भारत में जल संचय की परंपराएं

Traditional Johad
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पृथ्वी, जल का आश्रय है। जल का सूक्ष्य रूप ही प्राण है। मन, जलीय तत्वों अर्थात विचारों का समुद्र है। वाणी की सरसता और जीवों में आर्द्रता का कारण भी जल ही है। आंखों की देखने की ताकत और उसकी सरसता का कारण भी जल है। जल, कानों का सहवासी है। जल का निवास धरती पर है। अंतरिक्ष में जल व्याप्त है। समुद्र, जल का आधार है तथा समुद्र से ही, जल वाष्प बनकर वर्षा के रूप में धरती पर आता है उपर्युक्त सभी विवरण, तत्कालीन समाज को, पानी के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देते प्रतीत होते हैं। पानी, समाज और सरकार के रिश्तों की यह कहानी बहुत पुरानी है। इस कहानी का पहला पात्र जो पानी से जुड़ा वो निश्चय ही आदमी रहा होगा। कबीले, राजे-महाराजे, बादशाह और सरकारें बाद में आई। जहां तक भारत का प्रश्न है तो लगता है कि भारत में सबसे पहले ऋषि, मुनि और समाज के योग-क्षेम से जुड़े विद्वानों ने ही इस रिश्ते को कायम करने और आगे ले जाने का काम किया होगा।

भारत में जलय संचय की पुरानी प्रणालियों और परंपराओं का इतिहास लगभग 5000 साल पुराना है। पानी और समाज के संबंधों की कहानी का सबसे अधिक पुराना और पुख्ता प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। इस विवरण के अनुसार हजारों साल पहले, भारतीय मनीषियों ने वैदिक साहित्य में पानी की महिमा; जो समाज के लिए अर्जित किए जा रहे ज्ञान, पानी के प्रति सम्मान, नजरिए, जनहित एवं योग-क्षेम से जुड़ी है; का वर्णन किया है।

वैदिक साहित्य में पानी


ऋग्वेद (18.82.6) में उल्लेख है कि जल में सभी तत्वों का समावेश है। जल में सभी देवताओं का वास है। जल से पूरी सृष्टि, सभी चर और अचर जगत पैदा हुआ है। यजुर्वेद (27.25) में कहा है कि सृष्टि का बीज, सबसे पहले, पानी ही में पड़ा था और उससे अग्नि पैदा हुई। ऋग्वेद की ऋचा (18.82.6) में प्राकृतिक जल चक्र का वर्णन है जिसके अनुसार सूर्य की गर्मी/ताप से पानी छोटे-छोटे कणों में बंट जाता है।

हवा के द्वारा ऊपर उठाया जाकर बादलों के रूप में बदलकर, वह, बारम्बार बरसात के रूप में धरती पर लौटता है। वेदों ने भी उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि की है जिसके अनुसार सूर्य एवं वायु मिलकर जल को, भाप (वाष्प) में बदलकर, मेघ बनाते हैं और (मेघ से) पानी, बरसात के रूप में, धरती पर लौटता है।

यजुर्वेद की ऋचा (13.53) में कहा गया है कि पानी का आश्रय स्थल हवा है। हवा, पानी को आकाश में इधर से उधर बहाकर ले जाती है। जल, औषधियों में है। जल के कारण ही औषधियों की वृद्धि होती है। बादल का रूप ही जल का सार है। जल का प्रकश, विद्युत है। जल से ही विद्युत की उत्पत्ति होती है।

पृथ्वी, जल का आश्रय है। जल का सूक्ष्य रूप ही प्राण है। मन, जलीय तत्वों अर्थात विचारों का समुद्र है। वाणी की सरसता और जीवों में आर्द्रता का कारण भी जल ही है। आंखों की देखने की ताकत और उसकी सरसता का कारण भी जल है। जल, कानों का सहवासी है। जल का निवास धरती पर है। अंतरिक्ष में जल व्याप्त है। समुद्र, जल का आधार है तथा समुद्र से ही, जल वाष्प बनकर वर्षा के रूप में धरती पर आता हैं उपर्युक्त सभी विवरण, तत्कालीन समाज को, पानी के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देते प्रतीत होते हैं।

अथर्ववेद में कहा गया है कि जल औषधि है। जल रोगों को दूर करता है। जल सब बीमारियों का नाश करता है, इसलिए यह तुम्हें भी सभी कठिन बीमारियों से दूर रखे। हे ईश्वर, दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिए सुखदायी हो, अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति कराए, हमारी प्यास बुझाए, संपूर्ण बीमारियों का नाश करे, रोग जनित भय से मुक्त करे तथा हमारी नजरों के सामने (सदा) प्रवाहमान रहे। यह विवरण तत्कालीन समाज को पानी के औषधीय गुणों के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देता प्रतीत होता है।

भारतवर्ष में गंगा नदी को सबसे अधिक पवित्र माना जाता है। इसके जल के बारे में कहा जाता है कि उसमें कीटाणु नष्ट करने की अदभुत क्षमता है। यह क्षमता भारत की अन्य किसी भी नदी के पानी में नहीं है। भारत के कोने-कोने से लोग गंगा स्नान करने आते हैं। आने वाले हिन्दू श्रद्धालु अपने साथ गंगा जल ले जाते हैं जिसका उपयोग धार्मिक कृत्यों और पूजा पाठ में किया जाता है।

