भारत की योजनाओं में निरन्तरता का समायोजन

26 Jan 2015
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भारत में खाद्य, पेयजल, स्वास्थ्य व अन्य समस्याओं का टिकाऊ तरीके से समाधान के लिए हजारों पहल हुए हैं। सूचना का अधिकार कानून जैसे भारत में अनेक नीतिगत सफलताएँ भी प्राप्त हुई हैं। पर ये सारे फैले हुए हैं तथा अलग-थलग हैं और यह व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन लाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। पर्यावरणीय निरन्तरता को आर्थिक योजना में समाहित करने के भारत के प्रयास अभी तक कुछ भिन्न व संकोची रहे हैं। तेजी से हो रहे पर्यावरणीय नुकसान को रोकने तथा इससे जुड़े आजीविका, सांस्कृतिक तथा आर्थिक समस्याओं को निपटने के लिए हमने कोई खास काम नहीं किया है। इसके मूल में आर्थिक विकास के ऐसे मॉडल के साथ लगाव का जिद, खासकर, पिछले दो दशक से जारी अपने भूमण्डलीकृत स्वरूप में है, जो मूल रूप से गैर-टिकाऊ तथा अन्यायी है। इसे बदलने के लिए 12वीं योजना प्रक्रिया एक अवसर प्रदान करती है, विशेष रूप से जब इसमें टिकाऊपन, समावेशी तथा न्याय की प्रतिबद्धता स्पष्ट रूप से है। वास्तव में, इसमें भिन्न दृष्टिकोण की कुछ झलक मिलती है। उदाहरण के लिए आर्थिक गतिविधियों को जवाबदेह बनाने जैसे अपने संसाधनों के उपयोग तथा यहाँ से निकलने वाले कचरे के उपयोग के सम्बन्ध में, शहरी जल-संसाधन व सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना, कृषि के लिए जैविक इनपुट प्रदान करना, रि-साइक्लिंग को प्रोत्साहन देना, पर्यटन को पर्यावरण के प्रति जवाबदेह बनाना और समुदाय आधारित करना, न्यून कार्बन रणनीति की ओर आगे बढ़ना, आम लोगों द्वारा इस्तेमाल की जा रही पानी व भूमि को सुरक्षा प्रदान करना, इनका इस्तेमाल व प्रबन्धन करने में समुदायों को और अधिकार प्रदान करना आदि शामिल है। इसके बाद भी योजना अपने पुनर्विन्यास की दिशा में आशानुरूप सफल नहीं हो पाई है, खासकर वह अब भी इस धारणा में बँधी है कि ज्यादा समृद्धि से ही इन लक्ष्यों को हासिल कर लिया जाएगा।

टिकाऊ विकास के लिए किसी भी उपलब्ध रूपरेखा का उपयोग नहीं किया जा रहा है, इनमें 2002 में जोहान्सबर्ग में टिकाऊ विकास पर आयोजित वैश्विक सम्मेलन में तय रूपरेखा के तहत भारत ने जिस लक्ष्य को स्वीकार किया था, वह भी शामिल है। भारत टिकाऊ विकास की ओर अग्रसर हो रहा है या नहीं, इसे मापने के लिए सूचकों को समाविष्ट नहीं किया जा रहा है, उदाहरण के तौर पर प्रति व्यक्ति प्राकृतिक वन की उपलब्धता में बढ़ोत्तरी, विभिन्न प्रदूषणों के स्तर में कमी, पौष्टिक भोजन व शुद्ध जल की उपलब्धता में सुधार, सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में सुधार आदि। प्रत्येक आर्थिक क्षेत्र में पर्यावरणीय विवेचन को अब तक मानदण्डों में शामिल नहीं किया गया है।

वास्तविकता यह है कि हम वर्तमान में जिस पर्यावरणीय संकट से गुजर रहे हैं, उस पर गम्भीरता नहीं दिखा रहे हैं। प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र दबाव में है और यह पूरे देश में कमजोर होता जा रहा है। देश के 10 प्रतिशत वन्य जीवों पर समाप्ति का खतरा मण्डरा रहा है। अनेक क्षेत्रों में 90 प्रतिशत तक कृषि जैव-विविधता कम हो चुकी है। आधे से अधिक उपलब्ध जलाशय प्रदूषित हो गए हैं। यहाँ का पानी पीने योग्य नहीं रहा है, यहाँ तक कि कृषि के लिए उपयोग के योग्य भी नहीं रहा है। दो-तिहाई जमीन के जल स्तर में गिरावट आई है। विभिन्न शहरों में वायु प्रदूषण विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों के स्तर तक पहुँच गया है।

इलेक्ट्रॉनिक व रासायनिक समेत आधुनिक काचरा का इतने व्यापक पैमाने पर उत्पादन हो रहे हैं कि वह रि-साइक्लिंग या प्रबन्धन के हमारे सामर्य्क से अधिक है। भारत सरकार के आथिर्क सर्वेक्षण और पर्यावरण एवं वन विभाग की वार्षिक रिपोर्ट में पर्यावरण को हो रहे नुकसान के बारे में कभी-कभार स्वीकार किया जाता है। इस बारे में अधिक जानकारी स्वतन्र्र रिपोर्टों से प्राप्त होती है जैसे कि सेण्टर फॉर साइंस एण्ड एनवायरमेण्ट द्वारा प्रस्तुत स्टेट ऑफ इण्डियाज एनवायरमेण्टल डेमेजेज से। ग्लोबल फुटप्रिण्ट नेटवर्क एवं कनफेडरेशन ऑफ इण्डियन इण्डस्ट्रीज द्वारा 2008 में जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के पास विश्व का तीसरा सबसे अधिक फुटप्रिण्ट हैं, तथा इसके संसाधन का इस्तेमाल इसकी जैव क्षमता का दोगुना किया जा चुका है। इसके अलावा जैव क्षमता में भी कुछ दशकों से कमी आई है।

पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ तथा सांस्कृतिक दृष्टि से सही उपायों के जरिये सभी लोगों की अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुरक्षित तथा पर्याप्त संसाधनों तक पहुँच होना चाहिए। इसमें विकेन्द्रीकृत हार्वेस्टिंग व वितरण प्रणाली के जरिये सभी को सुरक्षित व पर्याप्त मात्रा में पेयजल उपलब्ध कराना, सुरक्षित व पर्याप्त मात्रा में भोजन, कृषि व पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली कार्यपद्धति पर प्राथमिक रूप से ध्यान देना...1991 में आर्थिक वैश्वीकरण ने प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्रों के विकास के लिए परिवर्तन करने के मामले में तेजी लाई। घरेलू उपयोग तथा बाहर निर्यात के लिए संसाधनों के शोषण में भी तेजी आई। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अब मौसम में अचानक बदलाव व तटीय इलाकों में भूमि के क्षरण के रूप में सामने आ रही है। देश में जलवायु से सम्बन्धित इस चुनौती का सामना करने के लिए कोई तैयारी नहीं है, विशेषकर, आगामी दिनों में इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाले गरीब लोगों के लिए सामग्रियों के ऐतिहासिक रुझान तथा ऊर्जा के इस्तेमाल से सम्बन्धित जो अनुमान दिए जा रहे हैं उससे भी पर्यावरण पर व्यापक घरेलू व वैश्विक प्रभाव के गम्भीर स्तर का पता चल रहा है।

वर्ष 2013 के आथिर्क सर्वेक्षण में स्थिति को सुधारने की चर्चा की गई है, जो निम्न है : ‘भारत के दृष्टिकोण से टिकाऊ विकास लक्ष्य, विकास व पर्यावरण के लक्ष्यों के एकमात्र सेट के रूप में साथ में लाया जाना चाहिए। वैश्विक सम्मेलनों में भी सबसे बड़ी कमजोरी पर्यावरण और विकास के बीच कुसंतुलन की उपस्थिति ही है। हमें टिकाऊ विकास लक्ष्यों पर भी गौर करना चाहिए और 2015 के बाद की कार्य योजना को शताब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) को निखारने के एक अवसर के रूप में देखते हुए विकास के मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।’

