छत्तीसगढ़ प्रदेश में औद्योगिक विकास और उसका पर्यावरण पर प्रभाव (Industrial development and its impact on environment in the Chhattisgarh region)

प्रस्तावना


औद्योगिक विकास तथा पर्यावरण प्रदूषण में सीधा सम्बन्ध है। औद्योगिक प्रदूषण में जल, वायु तथा मृदा प्रदूषण विशेष उल्लेखनीय हैं। औद्योगिक नगरों में प्रदूषण संक्रामक रोगों का आधार बनता जा रहा है। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली विषैली गैसें, अपशिष्ट पदार्थ एवं प्रदूषित जल, मृदा, वायु एवं जल को मानवीय जीवन की आवश्यकताओं के लिये अनुपयुक्त बनाते जा रहे हैं, जिनका दुष्प्रभाव मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ता है। औद्योगिक विकास की भूमिका राष्ट्रीय विकास में महत्त्वपूर्ण निर्णायक तत्व है। इसके माध्यम से मुख्यतः संरचनात्मक विविधता, आधुनिकता तथा स्वनिर्भरता के उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव होती है। वर्तमान औद्योगिक युग में विश्व का प्रत्येक विकसित एवं विकासशील राष्ट्र अपना अधिकाधिक औद्योगीकरण करने हेतु प्रयत्नशील है। औद्योगिक विकास आर्थिक विकास का एक मुख्य अंग है, जिसका उद्देश्य उत्पादन के साधनों की कुशलता में वृद्धि द्वारा जीवन स्तर को ऊँचा उठाना है। औद्योगिक विकास के बिना ना तो किसी राष्ट्र के वासियों का जीवन स्तर ऊँचा उठ सकता है और न ही ऐसा राष्ट्र अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका का सन्तुलित निर्वाह कर सकता है। इस प्रकार औद्योगिक विकास एक युग धर्म बन चुका है।

नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य, जो खनिज संसाधन सम्पन्न राज्य है, में औद्योगीकरण की यह प्रक्रिया आगे बढ़ रही है। उद्योग धंधों का दिनोंदिन विस्तार हो रहा है तथा प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित उद्योगों से खनिज आधारित उद्योगों की ओर उन्मुख हो रही है। प्रदेश में फैली अनन्त भूगर्भ सम्पदा आर्थिक कायाकल्प एवं सामाजिक आर्थिक विकास का एक प्रमुख साधन है। क्षेत्र विशेष की आर्थिक प्रगति उस क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक स्रोतों के पूर्ण दोहन पर निर्भर करती है। कृषि प्रधान एवं आदिवासी बाहुल्य इस क्षेत्र में लौह, खनिज, चूना-पत्थर एवं कोयले के विशाल भण्डार उपलब्ध हैं। खनिज एवं वनोपज सम्पदा से सम्पन्न इस प्रदेश में औद्योगिक विकास की अपार सम्भावनाएँ विद्यमान हैं।

औद्योगिक विकास तथा पर्यावरण प्रदूषण में सीधा सम्बन्ध है। औद्योगिक प्रदूषण में जल, वायु तथा मृदा प्रदूषण विशेष उल्लेखनीय हैं। औद्योगिक नगरों में प्रदूषण संक्रामक रोगों का आधार बनता जा रहा है। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली विषैली गैसें, अपशिष्ट पदार्थ एवं प्रदूषित जल, मृदा, वायु एवं जल को मानवीय जीवन की आवश्यकताओं के लिये अनुपयुक्त बनाते जा रहे हैं, जिनका दुष्प्रभाव मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ता है। कारखानों तथा ताप विद्युत इकाइयों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस वायुमण्डल के तापमान को बढ़ाती जा रही है, जो जैव जगत के लिये संकट की सूचना है।

उद्देश्य :-


प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के उद्देश्य निम्नांकित हैंः

1. प्रदेश के औद्योगिक संसाधनों का मूल्यांकन करना,
2. अवस्थापनात्मक सुविधाओं की उपलब्धता का विश्लेषण करना,
3. प्रदेश में औद्योगिक विकास प्रक्रिया का विश्लेषण करना,
4. औद्योगिक विकास के अवरोधात्मक तत्वों की विवेचना करना,
5. औद्योगिक विकास के स्थानिक प्रतिरूप की व्याख्या करना,
6. औद्योगिक क्रियाकलाप के पर्यावरण पर प्रभावों की विवेचना करना, तथा
7. ऐसी औद्योगिक प्रणाली के विकास हेतु सुझाव प्रस्तुत करना जिसे पर्यावरण ह्रास न हो।

विधि तंत्र एवं आँकड़े


प्रस्तुत अध्ययन मुख्यतः द्वितीयक आँकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है। अध्ययन क्षेत्र में उपलब्ध खनिज, वन एवं कृषि उत्पाद संसाधनों के आँकड़े तथा उद्योगों के अध्ययन हेतु शासकीय उद्योग विभाग के अतिरिक्त विभिन्न औद्योगिक इकाइयों से आँकड़े संग्रहित किये गए हैं। पर्यावरण पर दुष्प्रभाव को ज्ञात करने हेतु विभिन्न स्रोतों, जैसे मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मण्डल तथा औद्योगिक इकाइयों से आँकड़े संग्रहित किये गए हैं। संग्रहित आँकड़ों का विश्लेषण एवं प्रस्तुतीकरण उपयुक्त सांख्यिकीय एवं मानचित्रीय विधियों द्वारा किया गया है।

पूर्व अध्ययनों की समीक्षा :-


उद्योगों की अवधारणा का स्पष्ट स्वरूप जिम्मरमैन ने दिया। सन 1951 में प्रकाशित उनकी पुस्तक “World Resource and Industries” संसाधन तथा उद्योग की आधारभूत एवं सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। मरे (1960) ने अपनी पुस्तक “Industrial Development” में औद्योगिक विकास की अवधारणा को स्पष्ट किया है। एम.एम. मेहता (1961) ने अपनी पुस्तक ‘Structure of Indian Industries’ में भारतीय उद्योगों की संरचना को स्पष्ट किया है। पी.सी. अलेक्जेंडर (1963) ने अपनी पुस्तक ‘Industrial Estates in India’ में औद्योगिक क्षेत्रों की अवधारणा को स्पष्ट स्वरूप दिया है। इसके अतिरिक्त जॉन गिलबर्थ (1967) द्वारा लिखित ‘The New Industrial State’ में औद्योगिक क्षेत्रों से सम्बन्धित अध्ययन किया है। एम.आर. कुलकर्णी (1971) द्वारा ‘Industrial Development’ नामक पुस्तक लिखी गई। आर.सी. रैली (1973) द्वारा अपनी पुस्तक ‘Industrial Geography’ में उद्योगों से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों तथा अवस्थापनात्मक कारकों का वर्णन किया गया है। डेविड स्मिथ (1981) ने अपनी पुस्तक ‘Industrial Location An Economic Geographical Analysis’ में औद्योगिक अवस्थिति से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों का वर्णन किया है। एम.बी. सिंग (1985) द्वारा औद्योगिक विकास के सन्दर्भ में विशद अध्ययन किया गया है। उनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘Industrial Development In India: A Geographical Study’ में औद्योगिक विकास का भौगोलिक विश्लेषण किया गया है। सत्यनारायण (1989) ने अपनी पुस्तक ‘Industrial Development in Backword Regions Resource and Planning’ में पिछड़े प्रदेशों में औद्योगिक विकास के सन्दर्भ में विभिन्न पक्षों का अध्ययन किया है। हेगड़े (1993) ने अपने शोधपत्र ‘Industrial Development in Karnataka: Problems and Prospect’ में कर्नाटक के औद्योगिक विकास से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों का अध्ययन किया है। सी.के. देगानकर (1993) ने अपने शोधपत्र ‘Industrial Development in North Karnataka’ में उत्तरी कर्नाटक के औद्योगिक विकास से सम्बन्धित अध्ययन किया है। रेड्डी तथा वेनुगोपाल (1993) ने आन्ध्र प्रदेश के औद्योगिक भू-दृश्यों का अध्ययन अपने शोधपत्र ‘Industrial Landscape of Andhra Pradesh’ में किया है।

पर्यावरण अध्ययनों के अन्तर्गत रेमण्ड (1972) ने अपनी पुस्तक ‘Environmental conservation’ में पर्यावरण संरक्षण पर अध्ययन किया है। वी.के. कुमरा (1980) ने अपने शोध पत्र ‘Environmental Pollution and Human Health: A Geographical Study of Kanpur City’ में पर्यावरण प्रदूषण तथा मानव स्वास्थ्य से सम्बन्धित अध्ययन किया है। कैड़विक तथा लिंडमैन (1983) द्वारा ‘Environmental Implications of Expanded Coal Utilization’ पुस्तक लिखी गई। आर. कुमार (1987) ने अपने शोध अध्ययन ‘Environmental Pollution and Health Hazards’ में प्रदूषण तथा मानवीय स्वास्थ्य से सम्बन्धित अध्ययन किया है। एस.डी. शिन्दे (1989) ने अपने शोध अध्ययन ‘Appraisal of Some Aspects of Industrialization And Air Pollution in Grater Bombay’ में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप होने वाले वायु प्रदूषण के सन्दर्भ में मुम्बई का अध्ययन किया है। सविन्द्र सिंह (1990-91) के पर्यावरण से सम्बन्धित अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अपने शोधपत्र ‘Environmental Degradation : Causes and Correlates’ तथा ‘Environmental Hazards and Management’ में पर्यावरणीय अवनयन से सम्बन्धित विभिन्न अध्ययन किये हैं। एल. के. दधाइच (1992) ने अपने शोध अध्ययन ‘Some Problems of Atmospheric Pollution in South East Rajasthan with Special Reference to its Environment’ में प्रदूषण से सम्बन्धित अध्ययन किया है। डी.एस. रावत (1993) ने अपने शोध अध्ययन ‘Some Environmental Challenges of Industrialization in Agricultural Areas : A Case Study From the Upper Ganga Plain, India’ में औद्योगीकरण के परिणास्वरूप कृषि क्षेत्र में होने वाले पर्यावरणीय दशाओं से सम्बन्धित अध्ययन किया है। एस.के. त्रिपाठी तथा एस.एन पाण्डे (1995) द्वारा ‘Water Pollution’ नामक पुस्तक लिखी गई। एस.के. अग्रवाल (1996) ने अपनी पुस्तक ‘Industrial Environment Assessment and Strategy’ में औद्योगिक वातावरण से सम्बन्धित अध्ययन किया गया है।

अध्ययन क्षेत्रः-


भारत के मध्य पूर्व में स्थित छत्तीसगढ़ प्रदेश, मध्य प्रदेश, से विभाजित नवगठित राज्य है। प्रदेश में प्रशासनिक दृष्टि से बिलासपुर सम्भाग के 8 जिले कोरिया, सरगुजा, जशपुर, कोरबा, रायगढ़, जांजगीर चांपा, बिलासपुर तथा कवर्धा एवं रायपुर सम्भाग के 5 जिले रायपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, महासमुंद तथा धमतरी, बस्तर संभाग के 3 जिले बस्तर, कांकेर तथा दंतेवाड़ा जिले सम्मिलित हैं। अध्ययन क्षेत्र का विस्तार 17046 उत्तरी अक्षांश से 24006’ उत्तरी अक्षांश तथा 80015’ पूर्वी देशांश से 84051’ पूर्वी देशांश तक है।