नदियों के तट पर बरसों से मेले और महोत्सव मनाए जा रहे हैं। इस अनुक्रम में कुंभ और सिंहस्थ, जल के महापर्व हैं। वे भारतीय संस्कृति में सदियों से रचे बसे हैं और हिन्दुओं की अटूट आस्था के केन्द्र हैं।

समुद्र मंथन की पौराणिक कथा बताती है कि अमृत पाने के लिए देवों और दानवों के बीच संग्राम हुआ था। संग्राम के दौरान जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरीं थीं, कालांतर में, उन्हीं स्थानों पर कुंभ मेले आयोजित किए जाने लगे। उल्लेख है कि अमृत की बूंदें हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में गिरी थीं। इन चारों स्थानों पर 12 साल के अंतराल से कुंभ मेले आयोजित होते हैं। केवल उज्जैन का (कुंभ) मेला सिंहस्थ कहलाता है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में इन कुंभ मेलों के आयोजन की तिथियां राशियों एवं ग्रहों की स्थिति के अनुसार तय की जाती हैं।

वाराहमिहिर का भूजल विज्ञान


आर्यभट्ट प्रथम के शिष्य वाराहमिहिर (ईसा से 587-505 साल पहले, कुछ लोग इसे बाद का भी मानते हैं) ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत्संहिता में भूजल की खोज और उसके उपयोग के बारे में 125 सूत्र प्रस्तुत किए हैं। निश्चय ही वाराहमिहिर ने धरती पर मौजूद विभिन्न लक्षणों और उन लक्षणों को पैदा करने में पानी की भूमिका को समझा होगा और फिर पानी की मौजूदगी की सटीक भविष्यवाणी को सूत्रों के रूप में वर्णित किया। इन सूत्रों की मदद से करीब 600 मीटर की गहराई तक मिलने वाले पानी के बारे में भविष्यवाणी करना संभव है। निश्चय ही, यह वाराहमिहिर की अदभुत उपलब्धि है जो समाज को पानी प्राप्त करने वाले ज्ञान से जोड़ती है।

वृहत्संहिता के अनुसार, जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में नाड़ियां होती हैं उसी प्रकार धरती में भी कई ऊंची और कई नीची शिराएं या नाड़ियां होती हैं। यह सर्वविदित है कि पृथ्वी पर आठ दिशाएं हैं। इन आठों दिशाओं के स्वामी आठ देवता हैं। वृहत्संहिता के अनुसार, धरती में भी आठ शिराएं होती हैं और इनके बीच एक बड़ी शिरा होती है जिसे महाशिरा कहते हैं। इसके अलावा धरती में और भी सैकड़ों शिराएं होती हैं।

इन शिराओं के नाम, उनकी दिशाओं के स्वामियों के नाम पर रखे गए हैं। वृहत्संहिता के अनुसार पाताल से सीधे ऊपर की ओर निकलने वाली तथा पूर्व, दक्षिण, उत्तर एवं पश्चिम से निकलने वाली शिराएं शुभ तथा आग्नेय कोण, नैऋत्य कोण, वायव्य कोण और ईशान कोण से निकलने वाली शिराएं अशुभ होती है।

प्रकृति में तांबे, सीसे, जस्ते, सोने इत्यादि धातुओं के खनिज भंडार पाए जाते हैं। कई बार ये भंडार जमीन में दबे होते हैं और विभिन्न गहराइयों पर मिलते हैं। उपर्युक्त भूमिगत खनिज भंडारों की उपस्थिति को दर्शाने वाले संकेतक, इन खनिज भंडारों के ऊपर की जमीन की सतह पर मिलते हैं। इसी तरह अनेक फूलों और वनस्पतियों में धरती के नीचे के खनिज भंडरों के संकेतक पाए जाते हैं।

इन उदाहरणों से लगता है कि इसी तरह कतिपय वनस्पतियां, चट्टानें और जीव-जंतु मूल रूप से भूजल की उपर्युक्त शिराओं की उपस्थिति को दर्शाते हों, इसलिए यह अनुमान लगाना उचित होगा कि वराहमिहिर ने भूमिगत जल के उपर्युक्त संकेतकों को पहचान लिया हो और उन संकेतकों को जमीन के नीचे के पानी की भविष्यवाणी करने में प्रयुक्त किया हो।

भूमिगत जल की उपस्थिति तथा शिराओं के संकेतों को समझने के लिए वराह संहिता के सूत्र 54.6 एवं 54.7 का उदाहरण लेना उपयोगी होगा जिनके अनुसार जल विहीन क्षेत्र में यदि बेंत का वृक्ष दिखाई दे तो उस वृक्ष के पश्चिम में तीन हाथ (4.5 फीट या 53 इंच) दूर डेढ़ पुरुष (एक पुरुष बराबर पांच हाथ या 7.5 फीट) की गहराई पर पानी मिलेगा।

इस निष्कर्ष का आधार, पश्चिमी शिरा है जो पानी मिलने वाले स्थान से बहती है। अगले सूत्र में आगे कहा है कि आधा पुरुष खुदाई करने पर हल्के पीले रंग का मेंढक मिलेगा, उसके बाद पीले रंग की मिट्टी और उसके बाद सपाट परतों वाला पत्थर मिलेगा। इस सपाट परतदार पत्थर के नीचे 11.25 फीट की गहराई पर पानी मिलेगा।

