भारत में जलक्षेत्र के निजीकरण और बाजारीकरण के प्रभाव

13 Sep 2009
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1991 से भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण द्वारा बड़े बदलाव शुरू किए गए। बिजली के क्षेत्र में ये बदलाव प्रारंभ से ही लागू हो गए थे लेकिन जल क्षेत्र में ये अभी प्रारंभ हुए है। बगैर ठोस सोच-विचार के, जल्दबाजी में किए गए उदारीकरण और निजीकरण के कारण आज बिजली क्षेत्र संकट मंद है। सुधार की प्रक्रिया मानव निर्मित आपदा सिद्ध हुई है। बिजली के दाम और बिजली संकट दोनों ही बढ़े हैं और वर्षो के लिए देश पर महँगे समझौतों का बोझ लाद दिया गया है। यह सब अब अधिकृत रूप से भी स्वीकार कर लिया गया है। इस प्रक्रिया से सीख लेने के बजाय इसी प्रकार की उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण की नीति अब जल क्षेत्र में भी दोहराई जा रही है।

भारत में ``सुधार´´ दो प्रकार से हो रहा है। पहले तरीके में जल सेवाओं का सीधा निजीकरण किया जा रहा है चाहे वह ``बीओटी´´ के माध्यम से हो या फिर प्रबंधन अनुबंध के माध्यम से। यह तरीका औद्योगिक और शहरी जलप्रदाय में अपनाया जा रहा है। `सुधार´ का दूसरा तरीका, ज्यादा खतरनाक है और पूरे जल क्षेत्र में इसके दूरगामी परिणाम होंगें।

सीधा निजीकरण


इसमें बीओटी (बनाओ, चलाओ और हस्तांतरित करो) परियोजनाएँ, कंसेशन अनुबंध, प्रबंधन अनुबंध, निजी पनबिजली परियोजनाएँ आदि शामिल हैं। इसी तरह की कई परियोजनाएँ या तो जारी है या फिर प्रक्रिया में है। जैसे छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी, तमिलनाडु की तिरूपुर परियोजना, मुंबई में के.-ईस्ट वार्ड का प्रस्तावित निजी प्रबंधन अनुबंध आदि।

हिमाचल के अलियान दुहांगन, उत्तराखण्ड के विष्णु प्रयाग और मध्यप्रदेश की महेश्वर जल विद्युत परियोजना की तरह अनेक निजी पनबिजली परियोजनाएँ या तो निर्मित हो चुकी है या फिर निर्माणाधीन है। अलियान दुहांगन परियोजना को अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम (IFC) ने कर्ज दिया है। निजी जल विद्युत परियोजनाओं के मामले में कंपनियों को नदियों पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया जाता है जिसका विपरीत प्रभाव निचवास (Down-stream) में रहने वाले समुदायों पर पड़ता है।

दिल्ली जल निगम का प्रस्तावित निजीकरण


एक सावर्जनिक उद्यम दिल्ली जल निगम का ``दिल्ली जलप्रद्राय एवं मल निकास परियोजना´´ के नाम से विश्व बैंक के कर्ज की शर्तों के तहत निजीकरण किया जाने वाला था। इस परियोजना हेतु विश्व बैंक ने 14 करोड़ डॉलर का कर्ज देने के पूर्व सन् 2002 में दिल्ली जल बोर्ड के सुधार एवं पुनर्रचना के अध्ययन हेतु 25 लाख डॉलर की सहायता दी थी। यह कार्य विश्व बैंक की चहेती सलाहकारी फर्म प्राईस वाटरहाउस कूपर्स (PWC) को दिया गया था। सलाहकार फर्म का चयन संदेहास्पद तरीके से किया गया था, जिसका खुलासा `परिवर्तन´ (दिल्ली) द्वारा किया गया। दिल्ली जल बोर्ड के सुधार के मुख्य बिंदु निम्न थे-

दिल्ली जल बोर्ड के 21 झोनों का जलप्रदाय प्रबंधन निजी कंपनियों को सौंपा जाना था जिनमें से 2 झोन के टेण्डर मार्च 2005 में जारी किए गए थे।

दिल्ली जल बोर्ड के कर्मचारियों का कंपनी के लिए काम करना।

अत्यधिक प्रबंधन फीस (5 करोड़ रुपए/कंपनी/वर्ष) के कारण खर्च में बढ़ौत्तरी और खर्च में दिल्ली जल बोर्ड के नियंत्रण की समाप्ति।

