छत्तीसगढ़ में एक यात्री कवि

एक
बागबाहरा की उस
रात में
चाँद नाखूनी था
तारों के बीच बस
शुक्र हंसमुख

बागबाहरा के
घर को जब छोड़ रहा था
माँ थी कर्मठ वहाँ
पिता ने दिखाये थे
स्वर्णा, मासूरी और महामाया धान के
खेत
भाइयों ने
अंतरंगता की
एक फिल्म छोड़ दी थी
दिल-दिमाग में मेरे

मैं उसी घर को
भीतर बसाये हुए
पूछ रहा था कवि रजत कृष्ण से
रात-दिन का
भूगोल बागबाहरा का

रात के सन्नाटे में कहीं
घर की गहमा-गहमी की
कहानी
दिल के पर्दे पर
दौड़ रही थी

ड्राइवर बैठ गया था
मारुति वेन की
अपनी सीट पर

मैं
रात-दिन के बीच
अंधकार की उस
महानदी को
कभी दुर्ग की
इस्पात नगरी की जातीय सभ्यता में
खोज रहा था
कभी धमतरी के
उन ठिगने घरों में दस्तक सुन रहा था
कभी अंधकार की उस
अविस्मरणीय यात्रा में
बागबाहरा लौट आता था

दो
उस दिन रात भर
जीप दौड़ रही थी
और मैं मित्रों की
प्रश्नावली का उत्तर खोज रहा था
अंधेरे ने

अंधकार के बाद आज
अभी चावल मिल में
मजूर खैनी मल रहे हैं
हथेली पर
दुर्ग की बैठक के बाद
मैं एक घर में सुनता था
एक आत्मीय राग
और दूसरे घर की
चाय पीते हुए
माँ की आँखों में झांक आता था
तीसरे घर में, दस्तक देते हुए
सोच रहे थे मारुति वेन के साथी
कहां चले गये हैं पाल भाई
तभी छत से नजर आई थी
एक आकृति
फिर गृहिणी सजा रही थी
प्लेटों में
ताजे पकवान
इसी तरह चौथे या पांचवें
घरों की प्रदक्षिणा करते हुए
सामने नजर आया था
सिलसिलेवार बगियों का
एक रंगारंग घर
क्या यह घर
मोहन राकेश की रचना-प्रक्रिया का
घर है
नाश्ता करते हुए
मैं सुन रहा था
ठहाका मोहन राकेश का
गर्मागर्म पकोड़ियां खाते हुए
मैंने सरोज प्रकाश से पूछा था
‘कौन-सा अंधेरा बंद कमरा' था
मोहन राकेश के एकांत में
कौन-से 'घर' में खोज रहा था
कथाकार अपना आधा-अधूरापन
कहां से शुरू किया था नाटककार ने
'आषाढ़ का पहला दिन'
मेरे भीतर जो अनकहे सवाल थे
उनको अपनी हंसी के आईने में
टटोल रही थीं सरोज प्रकाश
प्रकाश और सरोज के साथ
बनारस और दुर्ग के
आईनों में चल रहा था
मोहन राकेश
मैं जितना भीतर था मुखर
मारुति वेन में
उतने ही चुप्पा थे टीकाधारी जन

तीन
रजत कृष्ण
खामोशी से बुन रहा था
उस नदी को
जो दूर तक
आधी पत्थरों से जड़ी थी
और आधे में था
वेगवान झरना
झरने के पास घना जंगल था
तेंदू, चार, शीशम, सागौन
बीजा और महुआ का
नहीं कभी गोपाल बाबू
तोड़ा करते थे तेंदूपत्ते
सारे दिन जंगल में तोड़ते थे
गांव के आदमी और औरतें
बेचकर सेठ को उसे
पाते थे मात्र चालीस पैसे
दिनभर की गाढ़ी कमाई
गांठ में बांध लिया करते थे उदास
उस दिन मेरे सामने बैठे थे
पैंसठ साल के गोपाल बाबू
हड़र और तेंदूपत्ते की कहानी सुना रहे थे मुझे
झुर्रियों से भरा था उनका चेहरा
बस, आंखों में बीते घने जंगल की छांह थी

मां ने तभी मुझे
अपनी बगिया का मीठा सीताफल दिया था
मैंने बागबाहरा में उसी दिन
शरीफे का नया नाम सुना था - सीताफल

