भारतीय जलवायु परिवेश के अंतर्गत जल भंडारण में स्वजलधारा - एक युक्तिसंगत, प्रमाणित व्यावहारिक कार्यक्रम

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वर्तमान परिदृश्य में राजा व जमींदार का स्थान सरकार व उद्योगपतियों ने ले लिया है। इसलिये इन दोनों वर्गों के नेता, यदि समाज से मिलकर कमर कस लें तो भारत में जल समस्या का निदान सरलता से किया जा सकता है। इस दिशा में स्वजलधारा माध्यम से भारत सरकार ने पहल की है और इसको व्यवहारिक रूप में सफल बनाने के लिये भारतीय उद्योगपतियों व गैरसरकारी स्वयंसेवमी संस्थानों को भी इसमें बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए।

स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त, 2002) के अवसर पर एक स्वजलधारा योजना की घोषणा की गई जिसका औपचारिक शुभ आरंभ 25 दिसम्बर, 2002 को किया गया।

इस योजना की विशेषता है कि भूजल भंडार समृृद्धि के लिये अपनाए जाने वाले सभी कार्य स्थानीय निवासियों को ही कार्यान्वित करने होंगे और भविष्य में उनका समुचित रख-रखाव कार्य भी उन्हीं के हाथों में होगा। भारत सरकार इस प्रकार की परियोजना के लिये 90 प्रतिशत खर्च की आर्थिक सहायता, लाभार्थियों के स्थानीय समूह अथवा ग्राम पंचायत को देगी, जिन्हें मात्र दस प्रतिशत का खर्च वहन करना होगा। भारत के किसी भाग में इसका लाभ उठाने के लिये स्थानीय नागरिक समिति या पंचायत द्वारा अपने क्षेत्र में तालाब, बावड़ी, कुआँ व हैंडपंप निर्माण की परियोजना बनानी होगी। फिर उसके कुल लागत की दस प्रतिशत धन राशि बैंक में जमा कर, राज्य सरकार द्वारा इस कार्य के लिये जिलास्तर पर नियुक्त अधिकारी से 90 प्रतिशत खर्च की अनुदान राशि के लिये आवेदन करना होगा। अब तक पेयजल से जुड़ी योजनाओं पर खर्च में, केन्द्र व राज्य सरकारों का आधा-आधा हिस्सा रहा है। इस परियोजना के अंतर्गत राज्य सरकारों पर कोई वित्तीय बोझ नहीं आएगा, परन्तु उन्हें योजनाएँ बनाने और जनता को उनमें भागीदार बनने के लिये प्रेरित अवश्य करना होगा।

भारत सरकार द्वारा इस प्रकार की पहल करना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाया गया एक सर्वाधिक उच्च स्तरीय कदम है, जिसे स्वतंत्र भारत में अपनायी गई, सबसे रचनात्मक परियोजना कहा जा सकता है। फिर यह भारतीय परम्परा के अनुरूप भी है, जिसके अंतर्गत जल भंडारों के संरक्षण का कार्य एक सामाजिक कर्तव्य के रूप में नागरिक स्वयं करते थे। वर्तमान में भी भारतीय नागरिकों को इस जल संवर्धन कार्य को अपने हाथों में लेना होगा (स्वयं अपनी सुरक्षा के लिये), क्योंकि सरकार सभी विकास कार्य अपने आप नहीं कर सकती है। इस प्रकार के कार्यों में जनता का सहयोग अनिवार्य है।

फिर इस पृथ्वी पर जीवित रहने के लिये ‘‘स्वच्छ हवा’’ के पश्चात निरंतर जल आपूर्ति दूसरी सबसे बड़ी अनिवार्यता है, चाहे वह प्यास बुझाने के लिये अथवा भोजन प्राप्त करने के लिये कृषि कार्य क्यों न हो। इस संदर्भ में डॉ. मधु पंत, निदेशक- बाल भवन सोसायटी इंडिया, नई दिल्ली के उद्गार-

होता अगर नहीं ये पानी, कैसे होती धरती धानी।
जीव जन्तु कैसे जी पाते, बिन पानी के सब बेमानी।
प्यास बुझाता, भूख मिटाता, सबका भोजन दाता पानी।
किन्तु अगर गंदा हो जाए, बीमारी को लाता पानी।
तब जीवन का रक्षक पानी बन जाता है भक्षक पानी


