भूकम्प से अब कैसे बचेगी दिल्ली

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गत दिवस अफग़ानिस्तान में राजधानी काबुल से 256 किलोमीटर दूर हिन्दूकुश घाटी में 7.7 रिक्टर स्केल की तीव्रता वाले भूकम्प से पाकिस्तान सहित देश में उत्तर भारत के तकरीब आठ राज्य जिनमें जम्मू कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार सर्वाधिक रूप से प्रभावित हुए हैं।

इन राज्यों में भूकम्प के तकरीब 15-20 सेकेण्ड में बार-बार आये झटके इस आशंका को बल प्रदान करते हैं कि उत्तर भारत में भूकम्प कभी भी तबाही ला सकता है। वैसे अभी तक इस भूकम्प से देश में किसी बड़े नुकसान की सूचना नहीं है लेकिन पाकिस्तान में अभी तक की सूचना के अनुसार 112 से अधिक मौतें हो चुकी हैं और सैकड़ों लोग घायल हैं। वहाँ सेना को हरसम्भव राहत कार्य में जुटने का आदेश दे दिया गया है।

बहरहाल देश का भाल हिमालय ही नहीं, समूचा उत्तर भारत और देश की राजधानी दिल्ली इस भूकम्प से दहल गई है। राजधानी के लोग तो इतने भयभीत हैं कि वे सोच रहे हैं कि अब क्या होगा? इसमें दो राय नहीं है कि देश की राजधानी दिल्ली को बार-बार कुछ समय अन्तराल के बाद भूकम्प के झटकों का सामना करना पड़ रहा है।

ऐसा लगता है कि यह उसकी नियति बन चुकी है। बार-बार आ रहे भूकम्प के झटके इस बात के सबूत हैं कि किसी-न-किसी दिन दिल्ली को भीषण भूकम्प का सामना करना पड़ेगा। भूगर्भशास्त्री प्रदीप मित्तल की मानें तो अधिक तीव्रता वाले भूकम्प को दिल्ली बर्दाश्त नहीं कर पाएगी और केवल 15 सेकेण्ड में दिल्ली तबाह हो जाएगी।

दिल्ली देश के 30 खतरनाक शहरों में शीर्ष पर है। एनसीआर और दिल्ली की इमारतें कतई सुरक्षित नहीं हैं। यहाँ की 100 प्रतिशत अवैध कालोनियों पर तो जबरदस्त खतरा मँडरा रहा है। आबादी के घनत्व ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की है।

ग़ौरतलब है कि कुछ बरस पहले संप्रग सरकार के दौरान केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री ने देश की राजधानी में आये भूकम्प के झटकों के बाद दक्षिण एशियाई देशों के थिंपू, कराची, बारीसाल, कोलम्बो आदि अन्य शहरों के साथ दिल्ली व देश के तकरीब 100 शहरों को भूकम्प सहित अन्य आपदाओं से निपटने के लिये एक अभियान की शुरुआत कर जनता से जागरूक रहने और इस दिशा में चुनौतियों के मुकाबले के लिये आवश्यक कदम उठाने, शहरी आपदा प्रबन्धन को और अधिक प्रभावी बनाने की अपील की थी। उन्होंने कहा था कि चूँकि दिल्ली जो अति संवेदनशील भूकम्पीय जोन-चार में आती है, उसे इस आपदा का कभी भी सामना करना पड़ सकता है और अभी स्थानीय प्रशासन-सरकार उसका पूरी तरह मुकाबला करने में अक्षम है।

मंत्री महोदय की इस टिप्पणी ने दिल्लीवासियों की नींद हराम कर दी थी। आज हालत यह है कि वह हर पल यही सोचते हैं कि यदि ऐसा हुआ तो उन्हें कौन बचाएगा? जाहिर सी बात है कि बीते इन चार-पाँच साल बाद हालात में कोई तब्दीली नहीं आई है और आज सरकार तो उन्हें बचा पाने में कतई सक्षम नहीं है। सच तो यह है कि भूकम्प एक प्राकृतिक आपदा है।

वर्तमान समय और परिस्थितियों को देखते हुए भूकम्प सहित अन्य आपदाओं से बचने के लिये आम लोगों को इनके बारे में जागरूक करने की बहुत जरूरत है ताकि वे इनकी गम्भीरता को समझें और आवश्यक कदम उठाएँ। यदि सरकार की मानें तो सरकार आपदा से पहले के काम के बारे में तो प्रयास कर रही है लेकिन आपदा के बाद के काम यथा राहत आदि में भरपूर सहयोग देगी।

