बुंदेलखंडः केन-बेतवा नदी को जोड़ने की योजना


बुंदेलखंड में जल्द ही नदियों को जो़डने की परियोजना शुरू होने वाली है। उत्तर प्रदेश का जनपद बुंदेलखंड खनिज संपदा से भरपूर होने के बाद भी अति पिछड़ेपन से जूझ रहा है। यहां की धरती से लगभग 40,000 कैरेट हीरा निकाला जा चुका है और लगभग 14,00,000 कैरेट हीरे का भंडार मौजूद है। इस क्षेत्र का दोहन करने के लिए तो तमाम प्रयास किए जाते है पर यहां की समस्याओं से किसी को भी कोई सरोकार नहीं है। हरियाली और पानी की बूंद को तरसता बुंदेलखंड हर तीन साल में सूखा झेलता है। यहां जीवकोपार्जन का मूल माध्यम खेती है लेकिन जब पीने को पानी न हो तो यहां के लोग खेती के लिए पानी कहां से लाए। यहां कि सबसे बड़ी समस्या पानी कि समस्या है जिसे दूर करने के लिए सरकार यहीं से देश के पहले नदी-जोड़ो अभियान की शुरुआत कर रही है। पर सोचने वाली बात तो यह है कि क्या इन प्रयासों से वहां कि जनता का सच में कुछ भला हो भी पाएगा या नहीं। जानकारों की मानें तो यह परियोजना यहां के पर्यावरण और जीवन के लिए हानिकारक है।

बुंदेलखंड में पानी और फसल के लिए तरस रहे हैं किसानों कि परेशानियां यहीं ख़त्म नहीं होती, यहां ग्रेनाइट पत्थर की कटाई से निकली धूल ने खेतों को बंजर बना दिया है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर इस क्षेत्र का भरपूर दोहन किया जा रहा है, पर यहां कि समस्याओं को दूर करने के लिए कोई आगे नहीं आना चाहता।

पर बिना किसी बताए जाने के बाद भी बुंदेलखंड में केन-बेतवा को जोड़ने का काम चल रहा है। सूखी नदियों को सदा जल से भरी रहने वाली नदियों से जोड़ने की बात आज़ादी के समय से ही शुरू हो गई थी। पर पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने वाले ख़र्चीली और अपेक्षित नतीजे न मिलने के डर से ऐसी परियोजनाओं पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया। केन-बेतवा जोड़ने की परियोजना को अगर देखा जाए तो लागत ज़्यादा नुक़सान और फायदे कम हैं। सरकार के लिए यह बड़ी उपलब्धि हो सकती है पर यहां के लोगों को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। नदियों का पानी समुद्र में न जाए- इसे लेकर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं। दोनों नदियों का उद्‌गम स्थल मध्यप्रदेश है जो एक इलाक़े से लगभग समानांतर बहती हुई उत्तर प्रदेश में यमुना में मिल जाती हैं। दोनों नदियों को जोड़ने से केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा का हाल भी यही होगा। केन का इलाक़ा भयंकर जल-संकट से जूझ रहा है।

2005 में मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश सरकार के बीच इस परियोजना व पानी के बंटवारे को लेकर एक समझौते पर दस्तखत हुए। 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने परियोजना में पन्ना नेशनल पार्क के हिस्से को शामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया। 11 जनवरी 2005 को केंद्र के जल संसाधन विभाग के सचिव की अध्यक्षता में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मुख्य सचिवों की बैठक में केन-बेतवा को जोड़ने के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने स्पष्ट कहा था कि केन का पानी बेतवा में मोड़ने से केन के जल क्षेत्र में भीषण जल संकट उत्पन्न हो जाएगा। केंद्रीय सचिव ने गोल-मोल जवाब देते हुए कह दिया कि इस पर चर्चा हो चुकी है, अत: अब कोई विचार नहीं किया जाएगा।

केन-बेतवा के मिलने से राजघाट व माताटीला बांध पर खर्च अरबों रुपए व्यर्थ जाएगा। साथ ही यहां बन रही बिजली से हाथ धोना प़डेगा। केन-बेतवा को जोड़ना बेहद संवेदनशील है पर इसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा। यह परियोजना बनाते समय विचार ही नहीं किया गया था कि बुंदेलखंड में जौ, दलहन, तिलहन, गेंहू जैसी फसलों के लिए अधिक पानी की ज़रूरत नहीं होती है। जबकि इस योजना में सिंचाई की जो तस्वीर बताई गई है, वह धान जैसे अधिक सिंचाई वाली फसल के लिए कारगर है। ज़ाहिर है परियोजना तैयार करने वालों को बुंदेलखंड की भूमि, उसके उपयोग आदि की वास्तविक जानकारी नहीं है और क़रीब 2000 करोड़ रुपए की 231 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से केन का पानी बेतवा में डालने की योजना बना ली गई है। यह भी दुर्भाग्य ही है कि दोनों नदियों को जोड़ने के बारे में नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है, वह 20 साल पहले तैयार की गई थी। इस परियोजना से न जाने कितने लोग विस्थापित होंगे। इस परियोजना से पन्ना के राष्ट्रीय पार्क का बड़ा हिस्सा भी प्रभावित होगा साथ ही केन नदी में रहने वाले घड़ियालों के पर्यावास पर भी प्रभाव प़डेगा।

इसके कारण कई हज़ार हेक्टेयर सिंचित भूमि भी बर्बाद हो जाएगी। परियोजना का कार्यकाल नौ साल बताया जा रहा है, लेकिन अबतक की परियोजनाओं को देखकर नहीं लगता कि यह अपने निर्धारित समय से दोगुने समय तक भी पूरा हो पाएगा। भाविष्य में इस परियोजना से लोगों को कितना लाभ मिलेगा यह तो पता नहीं, पर अच्छे भविष्य की चाह में लोगों को अपना वर्तमान अवश्य खराब करना प़ड रहा है। सोचने वाली बात तो यह भी है कि जिन लोगों के लिए यह सब किया जा रहा है, उनकी सहमति इस मामले पर लेने कि ज़रूरत भी नहीं समझी गई। इसमें अरबों रुपए बर्बाद होंगे, हज़ारों लोगों का घर उजाड़ा जाएगा लेकिन इस बारे में आम लोगों को न तो जानकारी दी जा रही है एवं न उनकी राय ली गई। बुंदेलखंड में लगभग चार हज़ार तालाब हैं। इनमें से आधे कई किलोमीटर वर्ग क्षेत्रफल के हैं। सदियों पुराने ये तालाब स्थानीय तकनीक व शिल्प का अद्भुत नमूना हैं। अगर सरकार सच में यहां के लोगों के समस्याओं को दूर करना चाहती है तो सरकार को इन तालाबों को गहरा करने व उनकी मरम्मत पर विचार करना चाहिए। साथ ही बारिश के मौसम में केन को उसकी ही उपनदियों बन्ने, केल, उर्मिल, धसान आदि से जोड़ी जाती तो शायद पानी की समस्या का कारगर उपाय निकल आता। बुंदेलखंड में पानी और फसल के लिए तरस रहे हैं किसानों कि परेशानियां यहीं ख़त्म नहीं होती, यहां ग्रेनाइट पत्थर की कटाई से निकली धूल ने खेतों को बंजर बना दिया है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर इस क्षेत्र का भरपूर दोहन किया जा रहा है, पर यहां कि समस्याओं को दूर करने के लिए कोई आगे नहीं आना चाहता।
 

 

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