खर्चों में बढ़ौत्तरी की पूर्ति के लिए तत्कालीन जल दरों में 6 गुना वृद्धि। मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए जलदर 1200 रुपए/माह और बस्तियों के लिए 350 रुपए/माह।

हालांकि जलप्रदाय प्रबंधन कंपनी करती लेकिन प्रत्येक झोन में जलप्रदाय की जिम्मेदारी दिल्ली जल बोर्ड की ही रहती।

कंपनी को निश्चित लक्ष्य प्राप्त करने के बदले बोनस दिया जाना था जबकि अध्ययन बताते है कि वे लक्ष्य ही बोगस थे।

दिल्ली जल बोर्ड और कंपनी के मध्य हुए समझौते के अनुसार कंपनी को शिकायत निवारण हेतु 20 दिन का समय दिया गया था जबकि वर्तमान में यह समय 1 से 3 दिन है।

पानी की गुणवत्ता में सुधार नहीं। कंपनी भी वही प्रक्रिया और उपकरणों का इस्तेमाल करने वाली थी जो दिल्ली जल बोर्ड करता है।

गरीबों और वंचितों को मुफ्त अथवा रियायती दरों पर पानी नहीं।

कंपनी की जवाबदेही न के बराबर।

के.ईस्ट वार्ड (मुंबई) का प्रस्तावित जल वितरण निजीकरण


के.-ईस्ट वार्ड (मुंबई) में पानी के निजीकरण की प्रक्रिया जनवरी 2006 में उस समय शुरू हुई जब विश्व बैंक ने एक फ्रांसीसी सलाहकार फर्म `कस्टालिया´ को वार्ड में पानी के निजीकरण की प्रयोगात्मक योजना तैयार करने को कहा। विश्व बैंक ने तीसरी दुनिया के देशों में निजीकरण को बढ़ावा देने वाली अपनी संस्था `पब्लिक प्रायवेट इन्फ्रास्ट्रक्चर एडवायजरी फेसिलिटी´ (पीपीआईएएफ) के माध्यम से 5 6,92,500 डॉलर उपलब्ध करवाए। इस वार्ड की जनसंख्या 10 लाख है और जलप्रदाय राजस्व की दृष्टि से यह वार्ड पहले से ही फायदे वाला है। सफल क्रियांवयन पर इस प्रयोग का विस्तार पूरे मुंबई शहर में किया जाना था।

जब निजीकरण के खिलाफ विरोध बढ़ा तो बृहन्न मुंबई नगरपालिक निगम ने यह दावा किया कि उसने कस्टालिया को निजीकरण के साथ अन्य सारे विकल्प सुझाने को कहा है। हालांकि कस्टालिया ने संबंधित पक्षों (स्टेक होल्डर) की दूसरी मीटिंग में जो विकल्प सुझाए उनमें निजीकरण को प्राथमिकता दी गई थी। लेकिन ``मुंबई पानी´´ जैसे मुंबई में कार्यरत् निजीकरण विरोधी समूहों के कारण अब यह परियोजना रोक दी गई।

स्वजलधारा


ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर क्रियांवित स्वजलधारा परियोजना विश्व बैंक द्वारा वित्तपोषित है। गाँवों में साफ और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध करवाने हेतु यह योजना कई राज्यों में जारी है। परियोजना रिपोर्ट और अध्ययन बताते हैं कि इसके लिए संचालन और संधारण की पूर्ण लागत वापसी और ग्रामीणों का मौद्रिक अंशदान जरूरी है। जो लोग यह कीमत अदा नहीं कर सकते वे इस योजना से वंचित हो जाते हैं तथा उन्हें अपने संसाधन स्वयं तलाशने होते हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि इनमें से कुछ योजनाएँ स्थानीय दबंगों और ठेकेदारों ने हथिया ली है और वे लोगों से पैसे वसूल रहे हैं।

सुधार और पुनर्रचना


जल क्षेत्र में सुधार और पुनर्रचना ठीक उसी तरह जारी है जैसा बिजली के मामले में हुआ और वास्तव में यह दुनियाभर में होने वाले पानी के निजीकरण की तरह ही है। ये नीतियाँ विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक द्वारा पूरे क्षेत्र को बाजार में तब्दील करने पर जोर देते हुए आगे धकेली जा रही है।

