भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

14 Jan 2017
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saaf mathe ka samaj
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सदियों से हिमालय में रहने वाले लोग अपने घर खुद ही बनाते आये हैं। और ये घर जिस ढंग से बनते रहे हैं, उसी ढंग में भूकम्प सहने की कुछ ताकत भी रहती है। ये बनते ‘अनगढ़’ पत्थर के ही हैं पर उतने अनगढ़ नहीं जितने कि आज सरकार मान रही है। दीवारों को बनाने के लिये नदी के गोल पत्थर नहीं लिये जाते हैं। फिर पत्थरों को तीन तरह से तराशा भी जाता है, केवल वह भाग, जो दीवार के भीतर रहेगा मसाला पकड़ने के लिये बिन तराशा छोड़ा जाता है। कारण ढूँढ़ लिया गया है। उन्नीस अक्टूबर को पैंतालीस क्षणों के लिये आये भूकम्प से उत्तराखण्ड में हुई बर्बादी का खलनायक पहचान लिया गया है। कृषि मंत्रालय ने रुड़की विश्वविद्यालय के एक बड़े वैज्ञानिक द्वारा तैयार एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट का कहना है कि केवल छह दशमलव एक माप के ‘औसत’ भूकम्प से अकेले उत्तरकाशी में 17000 घर पूरी तरह से नष्ट हो गए, हजारों में दरारें पड़ गईं और लगभग 1500 लोग और हजारों पशु भी मारे गए। इस भयंकर बर्बादी का विवरण देते हुए रिपोर्ट ठीक किसी स्थितप्रज्ञ की तरह बताती हैः

इतने औसत परिभार के भूकम्प में इतनी अधिक हानि का मुख्य कारण है अनगढ़ पत्थर से निर्मित भवनों का ध्वस्त होना। पत्थर के भवनों में भूकम्प से उत्पन्न होने वाली हानि के ये मुख्य कारण सामने आते हैंः

(1) निर्बल भवन सामग्री- हानि का सबसे बड़ा और पहला कारण यह है कि गारे में पत्थर की चिनाई उन प्रतिबलों को सहने में असमर्थ है जो भूकम्प की स्थिति में दीवारों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण से दीवारों में क्षैतिज उर्ध्वाधर (!) अथवा तिरछी दिशाओं में दरारें पड़ती हैं। इसका उपाय केवल यही है कि गारे के स्थान पर अच्छा मसाला प्रयोग किया जाये।

(2) दोमंजिला निर्माण- पिछले भूकम्पों के अनुभवों से यह साफ जान लिया गया है कि एक से अधिक मंजिल के अनगढ़ पत्थर के मकानों की पूरी तरह से ध्वस्त होने की सम्भावना एक मंजिल के मकानों से कहीं अधिक रहती है। नई संरचना में इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है।

यह तो इस रिपोर्ट की पहली झलक है। ऐसी हिन्दी के लिये हम पाठकों से और इस तरह की हिन्दी में कही गई बातों के लिये हम उत्तराखण्ड के गाँवों में, घरों में रहने वाले लोगों से माफी माँगते हैं। रिपोर्ट बनाने वाले बहुत ही ऊँचे दर्जे के विशेषज्ञ होंगे और निश्चित ही इसे तैयार करते समय उनके मन में पहाड़ के निवासियों के कल्याण की भावना भी रही होगी। पर बहुत विनम्रता से कहें तो भूकम्प से विनाश का ऐसा कारण ढूँढना लोगों का अपमान है।

ऐसी बातों का अर्थ यही है कि भूकम्प तो बड़ा मामूली-सा था, उसका कोई दोष नहीं। दोष तो है अनगढ़ पत्थरों से बने मकानों का, या ऐसे मकान बनाने वालों का। हमारे मकान, मकान न हुए कुम्हड़बतिया हो गए जो जरा-सी तर्जनी देख गिर पड़े।