आपदा के बाद जब कुछ बचेगा ही नहीं, तो सरकार कैसा और किसके लिये सहयोग करेगी, इससे किसे लाभ मिलेगा, यह विचारणीय है। भूकम्प! एक ऐसा नाम है जिसे सुनते ही रोंगटे खेड़े हो जाते हैं। उसकी विनाशलीला की कल्पना मात्र से दिल दहलने लगता है और मौत सर पर मँडराती नजर आती है। भूकम्प आने पर सरकार क्या करेगी यह तो कुछ साल पहले देश की राजधानी दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में ललिता पार्क स्थित नाजायज तौर पर बनी एक पाँच मंजिला इमारत के ढह जाने के बाद के हालात से पता चलता है।

इस घटना में तकरीब 70 लोगों की मौत हो गई और सौ-सवा सौ लोग घायल हो गए। इससे इतना साफ हो गया है कि बिल्डर-पुलिस प्रशासन और एम.सी.डी को न तो नियम कायदों की परवाह है और न ही लोगों के जान-माल की। उन्हें तो बस अपने स्वार्थ के चलते अपनी तिजोरियाँ भरने की ही चिन्ता बनी रहती है।

इस घटना के दस-बारह दिन बाद तक राहत कार्य और घटना स्थल से मलबे को हटाने का काम जारी रहा। गौरतलब यह है कि जब एक इमारत के ढह जाने के इतने दिन बाद तक मलबा नहीं हट सका तो उस स्थिति में क्या होगा जब दिल्ली को भूकम्प जैसी आपदा का सामना करना पड़ेगा।

यह सर्वविदित है कि दिल्ली भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन चार में आती है जो किसी भी दृष्टि से भूकम्प का खतरा झेलने को तैयार नहीं है। दिल्ली में भूकम्प का मतलब है भारी तबाही। इसके लिये भूकम्प का जबरदस्त होना जरूरी नहीं है। एक तगड़ा झटका ही काफी है। इस बार तो ईश्वर की कृपा है कि भूकम्प के प्रकोप से बच गई दिल्ली।

असलियत यह है कि तीन रिक्टर स्केल का भूकम्प आने पर जमीन के अन्दर की पाइपलाइनों के फटने से ही भारी तबाही होगी और यदि उसकी तीव्रता 4.5 रिक्टर स्केल की हुई तो उससे जो तबाही होगी, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। दिल्ली की जिस रफ्तार से आबादी बढ़ रही है, उससे तबाही की भयंकरता का सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है। यही सबसे बड़ी चिन्ता की बात है।

भूगर्भ विज्ञानियों और भूकम्प विज्ञान के विशेषज्ञ, परामर्शदाता प्रभु नारायण के अनुसार भूकम्प की दृष्टि से अतिसंवेदनशील जोन चार में सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र मुरादाबाद, दिल्ली और सोहना के सर्वाधिक आबादी वाले क्षेत्र हैं। दिल्ली के यमुनापार के इलाके लक्ष्मीनगर, मयूर विहार, व दिल्ली में चाँदनी चौक, पहाड़गंज और करोलबाग सर्वाधिक खतरे वाले सघन आबादी हैं। मयूर विहार और लक्ष्मीनगर के इलाके की मिट्टी कच्ची है, रेतीली है, जिस पर बने मकान भूकम्प का एक झटका भी बर्दाश्त नहीं कर सकते। इन इमारतों की नींव कमजोर है। इनमें बने मकान-भवन-अट्टालिकाएँ ताश के पत्ते की तरह ढह जाएँगी।

देश की राजधानी दिल्ली के ऊपर भूकम्प का खतरा मँडरा रहा है। सरकार से कुछ उम्मीद करना बेमानी है। जाहिर है कि जनता इस दिशा में खुद सोचे और निर्णय लें। सरकार, प्रशासन, एमसीडी से तो कोई आशा करना ही व्यर्थ है। यह सभी जानते हैं कि आपदाएँ बताकर नहीं आतीं लेकिन उनसे बचाव की कोशिश तो हम कर ही सकते हैं और कई पूर्वानुमानों-संकेतों के आधार पर कुछ आधारभूत सावधानियाँ बरत कर इससे होने वाला जान-माल के नुकसान को कम जरूर कर सकते हैं। पुरानी दिल्ली की पुरानी इमारतें तो इतनी खस्ताहाल हैं कि वहाँ की एक भी इमारत नहीं बच पाएगी। संकरी गलियाँ इस तबाही में अहम भूमिका निबाहेंगी। एक तो पुरानी दिल्ली की गलियाँ इतनी तंग और संकरी हैं कि भूकम्प आने की स्थिति में एक तो व्यक्ति घरों से बाहर ही नहीं निकल पाएगा। और निकल भी गया तो गली पार करना उसके लिये दूभर होगा। क्योंकि उस स्थिति में मलबे से गलियाँ पटी होंगी। यही वजह है कि भूकम्प की स्थिति में फायर ब्रिगेड वालों के लिये राहत कार्य करना और वहाँ फँसे लोगों को निकाल पाना बहुत मुश्किल का काम है।

