भारतीय मानस का भूगोल

भारत में भौगोलिक चेतना और जलवायु चेतना अनादि काल से सांस्कृतिक चेतना का मूल अंग थी। कैलाश-मानसरोवर शिव-पार्वती का निवास स्थान है। प्लासी की हार (1757) के बाद भारत-धर्म-संस्कृति की अवधरणा जड़ से विच्छिन्न होने लगी है। उस काल के दबाव में हमने मान लिया कि भारत धर्म, मूल्य, मान्यताएं, क्रिस्तानी रिलीजन, इस्लामी मजहब का पर्याय हैं। मानव जीवन मात्र भौतिक-दैहिक परिस्थिति है।

असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दे की तरफ राष्ट्र का ध्यान खींचा है-चीन लंबे समय से ब्रह्मपुत्र के पानी को रोकने और चीन की तरफ मोड़ने के प्रयास में लगा हुआ है। जिस समस्या के समाधान के लिए चीन ब्रह्मपुत्र पर अरसे से विशाल योजना क्रियान्वित कर रहा है। उसी इरादे से उसने अरूणाचल पर भी दावा ठोक रखा है और उस क्षेत्र में घुसपैठ में संलग्न है। हाल ही में अरूणाचल सरकार ने भी भारत की सर्वोच्च सत्ता का ध्यान इस ओर दिलाया है।

भारत सरकार, जनता, मीडिया और सामाजिक नेतृत्व भ्रष्टाचार निराकरण में कुछ ज्यादा ही व्यस्त है, इसलिए राष्ट्र का ध्यान इन मुद्दों की तरफ नहीं गया। वैसे भी उत्तर-पूर्वी सीमांचल सहज दृष्टि से बहुत दूर है। वहां क्या हो रहा है, उसका आम जन जीवन पर वैसा प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं होता, जैसा कि बढ़ते भ्रष्टाचार, महंगाई और अपराध् आदि को तुरंत भोगना पड़ता है। इक्के-दुक्के समाचार विश्लेषकों ने 1962 के युद्ध में हुई शर्मनाक हार का स्मरण किया है।

यह याद किया है कि तब शीर्ष नेतृत्व के हाथ-पांव फूल गए थे, सेना तेजी से पीछे हटी, सेनानायक कमांड छोड़ कर भाग गया। तब विचलित-उद्वेलित प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह भी कह दिया था कि ‘मेरा दिल तो असम की जनता के लिए डूब रहा है...।’ 1962 के युद्ध में जो कुछ हुआ-पिछले पचास साल से तो हमने यह तथ्य भी भुला रखा है कि चीन ने हमारी चालीस-पचास हजार वर्गमील जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है।

युद्ध विराम के कुछ दिन बाद पंडित नेहरू ने दिल्ली के रामलीला मैदान के मंच से राष्ट्र को संबोधित किया था। उस सर्द शाम यह लेखक उस सभा में उपस्थित था। कहने में संकोच होता है कि युद्ध विराम के बाद तीन सप्ताह बाद पंडित जी को शब्द सूझ नहीं रहे थे। वे अस्पष्ट, असंगत और संकल्प विहीन थे। एक बार भी न तो खुद प्रण किया, न जनता से वादा करवाया कि भारत हार का बदला न भी ले, कम से कम अपनी भूमि तो मुक्त कराएगा; तिब्बत की भूल के लिए प्रायश्चित करेगा। किसी व्यक्ति विशेष को लांछित करना इस विश्लेषण का मुद्दा नहीं है। सवाल यह है कि हम इस कदर संकल्प विहीन क्यों हैं और राष्ट्रीय नेतृत्व निरंतर बौना क्यों होता जा रहा है।