परन्तु कृषि कार्य व भूजल भंडारों को समृद्धता प्रदान करते रहने के लिये भूसतही उपजाऊ मृदा की उपस्थिति एक अन्य अनिवार्यता है, जिसे केवल वनस्पतियाँ ही संरक्षण प्रदान करती हैं। इसलिये स्थानीय भौगोलिक परिवेश में उपलब्ध पेड़-पौधों, घास-झाड़ियों, जैसी वनस्पतियों का व्यवस्थित रोपण करना आवश्यक कार्य है, ताकि भूजल भंडार भरते रहें, कृषि योग्य उपजाऊ मृदा का क्षरण न हो व वनस्पतियों के संयोग से भाटी की जैविक प्रजनन क्षमता भी उच्च स्तरीय बनी रहे। अर्थात उपजाऊ मृदा व वनस्पतीय कवच के अभाव में भूजल भंडार भी समृद्ध नहीं किए जा सकते हैं। याद रहे कि प्राचीन मिश्र व यूनानी सभ्यताएँ, वहाँ की ऊपरी मृदा सतह की क्षरण होने से इतिहास का पन्ना मात्र बनकर रह गई हैं।

इसी प्रकार, मृदा क्षरण एक ज्वलंत भारतीय उदाहरण है- ‘थार के रेगिस्तान’, जिनका फैलाव बढ़ता जा रहा है। इसके विस्तार फलस्वरूप भारत की प्रसिद्ध वैदिक कालीन सरस्वती नदी, शनै: शनै: कर कहीं गर्त में खो गई पाँच से छह हजार वर्ष पूर्व। ऋग्वेद, ब्राह्मण और श्रुतसूत्र, महाभारत, रामायण, भागवत पुराण, वामन पुराण आदि जैसे प्राचीन ग्रंथों में इस विशिष्ट नदी का वर्णन पाया जाता है। इन्हीं ग्रंथों में, शिक्षा के कई प्राचीन केन्द्र और याज्ञवल्क्य जैसे ऋषियों के आश्रम इसी पवित्र नदी के तट पर स्थित बताए गए हैं।

पिछले कुछ वर्षों से भारतीय वैज्ञानिक इस नदी तंत्र की भूमिगत धाराओं के अदृश्य पथ की खोज में लगे हुए हैं क्योंकि ये अदृश्य पथ जल भंडारों के विशाल स्रोत हो सकते हैं विशेषकर राजस्थान व गुजरात के लिये इस परियोजना को सफल बनाने के लिये भारत ने बहु अनुशासनिक मार्ग अपनाया है, जिसके अंतर्गत सुदूर संवेदन, पर्यावरण, आनुवंशिक, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण, भाभा आणविक शोध केन्द्र, केन्द्रीय जल आयोग आदि जैसे संस्थानों के वैज्ञानिक मिलजुल कर कार्य कर रहे हैं। यह अभियान अब सफल होने लगा है।

वैज्ञानिकों के अनुसार एक इन्च सतही उपजाऊ मृदा निर्माण में 500 से 1000 वर्ष लग जाते हैं और इस मृदा निर्माण कार्य में केवल प्रकृति ही हमारी सहायता कर सकती है। इस नियति का ज्ञान, हमें एक भयावह वास्तविकता से अवगत कराता है कि हम करोड़ों रुपया खर्च करने पर भी उपजाऊ मृदा कहीं से नहीं खरीद सकते हैं।

भू सतही मृदा की उपस्थिति में पेड़-पौधे उगते हैं और कुछ समय पश्चात जंगलों का रूप धारण करते हैं। जंगलों के अभाव में मृदा क्षरण क्रिया सक्रिय हो जाती है और कुछ काल पश्चात मृदा कवच हट जाने के फलस्वरूप चट्टानें सतह का रूप धारण कर, प्रकृति द्वारा स्थापित ऊर्जा निर्णायक स्रोतों के प्रभाव में केवल बालू निर्माण करने लगती है, भूजल भंडार प्रभावित होने लगते हैं व कृषि उत्पादन भी घटने लगता है।