औद्योगिक अवस्थिति से सम्बन्धित सिद्धान्तः-


औद्योगिक स्थानीयकरण सम्बन्धी सिद्धान्तों से अभिप्राय उन सिद्धान्तों से है, जो उद्योगों की विशेष स्थानों में केन्द्रित होने की प्रवृत्ति के कारणों को स्पष्ट करते हैं। जान ए. शुबिन द्वारा औद्योगिक स्थानीयकरण के महत्त्व को निम्नांकित शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है, “यदि उद्योगों का स्थानीयकरण विवेकपूर्ण भौगोलिक विशिष्टीकरण के अनुसार किया जाता है तो प्रत्येक प्रदेश स्थानीय मानवीय और भौतिक साधनों के अनुरूप उत्पादन कार्य में विशिष्टता प्राप्त करता है और साधनों का सबसे उत्तम उपयोग करके कम लागत पर वस्तुओं का उत्पादन करके उस प्रदेश की प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि करता है।” स्थानीयकरण का सैद्धान्तिक विवेचन सर्वप्रथम रोशर ने किया, जिसका समर्थन अमेरिका के प्रो. ई. ए. रौस ने सन 1895 में प्रकाशित “उद्योगों का स्थानीयकरण” नामक अपने लेख में किया। जर्मन अर्थशास्त्री वेबर द्वारा सर्वप्रथम औद्योगिक स्थानीयकरण के सिद्धान्त की विस्तृत तथा व्यवस्थित व्याख्या की गई। जिन्होंने न्यूनतम लागत सम्बन्धी स्थानीयकरण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। हूवर ने परिवहन लागत सम्बन्धी औद्योगिक स्थानीयकरण के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। सार्जेंट फ्लोरेन्स ने आगमन प्रणाली के आधार पर उद्योगों के स्थानीयकरण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने उत्पादन गणना तथा व्यवसाय गणना से उपलब्ध समंकों के आधार पर उद्योगों के स्थानीयकरण की प्रवृत्ति की गणना की।

औद्योगिक विकास से सम्बन्धित विभिन्न नीतियाँः-


स्वतंत्र भारत की प्रथम औद्योगिक नीति 6 अप्रैल, 1948 को घोषित की गई। इस नीति की घोषणा में राजकीय तथा निजी क्षेत्रों के अपेक्षित स्थानों का उल्लेख करते हुए यह कहा गया कि उद्योगों में सरकारी योगदान की समस्या तथा निजी उद्योगों को चलाने के लिये स्वीकृत शर्तों पर निश्चित रूप से विचार किया जाये। इस नीति के अन्तर्गत औद्योगिक विकास हेतु समस्त उद्योगों को तीन प्रमुख श्रेणियों में विभक्त किया गया। प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत रेल, डाक व तार, सुरक्षा उद्योगों का संचालन तथा परमाणु शक्ति के उत्पादन तथा नियंत्रण उद्योगों का प्रबन्धन सरकार के अधीन रखने की व्यवस्था की। द्वितीय श्रेणी में कोयला व लोहा इस्पात, वायुयान उत्पादन इत्यादि को सम्मिलित किया गया। तृतीय श्रेणी में शेष सभी उद्योगों को रखा गया, जो साधारणतः निजी क्षेत्र के लिये थे।

वर्ष 1956 की औद्योगिक नीति के अन्तर्गत आर्थिक विकास की दर में वृद्धि हेतु औद्योगीकरण को गति प्रदान करने तथा भारी मशीन निर्माण उद्योगों की स्थापना हेतु सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार आवश्यक समझा गया। 1956 की औद्योगिक नीति प्रस्ताव में राजकीय क्षेत्र का बढ़ता हुआ महत्त्व तथा निजी क्षेत्र के लिये अपेक्षित स्थान पूर्णतः स्पष्ट था।

दिसम्बर 1977 में देश के भावी औद्योगिक विकास को ध्यान में रखते हुए जनता सरकार द्वारा संसद में औद्योगिक नीति सम्बन्धी वक्तव्य प्रस्तुत किया गया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि वर्तमान समय में सार्वजनिक क्षेत्र को भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र के विशाल औद्योगिक गृहों के एक सशक्त विकल्प के रूप में अपनी जड़ें मजबूत कर चुका है, अतः अनेक क्षेत्रों में इसे और अधिक व्यापक भूमिका का निर्वाह करने का दायित्व एवं अवसर प्रदान किया जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र, सामरिक एवं आधारभूत वस्तुओं का उत्पादन करेगा ही, साथ ही अनेक आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति की स्थिति में स्थायित्व लाने में भी यह सहायक होगा।

23 जुलाई 1980 को भारत सरकार द्वारा नवीन विकासोन्मुखी औद्योगिक नीति घोषित की गई। जिसमें यह प्रस्तावित किया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र को सरकारी क्षेत्र कहने की अपेक्षा जन क्षेत्र के रूप में स्वीकार किया जाये। इस घोषणा-पत्र के शब्दानुसार “सार्वजनिक क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग है तथा अतिरिक्त साधनों के निर्माण, रोजगार के अवसरों में वृद्धि तथा तीव्र आर्थिक वृद्धि में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः सार्वजनिक क्षेत्र के कार्यकलापों में सुधार अत्यन्त आवश्यक है।” इस नीति में यह भी निश्चय किया गया कि लोक उद्योगों की कार्यकुशलता के स्तर को सुधारने का अभियान प्रारम्भ किया जाये।

24 जुलाई 1991 को पी.वी. नरसिंहराव की सरकार द्वारा देश के तीव्र गति से आर्थिक विकास करने के लिये “निजीकरण, उदारीकरण और विश्वव्यापीकरण” की नई आर्थिक नीति की योजना तैयार की गई। यह उदारीकरण की नीति का चरम बिन्दु है, जो 1970 में इन्दिरा गाँधी के समय प्रारम्भ हुआ तथा 1980 में राजीव गाँधी के कार्यकाल में इसे तीव्रता प्राप्त हुई।

उदारीकरण से आशय आर्थिक प्रतिबन्धों और नियंत्रणों में कमी करना है। पुरानी आर्थिक नीतियाँ प्रतिबन्धों और नियंत्रणों की नीति थी। नई आर्थिक नीत के अन्तर्गत औद्योगिक विकास दर को बढ़ाने हेतु उद्योगों की उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में वृद्धि करने के लिये औद्योगिक नीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गए थे, जिनमें पाँच प्रमुख परिवर्तन निम्नांकित थेः-

01. औद्योगिक लाइसेन्स की समाप्ति,
02. विदेशी पूँजी निवेश में वृद्धि,
03. सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा नियंत्रित,
04. निजी क्षेत्र को निषिद्ध क्षेत्रों में विस्तार की अनुमति,
05. रेल परिवहन सरकारी नियंत्रण में।

औद्योगिक नीति में क्रान्तिकारी एवं आधारभूत परिवर्तन करते हुए औद्योगिक लाइसेन्स की ओर तकनीकी विकास महानिदेशालय में निजीकरण की प्रणाली समाप्त कर दी गई तथा विदेशी पूँजी निवेश की सीमा 40 से बढ़ाकर 51 प्रतिशत तक कर दी गई एवं एकाधिकारात्मक प्रतिबन्धित व्यापार प्रयोग अधिनियम (MRTP ACT) के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियों को व्यापक छूट दी।

इस नीति के अन्तर्गत सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा नियंत्रित कर दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत सैनिक सुरक्षा उपकरण, परमाणु ऊर्जा, खनन तथा रेल परिवहन को ही रखा गया तथा अन्य सभी क्षेत्र निजी उद्यमियों हेतु खोले गए। इस प्रकार सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उद्योगों के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया गया।

इस नीति में निजी क्षेत्र के विस्तार को बढ़ावा दिया गया है। कम जनसंख्या वाले नगरों में किसी भी उद्योग के लिये औद्योगिक अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी। दस लाख जनसंख्या वाले नगरों के मामले में इलेक्ट्रॉनिक्स और किसी तरह के अन्य गैर प्रदूषणकारी उद्योगों को छोड़कर सभी इकाइयाँ नगर की सीमा से 20 किमी. दूर लगेंगी। क्षेत्रीय विषमताएँ कम करने के उद्देश्य से पिछड़े क्षेत्रों में लगने वाले उद्योगों को प्रोत्साहन जारी रहेगा।

नई औद्योगिक नीति के अनुसार विदेशी मुद्र नियमन अधिनियम (FERA) में संशोधन किया गया, जिसके अन्तर्गत उच्च प्राथमिकता प्राप्त उद्योगों में 51 प्रतिशत तक पूँजी निवेश की अनुमति दी जाएगी। यह सुविधा उन मामलों में ही उपलब्ध होगी, जहाँ विदेशी पूँजी निवेश उत्पादन मशीनों के लिये जरूरी होगा। इस प्रकार उदारवादी औद्योगिक नीति के अन्तर्गत निजी एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को प्रोत्साहन दिया गया है। इस नीति का उद्देश्य उद्योगों की उत्पादकता में वृद्धि कर अर्थव्यवस्था में सुधार करना है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यह नीति विदेशी पूँजी निवेश को प्रोत्साहित कर सकती है, किन्तु अधिक उत्पादन के साथ ही रोजगार में भी वृद्धि होगी यह नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त विदेशी पूँजी को अत्यधिक स्वतंत्रता देने से देश की आर्थिक स्वायत्तता को खतरा उत्पन्न हो सकता है।

छत्तीसगढ़ शासन की औद्योगिक नीतिः-


छत्तीसगढ़ राज्य गठन के दस महीनों के पश्चात छत्तीसगढ़ शासन की प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा 6 सितम्बर, 2001 को नई दिल्ली में भारतीय उद्योग महासंघ के सम्मेलन में की गई। प्रदेश की औद्योगिक नीति में यह आशा व्यक्त की गई है कि ऊर्जा तथा खनिज आधारित उद्योगों में सर्वाधिक निवेश होगा, इसका प्रमुख कारण यहाँ उपलब्ध खनिज संसाधन, अतिरिक्त बिजली की उपलब्धता, विद्युत उत्पादन की अपार सम्भावनाएँ, उत्तम भौगोलिक स्थिति, उचित दर पर भूमि एवं श्रम की उपलब्धता है। इस औद्योगिक नीति के चार प्रमुख बिन्दु निम्नांकित हैंः-

01. समूह आधारित औद्योगिक विकास (Cluster based Industrial Development)
02. बेहतर प्रशासन एवं उत्कृष्ट अधोसंरचना (Good Governance & Excellent Infrastructure)
03. लघु उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में सुधार,
04. निर्दिष्ट प्रोत्साहन अथवा सुविधाएँ।

1. समूह आधारित औद्योगिक विकासः-


समूह आधारित औद्योगिक विकास हेतु राज्य शासन ने निम्नानुसार थ्रस्ट सेक्टर की पहचान की है-

अ. कृषि, वन एवं खाद्य पर आधारित उद्योगः-


1. कृषि पर आधारित इकाइयाँ
2. पशुधन, पशुधन आधारित उत्पाद,
3. फूलों की खेती,
4. मत्स्य पालन,
5. वनोपज आधारित प्रसंस्करण इकाइयाँ,
6. औषधीय/जड़ी बूटी आधारित प्रसंस्करण इकाइयाँ।

ब. खनिज पर आधारित उद्योगः-


1. लौह इस्पात तथा इन पर आधारित उद्योग,
2. सीमेंट व सीमेंट पर आधारित उद्योग,
3. एल्युमिनियम एवं एल्युमिनियम पर आधारित उद्योग,
4. कोयले पर आधारित एवं अन्य रसायन उद्योग,
5. कीमती पत्थर एवं आभूषण पर आधारित उद्योग,
6. ग्रेनाइट आधारित उद्योग।

स. परम्परागत उद्योगः-


1. हाथकरघा एवं हस्तशिल्प उद्योग।

द. उदीयमान उद्योगः-


1. सूचना एवं प्रौद्योगिकी,
2. जैव प्रौद्योगिकी।

य. अधोसंरचनात्मक उद्योगः-


1. ऊर्जा उत्पादन, प्रसारण एवं वितरण,
2. सड़कें व यातायात,
3. शहरी अधोसंरचना।

शासन के उपर्युक्त सेक्टर में समूह पर आधारित उद्योगों की योजनाबद्ध सुविधाएँ निम्नांकित हैं-

संयोजनाः- शासन के विभिन्न स्तरों में, समूहों एवं इकाइयों के बीच संयोजन एवं सामंजस्य स्थापित करना, फर्म एवं उनके बीच सहयोग एवं तकनीकी व्यापारिक संस्थानों की योजना एवं गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित करना, शासन का उद्देश्य है।

मानव संसाधन विकासः- शासन प्रत्येक क्षेत्र में मानव संसाधन की आवश्यकतानुसार योग्यता का विकास करेगा, तदनुसार अनुकूल तकनीकी प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत करेगा।