रामलीला मैदान में उस सर्द शाम पंडित जी ने डेढ़ घंटे के भाषण में न तो अपनी कोई भूल मानी न कमजोरी स्वीकार की। कुल मिलाकर एक सफाई पेश की थी कि तिब्बत पर चीन के दावा करने के बाद भारत सरकार ने वहां चीन की ‘सुजरैंटी’ (सीतिम प्रभुता) स्वीकार की है। चीन ने उसे तिब्बत पर अपनी ‘सोवरैंटी’ (सार्वभौम सत्ता) मान लिया है। इसके अतिरिक्त एक तथ्य यह भी जताया जाता था कि चीनी सिपाही रूई भरे कोट-पतलून पहन कर लड़ने आए थे, हमारी फौज सादी खाकी वर्दी में थी, इसलिए बर्फानी ठंड में ठिठुर गई।

अचरज तो यह है कि यह प्रत्यक्ष तथ्य न तब सूझता था, न आज कि तिब्बत समूचे भूलोक की छत है, सरगमाथा (एवरेस्ट) भूमंडल का माथा है, हिमालय शिखर और पठार समूचे एशिया और पठार पूर्वी यूरोप के साझा जल-स्रोत हैं और यूरेशिया की जलवायु के प्रमुख कारक। इन भौगोलिक तथ्यों की जरा भी समझ हो तो यह सिद्धांत स्वतः समझ आ जाएगा कि तिब्बत के दक्षिणमुखी पनढाल भारत के जल निर्गम हैं, जल-स्रोत हैं, इसलिए उस पर सुजरैंटी-सोवरैंटी सिर्फ भारत की हो सकती है।

भारत में भौगोलिक चेतना और जलवायु चेतना अनादि काल से सांस्कृतिक चेतना का मूल अंग थी। कैलाश-मानसरोवर शिव-पार्वती का निवास स्थान है। प्लासी की हार (1757) के बाद भारत-धर्म-संस्कृति की अवधरणा जड़ से विच्छिन्न होने लगी है। उस काल के दबाव में हमने मान लिया कि भारत धर्म, मूल्य, मान्यताएं, क्रिस्तानी रिलीजन, इस्लामी मजहब का पर्याय हैं। मानव जीवन मात्र भौतिक-दैहिक परिस्थिति है। विद्वत वर्ग के एक पक्ष का कहना है कि भारत-धर्म की ओजस्विता तो इस्लामी साम्राज्यवाद में नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई थी; इस्लामी ईसाइयत से बहुत अधिक क्रूर, विस्तारवादी और बहुआयामी था और है।

भारत-धर्म अंग्रेजों के आगमन से पहले ही नष्ट हो चुका था। अंग्रेजों ने तो भारत-पुनरुत्थान को संभव बनाया। तटस्थ दृष्टि से यह स्पष्ट है कि जो विद्वतजन ‘भारत या बंगाल पुनरुत्थान’ को वांछनीय मानते या स्वीकार करते हैं, वे कमोबेश इस्लामी साम्राज्य में किए गए ध्वंस और भारत-सर्वनाश की मान्यता को तर्कसंगत प्रमाणित करते हैं। अभी इस विषय पर गंभीर संवाद का अभाव है। यह बिंदु हमारे विश्लेषण का विषय नहीं।

लेकिन यह कहना आवश्यक जान पड़ता है कि भारतीय ‘हिस्ट्री’ की यह आधुनिकतावाद दृष्टि इकहरी या एकरंगी अवधारणा नहीं है। इस व्यापक मत-सम्मत में राजा राममोहन राय, रवींद्रनाथ, सावरकर से शुरू होकर नेहरू, जयप्रकाश, राममनोहर लोहिया और नीरद चौधरी, धर्मपाल, कमलेश शुक्ल तक अनेक परतों और इंद्रधनुष के विविध रंगों का समावेश है। इस बहुस्तरीय-बहुरंगी मान्यता का फलित तर्क है कि ‘देव प्रेरित अंग्रेजी हस्तक्षेप’ की बदौलत देश इस्लामी साम्राज्य से मुक्त हो सका।

