भारतीय कृषि : मिथक और यथार्थ


पहले कृषि सिर्फ मानसून के साथ एक जुआ मानी जाती थी लेकिन आज मानसून एवं बाजार के साथ एक जुआ हो गई है, जिसमें सीमान्त एवं लघु-किसान दाँव पर है। स्पष्ट कर दें कि कृषि उत्पादन एक जटिल व सजीव व्यावसायिक क्रियाकलाप/गतिविधि है। जिसके ऊपर हवा, बिजली, पानी, गर्मी, ठंड, वर्षा तथा अन्य जलवायु उतार-चढ़ावों का सीधा प्रभाव पड़ता है। अर्थात बोआई से पूर्व एवं उत्पादन का मूल्य हाथ में आने तक जोखिम-ही-जोखिम निहित है।

भारत के पास विश्व की कुल भूमि का 2.4 प्रतिशत, वर्षा का एक प्रतिशत, 0.5 प्रतिशत वन, 0.5 प्रतिशत चारागाह ही है जिस पर विश्व की 16.7 प्रतिशत आबादी तथा 15.2 प्रतिशत पशुधन है। देश की कुल जनसंख्या का 72.2 प्रतिशत हिस्सा आज भी भारत के दूर-दराज क्षेत्रों में बसे लगभग 5.62 लाख गाँवों में निवास करता है। भारत में 140.3 मिलियन हेक्टेयर निवल बोआई क्षेत्र है, जो पिछले एक दशक से मामूली घट-बढ़ के साथ स्थिर है, देश में कुल 12.73 करोड़ काश्तकार तथा 10.68 करोड़ कृषि श्रमिक संलग्न हैं।

कुल काश्तकारों में 81.90 प्रतिशत सीमान्त एवं लघु किसान हैं जिनकी जोत का औसत आकार क्रमश: 0.39 हेक्टेयर तथा 1.41 हेक्टेयर है। इनका जोत क्षेत्र कुल जोत क्षेत्र का मात्र 39 प्रतिशत है। जबकि, 18.1 प्रतिशत मध्यम एवं बड़े किसानों के पास 61 प्रतिशत जोत क्षेत्र है। विश्व में सबसे अधिक कुल सिंचित क्षेत्र 85.8 मि. हेक्टेयर क्षेत्र के बावजूद लगभग 58 प्रतिशत खेती आज भी वर्षा पर निर्भर है।

कुल मिलाकर भारत 48.50 करोड़ की विशाल पशु सम्पदा के साथ विश्व में भैंस पालन में प्रथम, गाय पालन में द्वितीय, भेड़ एवं बकरी पालन में क्रमश: चौथे एवं तीसरे स्थान पर है। मुर्गी पालन में भारत का स्थान पाँचवा है। मछली पालन के क्षेत्र में भारत तीसरा सबसे बड़ा देश है। आज विश्व में सबसे अधिक दुग्ध उत्पादन भारत में हो रहा है।

भारतीय परिवेश और वास्तविकता


सीमान्त एवं लघु किसानों के लिये पशुपालन, फार्म क्षेत्र के इतर रोजगार एवं आय का प्रमुख स्रोत है। लघु स्तर की एक डेयरी में प्रति 30 लीटर दुग्ध उत्पादन पर एक आदमी को रोजगार उपलब्ध होता है तथा प्रत्येक 100 लीटर दूध के संग्रहण, प्रसंस्करण तथा बाजार में बेचने से लगभग सात आदमी के लिये रोजगार सृजित होता है। ये तमाम घटक मिलकर विश्व की विशालतम भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हैं।

सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र के योगदान में निरन्तर गिरावट के बावजूद वर्ष 2007-08 तथा 2008-09 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा क्रमश: 17.8 प्रतिशत तथा 17.1 प्रतिशत (खेती 12.59 प्रतिशत तथा पशुपालन 5.21 प्रतिशत) बना हुआ है जिसमें देश के कुल कार्यबल के 58.2% हिस्से को रोजगार प्राप्त है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं में भारतीय कृषि, किसान एवं गाँवों को सर्वोच्च प्राथमिकता प्राप्त रही है। इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश में चतुर्दिक विकास हुआ है।