आधुनिक युग में इकोलाजी परिचित विज्ञान है। यह वनस्पति विज्ञान की शाखा है। इसका अध्ययन करने वाले बताते हैं कि प्रकृति में चंद ऐसे वृक्ष मौजूद हैं जो जमीन में पानी की मौजूदगी की जानकारी देते हैं। प्रोसोपिस-स्पाइसिजेरा, अकेसिया अरेबिका और साल्वेडोरा ओलीवायडिस नामक वृक्षों की जड़ें, मरुस्थलीय परिस्थितियों में भी, पानी तक पहुंचने की क्षमता रखती हैं। इसी तरह जामुन और टरमिनेलिया स्पाइसिजेरा के वृक्ष, सामान्यतः नम और घाटियों के निचले भाग में ही पाए जाते हैं। इसी तरह बलुआ, ग्रिटी तथा पीली, धूसर, किस्म की मिट्टियों के नीचे अक्सर पानी मिलता है। इकोलॉजी पारिस्थितिकी और वराहमिहिर के परंपरागत विज्ञान के बीच गहरा संबंध प्रतीत होता है इसलिए वैज्ञानिक आधार पर दोनों विज्ञानों के बीच समझ विकसित करने की आवश्यकता है।

वनस्पति शास्त्र एवं प्राणी शास्त्र में बहुत तरक्की हुई है पर वह तरक्की और अद्यतन ज्ञान, भूजल की सटीक खोज को बहुत आगे नहीं ले जा सका है। इसी तरह भूजल विज्ञान ने पिछले 40 से 50 साल में बहुत तरक्की की है। चट्टानों के गुणधर्म एवं भू-भौतिकी की विधियों की मदद से काफी गहराई तक के पानी की खोज होने लगी है पर आधुनिक भूजल-विज्ञान एवं वराहमिहिर के देशज विज्ञान के चश्मे से देखे संकेतकों पर आधारित खोजों के बीच, समझ और समझदारी का पुल, आज तक नहीं बन पाया है।

पूर्व और पश्चिम के ज्ञान के अंतर और समझ के बीच की दूरी कम नहीं हुई है। कुछ लोगों को लगता है कि ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में इस दूरी को पाटने की जरूरत है तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो भारत के प्राचीन ज्ञान को गुजरे जमाने की फालतू चीज मानते हैं। कुछ लोग आधुनिक विज्ञान को अंतिम सत्य समझते हैं।

सौभाग्य से सेंटर फार साइंस एंड इंवायरमेंट की सुनीता नारायण, तरुण भारत संघ के राजेन्द्र सिंह और गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र जैसे कुछ लोग, देश की प्राचीन परंपराओं और उनके पीछे छिपी विज्ञान सम्मत तार्किक बुनियाद की समझ को समाज के सामने लाने और उसे आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

भारत में जल संचय की परंपराएं


भारत में जल संचय की प्राचीन परंपराओं का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण सेंटर फार साइंस एंड इंवायरमेंट (सीएसई), नई दिल्ली के अनिल अग्रवाल और सुनीता नारायण ने किया है। इस दस्तावेजीकरण में देश के विभिन्न जलवायु क्षेत्रों की पारंपरिक जल संचय प्रणालियों के विकास, ह्रास और उनमें मौजूद संभावनाओं की कहानी का सजीव चित्रण उपलब्ध है। इसके अलावा अनुपम मिश्र ने अपनी पुस्तकों ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में प्राचीन परंपराओं का सजीव विवरण दिया है। इन प्राचीन जल प्रणालियों और देशज परंपराओं की समझ की झलक अगले पृष्ठों में दी गई है।

भारत में सतही जल संचय की प्राचीन प्रणालियों के बारे में कई स्थानों पर ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं। सबसे पहला प्रमाण धौलावीरा में मिला है। यह स्थान कच्छ के रण में खादिर द्वीप के उत्तर पश्चिमी छोर पर स्थित है। इस स्थान पर सिंधु घाटी की सभ्यता (ईसा से 3000 से 1500 साल पूर्व) के अवशेष मिले हैं।

तत्कालीन समाज ने इस स्थान पर, बरसात के पानी को एकत्रित करने के लिए अनेक जलाशयों का निर्माण किया था। हड़प्पा काल के ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई से पता चलता है कि उस काल में बने हर तीसरे मकान में कुआं था। कुओं के मिलने का अर्थ है कि उस काल में पानीदार कुएं बनाने की तकनीक विकसित हो गई थी।

कौटिल्य (ईसा से 321 से 297 साल पूर्व) के अर्थशास्त्र में बरसाती पानी को एकत्रित कर उससे सिंचाई करने वाली प्रणाली का जिक्र है। इस जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि ईसा से लगभग 300 साल पहले लोगों को बरसात के चरित्र, मिट्टी के भेद और सिंचाई की तकनीकों की जानकारी थी। उस काल में जल वितरण प्रणालियों को बनाने, चलाने और रखवाली करने का काम समाज करता था। उस काल में राजा का काम समाज को आवश्यक मदद देने और गड़बड़ी करने वालों को कठोर सजा देने का था।

