भूख मिटाने के लिये बच्चों की मजदूरी पर निर्भर हैं किसान

12 Sep 2015
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Child labour
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सुपौल और मधुबनी जिले के 18 गाँवों की कहानी है जो पश्चिमी कोसी तटबन्ध के भीतर हैं। यह कृषि निर्भर इलाक़ा है। सारे लोग कृषि कार्य में संलग्न हैं। वे खेती करते हैं या खेतों में मजदूरी करते हैं। इन खेतों की उर्वरता और उत्पादकता को निरन्तर बाढ़ ने नष्ट कर दिया है। मिट्टी बलूआही है जिसे अधिक पानी की जरूरत होती है। पर परम्परागत जलस्रोत अर्थात कुएँ और तालाब बाढ़ के दौरान नष्ट हो गए और बाढ़ आना बन्द हो गया। इस तरह वर्षा पर निर्भरता बढ़ गई। कोसी की कोख में आज भी भूख बरकरार है। बिहार के सर्वाधिक गरीब जिले इस क्षेत्र में हैं। कोसी तटबन्ध बनने से कुछ लोग भले सम्पन्न हुए, पूरे इलाके की गरीबी बढ़ी। वास्तविक किसान साल में चार-छह महीने का आहार ही जुटा पाता है। आजीविका के लिये पलायन मजबूरी है। लोग पेट भरने के लिये बच्चों की मजदूरी पर निर्भर होते गए हैं।

प्रवासी मजदूरों से आये पैसों से इधर के बाजार जरूर पनपे। पर स्थानीय भूमि पर खेती और मजदूरी करने में आमदनी औसतन 89 रुपया प्रतिदिन होती है। साल भर पेट भरने के लिये कई घरों के लोग दूसरे राज्यों में जाते हैं। वहाँ खेतों में दैनिक मजदूर के तौर पर काम करते हैं। उनकी आमदनी भी औसतन चार हजार रुपए माहवार से अधिक नहीं होती।

लेकिन मजदूरों के पलायन की प्रवृत्ति या मजबूरी की वजह से स्थानीय खेतों में काम करने के लिये कम लोग होते हैं। कृषि मज़दूर आमतौर पर पंजाब जाते हैं। यह भी ग़ौरतलब है कि सभी पलायनकारी युवा होते हैं और सक्षम कार्यबल की अनुपस्थिति से खेतों, परिवारों, पूरे समुदाय की क्षति होती है। क्षेत्र का विकास अवरुद्ध होता है।

यह सुपौल और मधुबनी जिले के 18 गाँवों की कहानी है जो पश्चिमी कोसी तटबन्ध के भीतर हैं। यह कृषि निर्भर इलाक़ा है। सारे लोग कृषि कार्य में संलग्न हैं। वे खेती करते हैं या खेतों में मजदूरी करते हैं। इन खेतों की उर्वरता और उत्पादकता को निरन्तर बाढ़ ने नष्ट कर दिया है। मिट्टी बलूआही है जिसे अधिक पानी की जरूरत होती है।

पर परम्परागत जलस्रोत अर्थात कुएँ और तालाब बाढ़ के दौरान नष्ट हो गए और बाढ़ आना बन्द हो गया। इस तरह वर्षा पर निर्भरता बढ़ गई। खेती का ढंग परम्परागत है, पर परम्परागत साधन उपलब्ध नहीं हैं। उर्वरता और उत्पादकता बढ़ाने के उपाय नहीं है। पशुपालन भी मामूली है। खाद, बीज और पानी कुछ भी सुलभ नहीं है।

यह गरीबी और फटेहाली का एक नमूना भर है। पूरी राज्य की खेती बदहाल है। इसे दूर करने के लिये राज्य सरकार ने कृषि प्रणाली में परिवर्तन को लेकर कई नारे दिये। राज्य किसान आयोग, कृषि टास्क फोर्स, उच्चाधिकार सम्पन्न मंत्रीमंडलीय समिति आदि इत्यादि बने। पर सरकारी योजनाओं का असर गरीब किसानों पर नहीं पड़ता क्योंकि वह उनके पास शायद ही पहुँच पाता है जिनको सर्वाधिक जरूरत होती है।

कृषि विभाग ने किसानों की उन्नति के लिये जिन योजनाओं को लागू किया, उन पर बिचौलिये हावी रहे। बिचौलिया का मतलब ऐसी ग्रामीण आबादी भी है जो वास्तव में खेती के काम से नहीं जुड़ी। उनके खेतों पर बटाई या ठेके पर दूसरे लोग खेती करते हैं, खेतीहर के रूप में सरकारी सुविधाएँ उन्हें ही मिल पाती है जिनके नाम पर मिल्कियत के कागजात होते हैं।

वैसे सरकारी योजनाओं तक केवल वही लोग पहुँच पाते हैं जो प्रखण्डों का चक्कर काटते हैं। इस लिहाज से खेती की आधुनिक तकनीकों के प्रचार-प्रसार में सरकारी प्रयासों के सामने गैर-सरकारी प्रयास बीस ही ठहरते हैं।

अत्यन्त गरीब इलाके में टिकाऊ विकास का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये अप्रैल 2011 में समेकित जल प्रबन्धन परियोजना आरम्भ हुई। बिहार के दो जिलों-मधुबनी और सुपौल के 18 गाँवों में जीपीएसवीएस, जगतपुर घोघरडीहा ने जर्मनी की वेल्टहंगरहिल्फे की साझीदारी में यूरोपीय यूनियन के कोष से इस परियोजना को संचालित किया। सबसे पहले गाँवों का आधारभूत सर्वेक्षण किया गया।

सहभागी पद्धति से आबादी की बनावट, आजीविका के स्रोत, पानी की व्यवस्था और भूमि की अवस्था का आकलन किया गया। फिर ग्राम विकास समिति का गठन किया गया और पानी के प्रबन्धन की व्यापक योजना तैयार की गई जिसमें मनुष्य और मवेशियों के पीने के लिये पानी से लेकर सिंचाई के पानी की व्यवस्था और वर्षाजल निकासी के इन्तजामों का ध्यान रखा गया। सर्वेक्षण के दौरान मिली जानकारी चौंकाती है।

इलाके के अधिकतर किसान मुश्किल से छह महीने के भोजन जुटा पाते हैं। बाकी महीनों के लिये वे अपने बच्चों और जवानों पर निर्भर करते हैं जो दूसरे राज्यों में कमाकर अपना और परिवार का पेट भरते हैं। औसत परिवार की सालाना आमदनी लगभग 31,900 रुपया है जो करीब 87 रुपया प्रतिदिन ठहरता है।

सालाना खर्च 32734 रुपया होता है। आमदनी से अधिक खर्च को स्थानीय महाजनों से कर्ज लेते हैं। इस तरह अगर कभी आमदनी बढ़ी तो उसके खर्च का इन्तजाम पहले से हो जाता है। दोनों जिले पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष (बीआरजीएफ) से सम्पोषित हैं। अर्थात इन इलाकों के विकास के लिये केन्द्र सरकार से विशेष अनुदान आता है।

परन्तु मगर केवल 15 प्रतिशत किसानों ने खेती के आधुनिक व वैज्ञानिक प्रद्धतियों के बारे में सूना है। जिन पद्धतियों के प्रचार-प्रसार के लिये पिछले कई वर्षों से सरकार अभियान चला रही है। जिन किसानों ने एसआरआई या एसडब्ल्यूआई के बारे में सूना है, उन्होंने भी इसका प्रयोग नहीं किया।

खरीफ में धान और रबी में गेहूँ की फसल ही प्रचलित है। सब्जी व दलहन की खेती बहुत कम होती है पर दूसरी फसलों के साथ पूरक के तौर पर होने वाले मोटे अनाज गायब से होते गए हैं। मुश्किल से मडुआ, मूँग और उड़द बचे हैं। भोजन के लिये अन्न उपजाने के आग्रह में धान और गेहूँ की खेती ही करना चाहते हैं। लोगों के पास अधिक ज़मीन नहीं हैं।

लगभग 29 प्रतिशत भूमिहीन मज़दूर हैं और 55 प्रतिशत के पास एक एकड़ से कम ज़मीन है। केवल छह प्रतिशत के पास दो एकड़ से अधिक ज़मीन के मालिक हैं। खेती पेट नहीं भरने से आजीविका के लिये मज़दूरों का पलायन वर्ष भर हर महीने में होता है। वर्षापात के अनुसार खेती के कामकाज और गन्तव्य स्थान पर उपलब्ध होने वाले रोज़गार के अनुसार इसमें घट बढ़ होती है। ग्रामीणों की सहभागी बैठकों के माध्यम से एकत्र पलायन का आँकड़ा निम्नवत हैः-

आजीविका के लिये पलायन का माहवार विवरण


 

कुल्हरिया

सरोजाबेला

बेलहा

महेशपुर

गिधा

जहलीपट्टी

परसा

3.4

पिपरा

बसुआरी

जनवरी

20

90

90

10

70

10

20

5

पहले

पलायन

नहीं करते

थे। अब

50-60

प्रतिशत

लोग

दिल्ली

पंजाब

जाते

हैं।

फरवरी

15

90

90

10

40

5

20

10

मार्च

25

90

90

7

80

55

40

10

अप्रैल

15

80

80

50

80

10

10

5

मई

20

80

80

30

75

70

40

5

जून

50

50

50

60

70

60

20

25

जुलाई

25

20

20

40

55

55

20

3

अगस्त

5

20

20

20

68

10

10

 

सितम्बर

4

20

20

5

40

10

10

 

अक्टूबर

10

70

70

 

80

20

80

25

नवम्बर

10

80

80

10

40

50

20

5

दिसम्बर

5

90

90

6

50

30

20

2

 

उल्लेखनीय है कि आजीविका के लिये पलायन बिहार का पुराना रोग बन गया है। राज्य की वर्तमान सरकार ने इस कलंक से मुक्ति पाने के लिये अनेक कार्यक्रमों की घोषणा की। सरकारी खर्च में पिछले दस वर्षों में 32 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गई। पर सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2009 में 44 लाख लोग पलायन करते थे।

2012 में पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या में 35 से 40 प्रतिशत कमी का दावा किया गया। पर उपरोक्त गाँवों की अवस्था और 2011 में सहभागी ढंग से हुए आधारभूत सर्वेक्षण इस दावे का समर्थन नहीं करते। खेती अभी लाभकारी नहीं हुई। कामगर आबादी को आकर्षित करने लायक नहीं हुई।

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