प्रकृति ने नदी-नालों का निर्माण भी, स्थानीय भौगोलिक/भूवैज्ञानिक परिवेश में वर्षा और पानी संचय क्षमता के अनुरूप ही किया होता है। जंगल काट देने पर वहाँ प्राकृतिक संतुलन अस्त व्यस्त हो जाता है और वनस्पतियों के अभाव में बरसात का पानी, पृथ्वी के अंदर समाने के बजाय, बिना समय गंवाए स्थानीय नदी-नालों के प्रवाह मार्ग में नव निर्माणाधीन बालू को अपने साथ बहाकर प्रवाहित होने लगता है। इस बालू भरण क्रिया से इन जल मार्गों की फर्श निरंतर ऊँची उठती रहती है व उनकी जल ग्रहण क्षमता दिन पर दिन कम होती जाती है। इसके फलस्वरूप, एक ओर बरसात के महीनों में इन नदी नालों के प्रवाह क्षेत्र में तत्क्षण प्रसारित बाढ़ की संभावनाएँ बढ़ने लगती हैं, तो दूसरी ओर ऐसे क्षेत्र के नदी नाले वर्ष के अन्य महीनों में सूखे पड़े रहते हैं। इस क्रम में एक ऐसा समय आता है कि उस क्षेत्र के नदी नाले, नवनिर्माणाधीन अपरिपक्व मृदा द्वारा पूर्णतः ढक जाने से अतीत का इतिहास बन जाते हैं। किसी दार्शनिक ने ठीक कहा है- मानव सभ्यताएँ जंगलों का अनुसरण करती हैं, लेकिन अपने पीछे रेगिस्तान छोड़ जाती हैं।

स्वजलधारा योजना के माध्यम से भारत सरकार ने तालाब और कुआँ निर्माण की प्राचीन परंपरा को पुनः स्थापित कर एक जन आंदोलन के रूप में सक्रिय करने का प्रयास किया है। फिर ये पुरानी विधियां एक जागृत विज्ञान हैं।

भारत में तालाबों की परंपरा बहुत पुरानी है और तालाबों को संरक्षण देने की प्रथा, समाज का एक अभिन्न अंग रही हैं। परन्तु आधुनिकता की दौड़ में पाइप लाइनों व गहराई से पानी खींचने की क्षमता वाले पंपों के प्रसार फलस्वरूप भूजल भंडार समृद्धता को निरंतर गतिशील रखने के सभी सबल प्राकृतिक नियमों को हम भूल चुके हैं। भूजल भंडारण तो हमारे बैंक अकाउन्ट के समान हैं- खाते में जितना धन जमा होगा, उसे ही हम निकाल सकते हैं। भारत में जलस्रोतों का वर्तमान दोहन, भूजल संचयन क्षमता से दो गुणा अधिक हो रहा है और भारत के अधिकतर भागों में भूजल का स्तर एक से तीन मीटर प्रतिवर्ष नीचे की ओर गिरता जा रहा है और इन बढ़ती गहराइयों से जल प्राप्त करने में ऊर्जा खर्च में निरंतर वृद्धि हो रही है। पिछले 13-14 वर्षों से अच्छी मानसून वृष्टि लगातार होते रहने के बावजूद देशभर में सूखे का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या में वृद्धि के फलस्वरूप, प्रत्येक 21 वर्षों में जल की मांग दोगुनी हो रही है। केवल भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व में जल संकट गहराता जा रहा है और विशेषज्ञ तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि यदि जल संभर प्रबंध कौशल के माध्यम से पारिस्थितिकीय सुधार के कार्य को अभी से नहीं अपनाया जाता है, तो अत्यन्त निकट भविष्य में जल भंडारों पर अधिकार करने के लिये देशों के मध्य युद्ध होने लगेंगे, जैसा वर्तमान में तेल भंडारों को लेकर हो रहा है।

भारत जैसे ट्रॉपिकल जलवायु वाले देश में भूजल भंडारों को समृद्धता प्रदान करते रहने में तालाबों का निर्माण करना एक प्राकृतिक अनिवार्यता है। एक अनुमान के अनुसार यदि भारत के प्रत्येक जिले के तीन प्रतिशत भाग में तालाब निर्माण कर दिए जाएँ, तो देश भर में पानी की समस्या का हल हो जाएगा।

तालाबों में वर्षा का पानी भरता रहता है और फिर धीरे-धीरे मृदा में रिसते हुए भूमिगत जल बैंक को समृद्धता प्रदान करता रहता है, ताकि कुओं व नलकूपों में वांछिनीय जलस्तर विद्यमान रहे। लेकिन तालाब की इस उपयोगिता को स्थायित्व प्रदान करने के लिये कुछ साधारण प्रयास करने आवश्यक होते हैं। भूढलान का उपयोग करते हुए नालियों का निर्माण करें, ताकि वर्षा का पानी तालाब को भर सके, तालाब के बंध की सुरक्षा व उसकी गहराई बनाए रखने के उपाय और उसमें एकत्रित पानी की स्वच्छता के लिये नियम पालन करना।

तालाब भरता रहता है और वर्षा के दौरान उसके बंध की मृदा पानी में घुलकर उसके तले में पहुँचती रहती है। तालाब के स्वरूप के बिगड़ने का यह खेल नियमित रूप से चलता रहता है। इसलिये भारत में तालाबों को समाज द्वारा संरक्षण प्रदान करने की परंपरा स्थापित थी और उसके रख-रखाव का कार्य भी स्थानीय निवासी करते थे। इसमें राजा व प्रजा का भेदभाव भी नहीं था और सभी वर्ग के लोग श्रमदान द्वारा सहयोग करते थे। तालाब के बंध को सुरक्षा प्रदान करने के लिये पीपल, बरगद, गूलर, आम, नीम और भारतीय मूल के पेड़ लगाने की प्रथा थी। बिना पेड़ के बंध की तुलना एक मूर्ति विहीन मंदिर से भी की गई है। बिहार व उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर, बंध में अरहर के पेड़ लगाए जाते थे। इन्हीं इलाकों में नए तालाब के बंध में कुछ समय तक सरसों की खली का धुआँ किया जाता था, ताकि चूहे आदि जैसे जीव उसमें बिल बनाकर, उसे कमजोर न बनाएँ।

फिर तालाब के पानी को शुद्ध बनाए रखने के लिये उसमें मछलियाँ, कछुए, केकड़े, जैसे प्राणी भी छोड़े जाते थे। एक नए तालाब के निर्माण के पश्चात पहले ही वर्ष पानी में कुछ विशिष्ट वनस्पतियाँ भी डाली जाती थीं। अलग-अलग क्षेत्रों में इनका प्रकार बदलता था, पर काम एक ही था- पानी को साफ रखना।

तालाब के ‘‘आगौर’’ में पर्यावरण स्वच्छ बनाए रखने को समाज द्वारा प्राथमिकता दी जाती थी। यद्यपि यह कठिन कार्य था, परन्तु इस कार्य को संपादित करने के लिये, इतने व्यवस्थित सामाजिक नियम बना लिये गए थे कि सब कुछ सहज ढंग से होता रहता था। आगौर में चरण पड़े नहीं, कि तालाब रख-रखाव नियम का प्रथम प्रतीक ‘‘पत्थर का सुंदर स्तंभ’’ देखने को मिलता था, जो अवगत करा देता था कि आप तालाब के आगौर में खड़े हैं, जहाँ से तालाब में पानी भरेगा। इसलिये इस जगह को साफ-सुथरा रखना है। दिशा-मैदान आदि की बात तो दूर, यहाँ थूकना व जूते पहन कर आना तक मना रहा है। यहाँ पर थूकना मना है या जूते पहन कर घुसना मना है जैसे बोर्ड नहीं लगाए जाते थे पर सभी लोग, केवल स्तंभ देखकर इन बातों का पूरा ध्यान रखते थे। यह था, भारतीय समाज का परंपरागत पर्यावरण चेतना से उभरी प्रतिबद्धता का स्वरूप जिसे वर्तमान में पुनः जागृत करना होगा।

तालाब की सफाई का कार्य, स्थानीय मौसम को ध्यान में रख प्रत्येक वर्ष किया जाता था, जब पानी उसमें सबसे कम हो। तालाब से निकली गाद की समस्या की तरह नहीं, बल्कि तालाब के प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की सर्वमान्य प्रथा थी। इस प्रसाद को ग्रहण करने के पात्र होते थे- किसान, कुम्हार व गृहस्थ। इस प्रसाद को लेने वाले किसान, प्रति गाड़ी के हिसाब से मिट्टी काटते थे व अपनी गाड़ी भरकर अपने खेतों में फैलाते थे ताकि उनकी इस प्रसाद के बदले वे प्रति गाड़ी के हिसाब से कुछ नकद या फसल का कुछ अंश ग्राम कोष में जमा करते थे और इस धन का सदुपयोग तालाबों की मरम्मत में किया जाता था, दक्षिणी भारत के गाँवों के कुछ जमीन तालाब की व्यवस्था के लिये अलग रख दी जाती थी जिसमें लगान भी नहीं लगता था। इस भूमि से प्राप्त आय व बचत का उपयोग, तालाब से जुड़े तरह-तरह के काम करने वाले को पारिश्रमिक के रूप में दिया जाता था। तब साबुनों का चलन भी आरंभ नहीं हुआ था और तालाब से निकली चिकनी मिट्टी भारतीय घरों में सफाई कार्य के लिये उपयोग की जाती थी। यदि हाथ-पैर धोने का कार्य हो या दीवार व आंगन लिपाई का कार्य हो। तालाब के इस प्रसाद को प्राप्त करने के लिये प्रत्येक घर के एक-दो सदस्य इसमें श्रमदान करते थे और इसे पुण्य का कार्य समझा जाता था अर्थात व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी कि प्रत्येक भारतीय गाँव में इस काम के लिये स्थाई कोष सदैव समृद्ध रहे। जमींदार व राजा भी इस खजाने में योगदान करते थे। इस प्रकार से राजा व प्रजा का यह तालमेल खूब व्यवस्थित रूप से कार्यरत था। इसी कारण से भारत को सोने की चिड़िया की संज्ञा प्राप्त हुई थी।

वर्तमान परिदृश्य में राजा व जमींदार का स्थान सरकार व उद्योगपतियों ने ले लिया है। इसलिये इन दोनों वर्गों के नेता, यदि समाज से मिलकर कमर कस लें तो भारत में जल समस्या का निदान सरलता से किया जा सकता है। इस दिशा में स्वजलधारा माध्यम से भारत सरकार ने पहल की है और इसको व्यवहारिक रूप में सफल बनाने के लिये भारतीय उद्योगपतियों व गैरसरकारी स्वयंसेवमी संस्थानों को भी इसमें बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए।

वैज्ञानिक भाषा में कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहा जाता है। इस दृष्टि से भारत के पास सबसे समृद्ध ऊर्जा स्रोत है उसकी जनसंख्या, जिसके अनुकूलतम उपयोग द्वारा विकास करने की दिशा में आज तक कोई कदम नहीं उठाया गया है। भारत में जनसंख्या की पहचान एक समस्या के रूप में की गई है और विकास करने के लिये पूँजी निवेश को ही प्राथमिकता दी गई है, जबकि भारत का लक्ष्य होना चाहिए था अपनी विशाल श्रम ऊर्जा का इष्टतम सदुपयोग करते हुए विकास करना। फिर प्रकृति का भी एक साधारण नियम है- एक विशिष्ट पर्यावरण परिवेश में, योग्यतम की उत्तरजीविता और उनका समूल नाश, जो अपने चारों ओर फैले साधनों का उपयोग नहीं कर पाते हैं।

इस दृष्टि से स्वजलधारा योजना, भारत में अपनाया गया, प्रथम ऐसा कार्यक्रम है, जो अखिल भारतीय स्तर पर रोजगार के द्वार खोल देगा। अब इस परियोजना को सफल अंजाम देना देशवासियों के हाथ में है। यह देखने में भी आ रहा है कि भारत में जहाँ कहीं भी स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के कार्य अपने क्षेत्रों में स्वयं आगे बढ़कर संपादित किये हैं, उन्हें हाल के भीषण सूखों के दौरान भी पानी समुचित मात्रा में उपलब्ध था- सिंचाई के लिये भी। इसलिये भारतीय मीडिया को इस योजना के प्रचार-प्रसार को सर्वाधिक प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि स्वजलधारा योजना जनजागरण का रूप धारण कर भारत को आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा तक पहुँचा कर एक स्थायी कल्पवृक्ष के समान जैविक कृषि उत्पादन की आधारभूत व्यवस्था को गतिमान रूप में स्थापित कर दे।

साभार पर्यावरण संजीवनी

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