जल रोगों को दूर करता है। जल सब बीमारियों का नाश करता है, इसलिए यह तुम्हें भी सभी कठिन बीमारियों से दूर रखे। हे ईश्वर, दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिए सुखदायी हो, अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति कराए, हमारी प्यास बुझाए, संपूर्ण बीमारियों का नाश करे, रोग जनित भय से मुक्त करे तथा हमारी नजरों के सामने प्रवाहमान रहे। यह विवरण तत्कालीन समाज को पानी के औषधीय गुणों के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देता प्रतीत होता है।पुरातत्ववेत्ता बीबी लाल को गंगा की बाढ़ के अतिरिक्त पानी को तालाबों में एकत्रित करने वाली प्रणाली के अवशेषों के प्रमाण इलाहाबाद से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित श्रृंगवेरपुरा में मिले हैं। इस तालाब की आयु लगभग 2700 साल आंकी गई है। महाभारत काल के तालाबों में ब्रह्मसर, कर्णझील और शुक्रताल उल्लेखनीय हैं। गीता के उपदेश एवं कौरवों और पांडवों की युद्धभूमि के रूप में विख्यात कुरूक्षेत्र में ब्रह्मसर है। करनाल के पास कर्णझील स्थित है तो हस्तिनापुर में शुक्रताल।

सिंधु घाटी में प्राचीन जल प्रणालियों के चिह्न 10वी शताब्दी से मिलते हैं। तोमर वंश के राजा अनंगपाल ने सन 1020 में सूरजकुंड नाम का अर्ध चंद्राकार तालाब बनवाया था। दिल्ली में राजधानी बनने के बाद, अलग-अलग कालखंडों में अनेक तालाब और जलमार्ग या नहरें बनाई गईं। गंगा के कछार में तालाबों का प्रचलन था। ये तालाब सामान्य आकार के होते थे और उनका क्षेत्रफल अक्सर एक हेक्टेयर के आसपास होता था। उनकी पाल मिट्टी की होती थी और अधिकतम गहराई छह मीटर होती थी।

सांची, मध्य प्रदेश में ईसा से 300 साल पहले सम्राट अशोक ने पहाड़ी पर तीन तालाब बनवाए थे। एक पहाड़ के ऊपर और दो पहाड़ के ढलान पर - करीब 500 मीटर की दूरी पर। बरसात का पानी, एक के बाद एक तालाब को भरता था। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा तालाबों के पानी का उपयोग निस्तार कार्यों में किया जाता था। इन तीनों तालाबों की जल भराव क्षमता लगभग 22.7 लाख लीटर है।

दसवीं सदी में जैसलमेर और जोधपुर के रेगिस्तानी इलाके में बरसात के पानी को खडीनों में रोककर, उनसे सैकड़ों मन अनाज पैदा किया जाता था। अनुपम मिश्र के शब्दों में खडीन खेत बाद में है, पहले तालाब है।

भोपाल के पास इस्लामनगर (जगदीशपुरा) में जल संचय की अनोखी प्रणाली है। इस्लामनगर के पास हलाली और पातरा नदियों का संगम है। इन दोनों नदियों पर एक दूसरे के लम्बवत दो बांध बनाए गए हैं जो नहर द्वारा एक दूसरे से जुड़े हैं। इस प्रणाली की पहली विशेषता यह है कि पानी की कमी होने पर बांध (जलाशय) एक दूसरे की पानी की कमी दूर करते हैं। इस प्रणाली की दूसरी विशेषता यह है कि दोनों जलाशयों के पूरा भरते ही अतिरिक्त पानी पातरा नदी में मिलकर बह जाता है।

मध्य हिमालय तथा लोअर हिमालय के बीच की चौड़ी घाटियों जहां कश्मीर घाटी, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, टिहरी गढ़वाल, दार्जिलिंग, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय, मणीपुर, मिजोरम और ब्रह्मपुत्रा नदी की असम घाटी स्थित है, में कुहल (नहर) प्रणाली प्रचलन में थी। ये नहरे पहाड़ों के ढाल को काटकर बनाई जाती थीं। ढाल पर बहने वाली नदियों एवं सोतों से नहरों को पानी मिलता था।

इस पानी से सीढ़ीदार खेतों की सिंचाई की जाती थी। बड़े कुहलों से लगभग 400 हेक्टेयर तक के रकबे की सिंचाई संभव थी।

मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के सोंडवा ब्लाक के भील आदिवासियों ने अपने इलाके की भू-आकृतियों से तालमेल बिठाती पाट पद्धति विकसित की है। इस पद्धति में किसान पहाड़ी स्रोतों के पानी को मोड़कर अपने खेतों में ले जाता है और सिंचाई करता है। यह जल प्रबंध का पर्यावरण के अनुकूल, व्यावहारिक और देशज तरीका है। यह पद्धति गुरुत्व बल के विरूद्ध काम करती है और नदी तल के ऊपर स्थित खेतों को पानी उपलब्ध कराती है।

तमिलनाडु में तालाब, कुएं और नहरें बनाने का चलन था। मदुरै में नदियों से पानी लेकर नहरें बनाई गई थीं। ये नहरें रास्ते के तालाबों को भी पानी देती थीं। उत्तरी अर्काट जिले में तालाब और एनीकट का चलन था। इन एनीकटों से असंख्य तालाबों को पानी दिया जाता था।


