भारतीय कृषि की ज्वलंत समस्या—भूमिक्षरण (Burning issue of indian agriculture - Land Degradation)

2 Jul 2015
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भारत जैसे कृषि प्रधान और जनसंख्या बहुल राष्ट्र में उचित भूमि प्रबंध का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। किंतु यहाँ की भूमि प्रबंधन नीति की अव्यावहारिकता के कारण भारतीय कृषि, भूमि से संबंधित अनेक समस्याओं से ग्रसित है जिनमें भूमिक्षरण की समस्या एक प्रमुख एवं ज्वलंत समस्या है। भूमिक्षरण या मृदा अपरदन से भूमि की ऊपरी मुलायम सतह और उर्वरा शक्ति इतनी तीव्र गति से नष्ट होती है कि उसका कोई तात्कालिक प्राकृतिक या कृत्रिम उपचार होना बहुत कठिन है, फलतः उपजाऊ भूमि भी कृषि के अयोग्य हो जाती है। भूमिक्षरण के दुष्परिणाम भूमि तक सीमित नहीं रहते अपितु इससे मानव जाति और जीव-जंतु भी प्रभावित होते हैं। इसीलिए भूमिक्षरण को कृषि का क्षयरोग कहा जाता है।सृजन एवं पोषण का सामर्थ्य रखने वाली भूमि को समस्त प्राणी-जगत के अस्तित्व का आधार और अनेक अनुपम उपहार प्रदान करने वाली 'रत्न प्रसवा' कहा जाता है। अतः मानव जगत और जीव-जंतुओं के अस्तित्व के लिए न केवल वैज्ञानिक ढंग से अधिकतम सदुपयोग अनिवार्य है, बल्कि भूमि की समुचित सुरक्षा करना भी अति आवश्यक हो गया है।

भारत जैसे कृषि प्रधान और जनसंख्या बहुल राष्ट्र में उचित भूमि प्रबंध का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। किंतु यहाँ की भूमि प्रबंधन नीति की अव्यावहारिकता के कारण भारतीय कृषि, भूमि से संबंधित अनेक समस्याओं से ग्रसित है जिनमें भूमिक्षरण की समस्या एक प्रमुख एवं ज्वलंत समस्या है। भूमिक्षरण या मृदा अपरदन से भूमि की ऊपरी मुलायम सतह और उर्वरा शक्ति इतनी तीव्र गति से नष्ट होती है कि उसका कोई तात्कालिक प्राकृतिक या कृत्रिम उपचार होना बहुत कठिन है, फलतः उपजाऊ भूमि भी कृषि के अयोग्य हो जाती है। भूमिक्षरण के दुष्परिणाम भूमि तक सीमित नहीं रहते अपितु इससे मानव जाति और जीव-जंतु भी प्रभावित होते हैं। इसीलिए भूमिक्षरण को कृषि का क्षयरोग कहा जाता है। यह क्षयरोग कृषक की धीमी या रेंगती हुई मृत्य बनकर उसके अस्तित्व को भी संकट में डाल सकता है। यदि भूमिक्षरण की रोकथाम हेतु अभी से पर्याप्त उपाय नहीं किए गए तो आने वाले वर्षों में बाढ़, भूस्खलन आदि की समस्याएँ और अधिक तीव्रतर बन जाएगी।

भारतीय कृषि की ज्वलंत समस्या—भूमिक्षरण'भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्' के अनुसार वर्तमान में हमारे देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल बत्तीस करोड़ नब्बे लाख हेक्टेयर में से लगभग पंद्रह करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र को जल और वायुक्षरण का सामना करना पड़ रहा हैं। और उसमें से सात करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र भूमिक्षरण के कारण अत्यधिक गंभीर रूप से विकृत हो चुका है। भू-वैज्ञानिकों का मत है कि भारत में प्रतिवर्ष सत्तर हजार वर्गफीट भूमि एवं लगभग छः अरब टन मिट्टी का कटाव होता है जो अपने साथ पौधों के लगभग नब्बे लाख टन प्रमुख उर्वरक और पोषक तत्वों को बहाकर ले जाती है। देश में बढ़ते हुए भूमिक्षरण के कारण प्रतिवर्ष तीन हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है और आगामी बीस वर्ष तक यही स्थिति रही तो एक तिहाई कृषि भूमि पूर्णतः नष्ट हो जाएगी। वस्तुतः भूमिक्षरण से होने वाली उतरोत्तर वृद्धि से न केवल देश में कृषियोग्य भूमि का क्षेत्रफल निरंतर कम होता जा रहा है, बल्कि इससे भारतीय कृषि की फसलोत्पादकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