सौभाग्य से सिर्फ उत्तराखण्ड ही नहीं, हमारा सारा देश अनगढ़, पत्थर, मिट्टी और गारे का बना है। और अपनी इस विशिष्ट बनक के कारण ही इसने भूकम्प से भी बड़े-बड़े दूसरी तरह के झटके सहे हैं। लेकिन देश की बात बाद में पहले उत्तराखण्ड को ही लें। इस भूकम्प के बाद से सभी जगह एक नया शब्द चल निकला हैः ‘भूकम्प सह’ यानी भूकम्प सहने योग्य। शब्द तो अंग्रेजी से ही आया है, लेकिन इसके पीछे विचार भी अंग्रेजों का ही है। 19 अक्टूबर के बाद कई लोगों ने, संस्थाओं ने विशेषज्ञों ने भूकम्प सह मकानों की खूब बात की है। दुर्भाग्य से स्वयं उत्तराखण्ड से भी ऐसी माँग आई है कि हमें ऐसी तकनीक दीजिए जो भूकम्प सह हो।

यह शब्द और विचार दो बातें मानकर चलता है। (एक) उत्तराखण्ड में जो मकान बनते हैं, उन्हें बनाने वाले अपने क्षेत्र-विशेष का स्वभाव ही नहीं जानते और (दो) देश के किसी और हिस्से में, कोने में या केन्द्र में यानी दिल्ली में कुछ ऐसे जानकार लोग हैं जिनके पास यह दुर्लभ ज्ञान या यह रहस्यमय तकनीक उपलब्ध है। कितने आश्चर्य की बात है कि अगर ऐसी कोई तकनीक सचमुच उपलब्ध है, सुलभ है तो वह अब तक वहीं क्यों नहीं पहुँची, जहाँ उसे खड़े मिलना था, ताकि वह इस भूकम्प के बाद भी वहाँ खड़ी नजर आती।

तो कहाँ खोजें ऐसे लोगों को जो इस तकनीक को जानते हैं? पहले दुनिया का चक्कर लगा लें? नाहक यहाँ-वहाँ भटकने के बदले दुनिया में नम्बर एक और नम्बर दो माने गए देशों को टटोलें। अमेरिका के एक बड़े शहर में (देहात में नहीं) कुछ समय पहले भूकम्प आया था। भूकम्प जिसे हिलाना चाहता था उसे हिला गया; जिसमें दरार डालना चाहता था, उसमें दरार डाल गया और जिसे डिगाना चाहता था, उसे डिगा गया। डिगने वाली सूची में विश्व भर में प्रसिद्ध एक मजबूत पुल भी था। अब नम्बर दो को देखें।

गोर्बाचेव अपनी लोकप्रियता की ऊँचाई पर थे कि एक भूकम्प ने वहाँ हजारों मकान पटक दिये। ये मकान कोई अनगढ़ पत्थरों के नहीं थे, एक सशक्त विचारधारा की सीमेंट भी इनकी नींव में मिलाई गई थी। खुलेपन का दौर था तो जाँच भी बिठा दी गई। प्रारम्भिक दौर में यह कहा गया था कि भूकम्प इतने पक्के मकानों को नहीं गिरा सकता, हो न हो, ये मकान ही नकली थे। घटिया मकान किसने बनाए, दोषी कौन था, इसकी जाँच का काम सीधे केजीबी को सौंपा गया था। जाँच का किस्सा लम्बा है। याद रखने लायक बात इतनी ही है कि अब केजीबी ही भंग हो चुकी है।

जापान के कुछ भाग भी भूकम्प की पट्टी में आते हैं। यहाँ के बारे में हम चौथी-पाँचवीं कक्षाओं में पढ़ते रहे हैं कि घर बाँस और कागज के बनते थे। तब कागज के घर सुनकर अटपटा भी लगता था। धीरे-धीरे इन घरों में बदलाव आया। हर जगह की तरह नई चलती चीजों का मोह बढ़ा। सीमेंट के पक्के मकान भी बनने लगे।

ऐसे ही दौर में फ्रैंक लायड राइट नाम के एक अमेरिकी वास्तुकार को यहाँ एक बड़े होटल को बनाने का काम सौंपा गया। उन्होंने बनाया पक्का ही होटल पर उस क्षेत्र में आने वाले भूकम्पों का पूरा ख्याल भी रखा- उसे एक दलदली जमीन पर खड़ा किया गया था। राइट थे तो वास्तुकार पर कभी उन्होंने वास्तुकला की आधुनिक पढ़ाई नहीं पढ़ी थी, बाकायदा डिग्री भी नहीं थी उनके पास। होटल पूरा नहीं बन पाया था कि भूकम्प का एक बड़ा झटका वहाँ आया। सारा कस्बा ध्वस्त हुआ, पर अनबना होटल बना रहा।

कस्बे के नगरपालक की ओर से उन्हें इस सम्बन्ध में भेजा गया एक लम्बा तार वास्तुकला के हर छात्र को आज भी पढ़ाया जाता है। संकट के उन दिनों में इसी होटल से राहत के काम चले थे। राइट ने कोई नई ‘भूकम्प-सह’ तकनीक नहीं लगाई थी, वहीं के अनुभव को नींव में डालकर होटल खड़ा किया था। उन्होंने भूकम्प की इज्जत करने वाला ढाँचा खड़ा किया था।

वापस उत्तराखण्ड लौटें। सदियों से हिमालय में रहने वाले लोग अपने घर खुद ही बनाते आये हैं। और ये घर जिस ढंग से बनते रहे हैं, उसी ढंग में भूकम्प सहने की कुछ ताकत भी रहती है। ये बनते ‘अनगढ़’ पत्थर के ही हैं पर उतने अनगढ़ नहीं जितने कि आज सरकार मान रही है। दीवारों को बनाने के लिये नदी के गोल पत्थर नहीं लिये जाते हैं। फिर पत्थरों को तीन तरह से तराशा भी जाता है, केवल वह भाग, जो दीवार के भीतर रहेगा मसाला पकड़ने के लिये बिन तराशा छोड़ा जाता है।

इस तरह से बड़ी मेहनत के साथ तराशे पत्थर नींव और दीवार में लगते हैं और फिर इन पर खड़ा होता है बल्लियों और चौकोर चीरे गए लट्ठों का ढाँचा। लट्ठों की चिराई बड़े-बड़े आरों से की जाती रही है। ऐसे बड़े आरों को दो लोग चलाते थे। बाद में यह काम आरा मशीनों पर भी होने लगा। दीवारों में दरवाजे भी छोटे, खिड़कियाँ भी छोटी लगती हैं। बिना झुके भीतर नहीं जा सकते इनसे। ठीक अादमकद दरवाजे बनाने से उन्हें किसी ने रोका नहीं है पर अनुभव से वहाँ यह चलन चला होगा कि छोटे दरवाजे और खिड़कियाँ ठंड तो रोकते ही हैं, दीवार की मजबूती भी बढ़ाते हैं।

सरकारी रिपोर्ट ने दो मंजिले मकानों पर टिप्पणी करते हुए इन्हें एक मंजिल मकानों से ज्यादा खतरनाक बताया है। दो मंजिलें मकान तो यहाँ खूब बनते हैं। पहाड़ी ढलान पर एक के बदले दो मंजिलें मकान बहुत खूबी से बनाए जाते हैं। ढलान के ऊपरी हिस्से से इनमें सीधे, बिना सीढ़ी के दूसरे मंजिल में प्रवेश होता है और ढलान के निचले हिस्से से पहली मंजिल में। पहली और दूसरी मंजिल के बीच का भाग मजबूत लट्ठों पर टिका रहता है, फर्श भी लकड़ी के फट्टों से बनता है। यही पहली मंजिल की छत होती है।

दूसरी मंजिल से बाहर झाँकता छज्जा भी मुख्य ढाँचे से बाहर निकले लट्ठों पर टिका रहता है। कोई दो हाथ बाहर निकला यह छज्जा किसी भी हालत में दीवार पर बोझ नहीं बनता। ओबरा, बोवरा, कोठार, मैंजुला और ढैपुरा यानी नींव, नीचे का कमरा, कोठार और दूसरी मंजिल और फिर ढाई मंजिल जो घर का अतिरिक्त सामान रखने के लिये काम आती है। हर भाग एक निश्चित नियम के अनुसार बनता रहा है, ऐसे ही अललटप्पू अनगढ़ ढंग से नहीं।

पहाड़ी गाँवों के ही नहीं, कस्बों और शहरों के मकानों की ऊँचाई हमेशा नियंत्रित रखी जाती रही है। एक अलिखित नियम रहा है कि बस्ती का कोई भी घर गाँव के देवालय से ऊँचा नहीं बन सकता। भला कौन अपना घर भगवान के घर से ऊँचा दिखाना चाहेगा? फिर भगवान का घर इस देवभूमि में कभी बहुत ऊँचा नहीं बनाया गया। भगवान के पास किस बात की कमी? पर यहाँ भी ऊँचाई में संयम ही दिखता है।

देश के चारों कोनों से बदरीनाथ धाम जाने वाले तीर्थ यात्री हरिद्वार से दो दिन की कठिन यात्रा पूरी कर जब मन्दिर पहुँचते हैं तो एक सुन्दर, भव्य लेकिन छोटे से मन्दिर को देख मुग्ध हो जाते हैं। जो समाज कवि कालिदास के शब्दों में पृथ्वी को ही माप सकने योग्य ऊँचे, विशाल हिमालय की गोद में पला-बढ़ा है, वह ऊँचाई के विषय में तो विनम्रता ही सीखेगा। वह किसकी ऊँचाई से होड़ लेना चाहेगा?

पहाड़ के वास्तुशिल्प में सभी जगह यह बात बहुत प्रेम से अपनाई गई है। इसलिये उसके दो मंजिले मकानों पर टिप्पणी करने का कम-से-कम हमें तो कोई हक नहीं, जिनके मैदानी शहरों में गिरते-पड़ते बेतुके बहुमंजिले मकान धड़ाधड़ बनते ही चले जा रहे हों।

उत्तराखण्ड के मकानों की शुभचिन्ता यहीं खत्म नहीं होती। रिपोर्ट का कहना है कि गिर चुके मकानों को दोबारा बनाते समय ‘भूकम्प सह’ क्षमता का काफी ध्यान रखना पड़ेगा, जो मकान इस भूकम्प की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए, उन्हें भी रिपोर्ट ने भविष्य के किसी और भूकम्प की आशंका को देखते हुए ‘भूकम्प सह’ बनाने पर जोर दिया है। रेखाचित्रों के माध्यम से रिपोर्ट ने अच्छे खड़े साबुत मकानों के ‘दृढ़ीकरण’ के बहुत ही कठिन हिन्दी में बड़े ही सरल तरीके सुझाए हैं :

भूकम्प-प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने के लिये यह आवश्यक है कि भवन की प्रत्येक मंजिल में बाहरी चारों ओर दरवाजे के सरदल से ऊपर और छत के नीचे चारों ओर दीवारों को बाँधने हेतु एक बन्धन-पट्टिका लगाई जाये। इसकी सुगम विधि इस प्रकार है :

दरवाजे की सरदल और छतों के नीचे के साथ में 30 सेंटीमीटर चौड़ाई को भवन के चारों ओर प्लास्टर उखाड़ कर तार के ब्रुश से रगड़ कर पत्थर अथवा ईंटों को साफ कर लेना चाहिए। पत्थरों और ईंटों के बीच के जोड़ों को कुरेद कर कम-से-कम 25 सेंटीमीटर गहराई तक मसाला निकाल देना है।

अब वेल्डमैश तार की बड़ी बनाई जाली, जिसके तार कम-से-कम एक दशमलव पाँच मिलीमीटर हों और छेद इस प्रकार हों कि 30 सेंटीमीटर चौड़ाई में कम-से-कम आठ तार हों यानी लगभग 35 सेंटीमीटर की दूरी पर हों तथा दूसरी ओर तारों की एक-दूसरे से दूरी 75 मिलीमीटर से अधिक नहीं हो, (पाठक माफ करें, अभी वाक्य पूरा नहीं हुआ है) 30 सेंटीमीटर चौड़ाई में लेवी ओर से काट कर साफ की हुई पट्टी में 75 मिलीमीटर कीलों द्वारा ठोंक देनी चाहिए।

कीलें न जाने कब से दीवारों में ठोंकी जा रही हैं; पर रिपोर्ट उसका भी वर्णन इन शब्दों में करती हैः ‘कीलें 60 मिलीमीटर अन्दर रहें और 15 मिलीमीटर बाहर रहें, जिससे जाली और दीवार के बीच में कम-से-कम 10 मिलीमीटर का अन्तर यथासम्भव बना रहे।’

अभी भी आपका मकान ‘भूकम्प सह’ नहीं बना है। थोड़ा-सा धीरज और रखें। बचा हुआ काम रिपोर्ट के अनुसार कुछ इस तरह से होगाः ‘अब पूरी जाली को एक और तीन के सीमेंट-रेत अनुपात के मसाले में अथवा 1:1, 5:3 के कंक्रीट द्वारा जिसमें पथरी आठ मिलीमीटर से अधिक मोटी न हो, पलस्तर कर के ढक दें। पलस्तर की मोटाई 5 मिलीमीटर से कम न हो...।’

अब है कोई माई का लाल जो इस ‘सुगम विधि’ से अपना घर ‘भूकम्प-सह’ बना सकेगा? घर सुधारने की उत्कृष्ट इच्छा रखने वाले गृहस्थ तो दूर, इस सरल विधि को पढ़ने वाले पाठक भी नहीं सह पाएँगे। इसे लिखने वाले विद्वान वैज्ञानिक की शुभचिन्ता एक तरफ, लेकिन क्या इन लोगों को उत्तराखण्ड के गाँवों का भी कोई अन्दाज है जो सड़क से एक-दो-तीन दिन तक की पैदल दूरी पर बसे हैं।

वैज्ञानिक अपने अध्ययन-अध्यापन की निराली दुनिया में व्यवहार की बातें भूल बैठे हों तो भी बात समझ में आ सकती है। पर क्या हो गया सरकार के उस कृषि मंत्रालय को जिसने इस रिपोर्ट को ‘मोस्ट इमिजिएट’ लिखकर तुरन्त प्रचारित कर दिया है। मकानों को भूकम्प सह बनाने की सरल विधि में लगने वाला सामान, मिलीमीटर में नाप-तौल कैसे इन गाँवों में, कितनी मात्रा में पहुँच सकेगा? वैज्ञानिकों और सरकार का इस सम्बन्ध में ऐसा विचित्र उत्साह देख असली सवाल पूछने की हिम्मत ही नहीं जुट पाती कि भैया यह सब करने की जरूरत क्या है?

लेकिन लगता है बहुत से लोग इसी में लग गए हैं। भूकम्प राहत का काम देख रही कई संस्थाओं में इस तरह की तकनीक के मकानों का कोई आदर्श ढाँचा बना लेने की, ‘ठोस’ सुझाव देने की जैसे होड़ लग गई है। विदेशी अनुदान देने वाली संस्थाएँ भी ऐसी तकनीक सुझाने वाले योग्य पात्र की तलाश में हैं। दिल्ली में पिछले सप्ताह एक ऐसे ही मॉडल की प्रदर्शनी और उसे बड़े पैमाने पर उत्तराखण्ड में उतारने की गोष्ठी भी हो चुकी है।

देश के एक हिस्से पर आये इतने बड़े संकट के बाद उसमें निपटने में वैज्ञानिक, सरकार और हम सब इतने कमजोर साबित हों तो पहला काम हमारे दिमागों के ‘दृढ़ीकरण’ का होना चाहिए, न कि उत्तराखण्ड के मकानों का।

यह सही है कि भूकम्प में मकान बड़े पैमाने पर गिरे हैं। पर कुछ खास जगहों में मकान ज्यादा गिरे हैं और उनमें भी उस तरह के मकान शायद ज्यादा हैं जो अब तक की अपनी पद्धति से कुछ हट कर बने थे। यह खास जगह कौन-सी है? उत्तरकाशी का वह भाग जहाँ पहाड़ों को काटकर, बारूद के बड़े-बड़े धमाकों से उड़ाकर वे सब काम किये गए हैं, जिन्हें विकास कार्य कहा जाने लगा है। कहीं बाँध बन रहा है, कहीं कोई बड़ी सड़क। इन सब कामों ने न जाने कब से इन पहाड़ों को और उन पर बसे गाँवों को हिलाकर रखा था। बारूद के इन धमाकों से इन इलाकों में चूल्हे पर रखे तवे नाचते रहते थे।

हिमालय की अधिकांश बसाहट पुराने भूस्खलन के मलबे के विशाल ढेरों पर बसी है। हर छोटी-बड़ी पहाड़ी के नीचे बहने वाली तेज प्रवाह की नदी नीचे से जमीन काटती रहती है और ऊपर से वह बरसात जो साल के पूरे चार महीने बरसती है। ऐसे में लोगों ने वर्षों के अच्छे और बुरे अनुभवों से सीखकर जीवन का एक तरीका निकाला था।

भूकम्प तब भी आये थे और एक हिम्मती, मजबूत समाज ने बिना किसी के आगे हाथ पसारे अपने संकट को सहा ही था। इन भूकम्पों में तमाम सावधानियों के बाद भी कई बार गाँव-के-गाँव उजड़े होंगे। इनके चिन्ह आज भी हैं। अलकनन्दा के तट पर चमोली में बसे हाट गाँव का एक भाग आज भी छप्परवाड़ा कहलाता है। किसी ऐसे ही संकट में उजड़ने के बाद गाँव अस्थायी तौर पर छप्परों के नीचे बसता रहा। फिर धीरे-धीरे लोगों ने फिर से अपने घर-खेत सँवार लिये। पर जगह का नाम छप्परवाड़ा ही बना रहा।

धीरे-धीरे चीजें बदलीं भी। कुछ मजबूरी में और कुछ बाहर के असर के कारण सीमेंट के घर की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। जितने भी सरकारी मकान बने, इसी से बने। पर हर कोई सीमेंट से मकान नहीं बना पाया। इस इच्छा को पूरा करने का मौका ऐसे इलाकों में अनायास ही हाथ लग गया जहाँ कोई बड़ी सरकारी योजना बनने लगी। चोरी का सीमेंट सस्ता मिला। कई घर बदल गए।

जल्दबाजी में हुई तोड़-फोड़ और निर्माण में शायद वैसी सावधानी नहीं रखी गई जैसी मकान बनाते समय सदियों से रखी जाती रही है। फिर बारूद के धमाकों ने इसे और कमजोर किया। ऐसे में 6.1 माप का भूकम्प काफी था। पर इस सबके बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि 19 अक्टूबर को आया भूकम्प बहुत साधारण था, उसने तो बस तर्जनी दिखाई थी और कुम्हड़बतियाँ गिर गईं।

एक तरफ तो सरकार और उसके सभी वैज्ञानिक इस ढंग से सोच रहे हैं और दूसरी तरफ वे अपनी योजनाओं को बेहद पक्का, मजबूत, ‘भूकम्प सह’ मानने का गर्व कर रहे हैं। 15 अक्टूबर से अब तक न जाने कितनी बार यह गर्वोक्ति सुनने को मिली है कि टिहरी बाँध को भूकम्प से कोई नुकसान नहीं हुआ है। इधर इसी के साथ ऐसे समाचार भी छपते रहते हैं कि बाँध में दरार पड़ गई थी लेकिन उसे रातोंरात ठीक कर लिया। पहाड़ों में कई जगह बाँध बन रहे हैं।

सरकार और उसके वैज्ञानिक हमें यही बताने की कोशिश में लगे हैं कि इन पर कभी भी किसी भी भूकम्प का कोई असर नहीं पड़ेगा। बाँध न हुआ, शिवजी का धनुष हो गया। शिवजी का धनुष किसी से हिल तक नहीं पाया था। ‘गरऊ कठोर बिछित सब काहू’। रावण और बाणासुर जिनके चलने से ही धरती काँप उठती थी, वे भी धनुष को देख चुपचाप चलते बने, उसे उठाना तो दूर, छूने की हिम्मत भी नहीं हुई। जब एक-एक कर राजा हार गए तो फिर हजारों राजाओं ने उसे एक साथ उठाने का प्रयत्न किया था- ‘भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।’ पर वह टस-से-मस नहीं हुआ। ऐसे धनुष को श्रीराम ने बस छुआ भर था कि वह टूट गया।

वह किस्सा लम्बा है। उसे अभी यहीं छोड़ें। पर अन्त में उत्तर प्रदेश की उस सरकार से जो राम का नाम लेकर सत्ता में आई है, इतना ही निवेदन करते हैं कि वह तो कम-से-कम भूकम्प की तर्जनी; कुम्हड़बतियाँ और शिवजी के धनुष का ठीक अर्थ समझें।

साफ माथे का समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

भाषा और पर्यावरण

2

अकाल अच्छे विचारों का

3

'बनाजी' का गांव (Heading Change)

4

तैरने वाला समाज डूब रहा है

5

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

6

भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

7

पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

8

बीजों के सौदागर                                                              

9

बारानी को भी ये दासी बना देंगे

10

सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

11

गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

12

गौना ताल: प्रलय का शिलालेख

13

साध्य, साधन और साधना

14

माटी, जल और ताप की तपस्या

15

सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

16

साफ माथे का समाज

17

थाली का बैंगन

18

भगदड़ में पड़ी सभ्यता

19

राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी

20

असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध

21

नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र

22

मन्ना: वे गीत फरोश भी थे

23

श्रद्धा-भाव की जरूरत

 


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