मध्य प्रदेश के बुरहानपुर शहर में सन 1615 में फारस के भूजल वेत्ता तब्कुतुल अर्ज ने भूजल प्रवाह का अध्ययन कर जलापूर्ति के लिए भूमिगत सुरंगों का निर्माण कराया। गुरुत्वाकर्षण पर आधारित इस प्रणाली से, उस जमाने में लगभग 2,00,000 फौजियों और 30,000 आम लोगों को लगभग प्रतिदिन एक करोड़ लीटर पानी दिया जाता था। वर्तमान में इससे प्रतिदिन 13 लाख लिटर पानी की पूर्ति होती है।

लद्दाख, कारगिल, लाहौल और स्पिती के बर्फीले इलाकों में मई से अक्टूबर के महिनों में ग्लेशियरों के पिघलने से मिले पानी को छोटे-छोटे तालाबों (जिंग) में जमा किया जाता था और उनकी मदद से सिंचाई की जाती थी। जिंग के पानी के वितरण का इंतजाम चुरपुन (हर साल चुने व्यक्ति) द्वारा किया जाता था।

दक्षिण भारत में नीरघंटी (नीरुकुट्टी) ही पानी का हिसाब किताब रखते थे। उल्लेखनीय है कि दक्षिण में इस काम की जिम्मेदारी सिर्फ हरिजन को ही दी जाती थी। वह पानी के हिसाब किताब के अलावा किस खेत को कितना पानी चाहिए या किस खेत में क्या बोया जाएगा, तय करता था। पीढ़ी दर पीढ़ी दायित्व मिलने के कारण नीरघंटी में तालाब में पानी का स्तर देखकर फसल तय करने की क्षमता होती थी। पूरा समाज उसकी निष्पक्षता और समझ का लोहा मानता था।

भोपाल में राजा भोज ने 11वीं सदी में भारत का सबसे बड़ा जलाशय बनवाया था। इस जलाशय के निर्माण में सीमेंट, चूना या अन्य किसी जोड़ने वाले पदार्थ (सीमेंटिंग मेटेरियल) का उपयोग नहीं किया था। इस जलाशय की साइट दो पहाड़ियों के बीच, न्यूनतम दूरी के आधुनिक सिद्धांत पर आधारित थी। इसके अवशेष भोजपुर मंदिर के पास देखे जा सकते हैं।

उत्तरी मलाबार के कसारगोड इलाके में सुरंग नामक अदभुत प्रणाली प्रचलन में थी। यह प्रणाली मूल रूप से ईसा से 700 साल पहले बेबीलोन और मेसोपोटामिया में विकसित हुई थी। इस प्रणाली में पहाड़ के अंदर सुरंग खोदी जाती है। सुरंग में हवा का दबाव सामान्य रखने के लिए लगभग 2 मीटर व्यास के कुएं बनाए जाते हैं। दो कुओं के बीच की दूरी 50 से 60 मीटर होती है। खड़ी सुरंग का आकार सामान्यतः 0.45 से 0.70 मीटर चौड़ा और 1.8 मीटर से 2.0 मीटर गहरा रखा जाता है। चट्टानों से रिसा पानी कुएं या तालाब में इकट्ठा कर उपयोग में लाया जाता है।

प्राचीन काल में दक्षिण अर्काट में हजारों तालाब बनाए गए थे। इस क्षेत्र के सबसे अधिक तालाब तिंडीवानम एवं विल्लूपुरम में थे। इनकी औसत सिंचाई क्षमता 20 से 50 हेक्टेयर तक होती थी। इस इलाके का सबसे बड़ा तालाब वीरानम है जिसका क्षेत्रफल लगभग 90 वर्ग किलोमीटर था। इस विशाल तालाब का निर्माण सम्राट राजेन्द्र चोल प्रथम (सन 1011-1037) ने कराया था। इस तालाब में 18 गेट लगाए गए थे और उन गेटों से छोड़ा पानी दूर-दूर के खेतों की धान को सींचता था।

दार्जिलिंग के तीखी ढलान, अति वर्षा, बाढ़, भू-स्खलन तथा मिट्टी के कटाव वाले इलाके में झरनों से नहरें निकाली जाती थीं और पानी को बांस के पाइपों के सहारे फसल तक पहुंचाया जाता था। अरुणाचल प्रदेश के लोगों ने नहर बनाने के स्थान पर जल परिवहन के लिए बांस की नालियों वाली प्रणाली को अपनाया था।

उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र में 300 से 400 साल पहले, सामुदायिक सिंचाई की फड व्यवस्था अस्तित्व में आई। इस व्यवस्था के अधीन पनझरा, अराम और मौसमी नदियों पर बंधारों की श्रृंखला बनाकर पानी को खेतों की ओर मोड़ा जाता था। हर फड में एक ही फसल लगाई जाती थी। इस प्रणाली का संचालन किसान करते थे। हर फड एक बंधारे से जुड़ा होता था।

