भूकम्प में मुफीद ढाँचागत सुरक्षा (EARTHQUAKE friendly Infrastructural Security)

भूकम्प आशंकित वाले शहरों में भवन निर्माण के लिए भूकम्प से बचाव में सहायक नियमों और तकाजों को अपनाने की दरकार

जमीन तले की बनावट भी निर्माण कार्य जितनी ही महत्त्वपूर्ण है। चट्टानी जमीन भूकम्प के झटकों को बेहतर ढंग से झेल सकती है। रेतीली जमीन या भूमि भराव करके तैयार किए गए स्थल पर निर्मित इमारत भूकम्प को झेलने में कमजोर रहती हैं। और अगर नरम जमीन में पानी हुआ तो भूकम्प के दौरान इमारत रेत के टीले की तरह ढह सकती है। जब भूकम्पीय तरंगे नम मिट्टी से होकर गुजरती हैं, तब मिट्टी अपनी ताकत खो बैठती है और एक तरल पदार्थ की तरह हो जाती है। इस प्रक्रिया को द्रवीकरण कहा जाता है।

दिल्ली, मुंबई और कोलकाता तथा काठमांडू में क्या समानता है? भूवैज्ञानिकों का मानना है कि इन बड़े शहरों का भी निकट भविष्य में किसी बड़े भूकम्प से काठमांडू जैसा हाल हो सकता है। हो सकता है कि यहाँ आने वाला भूकम्प कम क्षमता का हो लेकिन वह तबाही उसी स्तर की लाएगा जैसी हिमालयी देश नेपाल की राजधानी में हुई है। कारण? भूकम्प नहीं बल्कि इमारतें मारती हैं।

नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) की 2014 में आई रिपोर्ट के अनुसार बीते 25 सालों में भूकम्पों से 25 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई। एनडीएमए ने यह रिपोर्ट ‘सिस्मिक रिट्रोफिटिंग ऑफ डेफिशियंट बिल्डिंग्स एंड स्ट्रक्चर्स’ नाम से तैयार की है। रिपोर्ट में इस बात की तरफ भी ध्यान खींचा गया है कि भारत में भूकम्प के झटके झेलने की दृष्टि से भवनों की दशा काफी खराब है। भूकम्प को झेलने के मद्देनजर पारम्परिक भवन निर्माण सामग्री और निर्माण तकनीकों के आधार पर बनाई गईं इमारतें रिइन्फोर्स्ड कंक्रीट (आरसी) तकनीक से बनाई गईं इमारतों की तुलना में मजबूत साबित हुई हैं। आरसी इमारतों का प्रदर्शन इस लिहाज से खासी असंतोषजनक पाया गया।

कैसा हो निर्माण


धारणा गलत है कि भूकम्प के दौरान जमीन में कम्पन होने से तबाही होती है। लेकिन भूमि में कम्पन एक जटिल घटना है। जब किसी इमारत के तले जमीन हिलती है, तो वह इमारत भी हिल जाती है। लोकप्रिय अवधारना है कि भूकम्प आने की स्थिति में गगनचुम्बी इमारतें छोटी ऊँचाई वाले कार्यालय भवनों की तुलना में अधिक खतरनाक साबित होती हैं। लेकिन यह तथ्य नहीं है। आमतौर पर इसका उल्ट ही होता है। ऊँचाई वाले भवन कहीं ज्यादा लचकदार होते हैं। वे भूकम्प के झटकों या कम्पनों को अपनी ऊँचाई में पुनर्वितरित कर देते हैं। इससे भूकम्प का असर कम हो जाता है। छोटी इमारत के मामले में भूकम्प की ताकत निकासी की जगह कम होने से एक ही जगह केंद्रित हो जाती है। नतीजतन, इमारत ध्वस्त हो जाती है। इसी कारण के चलते तीस मंजिला इमारत की तुलना में तीन मंजिली इमारत भूकम्प से नुकसान की दृष्टि से ज्यादा खतरनाक है। इसलिए कम ऊँचाई वाली इमारतों का निर्माण करते समय ज्यादा ताकत को झेल पाने या खपा सकने वाले समर्थक उपाय किए जाने जरूरी हैं।

जमीन तले की बनावट भी निर्माण कार्य जितनी ही महत्त्वपूर्ण है। चट्टानी जमीन भूकम्प के झटकों को बेहतर ढंग से झेल सकती है। रेतीली जमीन या भूमि भराव करके तैयार किए गए स्थल पर निर्मित इमारत भूकम्प को झेलने में कमजोर रहती हैं। और अगर नरम जमीन में पानी हुआ तो भूकम्प के दौरान इमारत रेत के टीले की तरह ढह सकती है। जब भूकम्पीय तरंगे नम मिट्टी से होकर गुजरती हैं, तब मिट्टी अपनी ताकत खो बैठती है और एक तरल पदार्थ की तरह हो जाती है। इस प्रक्रिया को द्रवीकरण कहा जाता है। द्रवीकृत जमीन पर निर्मित इमारत धंस जाती है। और कई बार ऐसा भी देखा गया है कि इमारत एक तरफ लुढ़क गई।