मीठे शब्द-से थे, सीताफल के दाने
गांव के एक-एक शब्द
होते हैं मीठे
मुझ शहरी को घूर रहे थे
मीठे शब्द
मारुति वेन के ड्राइवर रामसिंह-सा
फिर भी मैं चौंकन्ना था
हर यात्री - शब्द के साथ
एक-एक शब्द के आईने में
बसा था रामसिंह का घर
और गोपाल बाबू का जंगल

मैंने पूछा था : कितने समय तक
कूटते रहे थे हड़र के फल
कितने समय तक
तोड़ते रहे थे तेंदूपत्ते
पोर-पोर पर गिने थे दिन-रात
गोपाल बाबू ने
और आजाद देश के खतरनाक
पैंसठ साल गुजर गये थे
मेरे सामने से
क्या खाली सड़क-से हैं आज
गोपाल बाबू
कौन देगा उत्तर

चार
रायपुर से तभी
संजीव बख्शी ने फोन पर कहा था
मुझसे : ‘आना है आपको यहां’
दिल्ली मेरा शहर है
जहां चापलूसों की नई शैली बन रही है
बस्तर में कभी
संजीव बख्शी खोजा करते थे
नई-नई शैलियों का इंसानी प्रेम
और विवाह
उस दिन वह कविता सुना रहे थे
आदिम विवाह की
अपनी बगिया के नये-नये
लीली के फूलों से मैं पूछ रहा था
‘जाओगे रायपुर'
लीली का उजला फूल
बिना थके
मुझे बता रहा था : 'जाओगे तभी तो
देख पाओगे एक नई दुनिया
वहां की दुनिया तुम्हारे लिये खुलेगी
वह होगी हंसी-खुशी की अपनी दुनिया'


कुछ दिन बिताकर
देख आये थे बस्तर के सीधे, पर
खरे आदिवासियों को, संजीव बख्शी
मैं उनके साथ-पहुंच गया था बस्तर
वहां घने जंगल के बावजूद
पेड़ हरे हुए थे
चौड़ाई के बावजूद सड़के थकी हुई थीं
खुली हवा के बावजूद
चेहरे मुरझाये हुए थे गोपाल बाबू-से

पांच
जब दुर्ग की
मिलन-गोष्ठी के बाद
रायपुर आया था
और वहां 'गेस्ट हाउस' के
कमरा नंबर 3 में बैठकर
महानदी से बस्तर तक घूमता रहा था
केवल जगदलपुर की
एक रंगारंग फूलों की बगिया से तभी
विजय सिंह और सरिता सिंह की
याद आई थी
याद आये थे
महाप्रभु वल्लभाचार्य आरंग में
चम्पारण्य से आरंग तक
25 किलोमीटर में कभी
‘भक्तजाल’ की एक बस्ती बसा दी थी
वल्लभाचार्य ने
मैं सोच रहा था
सीताफल के मीठे दानों-सा था
क्या भक्तिरस
रायपुर में जब मैं
भक्तिरस की प्रदक्षिणा रहा था
गेस्ट हाउस का बावर्ची
मुझे मीठी और स्वादिष्ट
रोटी-सब्जी खिला रहा था
मुझे तराशी हुई दाढ़ी में वह
वल्लभाचार्य लगा था
मैंने पूछना चाहा था : क्या कभी चम्पारण्य में घूमे हो

छह
तभी बावर्ची को खोजते हुए
एक शराब-अधिकारी आ गया था
बस्तर में जहरीली शराब पीकर
तभी मरी हुई औरतों
और आदमियों की खबर पढ़ रहा था मैं
खबर नहीं
वह शराब का अधिकारी
हकीकत में हिसाब लगा रहा था
हमारी हंसी और हमारी कविता का
संजीव बख्शी जरूर खुश थे
गेस्ट हाउस के कमरा नंबर 3 में
मैंने चंद कवि-मित्रों को सुनाई थी
‘हावड़ा’ मैं कविता

सात
पर सचमुच याद करते हुए मैं
आत्मालाप के कवि
विनोद कुमार शुक्ल के घर पहुंच गया था
मुख्य सड़क से हटकर
एक घर है
जहां शुक्ला और शुक्लाइन रहा करते हैं
कभी
'नौकर की कमीज' भी यहीं नजर आती थी
अब सिर्फ ‘दीवार में एक खिड़की' है
और उसी खिड़की पर
आत्मालाप के कवि विनोद कुमार शुक्ल
नजर आ रहे हैं फिलहाल

पके हैं बाल
और नीची आंखों से वह
खोज रहे हैं कविताछत्तीसगढ़ की
राजधानी है रायपुर
रायपुर तस्करों और उठाईगीरों में
दिल्ली से जरा-सी पीछे है
नौकरशाह अभी भी यहां का
जरा-सा इंसान है
अभी भी गोपाल बाबू
और रजत कृष्ण की तस्वीरें उनके पास हैं

मैंने जब दीवार की खिड़की खोली थी
विनोद कुमार शुक्ल का कवि
तर्क को काट या उसकी सीवन को
उधेड़ रहा था सन्नाटे में
सन्नाटे में था उसका इंजीनियर बेटा
बेकारी का दर्द पीते हुए
या युवा बेकारों का व्याकरण साधते हुए
सन्नाटे में थी विनोद कुमार शुक्ल की
पत्नी
चाय के प्याले खोजती या धोती हुई
मैंने दीवारों से घिरे
इसी घर में देखा कवि को
और भीतर ही भीतर पूछा शुक्लाइन से
‘कब रहते हैं कवि विनोद कुमार शुक्ल घर में’
और रायपुर की अपराध की
दीवार में घिर जाने पर
कब वह खोलते हैं खिड़की
मैंने भीतर सहेजकर रख लिये थे
अपने सवाल
क्योंकि अभी घर की दीवार भी
तनाव में कसी हुई थी
और शुक्लाइन मुझे देख रही थी
और न खोज रही थी
कविता का अतिरिक्त बोध

कभी जबलपुर में
ललित जी ने
तनाव से भरे कवि मुक्तिबोध की
ढेर सारी तस्वीरें खींची थीं
कैमरे की अपनी आंखों से खींची
विनोद कुमार शुक्ल की
आज की तस्वीरों को मैं
बेतरतीब रख रहा हूं यहां-वहां
हां, शांता मुक्तिबोध की तरह
यहां भी घर की शुक्लाइन
न मुझे देख रही थी
न खोज रही थी कवि को
वह चाय बना रही थी
और घर-बाहर के अंधकार को
बेचने के लिये
दीये में बाती रखती जा रही थी

जब मैं कार पर बैठ गया था
बगीचे के छोटे या ठिगने पेड़
दीये की रौशनी में
चुपचाप चमक उठे थे
और शायद बिना कहे
शुक्लाइन सोच रही थी
‘कवि कैसे रहता है घर में’
आठ
कल मैं खेतों से
घूमकर लौटा था
और कवि रजत कृष्ण को
उसके माई शैलेश ने नहलाकर
कुर्सी पर बैठा दिया था

रजत की भांजी मधु
रख गई थी पकौड़े और चाय
कवि रजत कृष्ण
कभी ड्राइवर रामसिंह से
मारुति वेन का हिसाब लिख रहा था
कभी दूसरे ड्राइवर लक्ष्मीनारायण से
रायपुर की बातें सुन रहा था
कभी पिता जोहनराम साहू के
आये हुए फोन का ब्यौरा लिख रहा था
कभी पिता की दिनचर्या मुझे बता रहा था
कभी मां सावित्री साहू को
कोड़ी हुई नर्म मिट्टी की तरह
याद कर रहा था
कभी बता रहा था फोन पर
विजय सिंह को 'सूत्र' की ढेर सारी बातें
पास की कुर्सी पर बैठे थे
बड़े भाई मोहित कुमार साहू
सिर्फ चकरघिन्नी-सा
छोटा भाई शैलेश साहू घूम रहा था
आंगन और कमरों में
मेरे सामने की कुर्सी पर
बैठे थे सजीव मूर्ति-से गोपाल बाबू
तब उनकी उंगलियां
तेंदूपत्तों को याद कर रही थीं