20वीं सदी की भारतीय हरित क्रान्ति ने राष्ट्र को खाद्यान्न 8 उत्पादन में न केवल आत्मनिर्भर बनाया बल्कि स्वावलम्बन की दिशा में एक मजबूत नीव रखी है। तमाम झंझावातों के मध्य 21वीं सदी में भी कृषि भारतीय अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ बनी हुई है।

परन्तु, यह बात भी उतनी ही सच है कि कृषि, किसान एवं गाँवों की सामाजिक, आर्थिक एवं कृषिक दशा सुधारने की दिशा में जो योजनागत, गैर-योजनागत प्रयास किये गए, उनके अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं।

वार्षिक कृषि वृद्धि दर में कमी, कृषि क्षेत्र आय में गिरावट, कृषि में घटता वास्तविक पूँजी निवेश, विपरीत कृषि व्यापार शर्तें तथा उत्पादन एवं उत्पादकता में स्थिरता या फिर गिरावट आज भी भारतीय कृषि की पहचान बने हुए हैं। जबकि अर्थशास्त्रियों एवं योजनाकारों का मानना है कि कृषि एवं ग्रामीण विकास योजनाएँ बहुत सोच-विचार के बाद सही ढंग से बनाई गई और वित्त विशेषज्ञ मानते हैं कि योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये लिये धन भी पर्याप्त रहा है। प्रश्न उठता है तो फिर कमी कहाँ रही है? यही वह यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब तलाशना भारतीय कृषि को पुनर्जीवित करने के लिये अनिवार्य हो गया है।

वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न उत्पादन में कमी की आशंका के मध्य राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय बाजारों में आसमान चूमती खाद्यान कीमतों के कारण एक बार पुन: कृषि भविष्य की योजनाओं के केन्द्र में है। वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में भारतीय दौर में भारतीय कृषि भी अछूती नहीं है। भारतीय बाजारों में बेकाबू होती खाद्यान कीमतों में कृषि विशेषज्ञों एवं योजनाकारों के माथे पर बल डाल दिये हैं।

पहले कृषि सिर्फ मानसून के साथ एक जुआ मानी जाती थी लेकिन आज मानसून एवं बाजार के साथ एक जुआ हो गई है, जिसमें सीमान्त एवं लघु-किसान दाँव पर है। स्पष्ट कर दें कि कृषि उत्पादन (खेती, पशुपालन, बागवानी, मत्स्य पालन इत्यादि) एक जटिल व सजीव व्यावसायिक क्रियाकलाप/गतिविधि है। जिसके ऊपर हवा, बिजली, पानी, गर्मी, ठंड, वर्षा तथा अन्य जलवायु उतार-चढ़ावों का सीधा प्रभाव पड़ता है। अर्थात बोआई से पूर्व एवं उत्पादन का मूल्य हाथ में आने तक जोखिम-ही-जोखिम निहित है।

सभी उत्पादन आगत उपलब्ध होने के बावजूद कृषि उत्पादन की एक सीमा है। इसे एक झटके में दो चार गुना नहीं बढ़ाया जा सकता है। जबकि औद्योगिक उत्पादन क निर्जीव व्यावसायिक गतिविधि है जिसकी तुलना कृषि से नहीं की जा सकती है। अत: भारतीय कृषि, एक बार निवेश करके बैठ जाने की अनुमति नहीं देती है। इसमें निरन्तर नवोन्मेष एवं निवेश की आवश्यकता रहती है।

इस तरह भारतीय कृषि एवं समस्याओं का चोली-दामन का साथ है। कृषि एवं किसानों को लेकर समाज एवं अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग में मिथ्यावधारणा व्याप्त है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि सहायता (सिंचाई, बिजली, पानी, उर्वरक सब्सिडी, सस्ता कृषि ऋण इत्यादि) के कारण देश का राजकोषीय घाटा अनियंत्रित रहता है जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था दबाव में है।