इसी मान्यता के चलते गांधी-नेतृत्व के बावजूद अंग्रेजी की न्याय दृष्टि, अंग्रेजियत के लिए सम्मान, आकर्षण और कृतज्ञता हमारी राष्ट्रीय चेतना का महत्वपूर्ण अंग है। मार्क्सवादी इस चेतना को ‘फ्यूडलिज्म’ (सामंतवाद) से मुक्ति के रूप में प्रतिपादित करते हैं। उसका एक महत्वपूर्ण कारक यही है कि वे बार-बार नि:संकोच घोषणा करते रहे कि उनकी ‘जेहजियत मूलतः अंग्रेजियत है।’

गांधीजी ने उन्हें अपना वारिस कहा तो यह तर्कसंगत ही लगता है कि वे खुद भी इस दुविधा (खंडित मानस) से ग्रस्त थे। नेहरू-मतैक्य इसीलिए ‘राष्ट्रीय सहमति’ बना। तिब्बत यानी कैलाश-मानसरोवर पर चीन की ‘सुजरैंटी’ मान लेना इसी थोथी अंग्रेजियत से उपजी ‘सेक्युलर चेतना’ का प्रत्यक्षीकरण है।

भारत विविधता में एकता है-यह नेहरू का प्रिय मुहावरा था। पर इस बाबत जानकारी उपलब्ध नहीं है कि उनके ‘सेक्युलर जेहन’ में इसका क्या अर्थ और स्वरूप था। इस विषय पर उनके अतिरिक्त संवाद भी कहीं दिखाई नहीं पड़ता। संविधान में अवश्य एक संकीर्ण परिभाषा भाषाई सूबों की है और आंचलिक भाषाओं की सूची का उल्लेख है। उससे अतिरिक्त भारत एकता या वैविध्य का कहीं कोई विशेष संदर्भ या उल्लेख दिखाई नहीं पड़ता।

रामायण, महाभारत, कालिदास और हर्षचरित तक भारत भूगोल-संस्कृति-एकता का प्रमाण उपलब्ध है। इस्लामी साम्राज्य के युग में रामायण की अनेक भाषाओं में पुनर्रचना हुई तो राम-हनुमान की कथा यात्रा में लंका से कैलाश तक की एकता का सजीव चित्रण हुआ है। महाभारत के प्रमुख नायक कृष्ण का लोकधर्मी चरित्र इसी काल में विकसित हुआ। रामलीला और रासलीला इसी इस्लामी युग की देन है। वर्तमान में उपलब्ध तथ्यात्मक सूचनाओं का परंपरागत दृष्टि से विश्लेषण करें तो भारत-उपमहाद्वीप की पारिस्थितिकी (भौगोलिक एकता और जलवायु संरचना) की चंद विशेषताओं को निम्नलिखित बिंदुओं से जानने का प्रयास कर सकते हैंः

1. भारत-उपमहाद्वीप हिमालय का उपहार है। अगर हिमालय टूंर्डा-साइबेरिया से चलने वाली हवाओं को अवरुद्ध न करे तो यह भूखंड भी साइबेरिया का दक्षिणी विस्तार ही हो।

2. उपमहाद्वीप की जल प्रणाली-मानसून एक सुसंगठित-संसक्त प्राकृतिक प्रबंध है। तिब्बत के हिमनद और हिमालय शिखर बर्फ का अस्तित्व बनाए रखने के लिए निज ताप निर्मुक्त करते हैं और सूर्य की प्रतिबिंबित चमक और ताप होता है- उससे प्रेरित जो वायुवेग हिंद महासागर से तिब्बत हिमनद की तरफ आकर्षित होता है, वही कालिदास का मेघदूत या जनभाषा का मानसून है।

3. यह मानसून उत्तर में हिमालय शिखरों तक, पूर्व में म्यांमा तक फैली उपत्यकाओं तक, दक्षिण में हिंद महासागर स्थित श्रीलंका तक और पश्चिम में अरब सागर और बलूच पठार तक इस महाद्वीप का सीमांकन करता है। साल भर में बरसने वाले पानी को संचालित करता है, जिससे पूरा उपमहाद्वीप भारत-वर्ष कहलाता है।‘वर्ष-वर्षा‘ उस आकाश मार्ग से उपलब्ध जल को कहते हैं जो एक साल (बरस) के लिए होता है।