हमारे देश में जहाँ एक ओर असम, झारखंड, बिहार तथा उत्तरांचल के पहाड़ी क्षेत्रों में 'धरातलीय भूमिक्षरण' की समस्या कठिनाइयां उत्पन्न कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान, पंजाब तथा हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में वायु द्वारा भूमिक्षरण की समस्या गंभीर बनी हुई है। वायु द्वारा भूमिक्षरण के कारण कहीं पर उपजाऊ मिट्टी के ऊपर पर्याप्त मोटाई में रेत या बालू एकत्रित हो जाती है तो दूसरी जगह नीचे का कड़ा धरातल दिखायी देने लगता है। इसके अलावा देश के कुछ भागों में तेज वर्षा के कारण वनस्पति रहित भूमि में जल धाराओं से छोटी-छोटी नालियाँ बन जाती है जो बाद में चौड़ी होकर नालीदार भूमिक्षरण का रूप ले लेती है। कई बार नालीदार भूमिक्षरण भूमि को गहरे और ऊबड़-खाबड़ बीहड़ों में परिवर्तित कर देता है, भारत में यमुना और चंबल के बीहड़ इसके ज्वलंत उदाहरण है जो मुरैना, धौलपुर, इटावा एवं आगरा के क्षेत्रों में मुख्य रूप से फैले हुए हैं।

भारत में भूमिक्षरण के लिए प्राकृतिक विपदाओं के साथ-साथ मानवकृत कारणों को भी समान रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। यहाँ पर वर्षा के मौसम में निरंतर जल-प्रवाह के कारण भूमि की ऊपरी सतह बह जाती है जो सैकड़ों किलोमीटर क्षेत्र की मिट्टी काटकर अपने साथ बहा ले जाती है। वर्षा ऋतु में पर्वतीय क्षेत्रों में नालों के तेज बहाव के कारण कई स्थानों पर पूरे खेत के खेत बह जाते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए 'ऑल इंडिया साइल एंड लैंड यूज सर्वे ऑर्गनाइजेशन' ने उत्तरांचल में बैक डेम बनाया है। वर्षा ऋतु के पहले गर्मी के मौसम में प्रचंड हवाओं और आंधियों के कारण भी भूमि की ऊपरी सतह की नरम मिट्टी एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़कर चली जाती है। इसका प्रभाव शुष्क और मरुस्थलीय क्षेत्रों में स्पष्ट दिखायी पड़ता है। कई बार समुद्र में ज्वार-भाटा अपने आस-पास के क्षेत्रों में काफी जल भर जाता है, जब यह जल वापिस समुद्र में जाता है तो अपने साथ काफी मिट्टी बहाकर ले जाता है। भारत में समुद्र द्वारा भूमिक्षरण की समस्या केरल, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि के समुद्र तटों पर अधिक दिखाई देती है।

भारतीय किसान लगातार एक ही भूमि पर कृषि उत्पादन करते रहते हैं जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है तथा ऊपरी कोमल परत का कटाव शुरू हो जाता है। हमारे देश में भूमिक्षरण का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण वनों का निरंतर कटना है। मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, उत्तरांचल, झारखंड और बिहार आदि राज्यों में वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण भूमि कटाव में वृद्धि हुई है। किसानों द्वारा अनुपयुक्त और अवैज्ञानिक तरीकों से कृषि करने के कारण भूमि का क्षरण होता है। पर्वतीय और ढालू क्षेत्रों में कृषकों द्वारा खेतों की जुताई ढाल की दिशा में की जाती है, परिणामस्वरूप न केवल मिट्टी का बहाव ही होता है बल्कि धीरे-धीरे वह भूमि बंजर हो जाती है।

भारत के आदिवासी क्षेत्रों में आदिम जाति के लोग बार-बार कृषि का स्थान बदलकर स्थानांतरित कृषि करते हैं जिसे 'झूमिंग कृषि' के नाम से पुकारा जाता है। और जब उनको आभास होने लगता है कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो गई है तो वे उस स्थान पर कृषि करना बंद कर देते हैं और पुनः वनों को साफ करके खेती करने लग जाते है। इस प्रकार की झुमिंग खेती के कारण विशाल भू-खंड वनस्पति विहिन हो जाते हैं और वर्षा होने पर उनका कटाव शुरू हो जाता है।देश में पशुओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने के कारण उन्हें अनियंत्रित ढंग से चराया जाता है, इससे चरागाहों की भूमि आवरण रहित या नग्न हो जाती है और मिट्टी का कटाव बढ़ता जाता है। भारत के आदिवासी क्षेत्रों में आदिम जाति के लोग बार-बार कृषि का स्थान बदलकर स्थानांतरित कृषि करते हैं जिसे 'झूमिंग कृषि' के नाम से पुकारा जाता है। और जब उनको आभास होने लगता है कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो गई है तो वे उस स्थान पर कृषि करना बंद कर देते हैं और पुनः वनों को साफ करके खेती करने लग जाते है। इस प्रकार की झुमिंग खेती के कारण विशाल भू-खंड वनस्पति विहिन हो जाते हैं और वर्षा होने पर उनका कटाव शुरू हो जाता है। हमारे देश में असम, बिहार, झारखंड, छतीसगढ़ व मध्य प्रदेश आदि राज्यों के लगभग तीस लाख हेक्टेयर क्षेत्र में आदिवासी लोग आज भी झूमिंग कृषि करते है, जिससे न केवल भूमिक्षरण की समस्या गंभीर बनती जा रही है बल्कि भूमि वर्गीकरण और समुचित भूमि प्रबंध में भी अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।

भारत में भूमिक्षरण के प्रमुख दुष्प्रभावों में मिट्टी की भौतिक सम्पत्तियों (कार्बन व नाइट्रोजन अनुपात) का बिगड़ना तथा पौधों के पोषक तत्वों (फास्फोरस, पोटास आदि) का नष्ट होना है। हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग छह अरब टन मिट्टी का क्षरण होता है जो अपने साथ पौधों के लाखों टन पोषक तत्वों को बहा कर ले जाती है। इसके अलावा भूमिक्षरण के कारण वनस्पति भी धीरे-धीरे नष्ट होने लगती है और धरातल की ऊपर की आर्द्रता समाप्त हो जाती है, फलतः कालांतर में वह भाग मरुस्थल में परिणत हो जाता है। भूमिक्षरण के कारण भूमि की बल अवशोषण क्षमता के कम होने के कारण भूमिगत जल-स्तर भी नीचा हो जाता है। नदियों के बहाव क्षेत्र में भूमिक्षरणजन्य मिट्टी एकत्रित होने के कारण नदियों की तलहटी ऊँची हो जाती है और उनकी क्षमता कम हो जाती है, परिणामस्वरूप नदियों में बाढ़ आने की संभावना बढ़ जाती है। उल्लेखनीय है कि नियोजनकाल के प्रारंभ में देश में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र पच्चीस मिलियन हेक्टेयर तक पहुँच गया है।

देश के जिन क्षेत्रों में निरंतर भूमिक्षरण बढ़ता जा रहा है, उन क्षेत्रों की भूमि कृषि व अन्य कार्यों के अयोग्य होने के कारण जनसंख्या स्थानान्तरण और पुनर्वास की समस्या उत्पन्न हो रही है। निरंतर भूमिक्षरण के कारण देश की झीलों और विभिन्न नम भूमि क्षेत्रों का स्वरूप उत्तरोत्तर बिगड़ता जा रहा है। जहाँ एक ओर डल, ऊटी, भीमताल, सांभर आदि झीलों का आकार सिमटता जा रहा हैं वहीं दूसरीं ओर वर्षा जल को एकत्रित करने वाली विभिन्न स्थानों की आर्द्र भूमि लगभग विलुप्त होती जा रही है। कभी-कभी आँधी और तूफान के कारण मिट्टी उड़कर खड़ी फसल पर जमा हो जाती है और उसे नष्ट कर देती है।

यद्यपि भारत सरकार द्वारा देश में भूमिक्षरण को रोकने के लिए निरंतर प्रयास किये जाते रहे हैं किंतु आज भी हमारे देश में भूमिक्षरण की समस्या अत्यंत गंभीर बनी हुई। अतः देश में भूमिक्षरण को रोकने के लिए जहाँ एक ओर परंपरागत उपायों यथा-वृक्षारोपण, बाँध निर्माण, बाढ़, नियन्त्रण, मेड़बंदी, नियंत्रित पशु चराई आदि का और अधिक विस्तार करना जरूरी है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक एवं अनुसंधान आधारित उपायों यथा-मल्चिंग पद्धति, स्ट्रिप क्रोपिंग, मिश्रित खेती, सतही जुताई, कंटूर खेती, ड्रेनों का निर्माण आदि को अपनाना भी अति आवश्यक है।