हालांकि देश के जल क्षेत्र में सुधार की जरूरत है लेकिन विश्व बैंक के सुझाए तरीके का अर्थ है जलक्षेत्र का व्यावसायिक गतिविधि में बदलना और जल का सामाजिक प्रतिबद्धता के बजाय एक खरीदी-बेची जाने वाली वस्तु में बदलाव। इनमें हमेशा निम्न बिन्दु शामिल होते हैं –

विखण्डन (स्रोत, पारेषण और वितरण को अलग करना)
क्षेत्र को ``राजनैतिक हस्तक्षेप´´ से मुक्त करवाने हेतु एक स्वतंत्र नियामक का गठन
दरों में अत्यधिक वृद्धि
पूर्ण लागत वापसी
सिब्सडी का खात्मा
पैसा नहीं देने पर सेवा समाप्ति
कर्मचारियों की छँटनी
निजी क्षेत्र की भागीदारी या निजी सार्वजनिक भागीदारी
सर्वाधिक मूल्य उपयोग (highest value use) हेतु बाजार के सिद्धांत के अनुसार पानी का आवंटन।
इस प्रक्रिया को लगभग हमेशा ही विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और डीएफआईडी आदि द्वारा आगे धकेला गया।

नीति निर्धारण, पुनर्रचना प्रक्रिया और यहाँ तक कि कानूनों के प्रारूप भी अत्यधिक महँगे अंतर्राष्ट्रीय सलाहकारों द्वारा बनाए जाते हैं। हालांकि सुधार को जलक्षेत्र की वर्तमान समस्याओं के संभावित हल की तरह प्रस्तुत किया जाता है लेकिन, इसमें ज्यादातर वित्तीय पक्ष की ही चिंता की जाती है। ये सुधार शायद ही समस्याओं के मूल कारणों के अध्ययन पर आधारित होते हैं। इन अध्ययनों की अनुसंशाएँ पहले से ही तय होती है। इस प्रकार, एक ही तरह के सुधार न केवल देश के कई हिस्सों में सुझाए जाते है बल्कि इन्हीं तरीकों को दुनिया के कई देशों में लागू किया जाता है। वर्तमान में देश के कई राज्यों में विश्व बैंक/एडीबी आदि की शर्तों के तहत सुधार प्रक्रिया विभिन्न चरणों में जारी है।

चूँकि पानी राज्य का विषय है इसलिए सुधार का बड़ा हिस्सा राज्यों के स्तर पर जारी है। केन्द्र सरकार ने भी पानी के निजीकरण और व्यावसायीकरण के बारे में अनेक कदम उठाए गए हैं। जैसे –

1991-बिजली क्षेत्र निजीकरण हेतु खोला गया जिससे जलविद्युत का निजीकरण प्रारंभ हुआ।
2002-नई जल नीति में निजीकरण को शामिल किया गया।
2004-शहरी जलप्रदाय और मलनिकास सुधार में जन-निजी भागीदारी की मार्गदर्शिका तैयार की।
2005-जेएनएनयूआरएम और यूआईडीएसएसएमटी जैसी योजनाओं के माध्यम से शहरी जलप्रदाय में निजी क्षेत्र के प्रवेश पर जोर दिया गया। जन-निजी भागीदारी को प्राथमिकता।
2006 - बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं हेतु 20% धन उपलब्ध करवाने हेतु भारतीय बुनियादी वित्त निगम लिमिटेड (IIFCL) का गठन किया गया।
2008 - परियोजना विकास खर्च का 75% तक वित्त उपलब्ध करवाने हेतु भारतीय बुनियादी परियोजना विकास कोष (IIPDF) का गठन किया गया।

मध्यप्रदेश जल क्षेत्र सुधार


2005 में विश्व बैंक ने मध्यप्रदेश सरकार को 39.6 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया है। इस कर्ज से क्षेत्र सुधार की शर्तों के साथ ``मध्यप्रदेश जल क्षेत्र पुनर्रचना परियोजना´´ जारी है।
इस परियोजना के मुख्य बिंदु निम्न है –

जलक्षेत्र का व्यावसायीकरण। पूरे क्षेत्र को बाजार में तब्दील करना।
पूर्ण लागत वसूली और जल दरों में बढ़ौत्तरी
सब्सिडी की समाप्ति
जबरिया नया कानून बनवाया जा रहा है जिसके तहत राज्य जल दर नियामक आयोग का गठन किया जाएगा। इस कानून का प्रारूप तैयार किया जा चुका है।
राज्य जल संसाधन एजेंसी का गठन
बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छँटनी
पहले चरण में 25 छोटी और 1 मध्यम परियोजना का निजीकरण

