चम्बल


इत यमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस,
छत्रसाल से लरन की, रही न काहू हौंस।


यह नदी मध्यप्रदेश और राजस्थान के बीच सीमा रेखा बनाती है। यह पश्चिमी मध्यप्रदेश की प्रमुख नदियों में से एक है। जो यमुना नदी के दक्षिण की ओर से जाती है। पहले यह उत्तर-पूर्व की ओर फिर पूर्वी दिशा की ओर बहती हुई विसर्जित हो जाती है। चम्बल और काली सिन्ध मध्य भारत के पठारी प्रदेश की भी प्रमुख नदी है। चम्बल उपार्द्र प्रदेश से प्रवाहित होने वाली नदियाँ इसके सामान्य ढाल के अनुसार ही बहती हैं। ये दक्षिण से उत्तर-पूर्व की ओर प्रवाहित होती हैं। सिन्धु, क्वाँरी, पार्वती, कुनू और चम्बल इस भू-भाग की प्रमुख नदियाँ हैं।

चम्बल इस पठार की एक प्रमुख नदी है। जो पठार में सँकरी व गहरी घाटियों में बहती है। इस नदी पर गाँधी सागर और राणा प्रताप सागर जैसे बाँधों का निर्माण किया गया है। काली सिंध और पार्वती, जो चम्बल की सहायक नदियाँ हैं, के जल प्रवाह बीहड़ों की रचना करते हैं। इसी पठार के उत्तर मैदानी भाग में जलोढ़ मिट्टियों का सृजन चम्बल, सिंध एवं इसकी सहायक नदियों द्वारा किया जाता है। इन मिट्टियों को चम्बल, सिन्धु तथा इसकी सहायक नदियों ने निर्मित किया। जलोढ़ प्रचुर मात्रा में उपजाऊ मिट्टी है। जहाँ यह पाई जाती है वह क्षेत्र कृषि से धन-धान्य होता है। इस प्रकार की मिट्टी जो चम्बल और उसकी सहायक नदियाँ निर्मित करती हैं। गुना, मन्दसौर, ग्वालियर तथा शिवपुरी में लावा मिश्रित मिट्टी मिलती है।

चम्बल का पठार कर्क रेखा के निकट होने के कारण जलवायु गर्म होती है। चम्बल, क्वाँरी तथा इसकी सहायक नदियों के बीहड़ों में उष्ण कटिबन्धीय शुष्क कटीले वन मिलते हैं। जैसे-बबूल, करील और खजूर आदि।

विदर्भ के राजा चेदि ने ही चम्बल और केन नदियों के बीच चेदि राज्य की स्थापना की थी। जिसे बाद में कुरू की पाँचवीं पीढ़ी में बसु ने यादवों के इसी चेदिराज्य पर विजय श्री प्राप्त की और केन नदी के तट पर शक्तिमति नगर को अपनी राजधानी बनाया। ऐसा कहा जाता है। कि चेदि राज्य ईसा पूर्व का है। चम्बल नदी का उद्गम मालवा पठार में इन्दौर जिले के महू के पास जनपाव पहाड़ी से हुआ है जो समुद्र तल से 616 मीटर ऊँची है। इसी नदी को चर्मण्वती भी कहा जाता है। यह महू के निकट से निकलकर धार, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर, शिवपुर, बूंदी, कोटा, धौलपुर होती हुई इटावा से 38 किलोमीटर दूर 1040 किलोमीटर की अपनी जीवन यात्रा पूरी करके यमुना में विसर्जित हो जाती है।

विन्ध्य क्रम की चट्टानों का निर्माण कुदप्पा चट्टानों के बाद हुआ है। इस प्रकार की चट्टानों के क्षेत्र में चम्बल तथा सोनघाटी क्षेत्र कहलाते हैं। मालवा का पठार जो त्रिभुजाकार है, अरावली की पहाड़ियों के दक्षिण में व यमुना आदि नदियों तथा विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी के मध्य फैला हुआ है। बेतवा, काली, सिंध, चम्बल और माही इस प्रदेश से प्रवाहित होने वाली प्रमुख सरिताएँ हैं। चम्बल और उसकी सहायक नदियों ने यहां प्रवेश कर भयानक बीहड़ों को जन्म दिया है। कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि दामोदर, स्वर्णरेखा, चम्बल तथा बनास नदियाँ अध्यारोपित जल अपवाह का निर्माण करती हैं। विन्ध्य पर्वतों के क्षेत्र में आयताकार अपवाह का स्वरूप भी प्राप्त होता हैं। चम्बल और उसकी सहायक नदियों की मिट्टी जलोढ़ है। चम्बल का भाग ऊबड़-खाबड़ है जिसकी समुद्र तल से ऊँचाई 300 से 500 मीटर के बीच पाई जाती है। लेकिन इसके उत्तरी एवं उत्तरी-पूर्वी भाग समतल मैदान हैं। जिनकी ऊँचाई 150 से 300 मीटर के बीच है। इस पठार का सामान्य ढाल दक्षिण व दक्षिण-पश्चिम से उत्तर की ओर है।

चम्बल के अन्तर्गत भिण्ड, मुरैना, ग्वालियर, गुना शिवपुरी एवं मंदसौर जिलों के भाग आते हैं। भाग का कुल क्षेत्रफल 32896 वर्ग किलोमीटर है, जो मध्यप्रदेश के पूरे भौगोलिक क्षेत्रफल का 7.5 प्रतिशत है। इस पठारी भाग के पूर्व में बुन्देलखण्ड का पठार, पश्चिम में राजस्थान की उच्च भूमि, उत्तर में यमुना का मैदान और दक्षिण में मालवा का पठार स्थित है।

यह उत्तर पूर्व की ओर बहने वाली नदियों में प्रमुख है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ सिन्ध, क्षिप्रा, पार्वती और बनास हैं। इसकी सहायक नदी क्षिप्रा का शाब्दिक अर्थ होता तीव्रगति। जिसका उद्गम मालवा के इन्दौर जिले के ‘काकरी वरड़ी’ नामक पहाड़ी से हुआ है। चम्बल नदी कोटा सम्भाग में भैंसरोडगढ़ के पास 18 मीटर ऊँचाई से जल चूलिया झरने में गिरती है, इस नदी में बाढ़ों की बहुतायत है। बाढ़ के समय यह अपने धरातल से 130 मीटर उँचाई तक बहने लगती है। इस नदी की लम्बाई 195 किलोमीटर है।

चम्बल नदी पर लुप्त प्रायः वन्य प्राणी घड़ियाल के संरक्षण के उद्देश्य से चम्बल राष्ट्रीय घड़ियाल अभ्यारण्य की स्थापना मुरैना में की गई है। जो 3902 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैला हुआ है। जो मध्य प्रदेश के 23 अभ्यारण्यों में से एक है। इसमें घड़ियाल के अतिरिक्त मगर, कछुआ, डालफिन एवं अन्य प्रजातियों के जलचर पाये जाते हैं। घड़ियाल संरक्षण के प्रदेश में अन्य दो और अभ्यारण्य सोन घड़ियाल-अभ्यारण्य सीधी एवं केन घड़ियाल अभ्यारण्य-छतरपुर में भी है।

चम्बल नदी सर्वाधिक मृदा अपरदन खासतौर से अवनालिका अपरदन का कार्य करती है। जिससे बीहड़ों का निर्माण हुआ है। बीहड़ों की मिट्टी भुरभुरी होने का कारण प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में एवं नदी के बहाव से कटाव के कारण यह क्षेत्र वन विहीन है।

चम्बल की सहायक नदियाँ


कुनू चम्बल की सहायक नदी है। जिसका उद्गम शिवपुरी का पठार है। इस नदी की लम्बाई 180 किलोमीटर है। इसका प्रमुख अवरोधक मुरैना पठार है। यह संकरी गहरी घाटी में प्रवाहित होती है। और अन्त में चम्बल नदी में विसर्जित हो जाती है। श्योपुर जिले के वीरपुर के निकट ‘कूनो साइफन’ बनाया गया है। इसके समीपवर्ती क्षेत्र में कूनों-पालपुर नामक एक अभ्यारण्य भी है, जो 345 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ बाघ, तेंदुआ, सांभर और चीतल आदि वन्य प्राणी पाये जाते हैं। एक शोध के आधार पर गुजरात के गीर क्षेत्र में पाये जाने वाले सिंह यहाँ के वातावरण में रह सकते हैं।

काली सिंध


इसका उद्गम स्थल विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी देवास का बागली गाँव है। काली सिंध भी चम्बल की एक सहायक नदी है। यह नदी अपने उद्गम से निकलकर शाजापुर और नरसिंहगढ़ जिलों में बहकर राजस्थान से चम्बल नदी में विसर्जित हो जाती है। यह अपनी जीवन यात्रा के पड़ावों में शिवपुरी, दतिया और भिण्ड होती हुई उत्तरप्रदेश में चम्बल नदी में अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है।

क्षिप्रा


क्षिप्रा का शाब्दिक अर्थ होता है तीव्र गति। स्कंद पुराण के अनुसार यह नदी साक्षात् कामधेनु से प्रकट हुई है। बैकुण्ठ लोक से उत्पन्न होकर क्षिप्रा नदी तीनों लोकों में विख्यात है। भगवान वाराह के हृदय से यह सनातन नदी प्रकट हुई है। बैकुण्ठ में इसका नाम-क्षिप्रा, देवलोक में-ज्वरघ्नि, यमद्वार में- पापघ्नि, पाताल में-अमृत सम्भवा, वाराह कल्प में-विष्णु देहा आदि नामों से यह नदी विख्यात थी और वर्तमान में अवन्तिपुरी में-क्षिप्रा के नाम से जानी जाती है। क्षिप्रा चम्बल की एक प्रमुख सहायक नदी है जिसका उद्गम मालवा के इन्दौर जिले के ‘काकरी वरडी’ नामक पहाड़ी से हुआ है। इस नदी की लम्बाई 195 किलोमीटर है। यह नदी इन्दौर से उद्गमित होकर देवास और उज्जैन जिलों में बहती हुई अन्त में चम्बल नदी में मिल जाती है। क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व है। यह भारत की सात पवित्र नदियों में से एक मानी गयी है। क्षिप्रा के तट पर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर है। क्षिप्रा नदी के तट पर बसे उज्जैन नगर के विभिन्न कल्पों में नाम इस प्रकार थे- प्रथम कल्प में- स्वर्णश्रृंगा (कनकश्रृंगा), द्वितीय कल्प में-कुश स्थली, तृतीय कल्प में-अवन्तिका, चतुर्थ कल्प में- अमरावती, पंचम् कल्प में चूड़मणि, षष्ठम् कल्प में-पद्मावती और सप्तम कल्प में उज्जयिनी।

साधारण मनुष्यों और असाधारण मनुष्यों की दुनिया के मेल का ऐसा मेला कहीं देखने को नही मिलता है। एक लघु भारत को समेटे हमारी प्राचीन परम्परा, अद्भुत संस्कृति, समृद्ध संस्कार और धार्मिक विरासत के प्रतिनिधि पर्व के रूप में विख्यात है सिंहस्थ। सिंहस्थ क्यों मनाया जाता है? इसे लेकर अनेक कथाएँ हैं लेकिन सबसे अधिक प्रामाणिक कथा समुद्र मंथन की है। जिसका विस्तार इस प्रकार है। पौराणिक कथा है कि देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया और अमृत कलश प्राप्त किया। अमृत को दानवों से बचाने के लिए देवताओं ने इसकी रक्षा का दायित्व बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि को सौंपा। देवताओं के प्रमुख इन्द्र पुत्र जयन्त वह अमृत कलश लेकर भागे। दानव इस चाल को समझ गये। इस कारण देवताओं और दानवों में भयंकर संग्राम छिड़ गया यह बारह दिन चला। (देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है) अर्थात् युद्ध बारह वर्षों तक चला। इस युद्ध में अमृत कलश की बूँदें छलक पड़ीं और धरती पर हरिद्वार, प्रयाग (इलाहाबाद), नासिक और उज्जयिनी (उज्जैन) में गिरीं। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्र के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं ग्रहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुम्भ पर्व मनाने की परम्परा है। मान्यता यह है कि अमृत कलश से छलकी बूँदों से इन चार स्थानों की नदियाँ गंगा, यमुना, गोदावरी और क्षिप्रा अमृतमय हो गईं। अमृत बूँदें छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति विशिष्ट योग के अवसर पर रहती है, वहाँ कुम्भ पर्व इन राशियों में ग्रहों के संयोग होने पर होते हैं।

इस महापर्व में स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। हजारों स्नान कार्तिक मास में तथा सैकड़ों स्नान माघ मास में किये हों, वैशाख मास में करोंड़ों बार नर्मदा में स्नान किये हों, वही फल एक बार कुम्भ में स्नान करने से मिलता है। हजारों अश्वमेघ यज्ञ, सैकड़ों बाजपेय यज्ञ करने तथा लाखों लाख प्रदक्षिणा पृथ्वी की करने पर जो फल मिलता है, वही फल कुम्भ पर्व में स्नान करने से मिलता है।

मोक्षदायिनी क्षिप्रा का स्कंद पुराण में बड़ा महत्व बताया गया है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया गया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखाते हुए नदी के रूप में प्रवाहित है। ऐसी भी कथा वर्णित है कि विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से वह नदी के रूप में प्रवाहित हुई।

चम्बल की दूसरी सहायक नदी पार्वती है जिसका उद्गम सिहोर से होता है। यह अपने जीवन काल में 37 किलोमीटर लम्बी यात्रा करती है। मध्य भारत पठार पर यह नदी केवल चाचोरा तथा गुना तहसीलों की सीमा पर बहती है। अन्त में यह चम्बल में समाहित हो जाती है।
 

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