2000 में तैयार एमडीजी में गरीबी उन्मूलन, भुखमरी, पेयजल संकट, निरक्षरता, महिलाओं का शोषण, शिशु मृत्यु दर, बीमारी, पर्यावरण के विनाश आदि से निपटने के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए गए हैं। विभिन्न देशों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर तथा संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हो रही प्रगति की समीक्षा कर रहे हैं। साथ ही विकास के लिए नया वैश्विक ढाँचा तैयार करने के लिए चर्चा प्रारम्भ हो गई है जिससे पर्यावरणीय निरन्तरता सुनिश्चित करने के साथ-साथ सबका कल्याण हो सके। भारत को भी चाहिए कि वह इस मामले में अपनी सफलता (या विफलता) की प्रगति की पूर्णरूप से समीक्षा करे। यह भारतीय परिस्थितियों में 2015 के बाद नयी रूपरेखा तैयार करने के लिए एक अवसर प्रदान करेगा। यह रूपरेखा किस प्रकार की हो सकती है, इस सम्बन्ध में यह कुछ विचार हैं।

नये वैश्विक ढाँचे के तत्व


पर्यावरण के दृष्टि से टिकाऊ तथा न्यायोचित आधार पर कल्याण के लिए मौलिक रूप से एक अलग ढाँचा तैयार करना होगा। 2012 में टिकाऊ विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (रियो प्लस 20) के बाद जारी दस्तावेज में इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। वैश्विक लक्ष्य की नयी सूची में निम्नलिखित बातें शामिल रहेंगी :

1. प्रत्येक परिवार तथा समुदाय के लिए प्रकृति तथा प्राकृतिक संसाधनों के निष्पक्ष पहुँच के आधार पर पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित करना। (प्रकृति के अपने अधिकार का सम्मान करते हुए। एमडीजी-7 का विस्तार)

2. पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ व न्यायपूर्ण तरीके से उत्पादन व वितरण प्रणाली के जरिये सभी को पर्याप्त व पौष्टिक आहार उपलब्ध कराना। (वर्तमान में एमडीजी-1 का हिस्सा)

3. पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ व न्यायसंगत तरीकों से युक्त हार्वेस्टिंग व वितरण प्रणालियों के जरिये सभी के लिए सुरक्षित व पर्याप्त पानी की व्यवस्था सुनिश्चित करना। (एमडीजी-7 का हिस्सा)

4. बीमारियों की रोकथाम तथा अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए ऐसे उपाय करना जो पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ हों। (वर्तमान एमडीजी-6 का हिस्सा)

5. सभी को समान रूप से ऊर्जा स्रोत तक पहुँच उपलब्ध कराना। ऐसे उपायों के माध्यम से जो पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ हों। (जितना अधिक से अधिक तकनीकी व आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य हो। वर्तमान एमडीजी में नहीं हैं।)

6. सभी के लिए समान रूप से सीखने के अवसर तथा शिक्षा तक पहुँच उपलब्ध कराना, जिसके माध्यम से पर्यावरण के सम्बन्ध में संवेदनशीलता व ज्ञान बढ़ सके। (सांस्कृतिक, तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक व अन्य आयाम। वर्तमान एमडीजी-2 का विस्तार)

7. सभी के लिए सुरक्षित, टिकाऊ तथा समान आवास व्यवस्था, इसमें पर्याप्त व सही छत, स्वच्छता, जनसुविधाएँ, सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था आदि सुनिश्चित करना (वर्तमान एमडीजी-7 का हिस्सा, कुछ हिस्से नहीं है)

अधिकार आधारित तथा सशक्तीकरण के आधार पर उपरोक्त बातों के लिए महिला व बच्चों के लिए विशेष आवश्यकता पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है (वर्तमान एमडीजी-3, 4, 5 में है)। इस तरह के ढाँचों का कुछ वैश्विक सिद्धान्तों पर आधारित होना आवश्यक है जिनमें शामिल हैं :

1. पृथ्वी पर निहित समस्त जीवन में उपस्थित पर्यावरणीय प्रक्रिया तथा जैविक विविधता में क्रियात्मक निष्ठा तथा लचीलापन, जिसका सम्मान करने पर मानवीय गतिविधियों की पर्यावरणीय सीमा की अनुभूति होती है। साथ ही, प्रकृति का अधिकार एवं सभी प्रजातियों को अपने जन्मानुकूल परिस्थितियों में जीवन बिताने का अवसर देना।

2. वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ी के लिए, मानव के कल्याण के लिए आवश्यक स्थितियों (सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय एवं एक निश्चित खाद्य के लिए, जल, आवास, ऊर्जा, स्वास्थ्य) की समस्त लोगों के लिए समान रूप से पहुँच, मानव व प्रकृति के अन्य तत्वों के साथ सबके लिए न्याय एवं सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरणीय न्याय।