महाराष्ट्र राज्य जल संसाधन नियमन प्राधिकरण


विश्व बैंक के वित्तपोषण से महाराष्ट्र में सुधार की प्रक्रिया जारी है। ``महाराष्ट्र राज्य जल संसाधन नियमन प्राधिकरण´´ का गठन किया जा चुका है और विश्व बैंक के ``सुझावों´´ के अनुरूप प्राधिकरण ने अपना कार्य प्रारंभ कर दिया है। नियामक प्राधिकरण का गठन जून 2005 में किया गया लेकिन इसने काम मई 2006 में प्रारंभ किया। दर निर्धारण के अलावा इसका प्रमुख कार्य जल अधिकारों के व्यापार का मानदण्ड तैयार करना है। ये जल अधिकार वार्षिक अथवा मौसमी आधार पर बेचे-खरीदे जा सकते हैं। आयोग द्वारा 2 बड़ी सिंचाई परियोजनाओं समेत 6 परियोजनाओं में जल अधिकार सुनिश्चित करने तथा उसके बाजार का ढाँचा तैयार करने का प्रयास प्रायोगिक तौर पर किया जा रहा है।

प्रभाव


समाज के सभी वर्गों में सुधार के प्रभावों का अनुभव किया जा रहा है। लेकिन, गरीब परिवार और किसान जैसे वंचित समुदाय इससे गंभीर रूप से प्रभावित होंगे। मध्यम वर्ग भी इसे अनुभव करेगा। इसके प्रमुख प्रभाव निम्न हैं –

अत्यधिक दर वृद्धि के कारण कई लोग तो पीने के पानी का भार भी वहन नहीं कर पाएँगें।
भुगतान में असमर्थता के कारण सेवा समाप्ति यानी पानी के कनेक्शन काटे जाएँगें।
जल कनेक्शन काटने का अर्थ है कि या तो लोग कम गुणवत्ता का पानी पीने पर मजबूर होंगें अथवा गंभीर राजनैतिक अशांति पैदा हो सकती है।
सिंचाई दरों में बढ़ौत्तरी होने से पहले से ही दयनीय कृषि क्षेत्र की दशा और खराब हो जायेगी।
गरीबों का सहारा हेण्डपम्प, सार्वजनिक नल आदि सुविधाएँ खत्म कर दी जाएगी।
पैसा देने वाले उपभोक्ताओं के लिए तंत्र में बदलाव किए जाएँगें। जो ऊँची दरों का भुगतान नहीं कर पाएँगें वे या तो सेवा से बाहर कर दिए जाएँगे या फिर हाशिएँ पर धकेल दिए जाएँगें।

अंतत: जो भुगतान कर सकते हैं उन्हीं के लिए जल संसाधनों को हड़प लिया जाएगा।
निजी कंपनियों द्वारा भारी मुनाफाखोरी की जाएगी।
सार्वजनिक संसाधनों से पीढ़ियों से निर्मित बुनियादी ढाँचों को नाममात्र की कीमत में बेच दिया जाएगा।
भूजल, नदी आदि समुदाय के संसाधनों पर निजी नियंत्रण संभावित।
सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की भारी छँटनी उपरोक्त के कारण वित्तीय समस्याओं, गुणवत्ता और मात्रा संबंधी समस्याओं, उचित एवं वहनीय जलप्रदाय, संसाधनों की सुरक्षा और विस्तार जैसी जल क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं के हल की संभावना अत्यंत क्षीण है।

सुधार क्यों


पिछले कुछ वर्षों में निजीकरण के व्यवहार और इससे संबंधित चर्चाओं में बदलाव आया है। इस संबंध में पहला प्रयास सीधे निजीकरण का था, जिसकी दुनियाभर में कड़ी राजनैतिक प्रतिक्रिया हुई। कई कंपनियों के लिए मुनाफा कमाना आसान नहीं रहा। मुनाफा कमाने के लिए सेवा दरों में भारी वृद्धि करनी होती है जो गरीबों के लिए असहनीय होती है। ऐसे में जलप्रदाय जारी रखने से मुनाफे में कमी होती है और कनेक्शन काटने से सामाजिक अशांति पैदा होने का खतरा रहता है।