नौ
सुबह-सुबह मैं
रायपुर में अकेले घूम रहा हूं
सतर्क है डेयरी से दूध लेती औरतें
स्कूल की चुस्त पोशाक में
बच्चे बस या रिक्शे का इंतजार कर रहे हैं
और मैं रायपुर की एक लंबी सड़क
छोड़ आया हुं पीछे
दरवाजे पर नजर आये हैं तभी
संजीव बख्शी
मैंने देखी चश्मे में चकमती आंखें उनकी
तभी मुझे उस 'तितली' की याद आई
जो संजीव बख्शी के घर में
थोड़ी उदास है
तभी बख्शीयाइन ने थाली में
गरमागरम रोटी और सब्जी और फल
रख दिये हैं
और देख रही है बस्तर की दस्तकारी
(तभी दिल्ली के वसुन्धरा एंक्लेव के
भूतपूर्व नौकरशाहों की कला
और नृत्य की दुनिया मुझे याद आ गई थी)
तभी रजिस्टर लिये हुए
आया बावर्ची
(या चंपारण्य से लौट आये महाप्रभु वल्लभाचार्य)
मैंने तराशी हुई सईद की दाढ़ी से
मिलान की उसके चेहरेशुदा दाढ़ी की
दोनों की दाढ़ी तराशी हुई थी
सिर्फ मेरी दाढ़ी के बाल
कभी कान की एक खिड़की खोल रहे थे
और याद दिला रहे थे
सईद सादतपुर में है
और तुम रायपुर के 'गेस्ट हाउस' के
कमरा नंबर 3 के
चंदरोजा मेहमान हो
फिर मैंने खुद को झकझोरा
और दुर्ग से बागबाहरा होते हुए
नाप आया तीन डग
मेरा एक डग था शहरी कवि का
मेरा दूसरा डग था
बदलती हुई सभ्यता की सरगर्मी का
मेरा तीसरा डग था
इंसानी मंजर का
गेस्ट हाउस के कमरा नंबर 3 में
था दर्ज मेरा वजूद
रजिस्टर के एक खाने में था
मेरा पता (या सईद के सादतपुर का नक्शा)
तीसरे खाने में था
वक्त की धड़कन (या यात्रा का बोध)
यानी मेरी औकात

दस
न मैं अफसर या तस्कर था बड़ा
न मेरे कवि या इंसान की
आजाद देश में
करोड़पति सांसदों या चंदन तस्कर-सी
कोई औकात थी
फिर भी मैं
रजत कृष्ण से विनोद कुमार शुक्ल तक
रजिस्टर के एक से दूसरे
और दूसरे से तीसरे खानों में
एक बुलंद कवि-सा उपस्थित था
मेरी बुलंदी में
शरीक थी नई पीढ़ी

क्या रायपुर में
ज्यादातर इंसानों के दांत
दुखा करते हैं
मैं सड़क पर
डॉक्टरों के साइनबोर्ड पढ़ते हुए
यही सोच रहा था
मेरी सोच में थी डूबते मध्यवर्ग की कथा
यानी मोहन राकेश के साहित्य के आईने की
रचना-प्रक्रिया
न थी आधी-अधूरी इसी वक्त की
विकल्पहीन कविता
चौड़े अपने टेबुल पर बैठकर
कवि रजत कृष्ण उलट रहा था
मेरी कविता की पुस्तकें
फिर भी बागबाहरा की सड़क होगी
मित्रों-सी आत्मीय
फिर भी इत्मीनान से अपनी व्हीलचेयर की
स्वचालित गाड़ी चला रहा था कवि
फिर भी वह बाजार
मेरी कविता की पहुंच का बाजार था

बस, महावीर अग्रवाल
सजे हुए ड्राइंग रूम में सन्नाटा बुन रहे थे
बस, रायपुर की साझा संस्कृति में
एक बहू
गुलाब की जड़ पर चूने की एक परत-सी
थी उदास
वह आने वाले कल के रायपुर की
एक तस्वीर होगी
'सापेक्ष' के 'कबीर अंक' के पन्ने पलटते हुए
महावीर अग्रवाल भरोसा दिला रहे थे
पत्नी को : होगा बहुलतावादी
यही देश अपना
होगी साझा संस्कृति की
गुजर-बसर यहीं
अभी 'मीर' की तरह
पराये घर में
रहती है खामखाह खुश बहू-बेटी
या गालिब-सी नाखुश
एक लड़की खनखनाते सिस्कों-सी हंसी में
याद आ रही है
याद आ रही है सांझ की एक पेंटिंग
उसके भीतर
याद आ रही रात भर उसकी
डायरी के लड़ते हुए हुरूफ
क्या रजत कृष्ण
तुम्हें उस लड़की का नाम याद है