आंध्र प्रदेश में भी बांधों, एनीकट और तालाबों का प्रचलन था। हैदराबाद में सन 1562 में हुसैन सागर नाम का तालाब बनाया गया। इस तालाब का जल भराव क्षेत्र लगभग 20 वर्ग किलोमीटर है। इस नगर के अधिकतर तालाब सन 1564 से 1724 के बीच बने हैं। कहा जाता है कि तेलंगाना में किसी जमाने में लगभग 20,000 तालाब थे।

गंगा और दामोदर नदियों के बाढ़ प्रभावित इलाके (बंगाल) में आप्लावन नहरों की प्रणाली विकसित की गई थी। इस प्रणाली में रेत को खेतों में फैलने से रोकने के लिए नदी के दोनों किनारों के समांतर तटबंध बनाए जाते थे। आवश्यकतानुसार, लोग तटबंधों को काटकर, बाढ़ के पानी को खेतों, पोखरों और झीलों में भर लेते थे जिससे खेतों को उपजाऊ मिट्टी, किसानों को मछलियां और मछलियों को पोखरों और झीलों में पनप रहे मच्छरों के अंडे मिल जाते थे।

आज की संरचनाओं में उस सामाजिक स्वीकार्यता और जज्बे की निरंतरता का औचित्य तलाशना शायद कुछ लोगों को अनावश्यक लगता है तो कुछ को तो लुभाता है। यही लोग आशावादी हैं, उन्हें आज के पानी के जुड़ा अर्थशास्त्र समझ नहीं आता इसीलिए वे पुरानी व्यवस्था में पानी का बेहतर भविष्य तलाशते हैं। उन्हें बाजार से अधिक, समाज की समझदारी और न्यायप्रियता में विश्वास है।

पूरे देश में पुरानी जल प्रणालियों के उदाहरणों की कमी नहीं है पर अब उदाहरणों के स्थान पर बात करें विरासत की समझ और उसके पीछे छिपी वैज्ञानिक समझ की। ‘बूंदों की संस्कृति’ पुस्तक में कहा है कि हमारे पूर्वजों ने बहुत जल्दी यह अहसास कर लिया था कि भारत जैसे देश में जहां तीन से चार माह ही पानी बरसता है वहां अगर बरसात के पानी को सूखे दिनों की जरूरतों की पूर्ति के लिए संचित नहीं किया तो मानव समाज आगे नहीं बढ़ सकेगा। इसी अहसास की पृष्ठभूमि में देश के अलग-अलग हिस्सों की जमीन के गुणधर्म, बरसात के चरित्र और जलवायु के अनुरूप अलग-अलग तरीकों से जल संचय पर काम करना आरंभ किया और कालांतर में उपलब्ध साधनों के आधार पर हर संभव उपलब्ध जल - बरसाती पानी से लेकर भूमिगत जल, सोतों से लेकर नदियों और बाढ़ के पानी - तक को संचित करने के लिए तरह-तरह की समय की कसौटी पर खरी प्रणालियां और तकनीकें विकसित की। अनेक बार लगता है कि पूर्वजों की जल प्रणालियों के माध्यम से संपन्न जल विकास यात्रा, हकीकत में अपने पर्यावरण के साथ मिलकर जीने की जुगत थी।

प्राचीन भारत में स्थानीय परिस्थिति, जमीन के गुणधर्म, बरसात के चरित्र और जलवायु के मिजाज एवं मांग पर आधारित विभिन्न जल संरचनाएं बनाई जाती थीं। ये संरचनाएं कहीं पीने के पानी की और कहीं पीने के पानी के साथ-साथ खेती की जरूरतों को पूरा करने के लिए डिजाइन की गईं थी। उपर्युक्त मांगों को ध्यान में रखकर भारत के अधिकांश इलाकों में तालाब बनाए गए थे। विशिष्ट परिस्थितियों के कारण दक्षिण भारत में तालाबों के अलावा एनीकट और बांध भी बनाए जाते थे।

अधिक वर्षा वाले इलाकों में खेती को बाढ़ से बचाने और खाद्यान्नों की अधिकतम उत्पादकता को हासिल करने के लिए बांधों और जलमार्ग या नहरें बनाने की भी परंपरा थी। कुल मिलाकर, जहां जैसी परिस्थितियां, वहां वैसी संरचना।