निवेश:- शासन बाह्य निवेश की ओर आकर्षित करने के लिये निजी क्षेत्रों के साथ साझेदारी और सम्बन्धित औद्योगिक संस्थाओं के साथ मिलकर कार्य करेगा।

अ. कृषि एवं वन पर आधारित उद्योग:-


सकल घरेलू उत्पादों का बड़ा भाग इन प्राथमिक उद्योगों के अन्तर्गत आता है। इस सेक्टर में कृषि उत्पादन से आरम्भ कर अन्तिम उत्पाद तक उनकी प्रोसेसिंग प्रक्रिया को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इसके अन्तर्गत ऐसी इकाइयाँ जो फलों, सब्जियों, जड़ी बूटियाँ एवं चिकित्सकीय पौधों की प्रोसेसिंग करती हैं तथा पशुधन प्रसंस्करण एवं मत्स्यपालन पर आधारित उद्योग सम्मिलित हैं। इन इकाइयों के विकास हेतु ऐसे विशेष औद्योगिक केन्द्रों का विकास करना है, जिनमें फलों, सब्जियों का अनुरक्षण, शीतगृहों का निर्माण तथा हवाई मार्ग द्वारा इनके शीघ्रतम निर्यात की व्यवस्था करने वाली इकाइयाँ सम्मिलित हो।

पड़ती भूमि एवं बिगड़े भूखण्डों को वृक्षारोपण करने के उद्देश्य से दीर्घकालीन पट्टे पर भूमि मुहैया कराना ताकि वनों पर आधारित उद्योगों को बढ़ावा मिल सके। एकीकृत कृषि आधारित उद्योग समूहों के विकास हेतु शासन ऐसी रिक्त भूमि में से 500 हेक्टेयर भूखण्ड (अपवाद स्वरूप प्रकरणों में 1000 हेक्टेयर तक भूखण्ड) का आवंटन करेगी। यह आवंटन उन कृषि आधारित इकाइयों को होगा, जो तकनीकी एवं वित्तीय दृष्टिकोण से लाभकारी परियोजनाओं पर आधारित होगी।शासन कृषि आधारित उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिये सूचना प्रौद्योगिकी केन्द्रों का निर्माण करेगा। इस कार्य में शासन सी.आई.एफ.टी.आई. (कनफिडरेशन ऑफ इण्डियन फूड एंड ट्रेड इण्डस्ट्री), सी.एफ.टी.आर.आई. (सेंट्रल फूड टेक्नोलॉजिकल रिसर्च सेंटर, मैसूर) आदि संस्थानों के साथ भागीदारी करेगा।

ग्रेडिंग, पैकिंग, वितरण एवं कोल्ड स्टोरेज जैसी मूल्य सम्बन्धित इकाइयों के वित्त पोषण के लिये शासन वित्तीय संस्थाओं के साथ समन्वयक के रूप में कार्य करेगा।

ब. खनिज आधारित उद्योग:-


खनिज संसाधनों के दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ देश का अग्रणी राज्य है, जहाँ कोयला, लोहा, बाक्साइट, सोना, हीरा, प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इस क्षेत्र में खनिज आधारित उद्योग के विकास के साथ ही इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। शासन इस क्षेत्र में निम्नांकित महत्त्वपूर्ण कदम उठाएगा:-

1. उत्खनन के नवीन तरीकों जैसे रिमोट सेन्सिंग एवं एयरो मैग्नेटिक सर्वे के माध्यम से राज्य में स्थित नवीन खनिज भण्डारों की खोज।
2. प्रदेश के सभी जिलों का सर्वे कर एक ‘स्पेशन माइनंग जोन’ की खोज करना, जिससे सुलभ तरीके से उत्खनन किया जा सके। यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि इससे पर्यावरण का कोई नुकसान ना हो। एक नोडल एजेंसी बनाई जाएगी, जो समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर सभी प्रकार के क्लीयरेन्स प्राप्त करेगी जिससे इस स्पेशल माइनिंग जोन में उत्खनन आरम्भ किया जा सके।
3. अन्य राज्य अथवा देशों की मदद से खनिज क्षेत्रों का अन्वेषण किया जाएगा।
4. शासन, खनिज आधारित उद्योगों के साथ ही साथ निम्न स्तर के खनिज अयस्कों को लाभदायक अयस्क में परिवर्तित करने वाली इकाइयों का बढ़ावा देगा।
5. लौह इस्पात, सीमेंट, एल्युमिनियम, कोयले पर आधारित, रसायन एवं ग्रेनाइट उद्योगों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।
6. रत्न एवं रत्न परिष्करण केन्द्रों की स्थापना की जाएगी।

स. परम्परागत उद्योग:-


हस्त शिल्प एवं हथकरघा पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया जाएगा। उत्पाद की गुणवत्ता एवं विपणन व्यवस्था सुदृढ़ करने हेतु कार्यरत डिजाइन सेंटर एवं निर्यात संवर्धन परिषद के माध्यम से प्रयास किये जाएँगे।

द. उदीयमान उद्योग:-


1. सूचना प्रौद्योगिकी:- सूचना प्रौद्योगिकी को उच्च प्राथमिकता दी गई है तथा छत्तीसगढ़ इन्फोटेक प्रमोशन सोसाइटी (चिप्स) नामक एक नोडल तकनीकी संस्था बनाई गई है।

योजना के प्रथम चरण में सॉफ्टवेयर तकनीकी पार्क राज्य की ज्ञान-राजधानी भिलाई में स्थापित किया जाएगा, जहाँ प्रशिक्षित मानव संसाधन उपलब्ध हैं। शासकीय प्रणालियों में सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग में निजी निवेश को प्रोत्साहन दिया जाएगा। मानव संसाधन विकास और शिक्षा के क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग को भी प्रोत्साहन दिया जाएगा।

सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग की सुविधाएँ:-


1. सॉफ्टवेयर इकाइयों को प्रदूषण निवारण नियमों से पूर्ण छूट,
2. 150 के.वी. तक के केप्टिव जनरेटिंग यूनिट्स वाली इकाइयों को विद्युत शुल्क से बिना समय सीमा के छूट,
3. आई.एस.ओ. 900 श्रेणी प्रमाणीकरण हेतु किये गए फीस पर व्यय की 50 प्रतिशत की प्रतिपूर्ति,
4. सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग हेतु स्वत्व अर्जन में स्टाम्प शुल्क के भुगतान से छूट
5. मूल्य/गुणवत्ता के मापदण्ड को सुनिश्चित करने वाली राज्य में स्थापित सूचना प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित इकाइयों को शासकीय क्रय में प्राथमिकता।
6. औद्योगिक विकास केन्द्रों में आवंटित भूमि प्रब्याजी पर 25 प्रतिशत की छूट।

2. जैव प्रौद्योगिकी:- जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग राज्य के वृहद प्राथमिक क्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए कृषि उत्पादन एवं कृषि आधारित प्रसंस्करण उद्योगों के विकास में किया जाएगा। जैव प्रौद्योगिकी के वाणिज्य तथा नवीन उत्पादों के विकास में राज्य शासन द्वारा सहायता दी जाएगी। चयनित क्षेत्रों में जैव प्रौद्योगिकी उद्योग को उत्तम गुणवत्ता की अधोसंरचना उचित मूल्य पर उपलब्ध कराएगी।

य. अधोसंरचनात्मक इकाइयों को उद्योग का दर्जा:-


नवगठित राज्य अधोसंरचनात्मक विकास के अधिकाधिक अवसर प्रदान करेगा एवं इन इकाइयों को उद्योग का दर्जा देगा।

1. ऊर्जा :-


कोयला उत्पादन में छत्तीसगढ़ देश का प्रमुख राज्य है। भविष्य में छत्तीसगढ़ ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में देश का अग्रणी होगा। इस नीति के अन्तर्गत यह महसूस किया गया है कि उद्योगों को गुणवत्ता वाली निरन्तर ऊर्जा उचित दर पर उपलब्ध कराना आवश्यक है। तदनुसार कार्यवाही करते हुए विद्युत दरों का शीघ्र पुनर्निधारण किया जाएगा। बन्द इकाइयों के लिये विशेष नीति बनाई जाएगी।

अन्य राज्यों, निजी निवेशकों, शासकीय उपक्रमों को विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में पूँजी निवेश हेतु प्रोत्साहित किया जाएगा। पनविद्युत तथा अन्य परम्परागत ऊर्जा स्रोतों को भी प्रोत्साहित किया जाएगा। उद्योगों को केप्टिव पावर की अनुमति किसी भी निम्न शर्त की पूर्ति करने पर दी जाएगी -

1. यदि छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मण्डल वांछित गुणवत्ता वाली ऊर्जा देने में असमर्थ हो,
2. यदि उद्योग इस प्रकार का हो कि उसमें अतिरिक्त ऊष्मा के उपयोग से विद्युत उत्पादन हो,
3. यदि स्वयं की सह इकाई को विद्युत प्रदाय करना आवश्यक हो (अन्य बाहरी इकाई को विक्रय की अनुमति नहीं होगी),
4. छत्तीसगढ़ विद्युत मण्डल को विद्युत की आवश्यकता हो (प्रतिस्पर्धात्मक दरों पर),
5. यदि इकाई तथा छत्तीसगढ़ विद्युत मण्डल के मध्य अनुबन्ध हो, जिसके अन्तर्गत निर्धारित दर पर अन्य राज्यों तथा उपभोक्ता को ही विद्युत दी जा सकती हो।
6. बेहतर प्रशासन एवं उत्कृष्ट अधोसंरचना :-

तीव्र औद्योगिक विकास हेतु सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र में साझेदारी बनाने एवं प्रेरक व्यावसायिक वातावरण बनाने में शासन प्रमुख भूमिका का निर्वाह करेगा। शासन इस सम्बन्ध में निम्नांकित कार्य करेगा -

1. वृहद स्थिर आर्थिक नीतियों को बनाना एवं लागू करना,
2. नियमों एवं विनियमों को लागू करने में पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व निर्धारण सुनिश्चित करना।

उत्कृष्ट अधोसंरचना :-


औद्योगीकरण हेतु अधोसंरचना विकास की अति आवश्यकता को अनुभव करते हुए शासन Chhattisgarh Infrastructure Development Corporation की स्थापना की गई। जिसके द्वारा विस्तृत अधोसंरचना विकास की कार्य योजना तैयार की गई है -

औद्योगिक क्षेत्रों का विकास :-


1. थ्रस्ट सेक्टर की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सभी स्थापित औद्योगिक क्षेत्रों का सुदृढ़ीकरण एवं स्तर उन्नयन किया जाएगा।
2. शासन सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों की भागीदारी में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना को प्रोत्साहित करेगी। इस हेतु शासन भू-अधिग्रहण करके उद्योगों को भूमि उपलब्ध कराएगा।
3. सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की भागीदारी में स्थापित औद्योगिक क्षेत्रों में अधोसंरचना विकास की लागत का 20 प्रतिशत अधिकतम दो करोड़ रुपए शासन द्वारा वहन किया जाएगा।
4. शासन निजी क्षेत्र एवं निर्यात संवर्धन औद्योगिक पार्क, जेम एवं ज्वेलरी पार्क, सूचना प्रौद्योगिकी पार्क, विशेष आर्थिक प्रक्षेत्र एवं जैव प्रौद्योगिकी पार्क की स्थापना को प्रोत्साहित करेगी तथा इसके लिये अंशपूँजी की सहायता दी जाएगी। या ऐसी परियोजनाओं के लिये कम दरों पर भूमि उपलब्ध कराएगा।
5. समूह आधारित औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करने की योजना के अन्तर्गत सामूहिक सुविधा व्यवस्था जैसे गुणवत्ता सुधार, तकनीकी उन्नयन, बाजार प्रोत्साहन एवं तकनीकी कुशलता उपलब्ध कराई जाएगी। ऐसे प्रति औद्योगिक समूह के लिये दो करोड़ रुपए की आर्थिक सहायता दी जाएगी।
6. निजी क्षेत्रों में स्थापित औद्योगिक क्षेत्रों को स्वयं के उपयोग हेतु विद्युत उत्पादन संयंत्र लगाने की अनुमति दी जाएगी, जिसमें वे अपने औद्योगिक क्षेत्र के अन्दर स्थित उद्योगों को सीधे विद्युत प्रदाय कर सकेंगे।

