भारतीय कृषि का मूलाधार – मानसून पवन

विख्यात वैज्ञानिक एडमंड हैली उन पहले वैज्ञानिकों में थे जिन्होंने सन् 1686 में मानसून की प्रक्रिया की एक वैज्ञानिक परिकल्पना प्रस्तुत की। उनके अनुसार गर्मी के समय जब महाद्वीप खूब तप जाता है तो वायु गरम होकर फैलती है और ऊपर उठती है। परिणामस्वरूप पूरे इलाके में हवा का दबाव घटता है और समुद्र की शीतल, नमी प्रधान वायु तेजी से इन निम्न दबाव वाले क्षेत्र में घुसकर सूखे मैदानी इलाके में बारिश लाती है।पुराने समय में लोगों को यह मालूम नहीं था कि मानसून साल-दर-साल क्यों आता है, किन्तु उन्होंने इन हवाओं का फायदा जरूर उठाया। शीतकाल में सामान्यतः उत्तर-पूर्वी व्यापारी हवाओं के सहारे भारत से अफ्रीका-अरब देशों तक व्यापारी जलयानों से जाते थे और जून-जुलाई की मानसूनी हवाओं पर लौटते थे। व्यापार और कृषि के सन्दर्भ में मानसून के आवागमन का पता लगाना लोगों के लिए जरूरी था। इसका अन्दाजा वे विभिन्न पौधों, जानवरों एवं पक्षियों के व्यवहार में अन्तर से लगाते थे। सोलहवीं शताब्दी में अरब ने वैज्ञानिक तरीके से इसके आगमन का अनुमान लगाने की कोशिश की थी। 'मानसून' शब्द का उद्भव भी अरबी लफ्ज़ मौसम से हुआ है।

विख्यात वैज्ञानिक एडमंड हैली उन पहले वैज्ञानिकों में थे जिन्होंने सन् 1686 में मानसून की प्रक्रिया की एक वैज्ञानिक परिकल्पना प्रस्तुत की। उनके अनुसार गर्मी के समय जब महाद्वीप खूब तप जाता है तो वायु गरम होकर फैलती है और ऊपर उठती है। परिणामस्वरूप पूरे इलाके में हवा का दबाव घटता है और समुद्र की शीतल, नमी प्रधान वायु तेजी से इन निम्न दबाव वाले क्षेत्र में घुसकर सूखे मैदानी इलाके में बारिश लाती है, जबकि सर्दियों में इस प्रक्रिया का ठीक उल्टा होता है।

मानसूनी हवाएँ हिन्द महासागर के सुदूर दक्षिणी भाग से चलती हैं और एशिया के मध्य में स्थित निम्न वायु-भार के क्षेत्र में पहुँचने के लिए इन्हें विषुवत रेखा पार करनी पड़ती है। फलस्वरूप पृथ्वी की दैनिक गति के प्रभाव से यह उत्तर-पूर्व की ओर मुड़ जाती है। आरम्भ में मानसून की अरब सागर वाली शाखा केरल तट पर तथा दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी शाखा बंगाल तट पर पहुँचती है। यहाँ से भारत उपमहाद्वीप में बरसात की शुरुआत होती है।

भारत में मानसूनी वर्षा का सबसे विचित्र पहलू यह है कि किसी इलाके में भले ही पिछले साल की अपेक्षा कम या ज्यादा बारिश हो, किन्तु पूरे देश में मानसूनी वृष्टि की कुल जलराशि प्रायः एक-सी रहती है। इसका अर्थ यह है कि एक क्षेत्र में कम वर्षा का कारण दूसरे क्षेत्र में अधिक जल वर्षा का होना है। मानसून के इस रहस्य का पता आँकड़ों के निरन्तर विश्लेषण के बाद मिला है। भारत में सूखा और बाढ़ दोनों स्थितियों को लाने वाला यह मानसून ही है। ऐसी विचित्रता के कारण ही प्रत्येक वर्ष बरसात के मौसम में किसी हिस्से में वर्षा की कमी के कारण सूखे की स्थिति पैदा होने से हाहाकार मच जाता है, सारा कृषि कार्य रुक जाता है तो दूसरी ओर अधिक वर्षा से नदियों में भयंकर बाढ़ आ जाती है, खेत में खड़ी फसलें बह जाती हैं और धन-जन की अपार क्षति होती है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि का यह मानसूनी खेल कृषकों के लिए विकट संकट उत्पन्न कर देता है। आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद भारत के किसानों को मानसूनी बरसात की ऐसी अनिश्चित स्थिति का कोई समाधान नहीं मिल पाया है। अपनी मस्ती और मतवाली चाल के लिए मानसून काफी बदनाम है।

मानसूनी वर्षा की अनिश्चितता के कारण ही कृषि प्रधान देश भारत में खेती-बाड़ी के काम में उतार-चढ़ाव होता रहता है। मानसून पर अधिक निर्भर होने के कारण देश की आर्थिक स्थिति मानसून से प्रभावित हुआ करती है। इसीलिए एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ने आर्थिक समीक्षा करते हुए कहा है कि 'भारतीय कृषि मानसून में जुए का खेल है।'

कृषि उपज बढाने के लिए उर्वरकों तथा देसी खाद के इस्तेमाल पर जोर देने की बात कही गई है। इस सुझाव से सहमत होते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने जल प्रबन्धन के महत्त्व पर भी विचार किया है। उचित जल प्रबन्धन के द्वारा कृषि-उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत वृद्धि की जा सकती है।वर्षा के अनियमित और असमय होने पर किसानों को लाभ की जगह हानि होती है। कृषि में वर्षा की मात्रा के साथ ही उसका वितरण काफी महत्त्वपूर्ण है। किसी साल की थोड़ी वर्षा भी भली प्रकार से वितरित होने पर अन्य साल की दुगुनी किन्तु अनियमित रूप से हुई वर्षा से अच्छी रहती है। असमय हुई वर्षा से कृषि को बहुत हानि पहुँचती है। इससे कृषि के कार्य सुचारू रूप से नहीं हो पाते हैं।

मूलतः कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत की आर्थिक गतिविधियाँ कृषि-उत्पादन से जुड़ी हैं। विकासशील आर्थिक व्यवस्था में प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने के साथ ही अच्छे जीवनयापन की लालसा में खाद्य सामग्री की माँग भी बढ़ती जाती है, जिससे कृषि पर उत्तरोत्तर दबाव पड़ता है। स्वतन्त्रता के पचपन वर्षों बाद भी कृषि-उत्पादन को बढ़ोत्तरी की दर तीन प्रतिशत के करीब है, जबकि आर्थिक विश्लेषण तथा अनुमान के आधार पर पाँच प्रतिशत की सालाना दर होनी चाहिए। कृषि उपज बढाने के लिए उर्वरकों तथा देसी खाद के इस्तेमाल पर जोर देने की बात कही गई है। इस सुझाव से सहमत होते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने जल प्रबन्धन के महत्त्व पर भी विचार किया है। उचित जल प्रबन्धन के द्वारा कृषि-उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत वृद्धि की जा सकती है।

कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिए किए जा रहे अनेक उपायों से अच्छे परिणाम मिलने की सम्भावना है। लेकिन इस सन्दर्भ में यह तथ्य भी उजागर है कि जल प्रबन्धन, उर्वरकों का उपयोग तथा कृषि कार्य के नित नई तकनीकों के अपनाए जाने के बावजूद भारतीय कृषि की जलवायु पर निर्भरता बनी रहेगी। वैज्ञानिकों के द्वारा किए जा रहे अथक प्रयासों के अच्छे परिणाम मिलते रहे हैं। फिर भी भारतीय कृषि की मानसूनी जल वर्षा पर निर्भरता को समाप्त नहीं किया जा सकता है। पिछले दशकों में भारतीय कृषि की पूर्ण निर्भरता को कम करने के प्रयास में कुछ सफलता मिली है। यह कार्य मौसम विज्ञान के द्वारा जल वर्षा के पूर्वानुमान से सम्भव हो सका है। इस साल मौसम विभाग के अनुसार मानसून पवन जल्द पहुँच रहा है, साथ ही यह अनुमान है कि मानसून की बरसात अच्छी होगी।

(स्वतन्त्र पत्रकार)

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