भारत में बने परंपरागत तालाबों को देखने से मोटे तौर पर समझ में आता है कि-

1. अपवाद छोड़कर, बहुत बड़े तालाबों के निर्माण की परंपरा नहीं थी। उस जमाने में मध्यम एवं छोटे तालाबों का निर्माण अधिक किया जाता था। यह निर्माण संभवतः पानी के विकेन्द्रीकरण, बरसात एवं बरसात बाद के दिनों की पानी की आवश्यकता और अधिकतम खेतों तक पहुंच की अवधारणा अर्थात मांग आधारित विकेन्द्रीकृत पूर्ति की व्यवस्था का परिचायक था।
2. अनियमित या कम वर्षा वाले इलाकों में तालाबों का निर्माण संभवतः निस्तार एवं सुरक्षात्मक सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया गया था।
3. समाज द्वारा सामान्यतः तालाबों के पूरे केचमेंट को हरा-भरा और साफ-सुथरा रखा जाता था।
4. मिट्टी खोदकर और या ढाल पर पाल डालकर तालाब बनाए जाते थे। तालाब की गहराई का संबंध मोटे तौर पर धरती के नीचे मिलने वाली मिट्टी या चट्टानों के गुणधर्मों और गर्मी के भूजल स्तर पर निर्भर था। सबसे अधिक ध्यान बारहमासी तालाब बनाने पर था।
5. भिन्न-भिन्न जलवायु क्षेत्रों में तालाबों की साइज अलग-अलग रखी जाती थी।
6. दक्षिण भारत में बरसात के अनियमित चरित्र को ध्यान में रखकर धान को सुरक्षात्मक सिंचाई देने के लिए बहुत अधिक संख्या में जगह-जगह तालाबों का निर्माण किया गया।
7. दक्षिण भारत के बहुत से तालाब, बरसात के पानी के अलावा निकटवर्ती नदी से भी पानी प्राप्त करते थे। इन तालाबों को जलापूर्ति के लिए अधिक विश्वसनीय माना जाता था।
8. राजस्थान जैसे इलाकों में बरसात के पानी के स्थान पर भूमिगत जल पर निर्भर तालाब ही अधिक विश्वसनीय माने जाते थे। ये तालाब सामान्यतः उथली वाटरटेबिल वाले इलाकों में बनाए जाते थे। तालाब के पानी को वाष्पीकरण से बचाने के लिए माकूल व्यवस्थाएं की जाती थीं। इन तालाबों से पानी का रिसाव नहीं के बराबर था।
9. खड़िया मिट्टी या अपारगम्य चट्टानों वाले इलाकों में अधिक से अधिक तालाब बनाने की परंपरा थी। ये तालाब दोनों तरीके अर्थात पाल डालकर या खुदाई कर बनाए जाते थे।
10. राजा-महाराजाओं, जागीरदारों, संपन्न लोगों, बंजारों और समाज ने यथाशक्ति तालाब बनाने का काम किया। इस काम को कहीं-कहीं धर्म से भी जोड़ा गया था।

पुरानी विरासत के आईने में आज


हर युग में बनाई गईं जल संरचनाओं का उद्देश्य तत्कालीन मांग की पूर्ति ही होता है। इसी सोच और समझ के आधार पर पुरानी विरासत के आईने में आज को या आज के आईने में पुरानी विरासत को देखना उचित होगा। आधुनिक युग में बन रही विभिन्न संरचनाएं तत्कालीन मांग की पूर्ति और आज के जल संकट के हल को खोजने की समझ का आईना हैं तो पुरानी विरासतें या परंपरागत जल संरचनाएं, पुराने समय के समाज के कौशल, ज्ञान और समस्याओं के निराकरण का आईना थीं। वर्तमान युग में पारंपरिक संरचनाओं का स्वरूप बदल गया है। उदाहरण के लिए-

1. पुराने जमाने के छोटे और मंझोले बांध अब बड़े होकर मीडियम और मेजर प्रोजेक्ट हो गए हैं।
2. सरकार सबसे बड़ी निर्माण एजेंसी, नियति निर्माता, कर्ताधर्ता और प्रबंधक हो गई है। छोटी संरचनाओं के निर्माण में पंचायतों की भूमिका मुख्य हो रही है और वे समाज की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। संरचनाओं का हितग्राही वर्ग व्यवस्था के हाशिए पर प्रतीत होता है।
3. परंपरागत एनीकट अस्तित्व में तो हैं पर अनेक बार ऐसा लगता है वे अब मुख्यधारा में नहीं रहे हैं।
4. स्टाप डेम का निर्माण मुख्यधारा में है। वह अब, अनेक लोगों की सर्वाधिक पसंदीदा संरचना है। अनेक लोगों को, उसके निर्माण में हर समस्या (निस्तार, सिंचाई और ग्राउन्ड वाटर रीचार्ज) का हल नजर आता है।
5. तालाब, आज भी बनते हैं पर कई इलाकों में उनके लिए जगह कम पड़ गई है। कुछ जगह तो गंभीर स्थानाभाव है। अनेक बार लगता है कि उपेक्षा, अतिक्रमण और प्रदूषण उनकी नियति बन गई है।
6. पुराने तालाब आर्थिक संभावनाओं के द्वीप बन गए हैं। उनके जलाशयों को पाटकर उन पर कालोनियां बसा दी गई हैं या नई कालोनियां बनने की राह पर हैं। भूमि उपयोग बदलने के दबाव के कारण उनका पुनर्वास हाशिए पर है।
7. कैचमेंट एवं वर्षा आश्रित इलाकों में वाटरशेड अवधारणा पर आधारित कार्यक्रमों की मदद से स्व-स्थाने संरक्षण को बढ़ावा दिया जाने लगा है। वाटरशेड के काम में और अधिक धार पैदा करने की जरूरत हैं

नई प्रणालियों और परंपरागत प्रणालियों की फिलासफी का अंतर बहुआयामी है तथा गहन अध्ययन, उच्च स्तरीय तकनीकी विशेषज्ञता, जटिल एवं लंबे शोध का विषय है। उस शोध परक, बहुआयामी एवं उच्च स्तरीय तकनीकी विशेषज्ञता की बारीकियों को इस किताब के सीमित पन्नों में समेटना संभव नहीं है, लेखक का उद्देश्य भी नहीं है। पाठकों को, समय की कसौटी पर खरे उस अद्भुत देशज ज्ञान की बारीकियों और पानी के समाज और शासक वर्ग से रिश्ते की झलक का अनुमान कराने की दृष्टि से परंपरागत और नई प्रणालियों की फिलासफी के अंतर को, मोटे तौर पर, निम्नानुसार व्यक्त करने का प्रयास किया जा रहा है-