लघु उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में सुधार :-


लघु उद्योगों में रोजगार के अवसर उत्पन्न करने की अपार क्षमता होती है तथा ये उद्योग राज्य के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं। शासन द्वारा लघु उद्योगों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से अनेक महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ देने का निर्णय किया गया है। जिनका उद्देश्य लघु उद्योगों का दीर्घकालीन स्थायी विकास सुनिश्चित करना तथा लघु उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता का विकास करना होगा। लघु उद्योगों को दी गई सुविधाओं के अन्तर्गत उत्पाद में, सेवा में गुणवत्ता सुधार, कौशल विकास एवं विपणन सुविधा है।

सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग :-


यद्यपि एक व्यक्तिगत लघु उद्योग इकाई के लिये उत्पादन में सुधार के लिये सूचना प्रौद्योगिकी पहल के कार्यान्वयन की लागत अधिक हो सकती है, तथापि कुछ इकाई इस खर्च को सम्मिलित रूप से वहन कर सकती है, जिसमें राज्य शासन सहयोग करेगा।

मानव संसाधन विकास :-


राज्य सरकार सार्वजनिक-निजी साझेदारी वाली विशेषज्ञता पूर्ण प्रशिक्षण संस्थाओं को प्रोत्साहन प्रदान करेगी, जिससे लघु उद्योगों की तत्सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

सहयोगात्मक विपणन :-


सक्रिय प्रतिभागिता एवं संगठन के द्वारा बाजार प्रोत्साहित कार्यप्रणाली के लिये शासन सहयोग करेगा।

प्रमाणीकरण एवं परीक्षण :-


लघु उद्योग, विशेषकर जो निर्यात बाजार में प्रवेश के लिये इच्छुक है, के उपयोग हेतु प्रमाणीकरण एवं परीक्षण सुविधाओं के लिये नेटवर्क स्थापित करने में सरकार प्रोत्साहन प्रदान करेगी।

कार्यशील पूँजी :-


लघु उद्योग इकाइयों की वांछित कार्यशील पूँजी में सहयोग प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि राज्य सरकार के विभाग अथवा उपक्रम इन इकाइयों से क्रय की गई सामग्री का भुगतान 20 दिनों में इस प्रावधान के साथ करेगी कि विलम्बित अवधि के लिये 12 प्रतिशत वार्षिक ब्याज दिया जाये।

4. निर्दिष्ट प्रोत्साहन :-


निम्नांकित क्षेत्रों में राज्य द्वारा सुविधाएँ दी जाकर औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया जाएगा -

1. थ्रस्ट सेक्टर के उद्योग,
2. वृहत परियोजनाएँ,
3. थ्रस्ट क्षेत्र में लघु उद्योग।

निम्नांकित प्रकार के उद्योगों को अतिरिक्त सुविधाएँ दी जाएँगी-

1. बड़ी संख्या में महिला श्रमिक नियोजन वाले उद्योग,
2. अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उद्यमियों द्वारा स्थपाति उद्योग,
3. नवीन प्रकार के उत्पादन में एवं गुणवत्ता नियंत्रण में विनियोग करने वाले उद्योग।

यह सुविधाएँ ऐसे नए उद्योगों को प्राप्त होंगी, जिनकी स्थापना इस औद्योगिक नीति के लागू होने के बाद हुई है। स्थापित उद्योगों के विस्तार एवं आधुनिकीकरण पर ये सुविधाएँ प्राप्त नहीं होंगी, बल्कि ये व्यवसायिक संव्यवहारों से नियंत्रित होंगे।

01. थ्रस्ट क्षेत्र के उद्योग (निर्यातोन्मुखी उद्योग सहित) :-


अ. अधोसंरचनात्मक सहायता :-
निर्धारित औद्योगिक क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में स्थापित मध्यम एवं वृहद उद्योगों को उनके अधोसंरचनात्मक विकास यथा भूमि, विद्युत, जल, पहुँचमार्ग, कर्मचारी आवास आदि के विकास पर होने वाली खर्च राशि में शासन द्वारा आंशिक सहयोग प्रदान किया जाएगा। यह सहायता अधोसंरचना लागत का 25 प्रतिशत एवं अधिकतम रुपए 1 करोड़ तक सीमित होगी।

ब. विद्युत प्रभार :-
समस्त नए स्थापित होने वाले उद्योगों को उनके व्यावसायिक उत्पादन आरम्भ करने के दिनांक से 10 वर्ष तक विद्युत प्रभार भुगतान से छूट मिलेगी।

स. वाणिज्य कर :-
वेटकर प्रणाली होने पर उपयोगिता के आधार पर न्यूनतम दर पर।

02. वृहत परियोजनाएँ :-


स्थायी परिसम्पत्तियों में 100 करोड़ रुपए से अधिक पूँजी निवेश करने वाले उद्योग वृहत परियोजना के अन्तर्गत आएँगे।

अ. अधोसंरचनात्मक सहायता :-


निर्धारित औद्योगिक क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्यत्र क्षेत्रों में स्थापित होने वाले मेगा औद्योगिक परियोजनाओं को शासन अधोसंरचनात्मक विकास में वित्तीय सहायता उपलब्ध कराएगी। यह सहायता अधोसंरचना लागत के 25 प्रतिशत एवं अधिकतम पाँच वर्ष के विक्रय कर के बराबर होगी।

ब. विद्युत प्रभार :-


समस्त नए स्थापित होने वाले उद्योगों को उनके व्यावसायिक उत्पादन आरम्भ करने के दिनांक से 15 वर्ष तक विद्युत प्रभार में भुगतान से छूट होगी।

03. लघु उद्योग :-


1. ब्याज अनुदान :-
लघु उद्योगों को प्राथमिकता देने की नीति के अनुरूप जिनमें स्थायी पूँजी निवेश की अपेक्षा कार्यशील पूँजी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, शासन ब्याज अनुदान के रूप में पाँच वर्ष के लिये 5 प्रतिशत वार्षिकी की दर से अधिकतम पाँच लाख रुपए की सहायता, राज्य में स्थापित होने वाले सभी उद्योगों को देगी।