'मल्चिंग पद्धति' के अंतर्गत मिट्टी पर फसल अवशिष्टों तथा पत्तियों से दस से.मी. मोटी परत (मल्व) चढ़ा दी जाती है। मल्चिंग करने से न केवल मिट्टी कटाव तथा वाष्पीकरण को रोकने में सहायता मिलती है, बल्कि इससे जल अवशोषण की क्षमता बढ़ाने, खरपतवारों को कम रोकने में भी मदद मिलती है। इस प्रकार की खेती करने से रबी मौसम की उपज में लगभग तीस प्रतिशत तक वद्धि की जा सकती है। सतह के कटाव पर नियंत्रण और उसके माध्यम से मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाए रखने में पट्टीदार खेती की उपयोगिता अब सार्वमौमिक रूप से स्वीकार की जा चुकी है। इस खेती में एक ही खेत में विभिन्न फसलों को वैकल्पिक पहियों में उगाते हैं जो जल और वायु द्वारा भूमिक्षरण को रोकने में सहायक होती है। भूमिक्षरण को रोकने के प्रमुख प्रकारों में कंटूर स्ट्रिप, खेप स्ट्रिप, वायु स्ट्रिप आदि को सम्मिलित किया जाता है। जिन क्षेत्रों में मिट्टी की परत सख्त होती है, उनमें वर्षा की समाप्ति के तुरंत बाद दस से.मी. गहराई तक सतही जुताई की जानी चाहिए। इससे जल का भूमि में अधिक मात्रा में जाना सुनिश्चित हो जाता है तथा पानी बहकर व्यर्थ जाने से बच जाता है। सतही जुताई से जैविक अवशेषों को भूमि में समाविष्ट करके मिट्टी पर पपड़ी जमने की समस्या से बेहतर ढंग से निपटा जा सकता है। इसके साथ-साथ सतही जुताई करने से जड़ों के फैलाव में मदद मिलती है तथा बारहमासी खरपतवार (कांस, डाब आदि) भी स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं।

शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में भूमिक्षरण रोकने हेतु कंटूर खेती को सर्वोत्तम माना जाता है। छह सौ मि.मि. से कम वर्षा वाले क्षेत्र कंटूर निर्माण के लिए उपयुक्त रहते हैं। जुताई, पौध-रोपाई और अन्य जुताई जैसी प्रक्रियाए जब कंटूर के साथ सम्पन्न की जाती है तो उनसे सतह पर बहाव की गति कम करने और मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद मिलती है। असुरक्षित क्षेत्रों में भूमि कटाव की समस्या पर काबू पाने और जल-प्रवाह की दिशा परिवर्तित करने के लिए ड्रेनों का निर्माण किया जाना चाहिए।

भू-वैज्ञानिकों के मतानुसार समतल और इकहरी स्थलाकृति वाले क्षेत्रों में बहुत घास या झाडि़यों की पंक्तिबद्ध रोपाई, खस व रेशेदार पौधों का विस्तार आदि वनस्पति विषयक उपाय से भूमि कटाव की समस्या का समाधान किया जा सकता है। ऐसे वनस्पति अवरोधक अपेक्षाकृत सस्ते पड़ते है। इनसे न केवल भूमिक्षरण को रोकने में मदद मिलती बल्कि ईंधन, चारे, भोजन सुगंधित तेल आदि के उत्पादन में भी वृद्धि होती है तथा किसानों की आय भी बढ़ती है।

यदि हमारे देश में सरकारी प्रयास और जन-सहयोग के माध्यम से भूमि संरक्षण की उपर्युक्त अनुसंधान आधारित पद्धतियों को सुनियोजित और प्रभावोत्पादक तरीकों से लागू किया जाता तो ना केवल बढ़ते हुए भूमिक्षरण पर रोक लगेगी, बल्कि कृषि की उत्पादकता में भी अभिवृद्धि होगी। 'सांस्कृति विरासत संरक्षण' की अवधारणा और सामाजिक सहभागिता का दृष्टिकोण भी भूमि, वन, पर्वत, पेड़ आदि के संरक्षण में निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है।

(अध्यक्ष व्यावसायिक प्रबंध विभाग, एस.पी.यू. महाविद्यालय, फालन)

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