भारतीय प्रिंट मीडिया में जलवायु परिवर्तन कवरेज: एक लेख विश्लेषण

30 Jan 2020
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प्रतीकात्मक भारतीय प्रिंट मीडिया में जलवायु परिवर्तन कवरेज
प्रतीकात्मक भारतीय प्रिंट मीडिया में जलवायु परिवर्तन कवरेज

सारांश

हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन ने राजनीतिज्ञों और मीडिया का अधिक ध्यान आकर्षित किया है। जबकि पश्चिमी मीडिया ने इस मुद्दे को अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है परन्तु विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में जलवायु परिवर्तन कवरेज के मीडिया विश्लेषण का अभाव है। यह शोधपत्र भारत के तीन प्रमुख अंग्रेजी भाषा दैनिकों (मध्यमार्गी और रुड़ीवादी समाचार पत्र) में प्रमुख वैश्विक जलवायु परिवर्तन घटनाओं के दौरान संवादकी जाँच करता है। मात्रात्मक विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकतम कवरेज उस समय हुआ जब फरवरी 2007 में आईपीसीसी की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट जारी हुई थी और तब जबजलवायु परिवर्तन पुरुधाओने अक्तूबर 2007 में नोबेल शांति पुरस्कार जीता था। विषय-सूची केगुणात्मक विश्लेषण से पता चलता है कि संभ्रांत भारतीय प्रेस द्वारा प्रासंगिक सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक मुद्दे उठाने के लिए वैज्ञानिक सत्यता, ऊर्जा चुनौती , सामाजिक विकास, सार्वजनिक जबावदेही और उभरते आपदा जैसे तंत्र मुद्दे व्यापकरूप से प्रयोग किये जाते हैं। मीडिया निर्माण की पार सांस्कृतिक तुलना, विशेषतः यूरोप व अमेरिका के साथ, इस क्षेत्र के जोखिम संचार के भविष्य के विकास को पहचानने में सहायता करती है। व्यापक रूप में वैश्विक तात्पर्य यह है कि यह कार्य अंतरराष्ट्रीय स्तर परतेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के साथ यूरोपियन शोधकर्ताओ द्वारा सुझाये ‘‘क्लाइमेटिक टर्न’’ के विचार से जोड़ा जा सकता है। मुख्य शब्द: जलवायु परिवर्तन, वैश्विक गर्माहट, लेख विश्लेषण, मीडिया रिपोर्टिंग, प्रिंट मीडिया, जलवायु परिवर्तन, जलवायु कवरेज।

Abstract

Climate change has attracted much political and media attention in recent years- While western media coverage of this issue has been well&documented] there is a paucity of media analysis for climate change coverage in developing economies- This paper examines the media discourse generated in India among three leading English&language dailies ¼with centrist and conservative news values½ during globally prominent climate change events- A quantitative analysis shows a peak in coverage when the Fourth Assessment Report by the IPCC was released in February 2007] and when climate change crusaders won the Nobel Peace Prize in October 2007- A qualitative content analysis reveals that frames such as scientific certainty] energy challenge] social progress] public accountability and looming disaster are widely employed by the elite Indian press to raise relevant social] economic and political issues- Cross&cultural comparisons of media constructs] especially with Europe and America] help identify the further development of risk communication in this field- In a broader] global sense] this work can be tied in to the idea of the ‘climatic turn’ as suggested by European researchers with climate change evolving into a grand] transnational narrative-

Keywords: Climate Change] Global Warming] Discourse Analysis] Media Reporting] Indian Print Media] Climatic Turn] Climate Coverage

परिचय

भारत के भीतर जलवायु परिवर्तन पर अधिक ध्यान आकर्षित हो रहा है, और इसके साथ-साथ भारत जलवायु बहस में और अधिक ध्यान आकर्षित कर रहा है। यह ध्यान भारत की भौतिक और राजनीतिक स्थिति दोनों को दर्शाता है। प्राकृतिक रूप से, देश की 1.03 बिलियन की आबादी, जिसका 70% अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है और जिसका बड़े पैमाने पर निर्वाह खेती या श्रम पर आधरित है, तथा हिमालय के बहुत बड़े दक्षिणए-शियाई डेल्टा में इसकी अवस्थिति, के कारण यह जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है (ओ.आर.जी 2001; मड्सले 2011; टोमान इत्यादि 2003) इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC 2007) की चौथी आकलन रिपोर्ट निकट भविष्य में हिमशैल के पिघलने से पानी की वृद्धि से बाढ़ के रूप में हिमालय की तलहटी के बड़े क्षेत्रों के लिए उत्पन्न खतरे को उजागर करती है। इसके अलावा, निचले इलाकों के आसपास में संभावित मॉनसून परिवर्तन और समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण भारत के बड़े तटीय मेट्रो शहरों को खतरा है (टोमन इत्यादि 2003; शुक्ला इत्यादि 2003)। इन जोखिमों पर इस वास्तविकता के साथ विचार किया जाना चाहिए कि भारत वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक प्रमुख उत्पादक है। विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में, 2006 में 8.7% की आर्थिक वृद्धि के साथ, भारत की ऊर्जा खपत 2001 और 2006 के बीच की अवधि में 3.7% बढ़ी है (एम.इ.एफ 2007)। इस बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन आधारित विकास ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 1990 में 682 MtCO2 से बढ़कर 2004 में 1,342 MtCO2 तक बढ़ाने में योगदान दिया है - (वाटकिंस 2007)। जबकि पूर्ण विकास अभूतपूर्व रहा है, फिर भी भारत प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में एक गरीब देश बना हुआ है, और यह विभाजन प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन असमानताओं में परिलक्षित होता है। भारत में सबसे अधिक आय वर्ग का एक नागरिक-जिसमें आबादी का सिर्फ 1% शामिल है-सबसे गरीब 38% आबादी की तुलना में चार गुना अधिक CO22 का उत्सर्जन करता है (1,494 किलोग्राम प्रति व्यक्ति, 335 किलो प्रति व्यक्ति की तुलना में) सबसे अमीर 14% नागरिक भारत के 24% CO2 का उत्सर्जन करते हैं (अनंतपùनाभन इत्यादि 2007)। जबकि प्रति व्यक्ति औसत के रूप में, अमीर देशों के प्रत्येक नागरिक के उत्सर्जन की तुलना का यह 1/11 है, वास्तविक रूप में भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सामाजिक स्तरीकरण के कारण बहुत बदलाव है (वाटकिंस 2007: 69)। इस संदर्भ में, भारत इन राष्ट्रीय भौतिक खतरों के जवाब में और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई के संदर्भ में भी राजनीतिक रूप से रक्षात्मक बना हुआ है। सरकार अपनी ऐतिहासिक स्थिति के लिए प्रतिबद्ध है कि गरीबी की स्थिति में पर्यावरण में सुधार नहीं किया जा सकता (पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मानव पर्यावरण पर 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में)। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं के दौरान अतीत और वर्तमान में भारत ने यह तर्क दिया है कि जलवायु परिवर्तन के लिए ऐतिहासिक जिम्मेदारी विकसित दुनिया की रहती है; सबसे पहले आई.पी.सी.सी सम्मेलनों में, भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता ने तर्क दिया किः यदि सभी देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकासशील राज्यों के समान स्तर पर होता, तो दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का सामना नहीं करना पड़ता (संयुक्त राष्ट्र आई.पी.सी.सी सम्मेलन, 1991 दिल्ली, के दौरान पर्यावरण और वन मंत्रालय (एम.ओ.ई.एफ), के भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता का बयान)। इसके विपरीत, भारत ने 1993 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी) पर ‘‘एक गैर-अनुलग्नकराज्य’’ के रूप में हस्ताक्षर किए, बाध्यकारी उत्सर्जन-घटाने के लक्ष्य पर नहीं ।सरकार और व्यापक सिविल सोसाइटी दोनों द्वारा अंतरराष्ट्रीय उत्सर्जन अधिकतम सीमा को भारत परलागू करने को ‘उत्तर-दक्षिण विभाजन’ को गहरा करने के रूप में देखा जाता है, जैसे कि इसका विकास बंद हो (अग्रवाल और नारायण 1991:1)। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट जो मीडिया को जानकारी और राय प्रदान करने वाले भारत के सबसे प्रमुख पर्यावरण समूहों में से एक है, ने वर्तमान जलवायु वार्ताओं का वर्णन करने के लिए नियमित रूप से ‘कार्बन उपनिवेशवाद’ शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसमें तर्क दिया गया है कि विकसित देशों द्वारा भारत को उत्सर्जन कम करने के लिए बल देने के प्रयास भारत के विकास को बाधित करने के लिए विकसित दुनिया का एक और प्रयास है। जलवायु परिवर्तन को मुख्य रूप से उत्तर-दक्षिण जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, जहाँ वर्तमान और भविष्य के बदलाव की जिम्मेदारी विकसित देशों की है (सेड1978)।

