भूमि संसाधनों के विकास से ही होगी गांवों की तरक्की

26 Aug 2014
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गांवों की तरक्की के लिए भूमि संसाधनों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है। केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से भी गांवों की निश्प्रयोज्य भूमि के खेतीयुक्त बनाने के साथ ही भूमि संसाधनों के विकास की तमाम तरकीबें अपनाई जा रही हैं। देश में जनसंख्या वृद्धि के साथ ही जमीन का उपयोग भी बढ़ा है। तरक्की के हर पहलू पर भूमि की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में भूमि संसाधनों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में भूमि संसाधन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। चूंकि जब तक भूमि संसाधनों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक खाद्य जरूरतें पूरी नहीं हो पाएंगी। खेती योग्य रकबा निरंतर कम होता जा रहा है। इसका एक कारण है शहरों का तेजी से हो रहा विकास। गांवों में शहरों जैसी सुविधाओं का विकास हो रहा है तो गांव में शहर जैसे संसाधन भी विकसित हो रहे हैं। ऐसे विकास में सबसे ज्यादा ह्रास तो जमीन का ही होता है। भारत में कुल भूमि क्षेत्रफल करीब 329 मिलियन हेक्टेयर है। इसमें खेती करीब 144 मिलियन हेक्टेयर में होती है, जबकि लगभग 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि बंजर है।

भारत में कृषि योग्य भूमि के अलावा काफी संख्या में भूमि परती पड़ी हुई है। इस भूमि को संरक्षित किए जाने की जरूरत है। आंकड़ों पर गौर करें तो विश्व की कुल भूमि का 2.5 हिस्सा भारत के पास है। दुनिया की 17 प्रतिशत जनसंख्या का भार भारत वहन कर रहा है। देश की जनसंख्या सन् 2050 तक करीब एक अरब 61 करोड़ 38 लाख से ज्यादा होने की संभावना है। लगातार बढ़ती जनसंख्या के लिए अतिरिक्त भूमि कृषि के अंतर्गत लाए जाने की जरूरत है। मौजूदा कृषि भूमि की उत्पादकता बढ़ाए जाने एवं उर्वर कृषि भूमि के क्षरण को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। परती भूमि जो फिलहाल या तो उपयोग में नहीं आ रही है या जिसका आंशिक इस्तेमाल हो रहा है, इसे सुरक्षित करने की जरूरत है। इसी को ध्यान में रखकर सरकार की ओर से राष्ट्रीय परती भूमि एटलस का निर्माण किया गया है।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में वर्ष 1951 में मनुष्य भूमि अनुपात 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति था, जो दुनिया के न्यूनतम अनुपातों में से एक था। वर्ष 2025 में यह आंकड़ा घटकर 0.23 हेक्टेयर होने का अनुमान है।भारत में हर साल करीब 2600 मिलियन टन मृदा अपरदन होता है। देश में करीब 71 लाख हेक्टेयर भूमि की मृदा ऊसर से प्रभावित है। जबकि पूरे विश्व में यह आंकड़ा लगभग 9520 हेक्टेयर के करीब बताया जाता है। जो मृदा ऊसर से प्रभावित है, उसे संसाधित करके खेती योग्य बनाए जाने की जरूरत है। भूमि संसाधन विकसित करके खेती योग्य जमीन का न सिर्फ रकबा बढ़ा सकते हैं बल्कि अनाज उत्पादन का ग्राफ भी बढ़ाया जा सकता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में वर्ष 1951 में मनुष्य भूमि अनुपात 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति था, जो दुनिया के न्यूनतम अनुपातों में से एक था। वर्ष 2025 में यह आंकड़ा घटकर 0.23 हेक्टेयर होने का अनुमान है। ऐसे में भूमि संसाधन के जरिए खेती की एक बड़ी चुनौती से निबटा जा सकता है। ऐसे में उपजाऊ मिट्टी की सुरक्षा किया जाना भी बेहद जरूरी है।

कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष क्षरण के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव से बचा लिया जाए तो हर साल करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बचेगी। अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी के उड़ाने में आंधी और पानी के चंद पल लगते हैं। एक हेक्टेयर भूमि की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान के औसतन तीन से पांच सौ रुपए खर्च करना पड़ता है।

मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है। कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है।संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रतिवर्ष 27 अरब टन मिट्टी जलभराव, क्षारीकरण के कारण नष्ट हो रही है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है। खेती योग्य जमीन के बीच काफी भू-भाग ऐसा है, जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है। कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है। क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है। यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ भूमि संसाधन की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल होगी।

परती भूमि सुधार कार्यक्रम


परती भूमि का प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय दूरसंवेदी केंद्र (एनआरएसएडीओएस) ने सन् 1986 में लैंडसैट टीएमए आईआरएस-एलआईएसएस द्वितीय और आईआरएस-एलआईएसएस तृतीय आंकड़ों के माध्यम से राष्ट्रव्यापी परती भूमि मानचित्रण का काम शुरू किया। यह परियोजना सन् 1986 से 2000 के बीच पांच चरणों में पूरी की गई। परती भूमि को 13 श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया। करीब 63.85 मि. हेक्टेयर भूमि परती भूमि के रूप में चिह्नित की गई।

परती भूमि को कृषि भूमि में तब्दील करने के लिए, परती भूमि के उपयोग में प्राथमिकता तय करने के लिए वर्ष 2002-03 में रबी सीजन के आईआरएस एलआईएसएस तृतीय आकंड़ों के माध्यम से दूसरी राष्ट्र स्तरीय परियोजना शुरू की गई, जहां क्षरण की मात्रा के आधार पर परती भूमि का और वर्गीकरण किया गया। मानचित्र में परती भूमि की 28 श्रेणियों के तहत करीब 55.64 मि. हेक्टेयर भूमि आई।

मौजूदा परियोजना में खरीफ, रबी, जायद वर्ष 2005-06 के दौरान एलआईएसएस से प्राप्त चित्रों के माध्यम से परती भूमि की 23 श्रेणियां चिह्नित की गईं। तीन सीजनों के सेटेलाइट आंकड़ों से परती भूमि को झाड़ी वाली भूमि, जलजमाव वाली भूमि, जंगल झाड़ वाली भूमि आदि के रूप में वर्गीकृत करने में मदद मिली है।

भू-डाटाबेस प्रारूप में पूरे देश का परती मानचित्र तैयार किया गया है और स्थानीय स्तर पर विभिन्न श्रेणियों की क्षेत्रफल सीमा का अनुमान लगाया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर कुल 47.23 मि. हेक्टेयर भूमि को परती भूमि के रूप में चिह्नित किया गया जो देश के कुल भूक्षेत्र का 14.19 फीसदी हिस्सा है। घनी झाड़ी वाली करीब 9.3 मि. हेक्टेयर परती भूमि मुख्य परती भूमि है, जबकि खुली झाड़ी वाली 9.16 मि. हेक्टेयर भूमि का दूसरा स्थान आता है। करीब 8.58 मि. हेक्टेयर भूमि कम उपयोग की गई या क्षरित वन झाड़ी भूमि है।

सरकार के समेकित परती भूमि विकास कार्यक्रम, मरुभूमि विकास कार्यक्रम जैसे विभिन्न विकास कार्यक्रमों के माध्यम से परती भूमि के उपयोग से देश में कृषि भूमि संसाधन में सुधार होगा और कृषि उत्पादन एवं वनस्पति क्षेत्रफल में वृद्धि आएगी। वनस्पति क्षेत्र में वृद्धि से ही धरती के बढ़ते तापमान के प्रतिकूल प्रभावों से निपटा जा सकता है।

मरुभूमि विकास कार्यक्रम (डीडीपी)


मरुभूमि विकास कार्यक्रम के जरिए पहचान किए गए मरुभूमि क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधन आधार को दोबारा उपयोग योग्य बनाते हुए सूखे के प्रतिकूल प्रभावों को न्यूनतम करने की केशिश की जा रही है। यह कार्यक्रम दीर्घकाल में पारिस्थितिकीय संतुलन बहाल करने हेतु प्रयासरत है। कार्यक्रम का लक्ष्य समग्र आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और कार्यक्रम वाले क्षेत्रों में निवास करने वाले संसाधनहीन गरीबों और पिछड़े वर्गों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को बेहतर बनाना भी है।

वर्ष 1994-95 तक मरुभूमि विकास कार्यक्रम को 5 राज्यों के 21 जिलों के 131 ब्लॉकों में कार्यान्वित किया जा रहा था। हनुमंत राव समिति ने निम्न सिफारिश के बाद इसका विस्तार किया। वर्ष 1995-96 से डीडीपी के अंतर्गत शामिल किए गए ब्लॉकों की कुल संख्या 7 राज्यों के 40 जिलों में 227 हो गई। इसके बाद इसमें लगातार बढ़ोत्तरी की जा रही है। वर्ष 1995-96 से वाटरशेड पद्धति को अपनाए जाने से लेकर 2005-06 तक 67.38 लाख हेक्टेयर शुष्क क्षेत्र को विकसित करने के लिए 13476 परियोजनाओं को स्वीकृत किया गया है। वर्ष 1995-96 से 1998-99 तक स्वीकृत की गई 2194 परियोजनाओं की परियोजनावधि समाप्त हो चुकी है। इनमें से 1894 परियोजनाओं को पूरा हुआ माना गया है और 300 परियोजनाओं के संबंध में वित्तपोषण बंद कर दिया गया है। वर्ष 1999-2000 से 2005-06 तक स्वीकृत की गई 11282 परियोजनाओं में से 689 परियोजनाओं को पूरा हुआ माना गया है और 31 मार्च, 2006 की स्थिति के अनुसार 10593 परियोजनाएं अभी चल रही हैं।

मरुस्थलीकरण की समस्या


आज दुनिया के सामने मरुस्थलीकरण को रोकना भी एक बड़ी चुनौती है। हम मिट्टी की प्रवृत्ति पर गौर करें तो मिट्टी कुछ सेंटीमीटर गहरी होती है जबकि औसत रूप में कृषि योग्य उपजाऊ मिट्टी की गहराई 30 सेंटीमीटर तक मानी जाती है। मृदा की चार परतें होती हैं। पहली अथवा सबसे ऊपरी सतह छोटे-छोटे मिट्टी के कणों और गले हुए पौधों और जीवों के अवशेष से बनी होती है। यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसी चिकनी मिट्टी की होती है और तीसरी परत मूल विखंडित चट्टानी सामग्री और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा चैथी परत में अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं।

सिंचाई प्रबंधन की जरूरत


भारत में सिंचाई कुप्रबंधन के कारण करीब छह-सात मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है। यह स्थिति पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। इसी तरह करीब छह मिलियन हेक्टेयर भूमि जल जमाव से प्रभावित है। देश में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में जल जमाव की समस्या है। असमतल भू-क्षेत्र वर्षा जल से काफी समय तक भरा रहता है। इसी तरह गर्मी के दिनों में यह अधिक कठोर हो जाती है। ऐसे में इसकी अम्लता बढ़ जाती है और इसमें खेती नहीं हो पाती है। यदि इस समस्या का निराकरण कर दिया जाए तो खाद्य उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी। इसी तरह रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण अम्लीय भूमि भी हमारे देश की उत्पादन क्षमता को प्रभावित कर रही है। अम्लीय मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ने लगती है।

भारत में करीब 60 फीसदी कृषि भूमि वर्षा पर आधारित है। बदलते परिवेश में मानसून की सक्रियता कहीं कम तो कहीं ज्यादा होने से बाढ़ व सूखे के हालात रहते हैं। बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि प्रभावित होती है। बाढ़ के पानी के बहाव के साथ मिट्टी की ऊपरी परत भी बह जाती है। इसे जल अपरदन कहते हैं। पारिस्थितिकीविदों की मानें तो भारत में हर साल करीब छह हजार टन उपजाऊ ऊपरी मिट्टी का कटाव होता है। पानी के साथ बहने वाली इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैगनीशियम के साथ ही अन्य सूक्ष्म तत्व भी बह जाते हैं। इससे किसानों का खेत अनुपजाऊ हो जाता है।

मध्य एवं पूर्वी भारत जलजनित क्षरण की चपेट में ज्यादा आता है। इसका एक बड़ा कारण यहां की मिट्टी की स्थिति भी है। ऐसे में इस मिट्टी को बचाने के लिए सबसे उपयुक्त उपाय है मिट्टी के अनुकूल फसल चक्र का अपनाया जाना। जलजनित क्षरण से बचने के लिए जड़युक्त फसलों की खेती ज्यादा से ज्यादा कराई जाए। बाढ़ प्रभावित इलाकों में पानी के तीव्र गति से होने वाले बहाव को रोकने के लिए जगह-जगह बाड़बंदी कराई जाए। पट्टीदार खेती करने वाले किसानों को मेड़बंदी में विशेष सहयोग किया जाए।

कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि पौधे का प्रथम भोजन पानी माना गया है। पौधे को तैयार होने में करीब 90 फीसदी जल की आवश्यकता होती है। यह मिट्टी में उपस्थित तत्वों को भोजन के रूप में पौधे तक पहुंचाता है। मिट्टी में समुचित आर्द्रता होना भी जरूरी होता है। मिट्टी में पानी का कम होना और अधिक होना दोनों ही बात पौधे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं। इसलिए जल प्रबंधन बेहद जरूरी है।

खनिज तत्व प्रबंधन की जरूरत


इसमें कोई संदेह नहीं कि हरित क्रांति के बाद उत्पादन क्षमता में करीब तीन से चार गुना बढ़ोत्तरी हुई है। इसके प्रमुख कारण थे उन्नत किस्म के बीज का चयन, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई आदि। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी सामने आया, जो हमारे सामने है। अधिक उत्पादन की लालसा में तमाम किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इससे कुछ समय के लिए उत्पादन तो बढ़ गया, लेकिन मिट्टी की उर्वराशक्ति कमजोर हुई, जो भविष्य के लिए गंभीर चुनौती बन सकती है। मृदा की उर्वराशक्ति का क्षीण होने का सीधा-सा मतलब है भविष्य में उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ना। जब मिट्टी में पोषक तत्व - नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, गंधक, मैगनीशियम एवं सूक्ष्म तत्वों में तांबा, लौह, जस्ता, बोरान आदि नहीं होंगे तो पौधों का पूर्ण रूप से विकास नहीं होगा। इसके तहत पोषण प्रबंधन पद्धति, एकीकृत जल प्रबंधन, एकीकृत बीज प्रबंधन, एकीकृत कीट प्रबंधन आदि पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है।

लवणीयता व क्षारीयता प्रबंधन की जरूरत


लवणीय मिट्टी में सोडियम और पोटेशियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक होने के कारण पौधों की वृद्धि नहीं हो पाती हैं। ऐसे में पौधे या तो अविकसित ही रहते हैं अथवा वे सूख कर नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह क्षारीय मिट्टी में पानी भरने पर काफी दिनों तक रूका रहता है और जब पानी सूखता है तो मिट्टी एकदम सख्त हो जाती है और बीच-बीच में दरारें दिखाई पड़ती हैं। ऐसी मिट्टी में बोया जाने वाला बीज अंकुरित बहुत मुश्किल से होता है।

क्षारीय भूमि को भी लवणीय भूमि की तरह निक्षालन क्रिया से शोधित किया जा सकता है। इसके अलावा जिप्सम का प्रयोग करके हानिकारक सोडियम तत्वों को नष्ट किया जा सकता है। इसके अलावा गोबर खाद, हरी खाद, वर्मी कंपोस्ट, नील हरित शैवाल आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है। क्योंकि रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग करने के कारण कैल्शियम निचली सतह पर चला जाता है। ऐसे में सोडियम भूमि की क्षारीय प्रकृति को बढ़ाकर मिट्टी की स्थिति को प्रभावित करता है। ऐसे में किसानों को अनुमान के अनुरूप उत्पादन नहीं मिल पाता है।

मृदा संरक्षण और भू-क्षरण


एक तरफ मिट्टी की ताकत बचाने की जरूरत है तो दूसरी तरफ उसका क्षरण भी रोकना होगा। भू-क्षरण उस प्राकृतिक प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें मिट्टी की ऊपरी परत जल या वायु के तेज़ बहाव के कारण उड़ जाती है। प्राकृतिक कारणों से पृथ्वी पृष्ठ के कुछ अंशों के स्थानांतरण को भू-क्षरण कहते हैं। कारण ताप का परिवर्तन वायु, जल तथा हिम है। इनमें जल मुख्य है। यह उन लोगों के लिए एक गंभीर समस्या है जो लोग फ़सल उगाना चाहते हैं। जब भू-क्षरण होता है तो फ़सल अच्छी नहीं होती क्योंकि इसके कारण मिट्टी की उपजाऊ ऊपरी परत उड़ या बह जाती है। भू-क्षरण से न केवल खेती करने के काम में परेशानी आती है, बल्कि अन्य समस्याएं भी इसके कारण हो सकती हैं, जैसे भूमि पर बड़े-बड़े गड्ढे पड़ना जिनके कारण किसी भवन की नींव निर्बल हो सकती है और भवन ढह भी सकता है। समुद्रतट पर लहरों और ज्वारभाटा की क्रिया के कारण पृथ्वी के भाग टूटकर समुद्र में विलीन होते जाते हैं। मिट्टी अथवा कोमल चट्टानों के सिवाय कड़ी चट्टानों का भी इन क्रियाओं से धीरे-धीरे अपक्षय होता रहता है। वर्षा और तुषार भी इस क्रिया में सहायक होते हैं। वर्षा के जल में घुली हुई गैसों की रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप कड़ी चट्टानों का अपक्षय होता है। ऐसा जल भूमि में घुसकर अधिक विलेय पदार्थों के कुछ अंश को भी घुला लेता है और इस प्रकार अलग हुए पदार्थों को बहा ले जाता है। वर्षा, पिघली हुई ठोस बर्फ और तुषार निरंतर भूमि का क्षरण करते हैं।

इस प्रकार टूटे हुए अंश नालों या छोटी नदियों से बड़ी नदियों में और इनसे समुद्र में पहुंचते रहते हैं। नदियों का अथवा अन्य बहता हुआ जल किनारों तथा जल की भूमि को काटकर मिट्टी को ऊंचे स्थानों से नीचे की ओर बहा ले जाता है। ऐसी मिट्टी बहुत बड़े परिणाम में समुद्र तक पहुंच जाती है और समुद्र पाटने का काम करती है। समुद्र में गिरने वाले जल में मिट्टी के सिवाय विभिन्न प्रकार के घुले हुए लवण भी होते हैं। दिन में धूप से तप्त चट्टानों में पड़ी दरारें फैल जाती हैं तथा उनमें अड़े पत्थर नीचे सरक जाते हैं। रात में ठंड पड़ने या वर्षा होने पर चट्टानें सिकुड़ती हैं और दरारों में पड़े पत्थरों के कारण दरारें और बड़ी हो जाती हैं। शीत प्रधान देशों में इन्हीं दरारों तथा भूमि के अंदर रिक्त स्थानों में जल भर जाता है। अधिक शीत पड़ने पर जल हिम में परिवर्तित हो जाता है और तब उन स्थानों या दरारों को फाड़कर तोड़ देता है। इन क्रियाओं के बार-बार दोहराए जाने से चट्टानों के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। इन टुकड़ों को जल और वायु अन्य स्थान पर ले जाते हैं।

जिन प्रदेशों में दिन और रात के ताप में अधिक परिवर्तन होता है वहां की मिट्टी निरंतर प्रसार और आकुंचन के कारण ढीली हो जाती है एवं वायु अथवा जल द्वारा अन्य स्थानों पर पहुंच जाती है। शुष्क प्रांतों में जहां वनस्पति से ढकी नहीं होती, वायु अपार बालुकाराशि एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है। इस प्रकार सहारा मरुभूमि की रेत, एक ओर सागर पार सिसिली द्वीप तक और दूसरी ओर नाइजीरिया के समुद्र तट तक पहुंच जाती है। वायु द्वारा उड़ाया हुआ बालू ढूहों अथवा ऊंची चट्टानों के कोमल भागों को काटकर उनकी आकृति में परिवर्तन कर देता है। जल में बहा हुआ पदार्थ सदा ऊंचे स्थान से नीचे को ही जाता है। किंतु वायु द्वारा उड़ाई हुई मिट्टी नीचे स्थान से ऊंचे स्थानों को भी जा सकती है। गतिशील हिम जिन चट्टानों पर से होकर जाता है उनका क्षरण करता है और इस प्रकार मुक्त हुए पदार्थ को अपने साथ लिए जाता है। वायु तथा नदियों के कार्य की तुलना में मध्यप्रदेश को छोड़कर पृथ्वी के अन्य भागों में हिम की क्रिया अल्प होती है।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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