राजनैतिक सामाजिक आक्रोश और मुनाफा कमाने में कठिनाईयों का परिणाम ``गरीब हितैषी´´ निजीकरण और सार्वजनिक निजी भागीदारी (जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र को फायदा पहुँचाने के लिए स्वयं सारे जोखिम उठाता है।) जैसी योजनाओं के रूप में सामने आया। परन्तु, यह पर्याप्त सिद्ध नहीं हुआ और राजैनेतिक आक्रोश के कारण मुनाफा कमाने में परेशानियाँ जारी रही है। इस प्रकार क्षेत्र सुधार या सेक्टर रिफार्म पर जोर दिया गया। इसमें निजी क्षेत्र सीधे परिदृश्य में नहीं होते हैं। अलोकप्रिय और कड़े निर्णय लेने और उन्हें लागू करने की सारी जिम्मेदारी सरकार और सार्वजनिक निकायों की होती है। इसमें वे सारे तरीके शामिल होते हैं जिन्हें ऊपर रेखांकित किया गया है।

इसके पीछे की सोच यह है कि क्षेत्र को पूर्ण रूप से व्यावसायिक बनाने का आरोप और राजनैतिक प्रतिक्रिया सरकार सहेगी और उसके बाद इसे निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाएगा। निजी क्षेत्रों को फायदा पहुँचाने का, उन्हें सामाजिक जिम्मेदारी के बोझ और जोखिम से परे करने का आजकल यह रास्ता निकाला गया है। इस प्रकार जल क्षेत्र सुधार को भी भूमण्डलीकरण और निजीकरण के नवउदारवादी एजेण्डे के सीधे और आवश्यक घटक के रूप में देखा जाना चाहिए।

विश्व बैंक ``ज्ञानदाता´´ के रूप में


विश्व बैंक अन्य द्विपक्षीय कर्जदाताओं के साथ मिलकर क्षेत्र निजीकरण एवं व्यावसायीकरण में पैसे देने के अलावा एक और महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। यह भूमिका ``शोध´´ और ``अध्ययन´´ के माध्यम निजीकरण को सही सिद्ध करने के ``ज्ञान´´ और अन्य सहयोग के रूप में है।

जल क्षेत्र की गहन और लंबे समय से चली आ रही समस्याओं के ``हल´´ के रूप में निजीकरण को देश पर लादा जा रहा है। इस नीति निर्धारण को ``हल´´ के रूप में प्रदर्शित करवाने के लिए इसे शोध और अध्ययन के निष्कर्षों की तरह प्रदर्शित किया जाता है। इसके लिए विश्व बैंक स्वयं अथवा सलाहकारों के माध्यम से बड़ी संख्या में शोध और अध्ययन करवाता है।

उदाहरणार्थ, विश्व बैंक कुछ अंतर्राष्ट्रीय कर्जदाता एजेंसियों के साथ मिलकर जल एवं स्वच्छता कार्यक्रम (वाटर एण्ड सेनिटेशन प्रोग्राम) संचालित करता है। भारत में भी यह कार्यक्रम अध्ययनों की एक श्रंखला के साथ सामने आया है जिनमें जल क्षेत्र की समस्याओं जैसे शहरी और ग्रामीण जलप्रदाय, सिंचाई आदि का हल सुझाया गया है।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि निजीकरण के दुष्परिणामों के ढेर सारे उदाहरणों के बावजूद विश्व बैंक के ऐसे अध्ययन किसी भी क्षेत्र के लिए हमेशा एक जैसा निजीकरण और उदारीकरण का घिसापिटा नुस्खा ही सुझाते हैं। इसे हम मोटे रूप में निजीकरण, निगमीकरण और भूमण्डलीकरण के पुलिंदे का ``बौद्धिक एवं सैद्धांतिक आधार´´ कह सकते हैं।

विश्व बैंक की राष्ट्र सहायता रणनीति (CAS) 2005-2008 से स्पष्ट है कि निजीकरण और भूमण्डलीकरण को आगे धकेलने में विश्व बैंक अपनी ज्ञानदाता की भूमिका को कितना महत्व देता है। यह दस्तावेज भारत को इन 3 वर्षों में दिए जाने वाले कर्जों के संबंध में विश्व बैंक की रणनीति और प्राथमिकता निर्धारित करता रहा। विश्व बैंक के कार्यों के संबंध में तीन ``रणनैतिक सिद्धांतों´´ में से एक है-``बैंक का लक्ष्य व्यावहारिक, राजनैतिक ज्ञानदाता और उत्पादक की भूमिका का पर्याप्त विस्तार करना है।

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