ऐहितियाती तौर-तरीके


भूकम्प किसी शहर को किस प्रकार से प्रभावित करेगा? यह उस शहर, उसके नागरिकों, वहाँ की सरकार और पड़ोसियों द्वारा वहाँ इमारतों और नागरिक ढाँचे के निर्माण की गरज से अपनाए गए तौर-तरीकों पर निर्भर करता है। सच तो यह है कि भूकम्प से सुरक्षा के लिए इंजीनियरिंग के स्तर पर जो उपाय या तरीके अपनाए जाते हैं, वे वैसे ही हैं जैसे डिजाइन, निर्माण और अविस्थिति के लिए रियल एस्टेट उद्यम में अपनाएं जाते हैं। आज भारत में भूकम्प-रोधी तमाम उपाय किए जाते हैं। यहाँ ढाँचागत विविधता है। कच्ची मिट्टी, गारे या राजमिस्त्री के हाथों बनाए गए मकानों से लेकर अत्याधुनिक इमारतों तक में भूकम्प रोधी उपाय करने के प्रावधान और नियम-कायदे बनाए गए हैं। भूकम्प-आशंकित इलाकों में पड़ने वाले ज्यादातर शहरों में तो इन्हें अनिवार्य बना दिया गया है।

लेकिन भूकम्प से सुरक्षा ऐसे मजबूत नियमन तंत्र में निहित है, जो इमारतों के डिजाइन सम्बन्धी नियम-कायदों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करता हो। भूकम्प न आने की स्थिति में आये दिन इमारतों के गिरने की घटनाओं से पता चलता है कि इस बाबत नियमों को प्रभावशाली तरीके से लागू नहीं किया जाता।

लॉस एजेंलस और जापान में कड़े भूकम्प-रोधी नियमों और मानकों के अनुसार निर्मित किए गए भवन और फ्रीवेज तक को ध्वस्त होते देखा गया। ऐसा यह समझ न होने के कारण था कि भूकम्प के दौरान कोई ढाँचा अपने आस-पास की घटना के प्रति कैसा रुख दिखाता है। आईआईटी में शोधार्थियों ने कम्पन सारिणी तैयार की हैं, जिनसे भवन मॉडलों को भूकम्प जैसी ताकतों के बरक्स परखा जाता है। सम्भावित कमियों चिह्नित करके उनमें जरूरी लगने वाले सुधारों की बाबात जाना जाता है। कम्प्यूटर से कम्पन करने वाला सॉफ्टवेयर अब उपलब्ध है, जिससे भूकम्प-रोधी डिजाइन तैयार करने में मदद मिलती है।

अतिरिक्त लागत जरूरी


भूकम्प-रोधी इमारत बनाने की लागत को वहन न करना भारी पड़ सकता है। अगर थोड़ा व्यय अतिरिक्त रूप से कर दिया जाए तो हम अपनी-अपनी इमारतों को भूकम्प-रोधी बना सकते हैं। साथ ही, भूकम्प-रोधी नियम-कायदों और ऐहतियात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। एक बात और नियम कायदे नये भवनों के निर्माण के समय तो खासे फायदेमंद होते हैं, लेकिन मौजूदा इमारतों यानी पहले से तैयार इमारतों को भी भूकम्प से सुरक्षित बनाने की गरज से उनमें जरूरी बदलाव किए जाने चाहिए। हमारे पास अब बेहतरीन मार्ग-दर्शिका उपलब्ध है लेकिन बड़ी परियोजना के लिए कोई कारगर नीति या फ्रेमवर्क की कमी प्रायः खलती है। एनडीएमए ने स्थानीय निकाय सरकारों और नागरिकों से अपील की है कि वे ऐहतियाती उपाय करें लेकिन अभी तक कुछ ठोस नहीं हो पाया है। समय आ गया है कि इस दृष्टि से हम अपने प्रयासों में तेजी लाएं। टोकियो और सान फ्रांसिस्को जैसे शहरों में घटी घटनाओं से सबक लिया जा सकता है, जो लगातार कंपाती अपनी जमीन को भूकम्प-रोधी तकनीक और इंजीनियरिंग के बल पर बचाए रहते हैं। हम भूकम्प को तो नहीं रोक सकते लेकिन इनसे होने वाले नुकसान को जरूर कम कर सकते हैं।

लेखक - रिसर्च एसोसिएट, सस्टेंबल बिल्डिंग प्रोग्राम

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