सबसे बड़ी बात उन गलियों में उनका पहुँच पाना ही आसान नहीं होगा। इस बात को सरकार के शहरी विकास मंत्री ने खुद स्वीकारा है। यमुनापार इलाके में यमुना किनारे बनी इमारतें ज्यादा प्रभावित होंगी। इसमें जमीन के अन्दर मौजूद पहाड़ी चट्टानों (सॉलिड रॉक्स) के विचलन से उपजी तीव्र तरंगें तबाही में ज्यादा प्रभावी भूमिका निबाहेंगी।

बरसात के दिनों में 7.2 रिक्टर स्केल का भूकम्प आने की दशा में दिल्ली का नक्शा ही बदल जाएगा। यही कारण रहा कि पर्यावरणविदों ने यमुना किनारे खेल गाँव के निर्माण का पुरजोर विरोध किया लेकिन सरकार ने उनकी एक न सुनी। यदि आईआईटी कानपुर के भूकम्प सूचना केन्द्र की मानें तो हिमालयी क्षेत्र यानी गढ़वाल में यदि 7.5 रिक्टर स्केल का भूकम्प आता है, उस दशा में दिल्ली जो उसके 250 किमी के दायरे में आती है, के विनाश को रोका नहीं जा सकता। इससे दिल्ली के 1.5 करोड़ लोग प्रभावित होंगे, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

बहरहाल देश की राजधानी दिल्ली के ऊपर भूकम्प का खतरा मँडरा रहा है। सरकार से कुछ उम्मीद करना बेमानी है। जाहिर है कि जनता इस दिशा में खुद सोचे और निर्णय लें। सरकार, प्रशासन, एमसीडी से तो कोई आशा करना ही व्यर्थ है। यह सभी जानते हैं कि आपदाएँ बताकर नहीं आतीं लेकिन उनसे बचाव की कोशिश तो हम कर ही सकते हैं और कई पूर्वानुमानों-संकेतों के आधार पर कुछ आधारभूत सावधानियाँ बरत कर इससे होने वाला जान-माल के नुकसान को कम जरूर कर सकते हैं।

ग़ौरतलब है कि समूची दुनिया की तकरीब 90 फीसदी जनता आज भी भूकम्प सम्भावित क्षेत्र में गैर इंजीनियरी ढंग यानी पुराने तरीके से बने मकानों में रहती है जिसकी वजह से भूकम्प आने की दशा में सर्वाधिक जनधन की हानि होती है। इसलिये भूकम्प से बचने की खातिर ऐसे मकानों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारे यहाँ जहाँ अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बढ़ती आबादी, आधुनिक निर्माण सम्बन्धी जानकारी, जागरुकता व जरूरी कार्यकुशलता का अभाव है, इससे जनजीवन की हानि का जोखिम और बढ़ गया है। ऐसी स्थिति में पुराने मकान तोड़े तो नहीं जा सकते लेकिन भूकम्प सम्भावित क्षेत्रों में नए मकानों को हल्की सामग्री से बना तो सकते हैं।

जहाँ बेहद जरूरी है, वहाँ न्यूनतम मात्रा में सीमेंट व स्टील का प्रयोग किया जाये, अन्यत्र स्थानीय उपलब्ध सामग्री का ही उपयोग किया जाये, पारम्परिक निर्माण पद्धतियों में केवल वही मामूली सुधारों का समावेश किया जाये जिनको स्थानीय कारीगर आसानी से समझकर प्रयोग में ला सकें।

भवन निर्माण से पहले भूकम्परोधी गैर इंजीनियरी निर्माण दिशा-निर्देशिका का बारीकी से अध्ययन करें व भवन निर्माण उसके आधार पर करें। इसमें मात्र 5 फीसदी ही अधिक धन खर्च होगा, अधिक नहीं। यह जान लें कि भूकम्प नहीं मारता, मकान मारते हैं। इसलिये यह करना जरूरी हो जाता है।

इस बात का ध्यान रखें कि देश ही नहीं दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक बचाव नियमों का पालन नहीं हो पा रहा है और देश की राजधानी दिल्ली के वासी मौत के मुहाने पर खड़े हैं। इसलिये उन्हें खुद कुछ करना होगा, सरकार के बूते कुछ नहीं होने वाला, तभी भूकम्प के साये से कुछ हद तक खुद को बचा सकेंगे। ऐसे में भगवान ही दिल्ली की जनता को बचा सकता है और जनता के इस बारे में किये गए खुद के प्रयास।

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