4. इस जल प्रणाली का एक महत्वपूर्ण घटक विशाल भूखंड का संयुक्त-समुचित जल निर्गम भी है। इस अंचल से समस्त मैदान और पहाड़ों के ढलान की मिट्टी और आर्द्रता मानसून और जल निर्गम का अति विशिष्ट लक्षण है, वहां से उसी अनुपात में वर्षा जल लेकर आती है।

5. अगर इस उपमहाद्वीप को 78 डिग्री देशांतर रेखा से दो भागों में बांट दें तो कन्याकुमारी से श्रीनगर तक जो रेखा है, उसके पूर्वी अर्धांग में बरसात बंगाल की खाड़ी से आती है और लगभग पचहत्तर प्रतिशत होती है। पश्चिमी अर्धांग की बारिश अरब सागर से आती है और पच्चीस प्रतिशत होती है। जिस दिशा से जितना पानी आता है उस दिशा को उतना ही वापस लौटता है।

6. हिंद महासागर में सुदूर दक्षिण से जो मानसून ठेठ उत्तर की दिशा में चलता है, वह भूखंड पहुंचते-पहुंचते पृथ्वी की दैनंदिन प्रक्रिया की गति के कारण बड़ी मात्रा में पृथ्वी की तरफ मुड़ जाता है। बंगाल की खाड़ी से जल उठता है, म्यांमार की अराकान पर्वत श्रृंखला से टकरा कर बरसता है और बंगाल-असम के हिमालय और गंगा के मैदान, ओडीशा से मध्यप्रदेश की तरफ मुड़ जाता है। मानसून का यह बंगाल खाड़ी -अंग हमारे देश की प्रमुख वर्षा करता है।

7. पूर्वमुखी मानसून का बड़ा भाग चीन, दक्षिण पूर्वी एशिया, हिंद एशिया, मलेशिया के रास्ते जापान और आस्ट्रेलिया की तरफ चला जाता है- पूरे इलाके में जलवायु का प्रमुख कारक है।

8. इसी तरह एक भाग हिमालय और एक भाग हिंदूकुश उल्लांघ कर मध्य एशिया-अराल समुद्र की तरफ बढ़ता है। और एक पश्चिमी वेग मिस्र-मेसोपोटामिया की तरफ चला जाता है।

9. वर्षा की मात्रा में विविधता और अन्य अनेक विविधताएं उपमहाद्वीप में पचास विविध पारिस्थितिकी अंचलों का निर्माण करती हैं जो शेष विश्व में पाई जाने वाली भौगोलिक विविधता से कुछ ज्यादा है।

10. म्यांमा से ढाका होकर कन्याकुमारी तक और वहां से कराची तक लगभग सात हजार मील लंबे तट पर हजारों डेल्टा (मुहाने) और छोटे-बड़े पश्चजल क्षेत्र (बैक वाटर) स्थित हैं, जहां गंगा मैदान जैसी जैव वैविध्य अन्य किसी भी तट से कई गुना अधिक है। इस तटीय संपदा का मूल कारक वह शुद्ध-मीठे जल की अंतरधरा है जो विशाल नदियों द्वारा लाए गए जल, गाद आदि से निर्मित होती है। ऐसी तमाम विशेषताओं, भौतिक यथार्थ, जटिल प्रणालियों को सांस्कृतिक मूल्यों में संश्लिष्ट किया गया था। ‘लौकिकवादी पुनरुत्थान’ के सिलसिले में सांस्कृतिक मानस छिन्न-भिन्न हो गया। भौतिकवादी दृष्टि ने प्रकृति को छिन्न-भिन्न कर दिया है। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप की मानसून और जल निर्गम प्रणाली में चीन सहित समस्त यूरेशिया (जंबू द्वीप) का हित निहित है। सब कुछ नष्ट होने से पहले एशिया देशों को मूल मानसून की सुरक्षा के लिए विकास की नई तरकीब तजवीजनी होगी।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading