भारतीय चिन्तन-परम्परा में जल

जल अर्थात रस से वंचित करना अधर्म है। मानव का कर्तव्य केवल जल के स्थूल रूप से वंचित न करना ही अन्तिम नहीं है। सूक्ष्म रूप में किसी को रस से वंचित न करना ही अन्तिम लक्ष्य है। जब रहीम सब सून कहते हैं तो यहाँ किसी के तिरस्कार, अपमान का भी निषेध है। पानी न देना और किसी का पानी उतार लेना दोनों मानवता के विरुद्ध हैं क्योंकि सब की सत्ता जल में है। ब्रह्म रस रूप जल में, तेजमय सूर्य मरीचि में, पृथ्वी पातालव्यापी आप् पर प्रतिष्ठित है। सारे प्राणी भूव्यापी मर में प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए कहा गया है- सर्वमापोमयं जगत्।जल अर्थात रस से वंचित करना अधर्म है। मानव का कर्तव्य केवल जल के स्थूल रूप से वंचित न करना ही अन्तिम नहीं है। सूक्ष्म रूप में किसी को रस से वंचित न करना ही अन्तिम लक्ष्य है। जब रहीम सब सून कहते हैं तो यहाँ किसी के तिरस्कार, अपमान का भी निषेध है। पानी न देना और किसी का पानी उतार लेना दोनों मानवता के विरुद्ध हैं क्योंकि सब की सत्ता जल में है। ब्रह्म रस रूप जल में, तेजमय सूर्य मरीचि में, पृथ्वी पातालव्यापी आप् पर प्रतिष्ठित है। सारे प्राणी भूव्यापी मर में प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए कहा गया है- सर्वमापोमयं जगत्।वेदों में जो सृष्टि विज्ञान वर्णित है वह बतलाता है कि ब्रह्म के चार पादों में से अव्यय ब्रह्म अचिंत्य और सूक्ष्म है। अक्षर ब्रह्म तत्व रूप है। उसका मूर्त स्वरूप क्षरब्रह्म कहा जाता है जिसकी पाँच कलाएँ ब्राह्मण ग्रन्थों में बताई गई हैं। वे हैं प्राण, वाक्, अन्न और अन्नाद। प्राण वह तत्व है जो समस्त सृष्टि का आधार है और उसे गति देता है। आपः जलीय तत्व है और वाक पदार्थ और दृश्य प्रपंच का वाचक है। हमारे प्राचीन वाड.मय में जल को अग्नि की माता कहा गया है। इस दृष्टि से जल और अग्नि एक ही तत्व के दो स्वरूप है। आपः में जो तत्व समाविष्ट बताए गए हैं, वैदिक वाड.मय के अनुसार वे हैं भृगु और अंगिरा। भृगु सोम-तत्व है और अंगिरा अग्नि तत्व है। इसे पण्डित लोग इस प्रकार भी बतलाते हैं कि आधुनिक विज्ञान में हाइड्रोजन के दो अंश और आॅक्सीजन का एक अंश जल में बताया जाता है वहीं भृगु और अंगिरा है।

वैदिक वाड.मय में, उपनिषदों में और भारतीय दर्शन की शाखाओं में जल को सृष्टि के एक महत्वपूर्ण पदार्थ के रूप में सर्वत्र वर्णित और परिभाषित किया गया है। वैदिक वाड.मय में सृष्टि विज्ञान का विवेचन करते हुए जल को सृष्टि के उद्गम अर्थात विसृष्टि की प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण उपादान के रूप में बताया गया है जबकि सृष्टि के बाद पंचभूतों में से एक भूत के रूप में उसका जो स्थान है उसका विवेचन सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि सभी दर्शनों में विस्तार से हुआ है। जहाँ गोपथ ब्राह्मण ने उसका सृष्टि के उपादान के रूप में वर्णन करते हुए उसे भृगु और अंगिरा के संघात के रूप में आदिम तत्व की तरह विवेचित किया है वहीं दर्शनों ने उसे केवल द्रव्य या पदार्थ माना है।

दर्शन में जल : सांख्य आदि दर्शनों ने सृष्टि के उद्गम की प्रक्रिया यह बतलाई है कि अव्याकृत कारण ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई फिर महत्व, फिर अहँकार, फिर पंचतन्मात्रा और फिर पंचभूत और इन्द्रिय। पंचभूतों में जो जल है वह द्रव्य है। जबकि आदिसृष्टि के रूप में जिस जल का उल्लेख किया गया है वह सूक्ष्म तत्व है जिसमें सुनहरा अण्डा या कॉस्मिक ऐग पैदा होता है। उस अंडे को हिरण्यगर्भ भी कहा गया है। चूँकि सारी सृष्टि उस अंडे से पैदा हुई है अतः उसी में पंचभूतों की उत्पत्ति भी आ जाती है। इससे पूर्व जो प्रथम अप तत्व था, जिसमें ब्रह्मा ने बीज बोया वह सूक्ष्म तत्व के रूप में पहली सृष्टि कहा ही जा सकता है। यही रहस्य है जल को आवेग सृष्टि कहने का तथा समस्त जगत के जलमय होने का।

वैशेषिक दर्शन बड़ा पुराना दर्शन है जिसका दृष्टिकोण द्रव्यवादी है। यह जगत में सात पदार्थ मानता है- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। द्रव्यों का विवेचन करते हुए वह नौ द्रव्य यों गिनाता है- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। यहाँ जल का विवेचन करते हुए वह स्पष्ट करता है कि जल दो तरह के होते हैं- नित्य और अनित्य। हम जिसे जल के रूप में इस्तेमाल करते हैं वह स्थूल द्रव्य अनित्य जल है जबकि नित्य जल अर्थात आप सूक्ष्म तत्व के रूप में विश्व में व्याप्त है। इस प्रकार इन्द्रियगम्य भूतों को जिन्हें पंचभूत कहा जाता है गिनाते हुए हमारे समस्त दर्शन जल को पंचभूत समुदाय के एक सदस्य के रूप में स्थान देते हैं। जल से ही पृथ्वी पैदा हुई है यह प्राचीन मान्यता इन दर्शनों को भी मान्य है।

लक्ष्मी कान्त पांडेय, सर्वमापोमयं जगत
तैत्तरीय उपनिषद् में ऋषि ने जब जल को ही अन्न कहा, तो निश्चित रूप से उसके मन में केवल तत्व-चिन्तन ही था, आज की कोई संकल्पना नहीं थी। ठीक इसी प्रकार जब रहीम ने ‘बिन पानी सब सून’ कहा होगा, तो उनके मन में अन्तिम चरण मोती मानुष चून का श्लेष उभरा होगा। रहीम ने श्लेष को महत्व भले दिया हो, लेकिन आज के संदर्भ में उनके इस दोहे का पहला चरण अधिक सामयिक है- ‘रहिमन पानी राखिए।’ इस प्रथम चरण से तैत्तरीय के ऋषि का कथन जुड़ जाता है- ‘आपो वा अन्नम।’ निश्चित रूप से रहीम से उस ऋषि का चिन्तन अधिक व्यापक है। वह पानी को मोती, मानुष, चून तक नहीं सीमित करता। इससे व्यापक भूमिका देकर कहता है- जल ही अन्न है, ज्योति अन्नाद है। जल में ज्योति प्रतिष्ठित है और ज्योति में जल। (आपो वा अन्नम्। ज्योतिरन्नादम्। अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्। ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिता।)

दुर्भाग्यवश विज्ञान के हाइड्रोजनिक चिन्तन ने इसका पंचभूतात्मक भौतिक रूप तो देखा किन्तु अन्न रूप और अप्सु ज्योतिः को महत्व नहीं दिया। भारत में भी पंचभूतात्मक भौतिक के एक रूप में इसकी गणना करके ही सर्वसुलभता के कारण जल का दोहन हुआ। हम भूल गए कि जगत का आधार जल है और जगत का ही नहीं, ज्योति का आधार भी।

इस जल के महत्व को समझे बिना उसके संरक्षण की ओर हमारी दृष्टि नहीं जाएगी।

सृष्टि में पंचभूत समानधर्मा हैं। परन्तु आकाश की शून्यता केवल संचय केन्द्र है। वायु के लिए आकाश की अपेक्षा होती है। अग्नि में रस का अभाव होता है और पृथ्वी में शून्य का। इसके विपरीत जल में चार गुण होते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप और रस। अपने इन चार गुणों से वह द्युलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वीलोक और पाताल में व्याप्त रहता है, क्योंकि जल परमाणु, वाष्प, द्रव और हिम चार रूपों में उपलब्ध है।

पौराणिक तर्क यह सिद्ध करते हैं कि सृष्टि का अधिष्ठाता तो ब्रह्म है। परन्तु जल तक आते-आते ही गोचर सृष्टि प्रारम्भ हो पाती है। आकाश, वायु, अग्नि तक सृष्टि नहीं लक्षित होती है। जल तत्व प्रलय काल है। इस एक तत्व के बाद यह जगत उपस्थित होने लगता है। इसीलिए प्रलय काल को जलमय माना गया है। और फिर से नई सृष्टि का वहीं से प्रारम्भ।

तोयान्तः महीं ज्ञात्वा जगत्येकार्णवीकृते।
अनुमानात्तदुद्धारं कर्तुकामः प्रजाप्रति।।


निघण्टु में जल के बीस पर्याय बताए गये हैं, इनमें चार हैं- अम्भ, मरीचि, मर् और आप्। ऐतरेयोपनिषद् में कहा गया है कि जब परमात्मा ने सृष्टि-रचना का संकल्प लिया तो आप् को उत्पन्न किया। आप् (जल) चार गुणों से युक्त होता है- शब्द, स्पर्श, रस और रूप।

ऐतरेय के अनुसार द्युलोक में अम्भ, अन्तरिक्ष में मरीचि, पृथ्वी पर मर् और पाताल में आप् की प्रतिष्ठा हुई। स्वर्ग से ऊपर मह, जन तप और सत्य-चार लोकों को मिलाकर द्युलोक है। यहाँ प्राणियों का प्रवेश नहीं है। यहाँ जल अम्भ रूप में है। यहाँ परमात्मा ज्योति रूप में विद्यमान है। (ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिता)। भुवर्लोक को अन्तरिक्ष कहते हैं जहाँ नक्षत्रों का वास है, यहाँ जल मरीचि रूप में है। भूलोक में मर् और पाताल में आप् रूप में। इस प्रकार अम्भ सूक्ष्म रूप है और अन्य क्रमशः स्थूल। अथर्ववेद में जल के तीन रूप माने गये हैं- दिव्या, आन्तरिक्षी और पार्थिवी। जो जल जितना सूक्ष्म होता है, उतना ही श्रेष्ठ होता है। द्युलोकस्थ जल अतिसूक्ष्म है। वह रस रूप है। अतः परमात्मा को रस रूप कहा गया है (रसो वै सः)। जब रस से जल बनता है तो उसमें सोम और अग्नि का वास होता है। सोम से औषधियाँ और अग्नि से शक्ति मिलती है। इसी से जल को विश्व भेषजी भी कहा जाता है। सोम से शीतलता और अग्नि से प्रखरता मिलती है। विज्ञान ने उसी से जल विद्युत उत्पन्न किया। ऋग्वेद में भी उसका उल्लेख है। इसीलिए अग्नि को जल से उत्पन्न माना गया है (तमापो अग्नि जनयन्त मातरः तमोषधीर्दधिहे गर्भमृवियं-ऋग्वेद 10/91/6)। विज्ञान भी शीतलता को जल का धर्म और विद्युत को अन्तर्निहित शक्ति मानता है।

रस रूप जल विद्युत की भाँति सूक्ष्म है। यह द्युलोकस्थ है। अन्तरिक्ष में मरीचि में सोम और अग्नि का योग है। जब सूर्य प्रखर होता है, तब, अन्तरिक्ष व्यापी मरीचि ध्रुवलोक की ओर बढ़ता है। शीतल ध्रुवलोक में वह हिम बन जाता है और भारी होने के कारण नीचे गिरता है। पृथ्वी पर गिरते समय वह धारा रूप हो जाता है। यही आप् है। भाव प्रकाश में वर्षा जल के चार रूप हैं- धारा, करका, तुषार, और हिम। यह विश्वभेषजी है पर पृथ्वी का स्पर्श होते ही उसमें गंध का समावेश होता है और नाना रूप हो जाते हैं। आकाश से गिरे जल को ही गांगेय कहा जाता है। इसी से गंगा को देवनदी कहा गया है। गंगा विष्णुपदी भी हैं। विष्णु का तृतीय पाद ही ध्रुवलोक है।

आधिदैविक स्थिति के उपरान्त आधिभौतिक दृष्टि से भी देखें तो जल ही जीवन सिद्ध होता है। पाँच तत्वों में जल ही पोषक है, शेष शोषक हैं। जल के सान्निध्य से ही ये शोषक नहीं रहते। गीता में यज्ञ से पर्जन्य और पर्जन्य से अन्न का उल्लेख है। इस प्रकार जल ही वह तत्व है जो द्युलोक से पाताल तक व्याप्त है और अन्य तत्वों के शोषक रूप को प्रशमित करता है।

