चार विकल्प

सार्वजनिक संसाधनों के ह्रास के कारण गांव के सामने चार विकल्प रह गए हैं- ऐसे इलाकों में चले जाएं जहां संसाधन भरपूर हों, अपने पशुओं की संख्या कम कर दें, बची हुई सार्वजनिक जमीन का ज्यादा लाभ उठाने की दृष्टि से पुराना रिवाज छोड़कर नए सिरे से तय करें कि किस प्रकार के जानवर पालने हैं, या सार्वजनिक जमीन का भरोसा छोड़ अपना प्रबंध खुद करें, भले ही इसमें पशुपालन का खर्च एकदम बढ़ जाए। लोग इन चारों विकल्पों को अपने-अपने ढंग से अपना रहे हैं।

पशुपालन में पशुओं की किस्में भी बदली हैं। श्री जोधा ने जिन गांवों का अध्ययन किया उनमें 1955 तक 5 से 17 तक के परिवारों में ऊंट की टोलियां थीं। भूमि सुधार के बाद ऊंट गायब होने लगे क्योंकि वे पेड़ों की ऊंची टहनियों पर पलते थे। 1963-64 तक तो जैसलमेर को छोड़कर बाकी गांवों में ऐसा एक भी घर नहीं रहा जहां तीन ऊंट भी बचे हों।

ऊंट के बाद नबंर आया गाय-बैलों का। 1955 तक उन गांवों में 23 से 60 तक छंग होते थे। छंग गाय-बैलों के झुंड को कहते हैं जिनमें 25 से ज्यादा प्रौढ़ गाय-बैल होते हैं। 1963-64 तक चराई की जगह कम पड़ने के कारण ऐसे गांवों में बस पांच या छह छंग रह गए थे।

फिर गाय-बैलों की किस्मों में भी बदलाव आया। मुख्य कारण था दूध बिक्री की नई सुविधा का उपलब्ध होना। अधिक दूध देने वाली गायों की तुलना में साधारण गायें तथा सूखी या बछड़ा-बछड़ियां कम होती गईं। तिस पर कुल दुधारू जानवरों में भैसों की तादात काफी बढ़ गयी। गाय और भैसों को बांधे रखकर खिलाना-पिलाना पड़ा और यह सब खर्च अपनी जेब से करना पड़ा। इसलिए गो-पालन मंहगा हुआ। किसानों ने देखा कि सार्वजनिक जमीन पर कम उत्पादक और अस्थायी पशुओं के झुंड पालने के बजाय खुद ही सीमित संख्या में ‘अच्छी’ गाय-भैंसों को ढंग से पाल लेना अच्छा है जो बाजार के लिए ठीक दूध देती हों।

इस बीच बकरी और भेड़पालन ज्यादा मान्य हो चला। जोधपुर और नागौर जिले के गांवों में पहले बकरी और भेड़ निचली मानी गई जाति के लोग और अर्ध-घुमंतू समूह ही पालते थे। अब दूसरे लोग भी भेड़-बकरी पालने लगे हैं।

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