मीडिया उन कारकों पर ध्यान केंद्रित कर सकता है जो पर्यावरणीय समस्याओं के साथ-साथ लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। पर्यावरणीय समस्याएं, जो वर्तमान के अस्तित्व के साथ-साथ मानवता के भविष्य के लिए खतरा हैं, मीडिया द्वारा लोगों के ध्यान में लायी जाती हैं। इन तीन मुद्दों में से कुछ वास्तव में काफी चिंताजनक हैं और उन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, ताकि लोगों को उनकी तीव्रता के बारे में जागरूक किया जा सके। विशेषज्ञों द्वारा सीधे रिपोर्ट, चर्चा, फोटो फीचर और लेख, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे के विभिन्न पहलुओं के बारे में लोगों को सूचित करने में मदद करते हैं। हो सकता है कि आम आदमी अपने आसपास की कई पर्यावरणीय समस्याओं के प्रभाव का आकलन करने में सक्षम न हो। यदि मीडिया ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता को शिक्षित करने का प्रयास करता है, तो कम से कम, बुद्धिमान और सही सोच वाले लोग एहतियाती उपाय करने की आवश्यकता के बारे में जागरूक हो जाएंगे और वे प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और संरक्षण के प्रति संवेदनशील हो जाएंगे। इस शोधपत्र में यह जांच की गई है कि मीडिया द्वारा, भारतीय संदर्भ में जलवायु विज्ञान और जलवायु राजनीति दोनों का प्रतिनिधित्व और संचार कैसे किया जाता है।

1.3 भारतीय मीडिया

अमेरिका या चीन के विपरीत, भारत ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि उसकी विदेश नीति काफी हद तक अपने विकास की खोज में पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखने के इरादे से होगी (गिडेंस 2009, पृष्ठ 47)। वैकल्पिक रूप से, भारत एक ऐसे पथ पर है (कम से कम आंशिक रूप से) जो समृद्धि के विचारों का अनुसरण करता है। भारत में विचार के प्रवाह और विकास की स्वतंत्रता हैं (द इकोनॉमिस्ट, 2010 ए)। यह पर्यावरण के लिए सकारात्मक परिणामों और जलवायु परिवर्तन के इर्द-गिर्द घूमने वाली अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं के साथ आर्थिक रूप से, बल्कि राजनीतिक रूप से भी लाभदायक है। इसके अलावा, भारत ने यह प्रदर्शित किया है कि उसे पारंपरिक या विकसित देशों द्वारा अनुमोदित प्रक्षेपपथ का पालन करने की आवश्यकता नहीं है।

मीडिया भारत में पर्यावरण के मुद्दों की सार्वजनिक समझ को आकार देने में सहायक है (चैपमैन इत्यादि 1997)। हाल के सार्वजनिक मतदान से पता चलता है कि प्रिंट मीडिया जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर साक्षर जनता के लिए सूचना का प्रमुख स्रोत है; 2007 ग्लोबल नील्सन सर्वे ने सुझाव दिया कि सर्वेक्षण में शामिल आबादी का 74% जलवायु परिवर्तन की जानकारी के प्राथमिक स्रोत के रूप में समाचार पत्रों का उपयोग करता है। कई अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, भारत में लगभग सभी बड़े सार्वजनिक मीडिया राज्य नियंत्रण से स्वतंत्र हैं; 2004/2005 में बेचे जाने वाले अखबारों का सिर्फ 0.42% सरकारी स्वामित्व वाले मीडिया हाउस (India Stat 2007) द्वारा प्रकाशित किया गया था। भारत में समाचार पत्र 30 से अधिक भाषाओं में प्रकाशित होते हैं, जिनमें हिंदी और अंग्रेजी सबसे प्रमुख हैं; केवल राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा के हैं। ये अंग्रेजी-साक्षर वर्गों की सेवा करते हैं, और ब्रिटिश ब्रॉडशीट पत्रों के समान रूप ले लेते हैं। सभी चार प्रमुख अंग्रेजी-भाषा के पत्र, द टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स और द इंडियन एक्सप्रेस-क्रमशः 7.4, 4.05, 3.85, और 0.95 मिलियन के परिचलन के साथ कार्य सूची तय करने वाले लोगों की पठन सामग्री के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किए जाते हैं (इंडियास्टैट 2007; सोनवलकर 2002)। इस समूह को जलवायु परिवर्तन पर सार्वजनिक जानकारी सूचित किए जाने का आकलन करके, हम समाज के इस प्रभावशाली क्षेत्र के बीच निजी धारणा के निर्माण में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया को समझने लगते हैं।

