में कार्य भलीभाँति तकनीकी कुशलताओं के किया गया है, वहाँ कुछ गाँवों में दिसम्बर महीने में भी तालाबों में सिंचाई के लिये व पशुओं से पीने के लिये पानी उपलब्ध था। मनगवाँ के किसान कोदू कोल ने मुस्कराते हुए कहा, “इस पानी का उपयोग कर मैं इस वर्ष भी परिवार के लिये पर्याप्त अनाज अपने खेत से प्राप्त कर सकता हूँ।”

इन वाटरशेड कार्यों को अखिल भारतीय समाजसेवा संस्थान ने कार्यान्वित किया। इस संस्थान के निदेशक भागवत प्रसाद बताते हैं, “हमारा यह प्रयास रहा कि बाहरी तकनीकी कुशलता व सुझाव तो जरूरत पड़ने पर प्राप्त किये जाएँ, पर साथ में स्थानीय आदिवासियों व अन्य किसानों व उनकी स्थानीय समितियों के नज़दीकी सहयोग से ही कार्य किया जाये। तभी यह कार्य उनकी खेती-किसानी को बेहतर करने में सफल होगा।”

भागवत प्रसाद यहाँ व टीकमगढ़ जिले में जैविक खेती के प्रयोगों से भी उत्साहित हैं। उन्होंने बताया कि इस तरह जहाँ एक ओर किसानों का खर्च कम हुआ, वहाँ उनका उत्पादन व आय बढ़ाने में सहायता मिली।

जालौन जिले में जनकल्याण संस्था के कार्यक्षेत्र में भी जैविक कार्य की अच्छी सफलता नजर आई है वह भी महिला किसानों की उत्साहवर्धक भागीदारी से। यहाँ व कानपुर जिले के कुछ प्रयासों से स्पष्ट होता है कि जैविक खेती के प्रसार से महिलाओं की विशेष रुचि है क्योंकि इससे उनकी आत्मनिर्भरता बढ़ती है।

खर्चीली व बाहरी निवेश निर्भर खेती के स्थान पर महिला किसान आत्मनिर्भरता की खेती करना चाहती हैं फिर चाहे इसके लिये उन्हें अधिक मेहनत करनी पड़े।

इस समय तो तुरन्त राहत पहुँचाने की जरूरत है पर दीर्घकालीन स्तर पर देखें तो जल व मिट्टी संरक्षण तथा जैविक खेती से खेती-किसानी को बहुत राहत मिल सकती है तथा इस ओर समुचित ध्यान देना बहुत जरूरी है।

सूखे व अन्य तरह के प्रतिकूल मौसम का संकट इस जलवायु बदलाव के दौर में किसानों के लिये बढ़ता जा रहा है। अतः सरकारों को स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि वे किसानों के हित से जुड़े कार्यक्रमों व आपदा प्रबन्धन के लिये आगामी वर्षों में अधिक संसाधन उपलब्ध करवाएँगी।

इसके अतिरिक्त शहरी लोगों को भी गाँवों व विशेषकर किसानों की समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए तथा सूखे से त्रस्त किसानों की सहायता के लिये आपसी सहयोग से प्रयास होना चाहिए।
 

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