भारत में कूड़ा एकत्रिकरण व्यवस्था

1 Jul 2020
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भारत में कूड़ा एकत्रिकरण व्यवस्था
भारत में कूड़ा एकत्रिकरण व्यवस्था

विकास और आधुनिकता की पटरी पर चलते-चलते भारत की स्वच्छता व्यवस्था हमेशा से ही पटरी से उतरी रही है। विभिन्नताओं से भरे देश में स्वच्छता और पर्यावरण संस्कृति का अभिन्न अंग होने के बावजूद भी स्वच्छता अधिकांश लोगों के जीवन का हिस्सा नहीं बन पाई है। देश में जहां-तहां संकरी गलियों से लेकर हाइवे तक फैला कचरा, दीवारों पर पीक थूकना आदि इस बात की बानगी हैं। इतने वर्षों में लोगों ने अपने घर और आंगन को साफ करना तो सीख लिया, लेकिन घर के कूड़ें को घर के बाहर या आसपास खाली मैदानों आदि में फैंकना निरंतर जारी है। कई इलाकों में खाली मैदान सार्वजनिक डंपिंग ग्राउंड बन गए हैं, जहां हर राह चलता कूड़ा डालकर चला जाता है। ऐसे में नगर निकायों के डंपिंग ग्राउंड के अलावा हजारों ऐसे डंपिंग ग्राउंड (कूड़े से भरे खाली प्लाॅट) हैं, जो जनता द्वारा जनता के लिए स्वतः ही बनाए गए हैं। स्वच्छता बनाए रखना जनता का कर्तव्य होता है। स्वच्छता बनाए रखने के लिए कूड़ा उचित स्थान पर, यानी कूड़ेदान में फेंकना जरूरी है, लेकिन इस व्यवस्था को बनाए रखने का काम प्रशासन का होता है और प्रशासन कार्य करता है, सरकार के अंडर। किंतु भारत के सरकारी दफ्तर आज तक खुद को ही स्वच्छ नहीं कर पाए हैं।

सरकार के अधिकांश नेताओं को स्वच्छता पर गांधी जी के कुछ वाक्यों के अलावा धरातल पर वास्तविक स्वच्छता का अर्थ हीं मालूम नहीं है। यही कारण है कि विकास के लिए जिन गांवों को सांसदों ने गोद लिया था, वो अभी तक गोद से बाहर ही नहीं निकल पाए हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने स्वच्छता व्यवस्था को बनाए रखने और देश को साफ-सुथरा रखने के लिए ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत की थी। योजना के अंतर्गत 2 अक्टूबर 2014 से अब तक ग्रामीण इलाकों में 10 करोड़ 28 लाख 67 हजार 271 शौचालयों का निर्माण करवाया गया है। 6 लाख 3 हजार 175 गांवों और 706 जिलों को खुले में शौच से मुक्त किया गया है। स्वच्छ भारत अभियान की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश का हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश खुले में शौच से मुक्त है। सरकार के इस प्रयास से काफी सुधार तो आया है, लेकिन वास्तव में धरातल पर हकीकत सरकार के वादों से बिल्कुल अलग है। 

स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत शौचालयों को बेसलाइन सर्वे के आधार पर बनाया गया था। धीरे धीरे फिर गांवों, जिलों और राज्यों को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया गया। लेकिन क्या वास्तव में कहीं भी खुले में शौच नहीं होता था ? ये बात तो आप और हम अपने आसपास देखकर भलिभांति जानते हैं, लेकिन सरकार के कार्यों ने खुद इस बात की पोल खोल दी। सरकार द्वारा लेफ्टआउट बेसलाइन सर्वे करवाया गया। इस सर्वे के बाद उन लोगों को शौचालय की सुविधा मिलनी थी, जिनके घरों में शौचालय नहीं है। सर्वे में पता चला कि अकेले उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार जिले में 19 हजार से ज्यादा परिवारों के पास शौचालय ही नहीं था। पिछले साल जनवरी में हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के मुताबिक ‘‘सूचना के अधिकार में खुलासा हुआ कि उत्तराखंड़ में 66 हजार से ज्यादा घरों में शौचालय नहीं है।’’ इसके अलावा, बेसलाइन सर्वे में सामने आया कि उत्तर प्रदेश के 2.4 करोड़ परिवारों में से केवल 76 लाख के पास ही शौचालय है, जबकि 1.7 करोड़ परिवार शौचालय विहीन हैं। स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत शौचालयों का निर्माण करवाने के बाद उत्तर प्रदेश के 75 जिलों और 97641 गांवों को पूर्णतः खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया गया। लेकिन पिछले साल 13 दिसंबर को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित खबर में भी बताया गया कि ‘नोवन लेफ्ट बिहाइंड सर्वे’ में पता चला कि उत्तर प्रदेश के लगभग 15 लाख परिवारों के पास शौचालय नहीं है।’’ यही हाल देश के तमाम इलाकों और राज्यों का है। जहां खुले में शौचमुक्त की हकीकत सरकार के वादों के विपरीत है। हालांकि सरकार के प्रयासों से काफी सुधार आया है, लेकिन सवाल ये भी उठता है, कि जब देश के लाखों परिवारों और हर राज्य के हजारों परिवारों के पास शौचालय नहीं है। बड़े पैमाने पर खुले में शौच किया जाता है, तो किस आधार पर जिलों को खुले में शौच से मुक्त किया गया ?

शौचालयों की तरह ही कूड़ा एकत्रिकरण की व्यवस्था की पटरी से उतरी हुई है। स्चच्छत भारत अभियान में स्वच्छता के काफी प्रयास किए गए हैं। हर साल स्वच्छता सर्वे किया जाता है। सबसे साफ नगर निकायों को सम्मानित किया जाता है। इसका बड़े पैमाने पर असर दिखा है, जो काबिले तारीफ है, लेकिन इसके हालात भी शौचालयों के निर्माण की तरह ही है। सीएसई की ‘स्टेट आफ इंडियाज़ इनवायरमेंट रिपोर्ट 2020’ के अनुसार देश के 18.7 प्रतिशत ग्रामीण घरों और 81.5 प्रतिशत शहरी घरों में ही गारबेज कलेक्शन की व्यवस्था है। ग्रामीण इलाकों के 80.4 प्रतिशत घरों में कूड़ा उठाने की कोई व्यवस्था नहीं है, जबकि 11.2 प्रतिशत घरों से पंचायत और नगर निकायों द्वारा व्यवस्था की गई है। 6.4 प्रतिशत घरों से वहां के निवासी या लोगों का समूह एकत्रित करता है, 1.1 प्रतिशत अन्य और 0.9 प्रतिशत घरों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। भारत के शहरी इलाकों की बात करें तो 74.1 प्रतिशत घरों के कूड़ा उठाने की व्यवस्था नगर निकायों द्वारा की गई है, 5.7 प्रतिशत घरों से निवासी या लोगों के समूह, 1.7 प्रतिशत अन्य और 0.9 प्रतिशत घरों से कूड़ा एकत्रिकरण की कोई जानकारी नहीं है। 

आंकड़ों के अनुसार चंड़ीगढ़ के ग्रामीण इलाकों के हर घर में कूड़ा एकत्रित करने की व्यवस्था है। तो वहीं दमीन और दीव के 94.6 प्रतिशत और दिल्ली के 82 प्रतिशत ग्रामीण घरों में कूड़ा उठाने की व्यवस्था नगर निकायों द्वारा की गई है। अपने कूड़े के पहाड़ के कारण दुनिया में चर्चा का विषय बनी देश की राजधानी दिल्ली के 15.6 प्रतिशत ग्रामीण घरों में कूड़ा उठाने की कोई व्यवस्था नहीं है। तो वहीं जम्मू कश्मीर के 98.3 प्रतिशत, झारखंड के 96.5 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ के 95.6 प्रतिशत ग्रामीण घरों में कूड़ा उठाने की कोई व्यवस्था नहीं है। दूसरी तरफ, सबसे साक्षर राज्य केरल के 70.1 प्रतिशत शहरी घरों में, झारखंड के 46.1 प्रतिशत, असम के 45.2 प्रतिशत घरों में कूड़ा उठाने की कोई व्यवस्था नहीं है। हालांकि गोवा के 98.8 प्रतिशत, अंडमान और निकोबार के 83.6 प्रतिशत तथा सिक्किम के 90.2 प्रतिशत शहर घरों में नगर निकायों द्वारा कूड़ा उठाने की व्यवस्था की गई है। 

फोटो - State of India's Environment report 2020, CSE

इसमे कोई दोराय नहीं है कि कूड़ा उठाने की सुविधाओं के अभाव में शहरी इलाकों के 18.5 प्रतिशत और ग्रामीण भारत के 81.3 प्रतिशत घरों का कूड़ा कहां फेंका जाता होगा। जाहिर-सी बात है कि ये खुले में (खाली मैदानों, नदियों, तालाबों आदि) में कूड़ा फेंकते है। सड़क पर चलती जनता भी जहां-तहां खुले में ही कूड़ा फेंक देती है। जिन कूड़ेदानों में सार्वजनिक स्थानों पर कूड़ा फेंका भी जाता है, इन्हें समय पर खाली न करने के कारण कूड़ा बाहर बिखर जाता है। नतीजतन, कूड़ादान होना या न होना, एक समान रहता है। हमारी पालिकाओं के पास भी अभी तक कूड़ें के निस्तारण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। इंडिया टुडे की खबर के मुताबिक ‘‘भारत 80 प्रतिशत कचरे का निस्तारण नहीं कर पाता है।’’ यानी हर दिन उत्पादित होने वाले 1.5 मिट्रिक टन कचरे के 80 प्रतिशत हिस्से का देश में प्रबंधन नहीं हो पाता है। ये यूं ही सड़ता और बीमारी फैलाता रहता है। हालांकि इसमें सरकार, प्रशासन और जनता, तीनों को ही जागरुक होने की जरूरत है। सरकार को स्वस्च्छता जैसे कार्यों को केवल घोषणाओं में ही नहीं, बल्कि धरातल पर भी गंभीरता से प्राथमिकता देनी होगी। साथ ही इसे अपने जीवन का हिस्सा भी बना होगा। खचरा प्रबंधन की गुणवत्तापरक व्यवस्था कराई जाए। वहीं प्रशासन अपना कार्य ईमानदारी से करे तथा जनता जिस प्रकार घर के अंदर के और सार्वजनिक धार्मिक स्थलों को साफ रखती है, उसी प्रकार सार्वजनिक स्थानों को भी साफ रखने की जरूरत है। इसके लिए कूड़े को केवल कूड़ेदान में ही फेंके। यदि कूड़ादान नहीं है, तो सार्वजनिक स्थानों पर न फेंके। ऐसा करने से ये हमारे लिए ही बीमारी का कारण बन रहे है। गंभीरता से समझें कि स्वच्छता से ही स्वस्थ वातावरण की स्थापना होती है और स्वास्थ्य से बड़ा कोई धन नही।


हिमांशु भट्ट (8057170025)

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