कृषि एवं किसानों पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। परन्तु, सच यह नहीं है। यथार्थ इसके ठीक विपरीत है। आधुनिक कृषि तकनीकी के लागत सघन होने तथा कृषि के मशीनीकरण ने उत्पादन लागत में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ कृषि में पहले से व्याप्त मौसमी बेरोजगारी की समस्या को और गम्भीर बना, कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा कर दी है। उदाहरणार्थ यहाँ सिर्फ सरकार द्वारा फसलों के लिये घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं कृषि ऋण पर चर्चा करेंगे जिसका सीधा सम्बन्ध कृषि फार्म आय तथा बैंक ऋण वसूली से है।

फसलों के न्यू.स.मू. उत्पादकों (किसानों) एवं उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा उत्पादन लागत के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं। यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि उत्पादक के लाभ की कीमत पर उपभोक्ता का ध्यान रखना, किसान की आय को सीधा प्रभावित करता है। दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकती हैं। स्पष्ट है कृषि के नाम पर घोषित सब्सिडी का सीधा लाभ उपभोक्ता को मिलता है, जिसमें समाज का हर वर्ग शामिल है। किसान तो सिर्फ माध्यम है। यह सिर्फ कृषि एवं दुग्ध उत्पादकों के साथ है।

गैर-कृषि तथा औद्योगिक उत्पादों में उपभोक्ता का ध्यान रखने की कभी चर्चा नहीं की जाती है, जो अपने उत्पादन का लाभकारी मूल्य स्वयं तय करने के लिये स्वतंत्र होते हैं। इसके लिये बाजार का हवाला दिया जाता है। भारतीय कृषि को पूरी तरह से बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता है। इसमें सीमान्त एवं लघु किसानों के लिये लाभ कम भविष्य की चुनौतियाँ एवं जोखिम-ही-जोखिम निहित हैं।

अक्सर दावा किया जाता है कि न्यू.स.मू. सामान्यत: लाभदायी रहा है तथा लागत की अपेक्षा काफी अधिक रहा है (आर्थिक समीक्षा- 2007-08, भारत सरकार)। परन्तु डॉ.एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय किसान आयोग की अन्तिम रिपोर्ट के एक अध्ययन के निष्कर्ष सरकार के उपर्युक्त दावे की पुष्टि नहीं करते हैं।

इसके अनुसार भारत के प्रमुख बारह धान उत्पादक राज्यों में से सिर्फ चार राज्यों में ही धान का न्यूनतम स.मू. उत्पादन लागत से कुछ ही अधिक था। शेष आठ राज्यों में धान की उत्पादन लागत न्यू.स.मू. से अधिक थी। गेहूँ के मामले में सिर्फ मध्य प्रदेश ऐसा राज्य था जहाँ घोषित न्यू.स.मू. गेहूँ की उत्पादन लागत से मात्र 16 रुपए प्रति क्विंटल अधिक था। अर्थात अधिकांश राज्यों में धान एवं गेहूँ की खेती किसानों के लिये घाटे का सौदा थी।

नाबार्ड के आर्थिक विश्लेषण एवं शोध विभाग द्वारा उत्तर प्रदेश, कर्नाटक एवं हरियाणा में गन्ना उत्पादन लागत पर किये गए अध्ययन में पाया गया कि उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में गन्ने की खेती आर्थिक रूप से लाभदायक उद्यम नहीं है। उत्पादन लागत में किसान के पारिवारिक श्रम को शामिल किये जाने के बाद गन्ना की उत्पादन लागत किसान को मिलने वाले मूल्य से अधिक थी।

कुछ इसी तरह की चेतावनी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने वर्ष 2008-09 में अपनी एक रिपोर्ट में दी थी कि यदि गन्ना का मूल्य नहीं बढ़ाया गया तो इसके कुल बोआई क्षेत्र में कमी आ जाएगी। ये तो उदाहरण भर है। आलू, प्याज, लहसुन तथा अन्य बागवानी उत्पादकों की स्थिति भी कमोबेश यही है। डॉ. अभिजीत सेन के ‘फसल लागत और प्रक्षेत्र आय-एक सहस्त्राब्दि अध्ययन’ के निष्कर्ष भी उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि करते हैं। इसके अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिवर्ष हेक्टेयर वास्तविक फार्म व्यवसाय आय की वृद्धि अस्सी की दशक की 3.21 प्रतिशत की तुलना में नब्बे के दशक में घटकर 1.02 प्रतिशत रह गई है।

वर्तमान उपाय-कितने कारगर


उपर्युक्त अध्ययनों के निष्कर्षों से स्पष्ट है कि घोषित तमाम राज सहायता एवं कृषि सुविधाओं के बावजूद खेती लाभदायक व्यवसाय नहीं है। यही कारण है कि कृषक एवं गैर कृषक वर्ग के बीच आर्थिक असमानता की खाई गहराती जा रही है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष घोषित कृषि सहायताओं एवं सुविधाओं को समाप्त करने के बाद, जैसा कि समाज एवं अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग सोचता है, कृषि उत्पादन, खाद्यान्न कीमतों एवं किसानों की हालत क्या होगी की कल्पना की जा सकती है। जब कृषि व्यवसाय से अर्जित शुद्ध लाभ नहीं होगा तो भविष्य की प्रगति, नवोमेष एवं खेती के प्रति युवाओं का आकर्षण खद-ब-खुद बाधित हो जाता है।

21वीं सदी की बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था में फार्म आय में और कमी की आशंका व्यक्त की जा रही हैं। जहाँ तक दुग्ध उत्पादन व्यवसाय का प्रश्न है, तो यह सच है कि भारत में दूध की कीमत इण्डिया के किसी भी ब्रांडधारी पानी की कीमत से कहीं कम है। जबकि, घटते चारागाह तथा बढ़ती कीमतों के कारण दुग्ध-उत्पादन लागत लगातार बढ़ रही है।

इण्डिया में एक मानक कम्पनी (कैच) के पानी की कीमत 35 रुपए प्रति लीटर है जबकि भारत में दूध 13 रुपए से 26 रुपए प्रति लीटर कीमत पर कहीं भी उपलब्ध है। यह तब है जब दुग्ध उत्पादन एक सजीव व्यावसायिक गतिविधि है तथा पानी उत्पादन/निकालना एक निर्जीव व्यावसायिक धंधा है। स्थिति यह है कि ग्रामीण युवा कृषि व्यवसाय की जगह कोई भी गैर-कृषि धंधा अथवा नौकरी करने को प्राथमिकता दे रहे हैं। सच है, भविष्य रहित धंधे में कोई क्यों रुचि लेगा। यह स्थिति भारतीय कृषि के लिये भविष्य का सबसे बड़ा खतरा है। कृषि का बोझ वृद्ध होते कंधों पर बढ़ता जा रहा है।

क्या हो सकते हैं उपाय


अब सवाल यह है कि किसान को उसके उत्पाद का लाभकारी मूल्य कैसे मिले? इसके लिये तुरन्त तीन कदम उठाना जरूरी है। पहला, यह है कि उत्पादन में उपयोग किये जाने वाले आगतों की कीमतों में कमी करके वहनीय लागत पर किसानों को समय पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाये। दूसरे, कृषि उत्पादन का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित हो। इसके लिये उत्पादक (किसान) एवं उपभोक्ता के बीच बिचौलियों की फौज को हटाने की दिशा में कारगर कदम उठाये जाये जिससे उपभोक्ता मूल्य में उत्पादकों की हिस्सा बढ़ सके। देखा यह जा रहा है कि उपभोक्ता मूल्य में उत्पादक का हिस्सा निरन्तर कम हो रहा है विशेषकर कृषि उत्पादों के मामले में।

21वीं सदी में खाद्यान्न शृंखला के नाम पर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय निजी कम्पनियों द्वारा कृषि उत्पादों के लिये रिटेल शॉप की नव-संस्कृति समस्या का हल नहीं है। बल्कि खाद्यान्न पदार्थों की बढ़ती कीमतों में इनकी सक्रिय भूमिका की खबरे हैं। तीसरे कृषि बाजार प्रणाली एवं व्यवस्था को सक्रिय एवं कार्यकुशल बनाने तथा किसानों के खेतों के पास उत्पादनोत्तर शीत भण्डारण की शृंखला जैसी अध:संरचना में वास्तविक भारी निवेश की जरूरत है। जिससे कि व्यापार कि शर्तें कृषि के पक्ष में हो सकें।