2. भूमि उपयोग में परिवर्तन :-
अति लघु एवं लघु औद्योगिक इकाइयों को कृषि उपयोग से औद्योगिक उपयोग में भू-परिवर्तन कराने हेतु भू-परिवर्तन शुल्क में पूर्ण छूट दी जाएगी।

3. प्रौद्योगिकी प्रोन्नति कोष :-
शासन द्वारा आगामी पाँच वर्षों में तीस करोड़ रुपयों का एक प्रौद्योगिक प्रोन्नति कोष बनाया जाएगा, जिसके माध्यम से लघु एवं मध्यम औद्योगिक इकाइयों को ब्याज अनुदान के रूप में उनके द्वारा तकनीकी प्रोन्नति हेतु लिये गए ऋण के विरुद्ध वित्तीय सहायता प्राप्त होगी।

4. गुणवत्ता प्रमाणीकरण :-
शासन द्वारा औद्योगिक इकाइयों को ISO-9000 तथा ISO-14000 एवं समान अन्तरराष्ट्रीय प्रमाणीकरण प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया जाएगा। प्रमाणीकरण प्राप्त करने में इकाई द्वारा किये जाने वाले व्यय का 50 प्रतिशत अधिकतम रुपए 75000 प्रति इकाई का वहन शासन द्वारा किया जाएगा।

5. विशेष क्षेत्रों में अतिरिक्त सुविधाएँ :-
अधिसूचित पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित होने वाले उद्योगों को उनके परियोजना लागत का 10 प्रतिशत आधारभूत सहायता के रूप में दिया जाएगा।

उपर्युक्त सुविधाओं के अतिरिक्त निम्नांकित सुविधाएँ सभी उद्योगों को उनकी श्रेणी पर बिना विचार किये प्राप्त होंगी।

1. प्रवेश कर से छूट :- प्रवेश कर से छूट का विस्तार वृहद एवं मध्यम उद्योगों सहित सभी श्रेणी के उद्योगों के लिये किया जाएगा।

2. स्टाम्प शुल्क में छूट :- सभी नए उद्योगों को स्टाम्प शुल्क में छूट होगी। इसके अतिरिक्त नए उद्योगों को ऋण प्राप्त करते समय पंजीयकरण शुल्क में कमी करते हुए प्रति 1000 रुपए पर 1 रुपए पंजीकरण शुल्क लिया जाएगा।

3. तकनीकी पेटेंट :- छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के अन्तर्गत एक सुविधा कक्ष का गठन किया जाएगा, जो उद्यमियों को उनके पेटेंट एवं बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार प्रावधानों से सम्बन्धित विषयों में उनकी सहायता करेगा। राज्य के उद्योग तथा अनुसन्धान एवं विकास संस्थाओं को पेटेन्ट प्राप्ति हेतु प्रोत्साहित किया जाएगा। इस कार्य में होने वाले व्यय का 50 प्रतिशत अधिकतम रुपए 5 लाख का वहन राज्य शासन द्वारा किया जाएगा।

शोध प्रबन्ध की योजना :-


प्रस्तुत शोध प्रबन्ध को 8 अध्ययनों में विभक्त कर प्रदेश के औद्योगिक विकास एवं पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया गया है। प्रस्तावना के अन्तर्गत शोध के उद्देश्य, विधितंत्र एवं आँकड़े, पूर्व अध्ययनों की समीक्षा, औद्योगिक अवस्थिति से सम्बन्धित सिद्धान्त, औद्योगिक विकास से सम्बन्धित विभिन्न नीतियाँ समाहित की गई हैं।

प्रथम अध्याय के अन्तर्गत छत्तीसगढ़ प्रदेश की भौगोलिक पृष्ठभूमि का अध्ययन स्थिति एवं विस्तार, भूवैज्ञानिक संरचना, स्थलाकृति, अपवाह, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, जनसंख्या एवं कृषि के सन्दर्भ में किया गया है।

द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत उद्योगों हेतु प्रदेश में उपलब्ध संसाधनों का अध्ययन सम्मिलित है। जिसके अन्तर्गत ऊर्जा संसाधन का प्रमुख रूप कोयला, खनिज संसाधन, वन संसाधन एवं कृषि उत्पादन का अध्ययन किया गया है।

तृतीय अध्याय के अन्तर्गत उद्योगों हेतु अवस्थापनात्मक सुविधाएँ-परिवहन, विद्युत एवं शासकीय सुविधाओं का अध्ययन सम्मिलित है।

चतुर्थ अध्याय के अन्तर्गत प्रदेश के औद्योगिक विकास का ऐतिहासिक विवेचन कर अध्ययन किया गया है, जिसमें प्रदेश में स्वतंत्रता से पूर्व उद्योगों की स्थिति एवं स्वतंत्रता के पश्चात उद्योगों की स्थिति एवं विकास तथा विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में प्रदेश के औद्योगिक विकास के सन्दर्भ में अध्ययन किया गया है।

पंचम अध्याय के अन्तर्गत प्रदेश की औद्योगिक संरचना का अध्ययन प्रदेश में स्थापित वृहद, मध्यम एवं लघु उद्योगों के सन्दर्भ में किया गया है।

षष्ठम अध्याय में प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्रों का अध्ययन सम्मिलित है, जिसमें रायपुर जिले के औद्योगिक क्षेत्र उरला एवं सिलतरा, दुर्ग जिले का औद्योगिक क्षेत्र बोरई तथा बिलासपुर जिले के अन्तर्गत स्थापित औद्योगिक क्षेत्र सिरगिट्टी तथा तिफरा का अध्ययन किया गया है।

सप्तम अध्याय के अन्तर्गत औद्योगीकरण का पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव का अध्ययन वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, भूमि संसाधन का अवनयन, भूमि उपयोग की समस्या तथा मानवीय स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव के सन्दर्भ में किया गया है।

अष्टम अध्याय में प्रदेश औद्योगिक विकास की संभावनाओं का अध्ययन किया गया है।

अन्त में सारांश एवं निष्कर्ष तथा सन्दर्भ ग्रंथ सूची प्रस्तुत की गई है।

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