3. प्रत्येक व्यक्ति व समुदाय को अपने जीवन को प्रभावित करने वाले समस्त महत्वपूर्ण निर्णयों में सार्थक रूप से भागीदारी करने का अधिकार एवं ऐसी स्थिति जो सहयोगी भागीदारी लोकतन्त्र में उसकी सहभागिता उपलब्ध कराए।

4. पर्यावरणीय पूर्णता तथा सामाजिक-आर्थिक समानता के दोहरे सिद्धान्त के आधार पर सार्थक निर्णय लेने को सुनिश्चित करना प्रत्येक नागरिक तथा समुदाय का उत्तरदायित्व हो।

5. जब तक टिकाऊपन व न्याय के सिद्धान्त के साथ सामंजस्य पर सहमति है तब तक पर्यावरण, प्रजाति, जीन, संस्कृति, रहन-सहन के तरीके, ज्ञान प्रणाली, मूल्य, अर्थशास्त्र, आजीविका एवं राज-व्यवस्था की विविधता का सम्मान करना।

6. सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय क्षेत्र में सामूहिक व सहकारी चिन्तन एवं कार्य। इस तरह की सामूहिकता में आम रक्षकता तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता दोनों का सम्मान।

7. परिवर्तन के बाह्य व आन्तरिक कारकों में न्यायसंगतता लाने के साथ ही समुदायों और मनुष्यों को सक्षम बनाना ताकि वे पर्यावरणीय सततता के लिए आवश्यक लचीलापन, अनुकूलन और प्रतिक्रिया प्रस्तुत कर सकें।

8. मानव सभ्यता के विभिन्न पक्षों के बीच और इस तरह ‘विकास’ या ‘बेहतरी’ के किसी भी सेट में पर्यावरणीय, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक लक्ष्यों के बीच अटूट परस्पर अन्तर्सम्बन्ध।

भारत के लिए रूपरेखा


भारत के लिए नयी टिकाऊ रूपरेखा की योजना बनाने में निम्नलिखित लक्ष्य शामिल होंगे :

माइक्रो आर्थिक नीति


माइक्रो आर्थिक रूपरेखा में आवश्यक फेरबदल करने होंगे ताकि इसके मूल में आर्थिक टिकाऊपन, मानवीय कल्याण तथा सामाजिक-आर्थिक न्याय को रखा जा सके। इसमें वृहत अर्थशास्त्रीय सिद्धान्तों को विकसित किए जाने तथा ऐसी संकल्पना तैयार करने जिसके मूल में पर्यावरणीय सीमा व सामाजिक आर्थिक न्याय होना शामिल हैं। पर्यावरणीय टिकाऊपन एवं इससे सम्बन्धित मानव सुरक्षा तथा समानता के लक्ष्य को हासिल करने वित्तीय उपाय जैसे— कर निर्धारण, सब्सिडी एवं अन्य वित्तीय प्रोत्साहन या हतोत्साहन आदि उपाय किए जाने की आवश्यकता है। विकेन्द्रीकरण तथा भागीदारी प्रक्रिया आधारित एक दीर्घकालीन राष्ट्रीय भूमि एवं जल इस्तेमाल योजना तैयार किए जाने की आवश्यकता है।

आवश्यक उपकरणों के जरिये मानवीय कल्याण के सूचकांकों के निर्धारण की आवश्यकता है ताकि वर्तमान में प्रचलित जीडीपी व अन्य आर्थिक विकास के मापकों को बदला जा सके।

राजनीतिक शासन प्रणाली


यह भी उपरोक्त बिन्दु की ही तरह महत्वपूर्ण है और इसके लिए नयी राज व्यवस्था चाहिए। सहभागी लोकतान्त्रिक प्रणाली के सिद्धान्तों व कार्य प्रणाली में ग्रामीण तथा शहरी छोटी बस्तियों को मूल इकाई के रूप में लेकर सभी निर्णायकों को शामिल करने की आवश्यकता है। पंचायतों, शहरी वार्डों और जनजातीय परिषदों जैसी संस्थाओं को न केवल मजबूत करना होगा बल्कि मौलिक इकाइयों के रूप में इनके संचालन तथा सभी नागरिकों की इनमें भागीदारी के लिए कुछ बदलाव भी करने होंगे। बड़े पैमाने पर प्रतिनिधियों की जवाबदेही तय करने के लिए रास्ते निकालने पड़ेंगे (उदाहरण के लिए वापस बुलाने का अधिकार)। इन्हें उच्च स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर तक तैयार करने होंगे। तत्काल कदम के रूप में पर्यावरण मामलों के देखने के लिए एक स्वतन्त्र संस्था जैसे पर्यावरण (या टिकाऊ कल्याण) आयुक्त के कार्यालय का गठन किया जा सकता है। सीएजी या फिर मुख्य चुनाव आयुक्त की तरह इस कार्यालय के आयुक्त को सांविधानिक दर्जा प्रदान किया जा सकता है।

जीवन के प्राकृतिक आधार की रक्षा करना


संसाधनों का तथा जैव-विविधता के प्रति नुकसान को कम करके व समाप्त करके तथा खराब हो चुके पारिस्थितिक तन्त्र को पुनः ठीक कर प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र, वन्य-जीव तथा जैव-विविधता की शुद्धता सुनिश्चित किया जाना चाहिए। प्रकृति तथा मानवेतर प्रजातियों को संविधान में अधिकार प्रदान करने, पूर्णरूप से भागीदारी तथा लोकतान्त्रिक तरीके से जैव-विविधता संरक्षण के लक्ष्य को हासिल करने, सहयोग करने तथा अपने कार्यक्षेत्रों को इस दिशा में व्यापक करना आदि शामिल है। इसके अलावा ग्रामीण व शहरी इलाकों में भूमि व जल के व्यवहार गतिविधि को लेकर संरक्षण सिद्धान्त व व्यवहार तथा वन्य-जीव तथा पर्यावरण को जहरीला करने वाले कृषि, उद्योग में इस्तेमाल हो रहे रसायनों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना आदि शामिल है।

सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करना


पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ तथा सांस्कृतिक दृष्टि से सही उपायों के जरिये सभी लोगों की अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुरक्षित तथा पर्याप्त संसाधनों तक पहुँच होना चाहिए। इसमें विकेन्द्रीकृत हार्वेस्टिंग व वितरण प्रणाली के जरिये सभी को सुरक्षित व पर्याप्त मात्रा में पेयजल उपलब्ध कराना, सुरक्षित व पर्याप्त मात्रा में भोजन, कृषि व पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली कार्यपद्धति पर प्राथमिक रूप से ध्यान देना, गरीबों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा अन्य योजनाओं में स्थानीय रूप से उत्पादन तथा क्रय-विक्रय, प्रदूषण रहित हवा, सभी के लिए टिकाऊ आवास, समुदाय आधारित, स्थानीय रूप से सही पद्धति के जरिये सबको ऊर्जा सुरक्षा, विद्यमान उत्पादन के स्रोतों व वितरण प्रणाली को बढ़ाना, माँगों को नियन्त्रित करना (विशेष कर विलासिता के माँगों को खारिज करना), विकेन्द्रीकृत नये उत्पादन नवीकरण योग्य स्रोतों तथा परिवार व समुदायों को पर्याप्त मात्रा में स्वच्छता सुविधा प्रदान करने पर ध्यान केन्द्रित करना आदि शामिल है।

सार्वजनिक रोजगार तथा आजीविका का सुनिश्चित करना


टिकाऊ तथा सांस्कृतिक दृष्टि से सही तथा सम्मानित आजीविका प्रत्येक परिवार व समुदाय के लिए सुनिश्चित करना। प्राकृतिक संसाधन आधारित आजीविकाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए (जैसे— जंगल आधारित, मछली-पालन, कृषि, शिल्पकला) जो कि पहले से ही टिकाऊ है। इसके अलावा सभी क्षेत्रों में गैर-टिकाऊ, असुरक्षित तथा अप्रतिष्ठित आजीविका को बदल कर सम्मान वाला कार्य ‘हरित रोजगार’ (आईएलओ के अनुसार जहाँ पारम्परिक क्षेत्र के मुकाबले अधिक रोजगार प्राप्त होता है) करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पर्यावरणीय रख-रखाव व सम्पोषण से जुड़े आजीविका पर अधिक निवेश किए जाने चाहिए।