वर्तमान में कृषि को उपलब्ध राज सहायताओं एवं सुविधाओं को कृषि में निवेश समझना भारी भूल होगी। कृषि को प्राकृतिक आपदाओं एवं उत्पादन जोखिमों से सुरक्षित करने तथा कृषि को लाभकारी व्यवसाय में बदलने की दिशा में तुरन्त कदम उठाने होंगे। यह तभी सम्भव है जब ग्रामीण एवं कृषिक अध:संरचना को मजबूत किया जाएगा। स्वास्थ्य एवं शिक्षा की मानक एवं समान सुविधाएँ गाँवों में वहनीय लागत पर आसानी से उपलब्ध होगी। इसके लिये कृषि एवं ग्रामीण विकास की रणनीति को 21वीं सदी की जरूरतों के हिसाब से तैयार करना होगा।

वर्तमान रणनीति-समीक्षा की आवश्यकता


कुल मिलाकर अब तक कि रणनीति भारतीय किसानों के पक्ष में नहीं रही है। जाहिर है कि जब किसान को अपने उत्पाद का लागत से कम अथवा उसके बराबर ही मूल्य मिलेगा तो वह कृषि ऋण की अदायगी कहाँ से करेगा यदि किसी तरह कृषि ऋण चुकता कर भी दिया तो अन्य सामाजिक एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी जरूरतें कहाँ से पूरी करेगा।

संस्थागत कृषि ऋण उपलब्धि कराते समय अक्सर इस तथ्य को नजरअन्दाज किया जाता है कि अभावग्रस्त किसान को उत्पादन आगतों के अलावा फसल बोआई से लेकर उत्पाद का मूल्य हाथ में आने तक विभिन्न स्तरों पर कार्यशील पूँजी की बराबर जरूरत होती है। अत: किसान कर्ज और कर्ज गैर संस्थागत सूत्रों से लेगा जो आर्थिक अभाव के दुष्चक्र का निर्माण करता है। यही वह दुष्चक्र है जिसको तोड़ना योजनाकारों एवं केन्द्रीय बैंक के लिये सबसे बड़ी चुनौती है। जब तक यह दुष्चक्र नहीं टूटता है भारतीय कृषि लाभदायक व्यवसाय का रूप नहीं ले सकती है।

अत: समावेशी विकास के लिये राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी बहु-आयामी समन्वित एकल कृषि एवं ग्रामीण ऋणनीति एवं प्रणाली की जरूरत है जो ग्रामीण ऋण प्रणाली में विभिन्न वित्तीय संस्थाओं की परस्पर व्याप्ति पर अंकुश लगाने के साथ-साथ कृषि एवं ग्रामीण विकासोन्मुख संस्था में तब्दील हो सके। एक ऐसी प्रणाली जो ग्रामीणों में क्षमता संवर्धन के साथ-साथ वैकल्पिक गैर कृषि लघु उद्यमों को बढ़ावा देने में निर्णायक भूमिका निभा सके। जो ठहरी कृषि उत्पादकता एवं उत्पादन को गति प्रदान कर सके।

ऋण सुविधा


निसन्देह बहु-एजेंसी दृष्टिकोण पर आधारित भारतीय कृषि ऋण प्रणाली विश्व की विशालतम ऋण प्रणालियों में से एक है। मार्च 2009 के अन्त तक ग्रामीणों क्षेत्रों में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की 20,058 शाखाएँ, 86 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की 11632 शाखाएँ तथा ग्रामीण सहकारी संस्थाएँ जिनमें 106384 प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ, 12991 शाखाओं के साथ 370 जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक, 962 शाखाओं के साथ 30 राज्य सहकारी बैंक कृषि हेतु लघु एवं मध्यम अवधि के ऋण प्रदान कर रहे थे।

दीर्घावधि कृषि ऋण हेतु 19 राज्य सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक की 626 शाखाएँ तथा 506 प्राथमिक कृषि ऋण एवं ग्रामीण विकास बैंक की 1283 शाखाएँ ग्रामीण ऋण प्रणाली का हिस्सा थीं। जून 2004 में घोषित ‘फार्म क्रेडिट पैकेज’ में अन्य बातों के साथ-साथ आगामी तीन वर्षों में कृषि के लिये संस्थागत ऋण के प्रवाह को दुगुना करने की बात कही गई थी। तीन वर्षों के निर्धारित समयावधि की तुलना में दो वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र के लिये ऋण प्रवाह दुगुना हो चुका है।

