भारतीय वनों का समग्र मूल्यांकन


वन ‘आदि-संस्कृतियों’ के लिये वरदान थे इसीलिये भारत की प्राचीन संस्कृति को ‘अरण्य संस्कृति’ के नाम से भी जाना जाता था। वनों की गोद में उपजी और पर्यावरण के अति निकट-सहचर्य में पल्लवित तथा पुष्पित संस्कृति का स्वरूप आज इतना विकृत हो गया है कि पहाड़ों की पीठ पर उगे जंगल धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। जबकि वन जीवन के लिये अपरिहार्य हैं। लेखक का कहना है कि किसी भी देश की वन सम्पदा उस देश के समृद्धतम वर्ग से लेकर निर्धनतम वर्ग तक के आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, अतः हमें वन संवर्धन और वन-संरक्षण के सभी प्रयास करने चाहिए।

खतरे में वन चैम्पोलियन महोदय ने आज से 200 वर्ष पूर्व कहा था कि- ‘‘प्रकृति के विरुद्ध सबसे बड़ा अपराध माँ-पृथ्वी के वनस्पति आवरण को हानि पहुँचाना है।’’

उक्त कथन से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि वनों को काटना-भयंकरतम अपराध है। प्रकृति अपना बदला अवश्य लेती है, यह तथ्य मात्र कल्पना नहीं है अपितु आज की भयावह सच्चाई है। प्रकृति से उद्भूत मानव सदियों से अपने स्वार्थ-हित के लिये प्रकृति एवं प्राकृतिक सम्पदाओं का अविवेकपूर्ण दोहन करता आया है। जिसका परिणाम समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाएँ एवं उनसे होने वाली अपार धन-जन हानि है।

लोक साहित्य में वनों के इसी महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए कहा गया है कि-

‘जीते लकड़ी, मरते लकड़ी,
देख तमाशा लकड़ी का’


कहने का तत्पर्य यह है कि जीवन में वनों का उपयोग जन्म से लेकर मृत्यु तक सदा ही रहता है। वनों के इसी महत्त्व के कारण प्राचीन भारत में ‘अरण्य संस्कृति’ को पोषण मिला था। वनों को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया जा सकता है-

‘वन, वृक्षों से आच्छादित एक अत्यन्त जटिल पारिस्थितिकीय तंत्र है, जो मूलरूप से सूर्यताप, आँधी और अनार्द्रता प्रतिरोधक का कार्य करता है। वन चाहे हरे-भरे हों या सूखे निरन्तर ऐसे पर्यावरण का निर्माण करते रहते हैं जो समस्त प्राणिवर्ग के लिये आवश्यक है।’’

हमारे देश के आर्थिक, सामाजिक एवं पारिस्थितिकीय विकास में वनों का अति महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसके अतिरिक्त ये जल चक्र, मृदा संरक्षण, मृत और सड़े पदार्थों के पुनर्चक्रण, वातावरणीय गैसों के संयोजन एवं समायोजन, विभिन्न पौधों और प्राणियों के लिये जैविक भण्डार तथा हरीतिमा संवर्धन के रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण सेवाएँ प्रदान करते रहते हैं।

वस्तुतः हमें वन सम्पदा की उपयोगी एवं बहुमूल्य सेवाओं की जानकारी जन-जन तक पहुँचानी चाहिए और वन-संरक्षण तथा वन-विकास के सघन प्रयास करने चाहिए तभी पर्यावरण की परिशुद्धता बनी रह सकेगी। अपने जीवन का शतक पूरा कर रहे ‘वृक्ष मानव’ (मैन आफ द ट्रीज) नाम से विख्यात वन-प्रेमी, न्यूजीलैण्ड निवासी डॉ. रिचार्ड सेंट बर्वे जब भारत आये तो ‘चिपको’ आन्दोलनकारियों को बधाई देने के साथ-साथ एक सन्देश भी दिया कि भारत में केवल 12 प्रतिशत वृक्षावली शेष रह गई है, परिस्थिति बहुत गम्भीर है। भारतीय पर्यावरण की सुरक्षा के लिये कम-से-कम एक-तिहाई और हिमालय के लिये दो-तिहाई वृक्षावली परमावश्यक है।’

वनों का पर्यावरणीय महत्त्व


वनों के विनाश से उत्पन्न पारिस्थितिकीय असन्तुलन के परिणामस्वरूप बाढ़, भू-क्षरण, भू-स्खलन, नए रेगिस्तानी क्षेत्र, मरुस्थलों का फैलाव, सूखा, महामारी आदि ने हमें विवश कर दिया है कि हम पर्यावरण के सन्दर्भ में गम्भीरतापूर्वक विचार करें और अपनी तथा पृथ्वी के अन्य जीवधारियों के अस्तित्व की रक्षा के लिये प्रकृति में सन्तुलन बनाए रखने का हर सम्भव प्रयास करें। वनों का अस्तित्व हमारे अस्तित्व से पूर्णतया सम्पृक्त है। भारत में लगभग 40 प्रतिशत ऊर्जा आवश्यकताएँ वनों द्वारा ही पूरित की जाती हैं। इसमें 80 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की ऊर्जा आवश्यकताएँ भी सम्मिलित हैं। भूमिहीन ग्रामीण परिवारों तथा जनजातियों के लिये वन, वनोपज तथा वनों की कटाई की आय का मुख्य स्रोत है। यदि कम-से-कम अनुमान लगाया जाये तो भी वनों से प्रतिवर्ष 22 करोड़ टन ईंधन, 25 करोड़ टन घास और हरा चारा, 1.2 करोड़ घनमीटर सजावटी एवं भवनोपयोगी लकड़ी और हजारों टन अन्य वन-उत्पाद प्राप्त किये जाते हैं। एक वैज्ञानिक आकलन के अनुसार वनों से प्रतिवर्ष निकाले जाने वाले ईंधन, चारा, इमारती लकड़ी एवं अन्य लघु वन-उत्पादों का अनुमानित मूल्य लगभग 30,000 करोड़ रुपए बैठता है। भारत के 41,960 लाख घनमीटर वन भण्डार का न्यूनतम मूल्य भी लगाया जाये तो भी यह 4,00,000 करोड़ रुपए होगा।

वन क्षेत्रों का भारतीय परिदृश्य


देश में वनों का कुल क्षेत्रफल 19.47 प्रतिशत है। ध्यान देने की बात है कि इन वनों में भी अच्छे उपयोगी किस्म के वनों का प्रतिशत मात्र 11.73 है जबकि वन नीति के अन्तर्गत सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत पर वनाच्छादन अनिवार्य है। किसी भी देश की वन सम्पदा का सूचक उस देश का वन क्षेत्र एवं पेड़ पौधे होते हैं। भारतीय वन क्षेत्र का सबसे पहला वैज्ञानिक आकलन भारतीय वन सर्वेक्षण ने 1987 में प्रस्तुत किया था। यह सर्वेक्षण 1981 से लेकर 1983 तक के सेटेलाइट द्वारा भेजे गए वन चित्रों पर आधारित था।

उल्लिखित सारणी-1 का यदि सही विश्लेषण किया जाये तो एक तथ्य स्पष्ट है कि भारतीय वन क्षेत्रों में लगातार गिरावट आती जा रही थी। चतुर्थ रिपोर्ट में 0.925 हजार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में वृद्धि प्रदर्शित की गई है। उक्त रिपोर्टों में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है, जिसकी व्याख्या न की गई हो। इस प्रकार क्षेत्रों की शुद्धतम नाप, सेटेलाईट चित्रों का बारीकियों से किया गया अध्ययन एवं विश्लेषण तथा वन क्षेत्रों का गहनतम वैज्ञानिक अध्ययन जैसे महत्त्वपूर्ण घटकों को दृष्टिगत रखते हुए चला जाये तो हमारा वन क्षेत्र आधार वर्ष 1981-83 से लेकर 1987 तक 1.870 हजार वर्ग किलोमीटर कम हो गया। दूसरे शब्दों में इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि भारतीय वन 47,500 हेक्टेयर प्रतिवर्ष की उल्लेखनीय दर से क्रमशः घटते जा रहे थे।

सारणी - 1

भारतीय वन सर्वेक्षण प्रतिवेदन (सेटेलाइट चित्रों पर आधारित

सर्वेक्षण वर्ष

प्रतिवेदन संख्या

प्रकाशन वर्ष

वनों का क्षेत्रफल (000 वर्ग किमी.)

घटत/बढ़त

1981-83

प्रथम

1987

642.00

-

1985-87

द्वितीय

1989

640.130

-1.870

1987-98

तृतीय

1991

639.182

-0.148

1989-91

चतुर्थ

1993

640.107

+0.925

नोट - (-) घटत का सूचक तथा (+) बढ़ता का सूचक है।

 


सारणी - 2

वृक्ष की सेवाओं का मूल्यांकन (एक मध्यम आकार के वृक्ष का जीवनकाल 50 वर्ष मानकर)

सेवा का स्वरूप

मूल्य (रुपए में)

1. वायु प्रदूषण नियंत्रण

5,00,000.00

2. जल का पुनर्चक्रण एवं नमी नियंत्रण

3,00,000.00

3. ऑक्सीजन उत्पादन

2,50,000.00

4. मिट्टी उर्वरता एवं अपरदन की रोकथाम

2,50,000.00

5. पक्षियों, कीटों, जीवों व पौधों को आश्रय

2,50,000.00

6. जैव प्रोटीन उत्पादन एवं संवर्धन

20,000.00

कुल योग

15,70,000.00

 


सारणी - 3

वनों से प्राप्त उत्पाद एवं सेवाएँ

उत्पाद

सेवाएँ

1. भवन उपयोगी लकड़ी

1. मृदा संरक्षण

2. ईंधन की लकड़ी

2. जल पुनर्चक्रण

3. रेलवे स्लीपर

3. जलवायु नियंत्रण

4. पल्प

4. प्रदूषण से बचाव

5. कन्दमूल, फल-फूल तथा बीज

5. धूल, आँधी की रोकथाम

6. गोंद

6. बाढ़ों की रोकथाम

7. अखाद्य तेल

7. अनावृष्टि तथा अतिवृष्टि पर नियंत्रण

8. दवाएँ

8. वन्य प्रजातियों का आश्रय

9. रेशे

9. पर्याप्त सन्तुलन

10. रेजिन

10. कार्बन डाइऑक्साइड चक्र नियंत्रण

11. लाख

11. हरीतिमा संवर्धन

12. तेंदू पत्ती

12. मनोहारी दृश्य

13. चारा-पत्ती

-

14. बाँस तथा बेंत

-

15. माचिस की तीलियाँ

-

 


तत्पश्चात 1987 से वन क्षेत्र क्रमशः बढ़ने लगे अर्थात वन क्षेत्रों में 573 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हो गई या फिर ये कहें कि हमारा वन क्षेत्र 280 किलोमीटर प्रतिवर्ष की दर से बढ़ने लगा। वर्ष 1991 तक भारतीय वन परिदृश्य में 925 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि अंकित हो गई अर्थात वृद्धि दर 280 वर्ग किलोमीटर प्रतिवर्ष से बढ़कर 462.50 वर्ग किलोमीटर प्रतिवर्ष हो गई।

एक जीवित वृक्ष को काटने से उसके वास्तविक मूल्य का केवल 0.5 प्रतिशत लाभ ही प्राप्त हो पाता है जबकि वन वैज्ञानिक बताते हैं कि लगभग 50 टन भार का एक सामान्य वृक्ष अपने जीवन काल से लेकर मृत्यु तक (लगभग 50 वर्ष मानें तो) वातावरण में आक्सीजन प्रदान कर, मिट्टी का क्षरण रोककर, फल-फूल तथा चारा पत्ती देकर, प्रोटीन का उत्पादन करके तथा प्रदूषण कम करके लगभग 15 लाख 70 हजार रुपए का लाभ हमें प्रदान करता है। प्राप्त होने वाली सेवाओं को सारणी-3 में दिखाया गया है। पर्यावरणीय सेवाओं का मूल्यांकन यह मानकर किया जाता है कि यदि इन निःशुल्क मिलने वाली सेवाओं का वैकल्पिक उपयोग किया जाये तो उसमें कितनी आय होगी।

मानव समाज के विकास में वनों की महत्ता इतनी अधिक व्यापक रही है कि उसे शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना सर्वथा कठिन है। ध्यान से देखा जाये, तो मानव के आर्थिक जीवन की प्रत्येक गतिविधि किसी-न-किसी रूप में वनों से अवश्य प्रभावित रही है। आदि काल से लेकर आज तक मनुष्य किसी-न-किसी रूप में वनों पर आश्रित है।

वन्य-जन्तुओं के शिकार से लेकर फलों तक, वृक्षों की छाल से लेकर वन्य जीवों की खाल तक और सेल्यूलोज पर आधारित सिंथेटिक वस्त्रों तक के लिये आज भी मनुष्य वनों पर निर्भर है। वनों के बिना आवास की कल्पना आज भी अधूरी लगती है। आज भी भवन निर्माण सामग्री के रूप में वनों के कुल उत्पाद का लगभग 33 प्रतिशत इसी क्षेत्र में प्रयुक्त होता है। 50 प्रतिशत का उपयोग ईंधन के रूप में होता है। इसके अतिरिक्त रबर, गोंद, टेनिन, रेजिन, दवाएँ, जड़ी-बूटियाँ, फल-फूल सुगन्ध तथा मनोहारी दृश्य वनों की ही देन हैं। कई वनोपजों का उपयोग उद्योगों में कच्चे माल के रूप में किया जाता है। जिनमें मुख्य हैं- सिनकोना, हींग, कार्क तथा तारपीन आदि। वनों से प्राप्त होने वाले कुल राजस्व का 30 प्रतिशत छोटे वन उत्पादों से ही प्राप्त होता है।

यह जानकर आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि चार में से एक औषधि ट्रापिकल वनों (अयन वृत्तीय वन) से प्राप्त होती है। ट्रापिकल वनों में से 1400 पौधों में कैंसर उपचार के लक्षण पाये गए हैं, ट्रापिकल वनों में से 1400 पौधों में कैंसर उपचार के लक्षण पाये गए हैं, रोजी पैरीविंकल में तो बहुत बड़ी मात्रा में कैंसर रोग को रोकने की औषधि पाई गई है। ट्रापिकल वन संसार के लगभग 50 प्रतिशत पौधों और जीवन्तु प्रजातियों के आश्रय स्थल हैं। परन्तु खेद है कि मनुष्य इन्हें 74,000 एकड़ प्रतिदिन की तीव्रगति से काट रहा है और इनके साथ ही जीव-जन्तुओं की असंख्य प्रजातियाँ भी समाप्त होने की कगार पर हैं। विलुप्त होती वन्य प्रजातियों, कृषि औषधियों और अन्ततोगत्वा मानव के सुखद भविष्य के लिये हमें संकल्प लेकर वनों के काटने को रोकना होगा। उक्त सभी समस्याओं का हल वृक्षारोपण हमारी पहुँच के अन्दर है।

सम्पर्क करें
डा. गुलाब सिंह बघेल, प्रवक्ता, भूगोल, दुर्गानारायण महाविद्यालय, फतेहगढ़ (उ.प्र.)

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