1. परंपरागत प्रणालियां पूरी तरह स्थानीय इकोलाजी पर निर्भर थीं, जबकि नई प्रणालियों की स्थानीय इकोलाजी पर निर्भरता उतनी नहीं हैं।
2. अधिकांश परंपरागत जलप्रणालियां सबको पानी मिले या पानी की विकेन्द्रीकृत अवधारणा पर आधारित थीं। आधुनिक प्रणालियां कमांड और नान-कमांड के सिद्धांत पर आधारित हैं। आधुनिक प्रणाली केचमेंट और कमांड के बीच पानी की असमान उपलब्धता के सिद्धांत पर काम करती है।
3. परंपरागत प्रणालियां पारिस्थितिकी बदलाव की स्थिति में बाह्य तकनीक को थोपने का प्रयास नहीं करती थीं। आधुनिक प्रणाली, सामान्यतः कुछ स्थानीय बदलावों की अनदेखी या उपेक्षा कर, सब जगह केवल एक ही फिलासफी पर काम करती प्रतीत होती हैं।
4. परंपरागत जल प्रणालियों के निर्माण में स्थानीय सामग्री का ही प्रयोग होता था। आधुनिक प्रणालियों में स्थानीय सामग्री का प्रयोग अपेक्षाकृत कम होता है।
5. परंपरागत जल प्रणालियों का नियंत्रण, रखरखाव, पानी का बंटवारा और संचालन का दायित्व उपयोगकर्ताओं की स्थानीय व्यवस्था के हाथ में था। आधुनिक प्रणाली में यह दायित्व सरकार के पास है।

बूंदो की संस्कृति पुस्तक में (पेज 318) में कहा गया है कि जल संचय की परंपरागत विधियां काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं और जिस माहौल में उनका विकास हुआ है, उसके अनुकूल भी साबित हुई हैं। उन्होंने बिल्कुल अलग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक माहौल में और एकदम अलग पीढ़ी के लोगों के बीच प्रभावी ढंग से काम किया है। अब अगर हम आंख मूंदकर ठीक उसी चीज को आज अपनाना चाहें तो संभव है कि वह प्रणाली लाभ देने की जगह नुकसान देने लगे।

बूंदो की संस्कृति की उपर्युक्त टीम के अनुक्रम में तरुण भारत संघ के राजेन्द्र सिंह के प्रयासों की चर्चा करना उचित प्रतीत होता है। अलवर, राजस्थान में परंपरागत जल संरचना - जोहड़ बनाए गए। देशज ज्ञान और समाज के नियंत्रण में, खूब सारे जोहड़ बने, कुछ ही सालों के बाद परिणाम सामने आ गया, कम बरसात के बावजूद सूखी नदियां फिर से सदानीरा हो गईं, भूजल स्तर जमीन के करीब आ गया और समाज की मानसून पर निर्भरता घट गई। लगता है, इस देशी पहल में डिजाइन, एस्टीमेट, बजट स्वीकृति तथा एजेंसी की अनिवार्यता एकदम बेमानी हैं।

पारंपरिक जल संरचनाओं की संभावित स्वीकार्यता (?) के बावजूद आज के बदले माहौल में उनकी संभावित वापिसी, तकनीक और औचित्य का प्रश्न, कुछ लोगों को उजली संभावना जैसा मनमोहक लगता है तो कुछ लोगों को “दिल बहलाने को गालिब, ख्याल अच्छा” लगता हैं।

इन पानीदार पुरानी अवधारणाओं का आज के संदर्भ में औचित्य खोजना या उन्हें महिमा मंडित करना, कुछ लोगों को नहीं सुहाता। यह सही हो सकता है पर सीखने की अनवरत मानवीय ललक, शायद उस देशज एवं स्वीकार्य ज्ञान से गुरेज के औचित्य को तरजीह न दे। दूसरी महत्वपूर्ण बात है उन पानी वाली संरचनाओं से समाज और सरकार के रिश्ते की। यह रिश्ता पारंपरिक जल संरचनाओं की संभावित स्वीकार्यता का हिस्सा ही नहीं बुनियाद भी है जो समाज को, सरकार के अधिकारों पर वरीयता देती लगती है। इस अधिकार संपन्नता एवं वरीयता के कारण समाज का जुड़ाव है, समाज की सजगता, अधिकारिता और संवारने-सहेजने की अनवरत ललक है तथा बेहतर करने का जज्बा भी।

आज की संरचनाओं में उस सामाजिक स्वीकार्यता और जज्बे की निरंतरता का औचित्य तलाशना शायद कुछ लोगों को अनावश्यक लगता है तो कुछ को तो लुभाता है। यही लोग आशावादी हैं, उन्हें आज के पानी से जुड़ा अर्थशास्त्र समझ नहीं आता इसीलिए वे पुरानी व्यवस्था में पानी का बेहतर भविष्य तलाशते हैं। उन्हें बाजार से अधिक, समाज की समझदारी और न्यायप्रियता में विश्वास है।

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