वर्ष 2007-08 तथा 2008-09 के लिये निर्धारित कृषि ऋण लक्ष्यों का क्रमश: 113.18 प्रतिशत था 102.55 प्रतिशत प्राप्त किया जा चुका है। बावजूद इसके खाद्यान्न उत्पादन एवं उत्पादकता तथा कुल बोआई क्षेत्र लगभग अवरुद्ध/स्थिर है। स्पष्ट है कृषि ऋण का उपयोग निर्धारित कृषि गतिविधियों में न हो कर अन्य दूसरी जगह हो रहा है। यह कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में तब्दील नहीं हो पा रहा है। भारतीय ग्रामीण ऋण प्रणाली के सम्मुख वर्तमान एवं भविष्य की यह सबसे बड़ी चुनौती है।

भारतीय में बैंकिंग की प्रवृत्ति एवं प्रगति सम्बन्धी रिपोर्ट- 2008-09 के अनुसार बैंक शाखाओं की सर्वाधिक संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में थी। किन्तु कुल ग्रामीण शाखाओं की संख्या में हाल के वर्षों में गिरावट आई है भारत में चीन की तुलना में पहले ही प्रति हेक्टेयर पर लगभग एक चौथाई बैंकों की उपलब्धता है। ग्रामीण क्षेत्रों में शाखाओं में आई कमी इस चुनौती को और विकट बना सकती है। निसन्देह कृषि उत्पादन के अन्य घटकों के साथ-साथ कृषि ऋण की उत्पादन, उत्पादकता एवं फार्म आय को बढ़ाने में निर्णायक भूमिका है। बशर्ते इसका अन्तिम उपयोग निर्धारित कृषि गतिविधि में सुनिश्चित हो। यह किसानों के अस्तित्व से जुड़ा सवाल है।

भारतीय रिजर्व बैंक की भूमिका


भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय सेवाओं पर जागरूकता की कमी को वित्तीय अपर्जन/निष्कासन एवं कृषि ऋण के दुरुपयोग का प्रमुख कारण मानते हुए वित्तीय समावेश एवं साक्षरता को बढ़ावा देने की दिशा में गम्भीर कदम उठाए हैं जिसके तहत 31 मार्च, 2009 तक सरकारी क्षेत्र के बैंकों द्वारा 29849178 निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा 3124101 तथा विदेशी बैंकों द्वारा 41482 नो-फ्रिल खाते खोले जा चुके थे। युवाओं के लिये भारतीय रिजर्व बैंक ने युवा विद्वान योजना लागू की है।

भारतीय रिजर्व बैंक की आम जनता के लिये लिंक पर हिन्दी अंग्रेजी सहित 11 क्षेत्रीय भाषाओं में जानकारी उपलब्ध कराई गई है। इस कड़ी में विभिन्न आयु समूह के बच्चों को बैंकिंग वित्त और केन्द्रीय बैंकिंग की मूलभूत जानकारी देने के उद्देश्य से वित्तीय शिक्षा नामक लिंक जोड़ा गया। के.वाई.सी. मानदंडों को सरल करना, सामान्य प्रयोजनीय क्रेडिट कार्ड सुविधा शुरू करने हेतु बैंकों को दिशा-निर्देश देना, सूचना एवं संचार तकनीक के माध्यम से समाधान खोजने की दिशा में आगे बढ़ना, वित्तीय साक्षरता और ऋण परामर्श केन्द्र पर एक मॉडल योजना तैयार करने जैसे अनेक दूरगामी पहले शामिल हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रामीण ऋण प्रणाली की जमीनी हकीकतों से मुठभेड़ के उद्देश्य से भारतीय रिजर्व बैंक अपने प्लैटिनम जयंती वर्ष के समारोह वातानुकूलित पाँच सितारा होटलों की जगह अपने 26 क्षेत्रीय कार्यालयों, उपकार्यालयों तथा कृषि बैंकिंग महाविद्यालय के द्वारा आउटरीच कार्यक्रम के माध्यम से दूर-दराज गाँवों में आयोजित कर रहा है। वित्तीय समावेशन एवं साक्षरता अभियान की दिशा में केन्द्रीय बैंक का यह गम्भीर प्रयास है। क्षेत्रीय निदेशक, कार्यकारी निर्देशक, गवर्नर तथा उपगवर्नरों का भारतीय रिजर्व बैंक की टीम के साथ दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्रों के समारोहों में सक्रियता से शामिल होना, कृषि एवं ग्रामीण विकास वाया वित्तीय समावेशन एवं साक्षरता की अवधारणा के प्रति गम्भीरता को दर्शाता है।

वित्तीय समावेशन को लेकर भारत तथा विकसित देशों में मूलभूत जो अन्तर है, वह यह है कि विकसित देशों के लिये वित्तीय समावेशन का अर्थ तुलनात्मक रूप से जनसंख्या के एक छोटे हिस्से तक बैंकिंग (वित्तीय) सुविधाएँ पहुँचाने या फिर औपचारिक भुगतान प्रणाली उपलब्ध कराना है। जबकि भारत में जनसंख्या के एक बड़े हिस्से जो विभिन्न सामाजिक व आर्थिक कारणों से वित्तीय रूप से अपवर्जित है, को शामिल कर समावेशी विकास की मुख्यधारा में लाना है।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की भूमिका


21वीं सदी के इस कठिन लक्ष्य को पाने में कुछ संशोधन एवं सुधारों के साथ क्षेत्रीय बैंक निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। इस दिशा में केन्द्रीय बैंक, नीतिगत निर्णय के तहत समन्वित बहुउद्देशीय क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की एकल अवधारणा पर प्रायोगिक तौर पर विचार कर सकता है जो अपने आप में स्वायत्तशासी प्रकृति की हों।

शाखा स्तर पर स्थानीय जरूरतों के आधार पर ऋण नीति की रूप रेखा बनाने के लिये स्वतंत्र हों। जिससे क्षेत्रोन्मुख/राज्योन्मुख कृषि ऋण नीति की जगह लाभार्थी मूलक ऋण एवं रोजगार नीतियाँ बनाना सम्भव होगा। इसके लिये अनिवार्य है कि इस पुनर्गठित ढाँचे में ग्रामीण कैडर आधारित कृषि स्नातकों/परास्नातकों को विशेषज्ञ के तौर पर शामिल किया जाये।

इनकी सेवा शर्तों में शाखा पर अनिवार्य रूप से रहने, क्षेत्रीय विकास, कृषि उत्पादन, उत्पादकता, पशुधन विकास, ग्रामीण विकास, गरीबों के लिये रोजगार सृजन इत्यादि महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी शामिल की जानी चाहिए। यह कैडर आधारित स्टाफ स्थानीय किसानों एवं अन्य कमजोर वर्गों को एक ही स्थान पर आसानी से एक मित्र, दार्शनिक, दिशा निर्देशक, कृषि विशेषज्ञ की भूमिका निभा समस्या सुलझाने में सहायक होगा।

आधुनिक एवं अद्यतन कृषि तकनीक के प्रचार-प्रसार एवं उसके कृषि में अभिनव प्रयोग भी यह आसानी से करा सकेगा। लाभार्थी की सही पहचान एवं ऋण का सदुपयोग बढ़ेगा। किसानों एवं अन्य कमजोर वर्गों को एक ही स्थान पर सभी जरूरी जानकारी एवं सुविधाएँ संविदा खेती, फसल विविधीकरण, कृषि बीमा, ऋण, नई कृषि तकनीक, स्वयं सहायता समूह के गठन, बाजार के बारे में जानकारी इत्यादि आसानी से समय पर एक ही स्थान पर उपलब्थ कराने का सीधा प्रभाव कृषि उत्पादकता एवं उत्पादन पर पड़ेगा। जब कृषि उत्पादकता बढ़ेगी तो स्वाभाविक है कि किसानों की आय भी बढ़ेगी जिसका सीधा असर अधिक ऋण वसूली एवं बचत पर पड़ेगा।

यह सुखद कल्पना तभी सम्भव है जब प्रस्तावित नई क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में नियुक्त ग्रामीण कैडर आधारित कृषि विशेषज्ञ स्टाफ की उपर्युक्त लक्ष्यों की सफलता-असफलता की जिम्मेदारी एवं जवाबदेही अनिवार्य रूप से इनकी सेवा शर्तों में शामिल की जाएगी। क्षेत्रीय विकास एवं कृषि उत्पादन तथा उत्पादकता के अन्तिम परिणामों की निष्पादकता को प्रोन्नति एवं अवनति का आधार बनाया जाएगा। एक सतत निगरानी, निरीक्षण एवं प्रभावी मूल्याकंन प्रणाली द्वारा ऐसा करना सम्भव होगा। बदली हुई राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक परिस्थितियों में ऐसा करना समय की माँग है।

जब तक कृषि ऋण का अन्तिम उपयोग सुनिश्चित नहीं किया जाएगा तथा किसानों को एक ही स्थान पर सभी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होंगी तब तक कृषि किसानों के लिये लाभदायक उद्यम के रूप में उभर कर सामने नहीं आएगी। कृषि ऋण माफी और ऋण राहत जैसी योजनाएँ नाकाफी होंगी। यह समस्या का वास्तविक निदान नहीं है। वास्तविक निदान कृषि ऋण के माध्यम से अर्जित उत्पादकता एवं उत्पादन के लाभकारी मूल्य में निहित है। इसके लिये कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेश को द्रुतगति से बढ़ाना होगा तभी वित्तीय साक्षरता एवं वित्तीय समावेशन के परिणाम सामने आ सकेंगे। यह सब इसलिये भी आसान होगा क्योंकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शाखाएँ ग्रामीण भारत के हृदय में शिरा और धमनियों की तरह फैली हुई हैं।

नए सिरे ढाँचा खड़ा करने की आवश्यकता नहीं होगी। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का वर्तमान ढाँचागत विकास सन्तोषजनक भले ही न सही, लेकिन है। ये सब करने के लिये यदि प्रारम्भ में प्रस्तावित नवगठित कैडर आधारित समन्वित बहुउद्देशीय एकल क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक को राष्ट्र की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता एवं समावेशी विकास की खातिर शून्य लाभ-हानि पर भी चलाना पड़े, तो यह जोखिम लिया जाना चाहिए।

जरूरी कदम


बढ़ती जनसंख्या स्थिर बोआई क्षेत्र, एवं स्थिर कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता को देखते हुए 21वीं सदी की खाद्यान्न चुनौतियों का सामना करने के लिये प्रति इकाई कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने के अलावा राष्ट्र के सम्मुख कोई दूसरा विकल्प नहीं है। अत: जरूरी हो जाता है कि किसानों की वास्तविक आय की दृष्टि से कृषि वृद्धि दर एवं प्रगति को आँका जाये। न कि उत्पादित मिलियन टन कृषि जिंसों की दृष्टि से। इससे आँकड़ों के बजाय वास्तविकता को सामने रखने में सहायता मिलेगी।

भारतीय कृषि एवं किसानों को 21वीं सदी के समावेशी विकास की मुख्य धारा में शामिल करना है, तो युवाओं को एक व्यवसाय के रूप में कृषि को अपनाने के लिये आकर्षित करना होगा। यह तभी सम्भव है जब कृषि इन युवाओं के लिये आर्थिक रूप से लाभदायक एवं बौद्धिक रूप से सन्तोषजनक एवं प्रेरणादायक होगी। बहुआयामी समन्वित एक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक का प्रस्तावित मॉडल कृषि उत्पादन, उत्पादकता एवं किसानों की शुद्ध आय में बढ़ोतरी करने के साथ-साथ केन्द्रीय बैंक की समावेशी विकास वाया वित्तीय समावेशन एवं साक्षरता की अवधारणा को सफल बनाने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

(अस्वीकरण: लेख में व्यक्त विचार मेरे निजी विचार हैं। इनसे ग्रामीण आयोजना एवं ऋण विभाग, भारतीय रिजर्व बैंक, जिससे मैं सम्बन्धित हूँ, का कोई सम्बन्ध नहीं है।)

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