टिकाऊ उत्पादन व उपभोग सुनिश्चित करना


समस्त उत्पादन व उपभोग पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ होने चाहिए तथा सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से न्यायसंगत होने चाहिए। इसका अर्थ है कि गैर-टिकाऊ कृषि, मछली-पालन, खनन, औद्योगिक व अन्य उत्पादन प्रक्रियाओं को बदल कर इन्हें टिकाऊ में परिवर्तित किया जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि प्रोत्साहनों व कानूनों द्वारा कच्चे माल से लेकर उत्पादन, पुनर्चक्रण तक सभी चरणों में टिकाऊपन की जिम्मेदारी विस्तारित उत्पादकों की जिम्मेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए एवं गैर-टिकाऊ उपभोग पर रोक लगाए जाने के साथ-साथ इसे प्रोत्साहन दे रहे विज्ञापनों पर भी रोक लगाया जाना चाहिए। शायद इसके लिए गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की तर्ज पर उपभोग रेखा से ऊपर (एसीएल) जैसी एक व्यवस्था लागू करनी चाहिए जो वैसे नवाचारों और सततता सम्पोषक प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा दें और उनके प्रयोग को अपरिहार्य बनाएँ जो उत्पादों और प्रक्रियाओं की संसाधन उपभोग दर को कम कर सकें तथा ऐसी प्रथाओं को हतोत्साहित करते हुए धीरे-धीरे खत्म करें जो निहित रूप से टिकाऊ और न्यायसंगत नहीं हैं इस तरह एक कचरामुक्त समाज की ओर बढ़े।

टिकाऊ आधारभूत संरचना सुनिश्चित करना


आधारभूत संरचना का विकास निश्चित तौर पर पर्यावरणीय दृष्टि में टिकाऊ होना चाहिए तथा सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में निष्पक्ष होना चाहिए। वर्तमान में मौजूद आधारभूत संरचना में टिकाऊपन के कार्य प्रणाली को शामिल करना, गैर-टिकाऊपन कार्य प्रणाली को टिकाऊपन कार्य प्रणाली में परिवर्तित करना (उदाहरण के लिए व्यक्तिगत परिवहन के स्थान पर सार्वजनिक परिवहन पर ध्यान देना) एवं नया आधारभूत संरचना पर्यावरणीय टिकाऊपन के सिद्धान्त पर निर्मित करना अपरिहार्य है।

सेवा व कल्याण के क्षेत्र में टिकाऊपन को सुनिश्चित करना


समस्त सेवा व कल्याण क्षेत्र में पर्यावरणीय टिकाऊपन के सिद्धान्त व कार्य प्रणाली का समावेश किया जाना अत्यन्त जरूरी है। खराब पर्यावरण के कारण होने वाले खराब स्वास्थ्य को रोका जाए (उदाहरण के लिए असुरक्षित व अपर्याप्त खाद्य व जल), पर्यावरण की दृष्टि में अच्छी आरोग्यकारी कार्य प्रणाली (इसमें प्रकृति आधारित स्वदेशीय प्रणाली आदि शामिल है) को स्वास्थ्य सेवा में ध्यान दिया जाना चाहिए। स्थानीय एवं विस्तृत पर्यावरणीय, सांस्कृतिक एवं ज्ञान प्रणाली का शिक्षा नीति व कार्य प्रणाली में समावेशन किया जाना चाहिए। पर्यावरणीय संवेदनशीलता प्रत्येक विषय का हिस्सा बनें यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। पर्यटन व यात्रा को भी इस तरह के कार्य प्रणाली में परिवर्तित किए जाने की आवश्यकता है, जो पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ हो, सांस्कृतिक दृष्टि से सही हो तथा स्थानीय समुदाय द्वारा चलाया जा रहा हो।