ग्यारह
तीन बज रहा है
मुझे रायपुर का यह 3 नंबर कमरा
छोड़ देना है
फिर भी विजय सिंह
दंतेवाड़ा का सूत्र है
छोड़ दिया था तब वहां मैंने
संजीव, एकांत, नासिर, सरिता,
शरद, वसंत, संजय, उत्तम
भास्कर, नंदन, सूरज
और रजनीश की
उत्साह भरी नयी पीढ़ी को
सभी अपनी-अपनी जनपदीय
संस्कृति के सूत्रधार थे
सभी की बतकही का खुला आसमान था
दंतेवाड़ा में

अब छोड़ रहा हूं
सरिता
सरकारी अफसरों का गेस्ट हाउस
तीन बजे ठीक
संजीव बख्शी अपनी कविता में
खोजेंगे एक अपनी तितली
चार बजे रायपुर स्टेशन से
एक ट्रेन गुजर जायेगी
(और मैं
गलत ट्रेन पर बैठ जाऊंगा
और यात्रा की अपनी आरक्षित सीट पर
उलझ पड़ूंगा, बेवजह)

ठीक चार बजे
हड़बड़ी में मैं चढ़ गया था
या चढ़ा दिया गया था
छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस में
भूल सुधारने के बाद पहुंचा था दुर्ग
फिर ठेठ बनारसी रंग में
पिलाई थी कॉफी प्रकाश ने
फिर मैं 8 से 13 सितंबर तक की
रंगारंग फिल्म में
खोज रहा था अपने कवि को
फिर याद का रहा था
रात के नाखूनी चांद को
फिर कालिदास ने
बैठा दिया था चांद की गोद में
नवजात शुक्र को
फिर रजत कृष्ण के पास सुन रहा था
खनखनाती उस लड़की की हंसी

फिलहाल गेस्ट हाउस का बावर्ची
या सादतपुर का सईद या चम्पारण्य का
महाप्रभु वल्लभाचार्य
या आत्मालाप का कवि
खोल गया था
मेरी अलिखित डायरी के पन्ने
फिलहाल वह
मेरे भीतर आ गये चंदरोजा साहब
के लिये रख गया है
केला और सेब
मैं देख रहा हूं
सरोज प्रकाश के सलीके से
संवरे व्यक्तित्व को
और पूछ रहा हूं रजत कृष्ण से
आज के ताजातरीन कवि रहते हैं
किस जनपद में
विजय सिंह के पीछे
सरिता सिंह हंस रही है
और प्रकाश की दी हुई कॉफी
लुढ़क गई है अदबदाहट में
रूमाल से रजनीश पोंछ रहा है
मेरे शहरी कवि का दाग
मैं अपने यात्री कवि से पूछ रहा हूं
कहीं है क्या
ताजा कविता
ट्रेन पर रख दिया है
रजनीश ने मेरा सामान
खिड़की से मुझे
देख रही है सरोज प्रकाश
और बता रही है
थैली में बंद पकवानों का पता
भिलाई के अपने अनुभव को
याद कर रहे हैं प्रकाश
और सोच रहा हूं मैं
'मलबे के आदमी' के साथ
आज भी जुड़ी होगी
मोहन राकेश की एक कहानी
या उसकी मध्यवर्ग की 'डायरी'
या होगी विनोद कुमार शुक्ल की
रात-दिन की बेचैनी
या तलाकशुदा औरतें
देख रही होंगीजखीरों में बंद या ठहरे हुए
मोहन राकेश के इंसान को
मैं एकांत को खोजता रहा
यहां-वहां
छत्तीसगढ़ में
होगा नौ-दस के बाद
संजीव बख्शी का
रायपुर में नाश्ता
होगा गोपाल बाबू के झुर्रीदार
चेहरे पर
जंगली सूज से वास्ता
होगा शाम को
कवियों का रंगारंग
जलसा
होगा कुछ न कुछ
छत्तीसगढ़ के सूत्राधार में
होगा, जरूर होगा
सरिता
वक्त के बीचों-बीच
कविता का
एक सजीव संग्रहालय
बेहद अपना

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