चित्तौड़ की जल परम्परा

31 Dec 2009
0 mins read

सच पूछो तो राजस्थान की भौगोलिक परिस्थिति ने यहां के जनमानस को सैकड़ों साल पहले से ही यह सिखा दिया था कि अगर पानी का पुख्ता प्रबंध करना है तो इसके लिए वर्षा जल संग्रहण से बेहतर कोई उपाय नहीं हैं। और इसी सोच से इस पूरे इलाके में वर्षा जल संग्रहण की नायाब व्यवस्थाएं बनीं।

राजस्थान की अरावली श्रृंखला में बसे किलेदार शहर और राजमहल भी इस सोच से अछूते नहीं थे। चित्तौड़ और रणथंभौर किलों के निर्माताओं ने तो किले के अंदर ही पानी की समुचित व्यवस्था बनाई हुई थी। उन्होंने अपने किलों के भीतर की पहाड़ी ढ़लानों को आगोर के रूप में उपयोग किया। इनके नीचे कुंडियां और बावड़ियां बनाई गईं।

इतिहासकारों के अनुमान से इन किलों में कम से कम नहीं तो 50,000 लोग रहा करते थे। और अन्य पशु और हाथी-घोड़े हुआ करते थे। चित्तौड़ के किले को ही लें, जहां 16वीं सदी तक गहलौत राजपूतों का राज था। यह किला 152 मीटर ऊंची अण्डाकार पहाड़ी पर बना था। ऐसा बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा करने के लिए किया गया था।

किले के अंदर वर्षाजल संग्रहण के कुल 84 ढांचे बनाए गए थे, जिनमें अधिकांश नष्ट हो गए हैं और जो बचे हैं वे खस्ता हालत मं हैं। यहां अभी तालाब, कुंड, बावड़ियां और कुएं मिलाकर कुल 22 ढांचे बचे हैं।

किले के अंदर स्थिति सभी तालाबों का अपना प्राकृतिक आगोर है। तालाब के नीचे कुंड और बावड़ी बनाए गए थे, जिनमें इनके रिसाव का पानी था।

चित्तौड़ के निर्माताओं ने सिर्फ वर्षाजल संग्रहण की ही व्यवस्था नहीं बनाई हुई थी, बल्कि उन्होंने जमीन में रिसने वाले जल का भी उपयोग किया। इसी उद्देश्य से काला नाडा के नीचे सूर्य कुंड बनाया गया। इसी प्रकार ‘फतेह जी का तालाब’ के नीचे खतन बावड़ी और सुकाडिया तालाब के नीचे भीमतला कुंड बना।

इस स्थिति में अगर एक तालाब सूख भी जाता था तो उससे रिसा पानी कुंडो और बावड़ियों में आ जाता था, जैसे हाथी कुंड में फतेह जी का तालाब से रिसा पानी पहुंचता था। और इसके रिसाव का पानी गौमुख झरने में पहुंचता था। कुडेश्वर कुंड में महादेवरा कुंड पानी के लिए रत्नेश्वर कुंड पर निर्भर था, जिसे राढोड़िया कुंड का पानी पहुंचता था।

चित्तौड़ का किला 500 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इसका 200 हेक्टेयर भू-भाग जलाशयों से घिरा था। इनमें करीब 4 अरब लीटर पानी जमा हो सकता था। साल में इतना पानी जमा हो जाता था कि यहां रहने वाले 50,000 लोग इससे 4 साल तक आराम से काम चला सकते थे।

आज भी चित्तौड़ देश के उन चुनिंदा किलों में से एक है, जहां करीब 3,000 लोग निवास करते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग विभाग ‘फेड’ द्वारा यहां पानी की आपूर्ति की जाती है। नीचे खुदे कुंओं और नलकूपों से यह पानी पहुंचाया जाता है। लेकिन पिछले कई वर्षों से नीचे बसा आधुनिक चित्तौड़ शहर पानी का भीषण संकट झेल रहा है।

इसके दो कारण है, पहला यहां के ऊपरी हिस्से की जल व्यवस्था दुरुस्त नहीं है। अगर चित्तौड़ की जल प्रबंधन परम्परा को फिर से जिंदा किया जाए, तो यहां आज भी पानी का पुख्ता प्रबंध किया जा सकता है।

स्रोत: अनिल अग्रवाल, सुनीता नारायण 1998, अरावली के किले, पृष्ठ संख्या 156-157, बूंदों की संस्कृति: भारत की पारंपरिक जल संचय प्रणालियों के विकास, ह्रस और उनमें अब भी मौजूद संभावनाओं की कहानी,सेंटर फॉर साइंस एण्ड इन्वायरन्मेंट, नई दिल्ली- 110062

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading