भक्षक बने रक्षक

3 Aug 2012
0 mins read

एक समय था, जब कहा जा रहा था कि मनास से बाघों का अस्तित्व समाप्त हो गया है। उग्रवादियों की सांठगांठ से शिकारी बिना किसी भय के शिकार करने लगे थे। बाघ भी नजर नहीं आते थे। एक सींग वाले दुर्लभ गैंडे भी लुप्त हो चुके थे और कई दुर्लभ वन्यप्राणियों के सामने गंभीर संकट मंडरा रहा था। बाघों के प्रिय भोजन हिरण का शिकार इतना ज्यादा हुआ कि वे पार्क के अंदर दिखते ही नहीं थे।

वन्यजीव प्रेमियों के लिए इससे अच्छी खबर और क्या हो सकती है कि पूर्वी हिमालय की तलहटी में भूटान की सीमा पर स्थित प्राकृतिक सुषमा से भरपूर मनास राष्ट्रीय उद्यान अब खतरे से बाहर है। इस सकारात्मक बदलाव का सबसे शानदार पक्ष यह है कि जिन उग्रवादियों और अवैध शिकारियों ने असम से भूटान तक फैले इस राष्ट्रीय पार्क को विनाश की कगार पर ला खड़ा किया था, उन्हीं भक्षकों ने रक्षक बनकर इस राष्ट्रीय उद्यान को उसकी पुरानी मर्यादा और पहचान कमोबेश लौटा दी है। इस पूरे बदलाव में बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद और वनविभाग की कोशिशों का योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा। एक वक्त था जब वर्ष 1973 में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के लिए देश के जिन नौ रक्षित क्षेत्रों का चुनाव हुआ था, उनमें से एक मनास राष्ट्रीय उद्यान भी था। बाघों के संरक्षण के लिए शुरू की गई इस परियोजना ने अपेक्षित कामयाबी भी हासिल की जिसे देखते हुए 1985 में मनास राष्ट्रीय पार्क को यूनेस्को ने ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट’ घोषित किया था। मगर 1990 के बाद से पार्क की सूरत बिगड़ती चली गई। यहां बाघों का शिकार धड़ल्ले से किया जाने लगा। आतंकी गतिविधियां और वन अधिकारियों के अपहरण के मामले सामने आने लगे। नतीजा यह हुआ कि खूबसूरत नजारों से भरपूर इस उद्यान का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया। यूनेस्को ने खतरे में पड़ गई विश्व धरोहरों की सूची में इसका नाम भी दर्ज कर लिया।

यह तो था सिक्के का एक पहलू जो पार्क की दुर्दशा की कहानी बयां करता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है जो भविष्य के प्रति उम्मीद जगाता है। दरअसल, मनास की खोई हुई अस्मिता स्थानीय लोगों की पहल से लौट आई है। यूनेस्को ने खतरे में पड़ गई विश्व धरोहरों की सूची से इसका नाम हटा लिया है। अब उद्यान को पुराना वैभव लौटाने के लिए स्थानीय लोगों द्वारा गठित काउंसिल आतंकी गतिविधियों से निपटने के साथ-साथ उद्यान के विकास को अवरुद्ध करने वाले तमाम कारकों से लड़ रही है। इसके साथ ही ‘वाइल्ड लाइफ फंड ऑफ इंडिया’ और असम सरकार ने भी जंगल के बाहर निगरानी सख्त करने का फैसला किया है। सरकार यहां कई चेक पोस्ट बनाने जा रही है ताकि शिकारियों पर नजर रखी जा सके। इसके अलावा आधारभूत संरचना के विकास पर भी सरकार का जोर है।

मनास राष्ट्रीय उद्यानमनास राष्ट्रीय उद्यानइसके तहत क्षेत्र को गुवाहटी जैसे शहरों से जोड़ने पर विचार किया जा रहा है। मकसद, पर्यटकों का रुख मनास राष्ट्रीय पार्क की ओर करना है। दिलचस्प यह भी है कि कुछ कथित शिकारियों ने भी वन्यजीव के संरक्षण में सरकार और स्थानीय लोगों को मदद देने का फैसला किया है। यानी विनाशक ही अब उद्यान की गरिमा लौटाने के प्रयास में सारथी बनने को तैयार हैं। जबकि एक समय ऐसा भी आ गया था कि बोडो उग्रवाद के दौरान लोग इसके अंदर जाने से डरते थे। जंगल में डेरा जमाए उग्रवादी उनका अपहरण कर लेते थे या उन्हें मार देते थे। जंगल माफिया ने जमकर पेड़ काटे और शिकारियों ने वन्यजीवों का जमकर शिकार किया। अधिकांश वन्यजीव मारे गए लेकिन स्थितियां तेजी से बदली हैं।

वन्यजीवों को करीब से देखने के लिए मनास आज बेहतर जगह है। यह रेलमार्ग पर बारपेटा रोड स्टेशन से करीब है और गुवाहाटी से बारपेटा के लिए बेहतर सड़क है। पार्क में पर्यटकों के ठहरने और घूमने के भी इंतजामात हैं। जंगल के एकदम बीच में बने गेस्ट हाउस में एक रात रुकने आनंद अद्भुत है। जंगली जानवरों और पक्षियों की आवाज के बीच वन्यजीवों को मुक्त विचरण करते देखना किसे नहीं भाएगा?

कभी जो वन्यजीवों को मारते थे वे आज उनकी रक्षा को मुस्तैद हैकभी जो वन्यजीवों को मारते थे वे आज उनकी रक्षा को मुस्तैद हैएक समय था, जब कहा जा रहा था कि मनास से बाघों (रॉयल टाइगर) का अस्तित्व समाप्त हो गया है। उग्रवादियों की सांठगांठ से शिकारी बिना किसी भय के शिकार करने लगे थे। बाघ भी नजर नहीं आते थे। एक सींग वाले दुर्लभ गैंडे भी लुप्त हो चुके थे और कई दुर्लभ वन्यप्राणियों के सामने गंभीर संकट मंडरा रहा था। बाघों के प्रिय भोजन हिरण का शिकार इतना ज्यादा हुआ कि वे पार्क के अंदर दिखते ही नहीं थे। बोडो आंदोलन के दौरान पार्क के अंदर जाने के रास्ते तहस-नहस कर दिए गए थे। नदी-नालों पर बने पुलों को तोड़ दिया गया। इससे दूरदराज और दुर्गम इलाके में पेट्रोलिंग मुश्किल हो गई। उग्रवादियों ने पार्क की सुरक्षा के लिए तैनात वनकर्मियों के हथियार लूट लिए। कई वनकर्मियों की हत्या कर दी गई। इसकी वजह से वनकर्मी भी वन्यजीवों की खबर लेने पार्क के अंदर नहीं जाते थे। इस स्थिति का फायदा अवैध शिकारियों ने उठाया। पार्क के अंदर वन्यजीवों का जमकर शिकार किया गया। पार्क में मौजूद सभी एक सींग वाले गैंडे मार दिए गए। हिरणों का शिकार इस कदर हुआ कि वे दिखते नहीं थे।

लेकिन अब मनास राष्ट्रीय पार्क खतरे के उस दौर से बाहर आ चुका है। भारत सरकार, असम सरकार और बोडो लिबरेशन टाइगर्स के बीच 2003 में हुए बीटीसी समझौते के बाद बोडोलैंड में शांति लौटी और उसके कुछ दिनों के बाद मनास राष्ट्रीय पार्क के पुनर्संरक्षण का काम आरंभ हुआ। उसी का नतीजा है कि वर्ष 2009-10 के सर्वेक्षण के दौरान पंद्रह से बीस बाघों की मौजूदगी का प्रमाण मिला। 2011-12 के सर्वेक्षण के लिए कैमरे की मदद ली गई है और काम पूरा हो गया है। अंतिम रिपोर्ट का आना बाकी है, हालांकि संकेत मिल रहे हैं कि बाघों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। मनास राष्ट्रीय पार्क के फील्ड डायरेक्टर ए.सरगियारी बताते हैं कि ‘सर्वेक्षण में बाघ के शावकों को शामिल नहीं किया गया है। कैमरा टेपिंग में कई नए बाघों की उपस्थिति के प्रमाण मिले हैं।’

ताजा अध्ययन से पता चला है कि मनास पार्क में बढ़ रही है बाघों की संख्याताजा अध्ययन से पता चला है कि मनास पार्क में बढ़ रही है बाघों की संख्यादरअसल, इस सुखद बदलाव के पीछे बोडो टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) में वन विभाग के डिप्टी चीफ खंपा बसुमतारी का योगदान सराहनीय है। उन्होंने मनास को उसकी पुरानी पहचान वापस दिलाने का संकल्प लिया। पूर्व बोडो उग्रवादियों, समर्पण कर चुके अवैध शिकारियों के साथ मनास से सटे गावों के युवकों के दल तैयार किए गए। उन्हें बताया गया कि मनास के संरक्षण के साथ उनके लिए रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। इस काम से मनास राष्ट्रीय पार्क के अधिकारियों को जोड़ा गया और उन्हीं की देखरेख में मनास के अंदर ईको-टूरिज्म विकसित करने की रुपरेखा तैयार की गई। इस अभियान से ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन के स्थानीय युवक भी जुड़े। परिणाम है कि जिन लोगों से मनास राष्ट्रीय उद्यान के जीव-जंतुओं को सबसे अधिक खतरा था, आज वही वर्ग इसके संरक्षण एवं विकास के लिए तल्लीन है।

मनास प्रोजेक्ट टाइगर्स के फील्ड डायरेक्टर ए. सरगियारी का कहना है स्थिति बदल चुकी है। कुछ वर्ष पहले तक लोग कहने लगे थे कि मनास में बाघ नहीं हैं। यह बात गलत साबित हुई। बाघों की संख्या बढ़ रही है। बाघ के कई शावकों की तस्वीरें भी कैमरे में मिली हैं। यानी बाघों का प्रजनन जारी है। यह बेहतर स्थिति है। हिरणों की संख्या बढ़ने से बाघों को पौष्टिक खुराक आसानी से मिल रही है। इससे प्रजनन में सुविधा होगी। हम कह सकते हैं कि मनास के बेहतर दिन वापस आ गए हैं। बोडो समुदायों के बीच चलाए गए जागरुकता अभियान ने असर दिखाना शुरू कर दिया है। बोडो समुदाय के लोग आज समझ चुके हैं कि अपना भविष्य संवारने के लिए वन-संपदा का संरक्षण जरूरी है। इसमें पुरुष और महिलाओं ने समान रूप से योगदान दिया है। मनास मौजीगेंद्री ईको-टूरिज्म सोसाइटी (एमएमईएस) नामक संस्था ने नींव का काम किया।

मनास राष्ट्रीय उद्यान के भूटान वाले हिस्से में भी अवैध शिकारियों पर कसी जा रही है नकेलमनास राष्ट्रीय उद्यान के भूटान वाले हिस्से में भी अवैध शिकारियों पर कसी जा रही है नकेलमनास राष्ट्रीय उद्यान के चारों ओर करीब 57 गांव बसे हुए हैं। इन गांवों में रहने वाले 30,000 लोग के लिए वन ही सबकुछ है। अब जब स्थितियां बदली हैं तो बाहर के लोगों को इस बदलाव की तस्वीर दिखाने के लिए मनास शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया। खंपा बसुमतारी ने बताया कि मनास को खतरे में आ गए विश्व धरोहर की सूची में रखने से समस्याएं बेहद बढ़ गई थीं। बीटीसी के डिप्टी चीफ कहते हैं कि ‘बीटीसी का गठन हुआ तब स्थितियां सामान्य बनाने की चुनौती गंभीर थी। पेड़ों की कटाई से लेकर वनजीवों की हत्या पर रोक लगाना बेहद जरूरी था। वन विभाग ने लोगों के बीच जागरुकता अभियान चलाया तथा वनों के संरक्षण से होने वाले लाभ से उन्हें अवगत कराया। इसमें मनास मौजीगेंद्री ईको-टूरिज्म सोसाइटी (एमएमईएस) ने सराहनीय कार्य किया है।

एमएमईस संस्था मूलतः बोडो समुदाय के लोगों ने गठित की है। कुछ वर्ष पहले तक इनसे जानवरों के जान को सबसे अधिक खतरा था पर आज वे ही इसकी रक्षा के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति बुद्धेश्वर बोरा हैं जिन्होंने अपने जीवन में अस्सी हाथियों, दो चीते व अनगिनत हिरणों का शिकार किया लेकिन आज वे एमएमईएस की समिति के सदस्य हैं। समिति लोगों को वन संरक्षण के लिए प्रेरित करने और उनके जीवन में इसका महत्व बताने का काम करती है। वह लोगों को पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के विषय में जानकारी उपलब्ध कराने के लिए जगह-जगह वर्कशाप का आयोजन करती है। एमएमईएस के संयोजक पार्थ दास बताते हैं, ‘वन्यजीवों के शिकार पर अंकुश लगाना मनास की पहचान बचाए रखने के लिए आवश्यक था। इसके लिए गांव-गांव घूम कर महिलाओं को एकजुट किया गया। संस्था ने अपने आने वाले भविष्य को बेहतर बनाने के लिए महिलाओं को प्रेरित किया कि वन्यजीवों व पक्षियों का शिकार कर भक्षण करने से वे परहेज करें। इतना ही नहीं, घर के पुरुष द्वारा शिकार कर लाए गए पक्षियों और जंगली जीवों को पकाने से परहेज करें। महिलाओं ने इसमें सराहनीय योगदान दिया।

मनास अभ्यारण्य क्षेत्र के दौरे से आज स्पष्ट होता की माहौल ने सकारात्मक करवट बदली है। स्थानीय लोगों, गैर-सरकारी संस्थाओं से लेकर सरकारी वन कर्मी राष्ट्रीय उद्यान के संरक्षण के प्रति दृढ़ संकल्पित नजर आ रहे हैं।

एक समय राज्य सरकार के समक्ष लोगों को वैकल्पिक रोजगार और जीवनयापन का जरिया मुहैया कराना अनिवार्य था। बीटीसी गठन के पश्चात आत्मसमर्पण कर चुके बीएलटी कैडरों को मनास के रखरखाव का कार्य सौंपा गया। वन क्षेत्र में युवाओं को सुरक्षागार्ड के तौर पर तैनात किया गया। वन विभाग इनको महीने में डेढ़ हजार रुपये वेतन के तौर पर देती है। बीटीसी के वन मामले के जानकार खंपा बसुमतारी बताते हैं कि वन विभाग की कोशिशों और स्थानीय लोगों की भागीदारी के अच्छे परिणाम सामने आए हैं। वन्यजीवों का शिकार तो रुका ही है, पेड़ों की कटाई लगभग बंद हो चुकी है। वन सघन हो रहा है और वन्यजीव अक्सर विचरते दिख जाते हैं।

गैंडे का फोटो खींचती एक सैलानीगैंडे का फोटो खींचती एक सैलानीइन बदलावों के बाद जब यूनेस्को ने स्थितियों की समीक्षा की और उन्हें यथास्थिति की जानकारी दी गई तो उसने इस उद्यान को खतरे में पड़ गए विश्व धरोहरों की अपनी सूची से बाहर कर दिया।

क्यों न हो, वन्यजीवों का शिकार लगभग बंद हो गया है। शाकाहारी जीवों की संख्या बढ़ी है। उन पर आश्रित मांसाहारी जीव बढ़ने लगे हैं। अब तो मनास में पवितरा अभ्यारण्य से एक सींग वाले गैंडे लाए गए हैं। उनकी संख्या अभी 22 हो चुकी है। दो और गैंडे यहां लाकर बसाने हैं। चूंकि मनास में पहले गैंडे पाए जाते थे इसलिए गैंडों को यहां बसाने में विशेष दिक्कत नहीं हो रही है। मनास में गैंडे के लिए उनका प्रिय घास पर्याप्त मात्रा में है। मनास के उत्थान से जुड़े लोग अब इसे देश का बेहतरीन राष्ट्रीय पार्क बनाना चाहते हैं। मनास का लोकेशन भी तो बेहतरीन है। पूरी तरह पूर्वी हिमालय की तलहटी में बसा उद्यान अनेक खूबियों से लैस है। मनास का जंगल असम से लेकर भूटान की सीमा के बहुत अंदर तक फैला हुआ है। जंगली जीव बेरोकटोक असम और भूटान की सीमा में आते-जाते रहते हैं।

मनास में प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व, एलिफेंट रिजर्व और वन्य संपदा रिजर्व का क्षेत्रफल वर्ष 2000 में बढ़ाकर 950 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। यह पार्क असम रुफ्ड टर्टल, गोल्डन लंगूर, पिग्मी हॉग, गरुड़, बारहसिंगा, चीता, काला चीता, तेंदुआ, वाइल्ड वाटर वफेलो और हिरणों की अनेक प्रजातियों के लिए प्रसिद्ध है। हिरणों की अनेक प्रजातियों की उपस्थिति के कारण यहां बाघों के संरक्षण की खूब संभावना है। पार्क का नाम इसके बीच से बहने वाली नदी मनास के कारण है। यहां पक्षियों की 450 प्रजातियां पाई जाती हैं। उम्मीद है कि जल्द ही यह अभ्यारण्य बाघों की संख्या के कारण विश्व भर में नाम कमाएगा।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading