भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) और मात्स्यिकी (Geographic Information Systems (GIS) and Fisheries)


जलकृषि तटीय क्षेत्रों में एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय माना जाता है जिससे लाखों को रोजगार एवं देश को करोड़ों की देशी मुद्रा मिलती है। जलकृषि उद्योग में मुनाफे से प्रभावित होकर जहाँ जगह मिली वहीं तालाबों का निर्माण करना शुरू कर दिया जिससे तटीय वातावरण में महत्त्वपूर्ण पेड़ 'मैंग्रोव' तथा अन्य प्राकृतिक संपदा का ह्रास हो गया।

प्रस्तावना


भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS), सूचना प्रौद्योगिकी में आई क्रांति का एक सर्वाधुनिक तंत्र है जो कि निर्णय सहायक तंत्र के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र, वायुवीय एवं अवायुवीय गणकों के समायोजन में सक्षम है जिससे योजना तथा निर्णय लेने की क्षमता बढ़ाई जा सके, जो अधिकाधिक गणकों को संभाल सके, जो गणकों की पुनरावृत्ति रोक सके तथा भौगोलिक सत्यता के आधार पर विविध गणकों का अवलोकन करके अतिविशिष्टि जानकारियाँ प्राप्त की जा सके।

भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) विभिन्न प्रकार के उत्तर देने में सक्षम है जैसे :

स्थानीय स्थिति (Location) : कि स्थान विशेष पर क्या स्थापित है।
दशा (Condition) : स्थिति विशेष के लिये स्थान विशेष की पहचान
प्रवृत्ति (Trends) : जब से अब तक स्थिति में क्या अंतर आया है
प्रतिरूप (Pattern) : अन्तरस्थिति का क्रम
नियोजन (Modelling) : यदि ऐसा तो क्या

भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) के विकास के पहले यह सभी कार्य मानवीय स्तर पर किये जाते थे जिसमें न केवल बहुत समय एवं पूँजी लगती थी अपितु विषय वस्तु का वास्तविक ज्ञान भी संभव नहीं था, क्योंकि विशेष स्थान पर पहुँचना सर्वदा संभव नहीं था। जबकि भौगोलिक सूचना तंत्र सुदुर संवेदक गणकों पर आधारित है जिससे धरती का कोई पहलू नहीं छूप सकता। तंत्र का उपयोग बड़ा ही विस्तृत है। जिसे हम मात्स्यिकी प्रबंधन के लिये भी उपयोग कर सकते हैं। संक्षेप में भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) को उपयोग में लाकर मात्स्यिकी प्रबंधन संबंधी विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करके वर्तमान मात्स्यिकी संसाधनों उपयोग तथा रख-रखाव संबंधी विषयों पर उत्कृष्ट योजना तथा उचित निर्णय लेकर संसाधनों का समुचित उपयोग किया जा सके।

मात्स्यिकी में भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) क्यों?


पिछले कुछ दशकों में प्रौद्योगिकी में आधुनिकता के साथ-साथ जनसंख्या भी कई गुना बढ़ गयी है जिसके दबाव में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी बढ़ा है। जिसके फलस्वरूप कुछ संसाधनों का सतत ह्रास हो गया है। भोजन संसाधनों के संदर्भ में मात्स्यिकी का महत्त्वपूर्ण योगदान है परन्तु तटीय मत्स्य संसाधन पहले ही आवश्यकता से अधिक दोहित हो रहे हैं। यदि संसाधन इसी तरह समाप्त होते रहे तो देश को एक अप्रत्याशित हानि हो सकती है। इसलिए तटीय मत्स्य संसाधनों का वैज्ञानिक प्रबंधन आज की मांग तथा आवश्यकता है।

संसार का 85 प्रतिशत मत्स्योत्पादन समुद्री है जिसमें भारत 3.2% का प्रतिभागिता के साथ सातवें-आठवें स्थान पर है। अन्तर्स्थलीय मास्त्यिकी में भारत, चीन के बाद दूसरे स्थान पर है परन्तु प्रति व्यक्ति खपत 3.2 कि.ग्रा. प्रतिवर्ष है जो कि हमारे पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, और थाईलैंड से भी बहुत कम है। एक साक्ष्य के अनुसार भारतीयों की प्रोटीन मांग को पूरा करने के लिये, मत्स्योत्पादन 13 मिलियन टन तक बढ़ाना होगा। परंतु यह तभी संभव है जब मात्स्यिकी के विविध संसाधनों को वैज्ञानिक रीति दोहन किया जाये।

आज भारतीय मात्स्यिकी संसाधन, प्रदूषण, अत्याधिक दोहन तथा आवासीय आवश्यकता के कारण आयी समस्यायें हैं जो कि न केवल मछुवारों के सामाजिक-आर्थिक पहलूओं को प्रभावित करती वरन मत्स्य संसाधनों की जैव-विविधता को भी नुकसान पहुँचाती हैं। ये सभी समस्याएँ इसलिए पैदा हुई क्योंकि भारतीय मत्स्य संसाधनों के दोहन की कोई पूर्व नियोजित पद्धति नहीं है। जिसके लिये समुचित गणकों तथा संबंधित जानकारियों का अभाव माना गया है। यदि हमें प्रस्तावित मत्स्योत्पादन बढ़ाना है तो मात्स्यिकी संबंधित सभी जानकारियाँ प्राप्त करके भौगोलिक सूचना तन्त्र का सहारा लेना पड़ेगा।

भौगोलिक सूचना तंत्र की विषय वस्तु :


1. हार्डवेयर : उच्च क्षमता वाला कम्प्यूटर, इनपुट डिवाईस, स्कैनर, डिजिटाईजर, ग्राफिक मोनीटर, ग्लोबल पोजिसनिंग सिस्टम तथा प्लॉटर
2. सॉफ्टवेयर : इनपुट मॉड्युल, एडिटिंग, मैनीपुलेसन/एनाविसिस मोडयूल तथा मौडलिंग क्षमता
3. डाटा (गणक) : वायुवीय एक भौगोलिक डाटा
4. लाईप वेयर : पूर्ण प्रशिक्षित व्यक्ति

मात्स्यिकी में भौगोलिक सूचना तंत्र का इतिहास


1990 के दशक में भौगोलिक सूचना तंत्र असल प्रभाव में आया जब जी.आई.एस. के योगदान की कार्य क्षमता का पता चलने लगा कि इस तंत्र से किसी भी क्षेत्र में डाटाबेस डिजाइलिंग तथा मोडलिंग की जा सकती है मात्स्यिकी प्रबंधन में भौ.सू.तं. का उपयोग 1995 में शुरू हुआ। भौ.सू.तं. की क्षमता से प्रभावित होकर आज किसी क्षेत्र में इसका उपयोग जरूरी समझा जाने लगा है। डिपार्टमेंट ऑफ स्पेस (DOS) तंत्र का उपयोग प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में विशेष ध्यान दे रहा है। नेचुरल रिसोर्स इन्फॉरमेशन सिस्टम (एन.आर.आई.एस.) इंटेगरेटिव मिशन फॉर सस्टेनेबल (आई एम एस डी) तथा बायी डाइवरसिटी करैक्ट्राईसेशन एवं नेशनल लेबल मुख्य हैं। नेशनल रिमोट सेंसिग एजेंसी (एन आर एस ए) एवं इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ रिमोट सैसिंग (आई आई आई एस) भी शिक्षण एवं प्रशिक्षण के माध्यम से भौ.सू.तं. के उपयोग की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

मात्स्यिकी प्रबंधन में भौगोलिक सूचना तंत्र का उपयोग


मात्स्यिकी प्रबंधन में भौगोलिक सूचना तंत्र का उपयोग बहु विविध हैं इस तंत्र की सहायता से आप वह सब कुछ शुद्धता तथा प्रामाणिकता के साथ कर सकते हैं। जो पहले संभव भी न था। मात्स्यिकी प्रबंधन में भौ.सू.तं. की कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं पर प्रभाव डाला गया है।

संसाधन मापन (Resource mapping)


भौगोलिक सूचना तंत्र की सहायता से मत्स्य संसाधनों का आकलन किया जा सकता है। दोहन के लिये किये जाने वाले साधनों की आवश्यकता की योजना तथा निर्णय लिया जा सकता है जिससे साधनों तथा संसाधनों का उचित एवं समायोजित दोहन हो सके।

मात्स्यिकी क्षमता क्षेत्रों को पहचानना एवं भविष्यवाणी (Location of PFZ)


मत्स्य समूह का किसी स्थान विशेष पर पाया जाना तापमान में बदलाव, वायु तथा जलप्रवाह, शैली एवं पी.एच. में विविधता, अपवैलिंग, भोजन की उपस्थिति इत्यादि कारकों पर निर्भर करता है। इन्हीं समुद्री कारकों की आधार पर मछलियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भोजन या प्रजनन के लिये पलायन करती हैं। समुद्री जल के तापमान में गिरावट के द्वारा पहचानी जा सकती है। समुद्री जल का तापमान में गिरावट विशेष जल प्रवाह के कारण होती है जिसमें तली का जल ऊपर की ओर प्रवाह करता है जिसमें पोषक तत्व मिले होते हैं इन्हीं पोषक तत्वों का भक्षण के लिये मछलियाँ यहाँ एकत्रित होती हैं। एक अन्य कारक क्लोरोफिल यानि जिस क्षेत्र में क्लोरोफिल की मात्रा अच्छी होती है और मछलियाँ भोजन के लिये कहाँ एकत्रित होती हैं यह क्लोरोफिल क्षेत्र भी सैरेलाईट द्वारा पहचाना जा सकता है। इन्हीं कोरकों के आधार पर तटीय मछुवारों की उक्त स्थान की जानकारी दे दी जाती है जिससे वह वहाँ जाकर प्रग्रहण कर सकें। इन सभी जानकारियों को भौगोलिक सूचना तंत्र में भर दिया जाये तो लोकेशन, स्थिति ट्रेंड, पैट्रन तथा मॉडलिंग की जा सकती है जिससे मानव श्रम, नावों की संख्या तथा ईंधन की बचत की जा सकती है। इन पोट्रेशियल फिशिंग जीत (पी.एफ.जेड.) को सूचना मछुवारों को फैम्स के जरिये दी जा रही है और अवलोकनों के आधार पर पाया गया कि इन क्षेत्रों में मछलियों की अधिकता पायी गयी।

जलकृषि के लिये उचित स्थान का चुनाव (Aquaculture Site Selection)


जलकृषि तटीय क्षेत्रों में एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय माना जाता है जिससे लाखों को रोजगार एवं देश को करोड़ों की देशी मुद्रा मिलती है। जलकृषि उद्योग में मुनाफे से प्रभावित होकर जहाँ जगह मिली वहीं तालाबों का निर्माण करना शुरू कर दिया जिससे तटीय वातावरण में महत्त्वपूर्ण पेड़ 'मैंग्रोव' तथा अन्य प्राकृतिक संपदा का ह्रास हो गया। जबकि ये तटीय संपदा मात्स्यिकी, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से इतनी महत्त्वपूर्ण है जिसके वर्जन के लिये एक अन्य विषय की उत्पत्ति होना सामाजिक है। मन करने से हमेशा हम नुकसान को सहेंगे। आज भौगोलिक सूचना तंत्र की सहायता से यह कार्य बिना किसी प्राकृतिक क्षति के बखूबी संभव हुआ है। इसके लिये और कोई राज्यों में इस प्रकार का काम भी हुआ है। तालाब बनाने के स्थान के चुनाव के लिये विभिन्न कारक जैसे कोस्टल रेगुलेशन जो सी.आर.जेड. इंजीनियरिंग, बॉयोलॉजी, बैक्टिरियोलॅाजी, सामाजिक, आर्थिक तथा रचनात्मक बातों को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है।

लेखक परिचय
प्रेम कुमार एवं अशोक कुमार नायक

राष्ट्रीय शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान केन्द्र भीमताल-263136, नैनीताल

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