ऋग्वेद में तो स्पष्ट कहा गया है कि मरीचि के ऊपर सूर्य तैरता रहता है। सूर्य की ऊष्मा से मरीचि प्रकाशित हो उठता है। सूर्य को इसीलिए मरीचि माली कहा जाता है। स्पष्ट है कि सम्पूर्ण आकाश से पाताल तक के प्राणियों या पदार्थों को जल की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, उसी में रहना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है- जीवनं भुवनं जलम्।

स्पष्ट है कि जल का अर्थ पानी नहीं है। वह रस है, सूक्ष्म है। सृष्टि में जो भी सौन्दर्य है, कान्ति है दीप्ति है, वह इसी रसमयता के कारण। स्थूल जल से शरीर का पोषण होता है और रस से आत्मा का। मनुष्य की कान्ति, पुष्प में पराग, वृक्ष की छाल में रस ही विद्यमान है। इस रस का सूखना मृत्यु की ओर बढ़ना है। इसीलिए हमारे शास्त्रों में रसमयता पर बल दिया गया है। जो रसमय होगा, वही जलमय होगा। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने कहा है कि किसी को जल से वंचित नहीं करना चाहिए-

तृषितोमोहमायाति मोहात्प्राणं विमुच्यति।
अतः सर्वास्ववस्थासु न व्कचिद्वारिवारयेत्।।


जल अर्थात रस से वंचित करना अधर्म है। मानव का कर्तव्य केवल जल के स्थूल रूप से वंचित न करना ही अन्तिम नहीं है। सूक्ष्म रूप में किसी को रस से वंचित न करना ही अन्तिम लक्ष्य है। जब रहीम सब सून कहते हैं तो यहाँ किसी के तिरस्कार, अपमान का भी निषेध है। पानी न देना और किसी का पानी उतार लेना दोनों मानवता के विरुद्ध हैं क्योंकि सब की सत्ता जल में है। ब्रह्म रस रूप जल में, तेजमय सूर्य मरीचि में, पृथ्वी पातालव्यापी आप् पर प्रतिष्ठित है। सारे प्राणी भूव्यापी मर में प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए कहा गया है- सर्वमापोमयं जगत्।

सुशील कुमार पाण्डेय, वैदिक वाङ्मय में जल
वैदिक वाङ्मय में जल विषमय शुद्धता एवं आध्यात्मिकता पर बहुत कुछ कहा गया है। ऋग्वेद का ऋषि देवों को नेक सलाह देता है। “हे देवो! तुम अपनी उन्नति के लिए जलों के भीतर जो अमृत और औषधि है, उनको जानकर जल के प्रयोग से ज्ञानी बनो।”

अप्स्वन्त रमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः
ऋग्वेद 1-23-19

यजुर्वेद का ऋषि जल से प्रार्थना करता है कि जैसे माँ अपनी सन्तान को दूध पिलाती है, वैसे ही हे जल! जो तुम्हारा कल्याणतम रस है, उसे हमें प्रदान करें-

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातर।।
यजुर्वेद 36-15
अथर्ववेद के ऋषि का कथन है कि “देखने सुनने एवं बोलने की शक्ति बिना पर्याप्त जल के उपयोग में नहीं आती। जल ही जीवन का आधार है। अधिकांश जीव जल में ही जन्म लेते हैं और उसी में रहते हैं। हे जलधारको! मेरे निकट आओ तुम अमृत हो:”

आदित्पश्याम्युत वा शृणोम्या मा घोषो गच्छति वाङ्मासाम्।
मन्ये भेजनो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः।।

अथर्ववेद 3-13-6
वैदिक ऋषि की सलाह है कि मकान के पास ही शुद्ध जल से भरा हुआ जलाशय होना चाहिए। उनका कथन है कि “अच्छे प्रकार से रोग रहित तथा रोगनाशक इस जल को मैं लाता हूँ। शुद्ध जलपान करने से मैं मृत्यु से बचा रहूँगा।”

वैदिक वाङ्मय में यज्ञ का विशिष्ट महत्व है और बिना जल का आचमन किए यज्ञ आरम्भ नहीं होता। यजमान आचमन करते हुए कहता है कि जल पवित्र होता है और इस पवित्र जल से आचमन करने पर मैं पवित्र होकर धर्म-कर्म रूपी व्रत ग्रहण करूँ:

पवित्र पूतो व्रतमुपयानीति
शतपथ ब्राह्मण -1-1-1-1


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