इन प्रत्येक उद्देश्यों के लिए निश्चित लक्ष्य एवं कार्रवाई तथा इसकी सफलता व विफलता के स्तर के आकलन के लिए सूचक रहेगा। इसके आकलन में सहायता करने के लिए उपकरणों के एक सेट की भी आवश्यकता रहेगी। वर्तमान में पूरे विश्व में तथा भारत में ऐसे अनेक सूचकों व उपकरणों का इस्तेमाल किया जा रहा है या फिर किए जाने का प्रस्ताव है, जिससे हम सूचकांकों का एक सेट तैयार कर सकें जो मजबूत हो। जो आकलन करने में आसान हो, लोगों की समझ व प्रतिभागिता के लिए सहज हो, जटिलता व भेदों को सम्मिलित करने की क्षमता रखता हो। भारत के बाहर इस तरह के कुछ रोमांचक कार्य किए जा रहे हैं जैसे कि न्यू इकोनॉमिक्स फाउण्डेशन द्वारा खुशहाल ग्रह सूचकांक, भूटान के सकल राष्ट्रीय खुशहाली सूचकांक, पर्यावरण व अति संवेदनशीलता सूचकांक व अन्य को जाँचा जा सकता है। पर्यावरणीय या कार्बन फुटप्रिण्ट, राष्ट्रीय कल्याण कोष, पर्यावरणीय अकाउण्टिंग एवं बजटिंग व अन्य उपकरणों को सम्मिलित कर टिकाऊपन व निष्पक्षता का आकलन किया जा सकता है।

पर यह केवल नम्बरों का लक्ष्य हासिल करने वाला काम नहीं बनना चाहिए या फिर जो लक्ष्य हासिल हुआ है उसकी मशीनीकृत गणना नहीं होना चाहिए। इसमें पूर्णतावादी दृष्टि को सम्मिलित करना चाहिए जिसकी बुनियाद टिकाऊपन, निष्पक्षता तथा कल्याण होना चाहिए।

बाधाओं पर विजय प्राप्त करना


उपर्युक्त स्थिति हासिल करने में अनेक बाधाएँ हैं। इनमें पर्यावरण पर मानवीय गतिविधियों का प्रभाव के विषय में अपर्याप्त समझ, विभिन्न ज्ञान प्रणाली के बीच तनाव के कारण सहक्रियाशील नवीनता में रुकावटें पैदा होना, राजनीतिक नेतृत्व जिसमें से अधिकतर के पास पर्यावरण का ज्ञान कम होना, अनुत्तरदायी कॉर्पोरेट, सामरिक शक्ति एवं आम लोगों के बीच असहाय होने की भावना शामिल हैं।

अगर हमें इन बाधाओं से पार पाना है तो हमें, क्षेत्र में या फिर नीतिगत स्तर पर, देश में या फिर वैश्विक स्तर पर जो विकल्प विद्यमान हैं उनका सहयोग करना होगा तथा उससे सीखना होगा। टिकाऊ तथा गैर-टिकाऊ रुझानों, वर्तमान में उपलब्ध सूचनाओं का सभी जगहों से एकत्र करना चाहिए और समझ में शून्यता को पूर्ण करने के लिए अधिक सूचना उत्पन्न किए जाने की आवश्यकता है। सुख व कल्याण के नये ढाँचे की रूपरेखा तैयार करने के लिए सभी वर्गों में विशेष कर ग्रामीण व शहरी इलाकों के स्थानीय समुदायों के बीच सार्वजनिक चर्चा प्रारम्भ की जानी चाहिए। यह ढाँचा 13वीं पंचवर्षीय योजना के आधार पर होना चाहिए।

इसे सिर्फ राजनीतिक तथा नौकरशाही नेतृत्व पर छोड़ दिया जाए तो यह होने वाला नहीं है हालाँकि उनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। आम लोगों को भी लामबन्द होकर दबाव बनाना सबसे अहम है। लोगों द्वारा आन्दोलन, नागरिक समाज के संगठन, अकादमिक थिंक टैंक व प्रगतिशील राजनेताओं को नेतृत्व करना होगा। इन्हें आज के विध्वंसक प्रक्रिया का प्रतिरोध करने के साथ-साथ मौजूदा विकल्पों को तैयार करना होगा। अन्य देशों में इस तरह के क्षेत्र में भागीदारी भी इस दिशा में सहायक सिद्ध होगा।

भारत में खाद्य, पेयजल, स्वास्थ्य व अन्य समस्याओं का टिकाऊ तरीके से समाधान के लिए हजारों पहल हुए हैं। सूचना का अधिकार कानून जैसे भारत में अनेक नीतिगत सफलताएँ भी प्राप्त हुई हैं। पर ये सारे फैले हुए हैं तथा अलग-थलग हैं और यह व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन लाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

(लेखक पर्यावरण जागरुकता समूह कल्पवृक्ष के संस्थापक सदस्य हैं)
ई-मेल: ashishkothari@vsnl.com

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