तालिका 1 और चित्र 1 में तीन समाचार पत्रों के तुलनात्मक विश्लेषण को दर्शाया गया है। यह देखा गया है कि हिंदू ने अधिकतम लेखों को कवर किया है इसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स हैं। 2008 के बाद कवरेज में वृद्धि देखी गई है। संबंधित समाचार पत्रों द्वारा लेखों का प्रतिशत तालिका 3 में दिया गया है।

निष्कर्ष

इस शोध पत्र का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन वार्ताओं के संबंध में राष्ट्रीय दृष्टिकोण को रेखांकित करने वाले मुद्दों की समझ में योगदान करना था। स्वाभाविक रूप से, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति जटिल है, और यहां तर्क यह नहीं है कि भारत, या कोई अन्य देश, दूसरे देशों के साथ सार्वजनिक राय की समझ के आधार पर सख्ती से बातचीत करता है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का देना और लेना इस प्रकार के मुद्दों के लिए अनुकूल नहीं है। हालांकि, एक लोकतांत्रिक संदर्भ में, मुद्दे की सार्वजनिक धारणा और उस मुद्दे के बारे में राष्ट्रीय नीति के बीच एक मजबूत संबंध मौजूद होता है। लोकप्रिय संवाद को प्रभावित करने वाले कारकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जब मुद्दा संवाद से उपजा होता है जो जनता तक सीधे पहुंच के लिए भी विशेष होता है।

जैसा कि प्रदर्शित किया गया है, मीडिया में जलवायु परिवर्तन के प्रतिनिधित्व पर हित धारकों के हित और शक्तियों का बहुत का बड़ा प्रभाव होता है। किसी भी लोक तांत्रिक राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में भाग लेने के दृष्टिकोण से सार्वजनिक भावना बेहद प्रभावित होती है। इसलिए, यह समझना आवश्यक है कि जलवायु परिवर्तन चित्रण को किस प्रकार से और क्यों सार्वजनिक संवाद में शामिल किया जाता है। यदि जनता को जलवायु परिवर्तन पर निर्णायक कार्रवाई का समर्थन करना है, तो उन्हें वैज्ञानिक संवादों के परिणामों के बारे में सटीक जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वर्तमान स्थिति और वैज्ञानिक भविष्यवाणियों का सही मूल्यांकन हो सके, जिस पर विचारों को आधार बनाया जाए कि प्रगति कैसे की जाए। समकालीन मीडिया प्रथाओं की प्रकृति के कारण, जनता को सटीक और स्थापित वैज्ञानिक जानकारी के प्रसारण में हस्तक्षेप होना तय है। समाज को सीखने की उत्पादक प्रक्रिया की पेशकश के लिए इसे पहचाना जाना चाहिए और जहां तक संभव हो ठीक किया जाना चाहिए। यह स्वीकृति और संशोधन नागरिक समाज और सार्वजनिक क्षेत्र की जिम्मेदारी है।

हालांकि अध्ययन में महानगरीय-प्रकार की एक जुटता की कुछ धारणाएं सामने आईं, भारतीय जनता के परिप्रेक्ष्य को निर्धारित करने में राष्ट्रीय पहचान बहुत बड़ा कारक बना हुई है। अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर बहस अभी भी भारतीय पहचान पर आधारित है, जलवायु परिवर्तन के कारण और शमन की प्रमुख भूमिका के लिए अन्य जिम्मेदार हैं। हालाँकि, जैसा कि भारतीय संवादो में जलवायु परिवर्तन पर अधिक महत्व दिया जा रहा है (यहाँ, हम जलवायु परिवर्तन संवादों में उचित परिभाषा के परिणामों को देखते हैं), यह स्वीकार करना आम होता जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन भारत को जल्द और उत्तर की तुलना में अधिक सीधे प्रभावित करेगा। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तर को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास जारी रहता है, क्योंकि प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और शमन तथा अनुकूलन हेतु सहायता के लिए निरंतर दबाव रहता है। इसके साथ ही, समस्या के कारण के लिए जिम्मेदारियों से अछूता रह कर, शमन और अनुकूलन पर अधिक घरेलू कार्रवाई के लिए एक सामान्य अनुमोदन और आखान है। यह एक तेजी से अस्थिर घरेलू और स्थानीय वातावरण के बारे में जागरूकता से बाहर है जिसमें लोग रहना जारी रखेंगे।

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