भू-संशोधन विरोध : इस सवाल का जवाब जरूरी है

10 Apr 2015
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land acquisition
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भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी कानून-2013 के रचनाकार, जयराम रमेश ने ठीक कहा। हकीक़त यह है कि संप्रग सरकार ने पुनर्स्थापन और पुनर्व्यवस्थापन सम्बन्धी ऐसे 13 कानूनों को 2013 के मूल कानून से यह कहते हुए बाहर रखा था कि इन्हें एक वर्ष के भीतर भूमि अर्जन, पुनर्स्थापन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार एवं पारदर्शिता कानून-2013 के अनुरूप बना लिया जाएगा। ये 13 कानून रक्षा, रेलवे, मेट्रो, परमाणु ऊर्जा, बिजली, सस्ते मकान, ग्रामीण ढाँचागत निर्माण, औद्योगिक गलियारे तथा पीपीपी यानी सार्वजनिक-निजी भागीदारी परियोजनाओं आदि से सम्बन्धित हैं।

आप इस लेख को पढ़ें, इससे पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि भूमि अधिग्रहण को लेकर भाजपा सरकार ने जो कुछ किया, मैं उसका पक्षधर कतई नहीं हूँ। मैंने भूमि और भूमिधरों के पक्ष को सामने रखकर कई लेख लिखे हैं। इस बीच विरोधियों के दोहरे व्यवहार को दर्शाते कई बिन्दु सामने आए हैं, जिनकी ओर ध्यान दिलाना मैं अपने लिये उतने ही दायित्व का काम मानता हूँ, जितना कि नुकसानदेह संशोधनों के खिलाफ लिखना। इसलिये यह लेख लिखा है।

मेरे पूर्व लिखित लेखों में भूमि अर्जन, पुनर्स्थापन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता कानून-2013 के पक्ष में कई तर्क हैं। इन तर्कों को सामने रख कोई सहमत हो सकता है कि वह भूमि बचाने वाला कानून था। वह बहुमत की राय के आधार पर भूमिधर को भूमि बेचने, न बेचने की आज़ादी देता था। उसे यह तय करने की आज़ादी देता था कि उसे कैसा विकास चाहिए।

इससे भी सहमति सम्भव है कि देश को अन्न, अन्नदाता और अन्न उपजाने की भूमि के स्वावलम्बन को नष्ट करने वाला विकास नहीं चाहिए। मोदी सरकार द्वारा पेश संशोधनों की मंशा भूमि बचाने की कतई नहीं है। मुआवजा बढ़ाने को भूमि बचाने या भू-अधिकार सुनिश्चित करने की कवायद नहीं कह सकते। भूमि अधिग्रहण कैसे सहज और सुनिश्चित हो; संशोधनों को ऐसी कवायद कहा जा सकता है। केन्द्रीय मन्त्री कलराज मिश्र द्वारा लिखा ताजा लेख, संशोधनों के पक्ष में कोई ज़मीनी और तथ्यात्मक तर्क पेश करने में असमर्थ है।

एक हकीक़त


मोदी सरकार, अपनी पीठ सबसे ज्यादा भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी 13 क़ानूनों को मूल कानून के दायरे में लाने केे संशोधन को लेकर ठोक रही है। वह कह रही है कि असल फायदा तो लोगों को इससे होगा। 13 क़ानूनों को मूल कानून में न रखने के लिये वह संप्रग सरकार पर दोष भी मढ़ रही है।

भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी कानून-2013 के रचनाकार, जयराम रमेश ने ठीक कहा। हकीक़त यह है कि संप्रग सरकार ने पुनर्स्थापन और पुनर्व्यवस्थापन सम्बन्धी ऐसे 13 कानूनों को 2013 के मूल कानून से यह कहते हुए बाहर रखा था कि इन्हें एक वर्ष के भीतर भूमि अर्जन, पुनर्स्थापन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार एवं पारदर्शिता कानून-2013 के अनुरूप बना लिया जाएगा। ये 13 कानून रक्षा, रेलवे, मेट्रो, परमाणु ऊर्जा, बिजली, सस्ते मकान, ग्रामीण ढाँचागत निर्माण, औद्योगिक गलियारे तथा पीपीपी यानी सार्वजनिक-निजी भागीदारी परियोजनाओं आदि से सम्बन्धित हैं। मोदी सरकार के अध्यादेश ने उन 13 क़ानूनों को मूल कानून के अनुरूप बनाने की बजाय, कानून में ही शामिल करने का प्रस्ताव दिया।

एक सवाल


अतः आप सहमत हो सकते हैं कि विरोध करने वाले राजनैतिक दल, दोषारोपण और संशोधनों को लेकर केन्द्र सरकार पर निशाना साधे। सदन से लेकर सड़क तक विरोध करें। विरोध करने वालों का समर्थन करें। रैली, धरना, यात्रा, अनशन.. जो शान्तिमय तरीका मुफीद हो, वह करें। इस सभी से सहमति सम्भव है। किन्तु क्या इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि विरोध करने वाले राजनैतिक दलों के मुख्यमन्त्री अधिकारिक तौर पर यह घोषित न करें कि वे अपने-अपने राज्य में इन संशोधनों को लागू नहीं करेंगे? भूमि, राज्य का विषय है। संविधान, राज्य सरकारों को यह अधिकार देता है। फिर भी विरोधी दलों के मुख्यमन्त्रियों द्वारा ऐसी अधिकारिक घोषणा न करना राजनैतिक दलों के विरोध को दिखावटी घोषित करती है।

केन्द्रीय मन्त्री अरुण जेटली ने बयान दिया - “पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बैनर्जी को भूमि अधिग्रहण संशोधनों के विरोध में रैली करने की जरूरत कहाँ हैं? यदि वह संशोधनों से सहमत नहीं हैं, तो वह अपने राज्य में इन्हें न लागू करें।’’

यह सवाल,संशोधन विरोधी ऐसे सभी दलों के विरोध पर सवाल खड़ा करता है, जिनके दल की किसी एक राज्य में भी सरकार है। अरुणाचल, असम, हिमाचल, कर्नाटक, मणिपुर, मिजोरम और उत्तराखण्ड में अकेले कांग्रेस की सरकार है। पश्चिमी बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में जनता दल यूनाइटेड, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, दिल्ली में आम आदमी पार्टी, त्रिपुरा में कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इण्डिया (मार्क्सवादी) की सरकारें हैं। छह दल और 12 राज्य सरकारें। इनके अलावा सीपीआई, जनता दल सेक्यूलर, द्रविण मुनेत्र कज़गम, इंडियन नेशनल लोकदल, केरल कांग्रेस (मणि) और इंडियन यूनाइटेड मुस्लिम लीग उन 14 दलों में शामिल हैं, जिन्होंने सोनिया गाँधी की अगुवाई में एकजुट होकर राष्ट्रपति भवन तक कदमताल किया था। सवाल इनसे भी है कि इन्होंने अपने-अपने प्रदेश की सरकारों से भूमि अधिग्रहण को लेकर सवाल क्यों नहीं किया? नीतीश का अनशन, ममता का मार्च हो चुका है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने रैली का ऐलान कर दिया है। क्या जरूरी नहीं था कि ये इससे पहले राज्य सरकार की ओर से वैधानिक तौर पर संशोधनवार सूची पेश कर घोषित करते कि उनके प्रदेश में इन्हें लागू नहीं किया जाएगा? क्या किसानों का हितैषी दिखाने के लिये यह करना जरूरी नहीं था?

अन्ना से सवाल


इन चौदह के अलावा सवाल, 15वें और सबसे प्रखर विरोधी श्री अन्ना और उनके नेतृत्व में दिल्ली आए एकता परिषद के श्री पी वी राजगोपाल, श्री राजेन्द्र सिंह, बहन मेधा पाटकर व साथियों से भी है कि उन्होंने केन्द्र सरकार पर तो निशाना साधा, किन्तु विरोधी दलों की राज्य सरकारों के इस रवैये को लेकर वे चुप क्यों हैं?

दिल्ली के मुख्यमन्त्री श्री अरविंद केजरीवाल ने तो अन्ना के मंच से कहा था कि वह दिल्ली में इस कानून को लागू नहीं होने देंगे। वैधानिक तौर पर यह सुनिश्चित करने के लिये उन्होने स्वयं क्या किया? क्या अपने मंच पर राजनैतिक लोगों को जगह न देने के अपने ही सिद्धान्त को तोड़कर श्री अन्ना ने जिस मुख्यमन्त्री को जगह दी, उससे यह पूछने का दायित्व अन्ना का नहीं है?

अन्ना टीम इसका सार्वजनिक खुलासा क्यों नहीं करती कि श्री नितिन गडकरी आदि भाजपा नेताओं के साथ-साथ जिन राज्य मुख्यमन्त्रियों के साथ उनकी उनकी बातचीत हुई है, भू-अधिकार के मसौदे पर उन्होने उनसे क्या कहा?

क्या देश को यह जानने का नैतिक हक नहीं है कि अन्ना टीम आग लगाकर, सवाल उठाकर या कहें कि देश जगाकर क्यों भागे? सेवाग्राम, वर्धा से दिल्ली तक की यात्रा क्यों रद्द की? “अभी खेती का समय है। किसान व्यस्त है।’’ क्या रद्द करने के लिये यह कारण पर्याप्त है? खासतौर पर ऐसे समय, जब फसल बर्बादी को लेकर किसान दुखी है। आगे तेल, सब्जी, गेहूँ की कीमतों को लेकर खाने वाले दुखी होंगे।

सच है कि यदि सामाजिक संगठनों ने जन्तर-मन्तर न रौंदा होता, तो भूमि अधिग्रहण के सवाल और बवाल सामने न आते। अध्यादेश तो दिसम्बर, 2014 में ही आ गया था और बिना बवाल, कैबिनेट और राष्ट्रपति ने मोहर भी लगा दी थी। तब कोई व्यापक बवाल नहीं हुआ। किसी राजनैतिक दल की चेतना ज़मीन पर नहीं उतरी; बावजूद, इस श्रेय के अन्ना टीम के समक्ष यह सवाल हमेशा रहेगा कि क्या सिर्फ सवाल उठाना पर्याप्त है?

आगाज कर, अंजाम तक पहुंचाना क्या किसी और दायित्व है? इस रवैये के अंजाम से अभी-अभी दिल्ली दो-चार हुई है। आगे ऐसा न हो। क्या इसके लिये ऐसे कई सवालों का जवाब जानना जरूरी नहीं है?

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