छत्तीसगढ़िया मजदूर किसान की नियति

farmer and labour
farmer and labour

''क्या मौसम के इस तेवर से तुम्हारा दिल दहल नहीं जाता? इस बार जरुर फसल बहुत खराब होगी.....और कीमतें आसमान छू रही होंगी- इनके साथ ही एक अपूर्व कमी होगी रोजगार की, जिसकी कल्पना से ही लगता है कि शरीर का मांस कंकाल से अलग होकर गिरने लगेगा-एक तिहाई आबादी मर-खप जाएगी-बेहतर होता कि इन लोगों को गलियों, सड़कों पर निकाल कर इनकी गर्दने ही काट देते, ठीक उसी तरह जैसा कि हम पालतू सूअरों के साथ करते हैं।'' (रिकार्डो के नाम मिल के पत्र का अंश, अमर्त्य सेन की पुस्तक से उद्वत½ है।
 

संपन्न धान बीजों के प्रसार के नाम पर स्थानीय जैविक संपदा को खत्म करने के साथ ही रासायनिक खाद और कीटनाशकों को छत्तीसगढ़ के बाजार में खपाया गया। इससे फसल तो बढ़ी पर लाभान्वित सिर्फ बड़े किसान हुए वह भी कुछ वर्षों के ही लिए। छोटे किसान भूमिहीन हो गए। हलों का स्थान ट्रेक्टरों ने लिया,ग्रामीण रोजगार की संभावना लगातार कमतर होती गई।

नवोदित राज्य छत्तीसगढ़ का वर्तमान परिदृश्य विचित्र विरोधाभासी है, जहां शहरी जनता इस नए राज्य के उदय का जश्न मनाते हुए इसका अधिकाधिक लाभ उठा लेने की फिराक में है, वहीं ग्रामीण जनता अपने उदर-पोषण के लिए, आस-पास में कहीं भी किसी रोजी-रोजगार की संभावना के अभाव में पलायन करने को विवश है। यह पलायन इलाहाबाद क्षेत्र या मिर्जापुर, मेरठ या दिल्ली, पंजाब, कश्मीर, सूरत या कहीं भी दूर प्रदेशों तक हो सकता है। इस बार के सूखा-अकाल ने शहरी बनाम ग्रामीण के भेद को अत्यंत स्पष्ट कर दिया है क्योंकि सूखे का दुष्प्रभाव अभी गांवो तक ही सीमित है, शहर इससे पूरी तरह अप्रभावित है। स्थानीय अखबारों में ग्रामीण इलाकों से छत्तीसगढ़ी मजदूरों के पलायन की खबरों अगस्त महीने से ही प्रकाशित होने लगी थी। ग्रामीण रोजगार आश्वासन योजना (इ.जी.एस.) के बावजूद लगातार वृद्धिगत क्रमों में पलायन करते गए और आज तक यह सिलसिला बिना किसी व्यवधान के जारी है। नवोदित राज्य छत्तीसगढ़ के गठन तथा इस राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री के मनोनयन तक हर किसी राजनेता या नौकरशाह ने इस समस्या को नजरअदांज ही किया, यद्यपि उनका ऐसा करना लोकतांत्रिक भावना के अनुकूल नहीं था।

रायपुर के सासंद और केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री श्री रमेश बैस ने सूखा के कारण छत्तीसगढ़ से चार लाख लोगों के पलायन करने संबंधी बयान देकर शासन और प्रशासन को इस दिशा में कुछ करने को मजबूर किया। छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत गैर-सरकारी, स्वयंसेवी संगठनों ने अपने-अपने इलाकों से 75 फीसदी तक मजदूरों की पलायन की बातें की अब तो सरकारी आंकड़े भी पलायन करने वालों के आंकड़े एकाधिक लाख बताते हुए इस आंकड़ों को अपूर्ण होना स्वीकार कर रहे हैं और वास्तविक पलायनकर्ताओं की तादाद इससे दो गुनी से भी अधिक हो सकती है, ऐसा मानने लगे हैं। अब भी जो लोग गांवों में रह रहे हैं वे या तो उन भाग्यशाली लोगों में से हैं जिनके पास रहने, खाने के लिए अगले साल भर का इंतजाम है या फिर ऐसे लोग हैं जो शारीरिक अस्वस्थता के कारण बाहर नहीं जा सकते, उन्हें हर हाल में यहीं जीना है या मरना है।
 

छत्तीसगढ़िया मजदूरों का मजदूरी की तलाश में महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश,


दिल्ली, पंजाब जाना कोई नई बात नहीं है। पिछले दो सालों में तीन बार उग्रवादियों की गोलियों का शिकार होकर 30 मजदूरों की मृत्यु की सरकारी पुष्टि के बाद छत्तीसगढ़ से इनका कश्मीरी इलाकों में भी जाने की अधिकृत जानकारी हो गई है। हर साल होने वाले पलायन को लेकर इस बार कुछ ज्यादा ही हो हल्ला होने के पीछे मुख्य कारण यह है कि हर साल सिंचित क्षेत्र के जो दमदार किसान-तेली और कुर्मी-अकाल से अप्रभावित रहा करते थे, उन पर भी साल की अनावृष्टि ने अपना असर दिखाया है क्योंकि नहरों से सिंचाई के लिए पानी मिला ही नहीं। किन्तु, इससे यह कदापि नहीं मानना चाहिए कि इस साल के सूखा जनित अकाल ने पूरे छत्तीसगढ़ में सबको समान रूप से प्रभावित किया है। विश्व विख्यात अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन के अनुसार ''अकाल हमेशा एक विभाजक प्रक्रिया होती है। पीड़ित लोग अमूमन समाज के सबसे निचले तबके के होते हैं-गरीब किसान, अधिकाश: भूमिहीन कृषि मजदूर, सीमांत या छोटे किसान आदि। कदाचित आज तक ऐसा अकाल कभी न हुआ'' जिसने हर एक व्यक्ति को समान रूप से प्रभावित किया हो। अकाल और पलायन के वास्तविक भुक्तभोगियों की पहचान करने से पूर्व छत्तीसगढ़िया की जलवायु, अकाल का इतिहास तथा छत्तीसगढ़ीया मजदूरों के पलायन की इतिहासपरक लेकिन स्पष्ट जानकारी रखकर ही इस समस्या के मूल तक पहुंचा जा सकता है।

 

 

छत्तीसगढ़ का कृषि जलवायु


भौगोलिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ उप-आर्द्र जलवायु का क्षेत्र कहा जाता है। औसतन 1400 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा के क्षेत्र को भौगोलिक दृष्टि से तीन इकाइयों में बांटा गया है:-

(1) बस्तर का पठार : इसके अंतर्गत कांकेर तहसील के अलावा संपूर्ण बस्तर संभाग आता है।
(2) छत्तीसगढ़ का मैदानी भाग : जिसमें रायपुर संभाग के रायपुर जिला धमतरी, महासमुंद, दुर्ग, और रायपुर जिलों के अलावा बिलासपुर संभाग के रायगढ़, चांपा-जांजगीर, कोरबा और बिलासपुर जिले आते हैं।
(3) उत्तारी पहाड़ी क्षेत्र : इसके अंतर्गत कोरिया, सरगुजा और जशपुर नगर जिले हैं। छत्तीसगढ़ की वार्षिक औसत वर्षा की 90 फीसदी वृष्टि दक्षिण पश्चिमी मानसून से होती है जो प्राय: 10 जून तक बस्तर के दक्षिणी भाग में प्रवेश करके 25 जून तक समस्त छत्तीसगढ़ के आकाश पर छा जाता है और 15 सितम्बर, से सरगुजा क्षेत्र वापस होते-होते 28 सितम्बर तक पूरी तरह वापस हो जाता है।बस्तर के पठारी क्षेत्र की औसत वर्षा 1452 मि.मी तथा वर्षा के दिनों की संख्या 72 है जबकि छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग में 64 दिनों के भीतर औसतन 1422 मि.मी. तथा उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में 83.7 दिनों तक मानसून से औसतन 1610 मि.मी. वर्षा होती है। वर्षा के पहले 15 दिन और वर्षा के बाद के 10 दिन छिटपुट वर्षा हो न हो किन्तु वातावरण में नमी बनी रहती है। नमी के दिनों को वर्षा के दिनों से जोड़ने पर बस्तर के पठार क्षेत्र में कुल 172 दिन छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र में 142 दिन और उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में 134 दिन खरीफ उगने, पनपने और बढ़ने के लिए उपलब्ध होते हैं, इसी के दृष्टिगत समस्त छत्तीसगढ़ प्रांत के अलग-अलग अंचलों में धान की हरुना और माई किस्में हजारों वर्षों से उगाई जाती हैं।

रबी के मौसम में उत्तारी पहाड़ी क्षेत्र में 106 मी.मी. वर्षा होती है जिससे बिना किसी सिंचाई व्यवस्था के भी वहां कुछ रबी फसलें हो जाती हैं शेष छत्तीसगढ़ में इसकी संभावना नगण्य है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के मौसम वैज्ञानिक डॉ. शास्त्री ने उपरोक्त जानकारियों के अलावा यह बताया कि पिछली एक शताब्दि में वर्षा की अस्थिरता भी देखी गई है। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव महासमुंद और देवभोग में हुआ है, जहां अब 1400 से घटकर 1000 मि.मी. ही वर्षा होती है। महासमुंद क्षेत्र में वर्षा की कमी होना वहां से हर साल होने वाली पलायन का एक मूल कारण हो सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य के तीनों कृषि जलवायु की विभाजित इकाइयों में भिन्न-भिन्न वर्षा औसत में श्रेष्ठ उत्पादकता देने की क्षमता सम्पन्न हजारों किस्म के धान की किस्में हैं जिनमें अवर्षा और अतिवर्षा में भी अच्छे उत्पादन देने की क्षमता है जो हजारों साल से इस इलाके के किसानों को पालते-पोषते रहे हैं। देशी धान के बीज की इसी विशिष्टता के आधार पर देश प्रेमी कृषि वैज्ञानिक डॉ. राधेलाल हरदेव रिछारिया ने म.प्र. चावल शोध संस्थान रायपुर में इनका संकलन करके इनमें ही आवश्यकतानुसार संकर अत्यंत किस्में पैदा करने की योजना बनाई थी और प्रंशसनीय कार्य भी किया किन्तु साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था ने इस देश प्रेमी वैज्ञानिक के शोध को बीच में खत्म करा दिया और धान की हजारों किस्में जो डॉ. रिछारिया ने दूर-दूर से एकत्रित की थीं उन्हें भी चोरी-छिपे अंतर्राष्ट्रीय चावल शोध संस्थान मनीला भिजवा दिया गया। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य जनक यह है कि उनके शोध के दस्तावेजों को भी सरकारी या विश्वविद्यालय स्तर पर हिफाजत से नहीं रखा गया न ही उनका प्रकाशन हुआ। उपरोक्त विवेचना से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सिर्फ खेती से साल भर मजदूरी पाने की संभावना छत्तीसगढ़ में है ही नहीं। यानी जिन ग्रामीणों को सिर्फ मेहनत-मजदूरी करके ही आजीविका चलानी है उन्हें रोजी की तालाश में अन्यत्र जाना ही होगा।

 

 

 

 

छत्तीसगढ़ में अकाल का इतिहास


अकाल और दुर्भिक्ष का जिक्र तो महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी है जिनमें यह बताया गया है कि अकाल के समय राजा को जनता के प्रति क्या दायित्व है। मुगल शासन काल में भी दुर्भिक्ष के समय शासकीय खर्च पर लंगर चलाने आदि का जिक्र तत्कालीन दस्तावेजों में है पर अंग्रेजों के आगमन के बाद भारत में दुर्भिक्ष और उनसे निबटने के लिए हस्तक्षेपों का अधिकारिक दस्तावेजी विवरण सन् 1800 से मिलता है। कालांतर में सरकार के राजस्व विभाग के दस्तावेजों में एकत्रित इन सूचनाओं के अनुसार अठारहवीं सदी तक पड़ने वाले अकाल प्राय: प्राकृतिक प्रकोप न होकर स्थानीय युद्ध अथवा राजनीतिक उथल-पुथल के कारण होते थे। सन् 1771, 1783 और 1809 में भारत के मध्य भाग में दुर्भिक्ष पड़ा था जब एक रुपये के 100 सेर की तुलना में 5 सेर अनाज-यानी 20 गुना अधिक कीमत पर बिका था। म.प्र. शासन द्वारा 1973 में प्रकाशित अकाल संहिता मे दिए गए विवरण के अनुसार ''सन् 1828-29 में छत्तीसगढ़ जिले में घोर अकाल पड़ा था जब बिलासपुर में चावल एक रुपये में 12 सेर यानी 10गुनी अधिक कीमत पर-तक बिका था जबकि सामान्यत: चावल एक रुपये में 120 सेर मिलता था। पुन: 1832-33,1833-34 और 1834-35 में फसलें अत्यंत खराब हुई थीं जिससे विभिन्न भागों के हजारों लोग अकाल मौत के शिकार हुए। पुन: 1885 के सूखे ने छत्तीसगढ़ में विभीषिका दिखाई.....इसके बाद के 40 सालों तक किसी बड़े संकट का उल्लेख नहीं मिलता.....इसके बाद बुन्देलखण्ड के भारी अकाल के साल 1868-69 में छत्तीसगढ़ के धान उत्पादक क्षेत्र भी प्रभावित हुए जिसके बाद एक बुरा अकाल 1889 में पड़ा। कुछ वर्षों तक सामान्य रहने के बाद 1893 से 1900 के बीच के खराब वर्षा के कारण 1899-1900 में भयानक अकाल की स्थिति बनी। धान की फसलें चौपट होने से 1902-03 में तथा ओले के कारण पुन: 1904-05 में अकाल पड़े। सन् 1907-08, 1918-19, 1920-21 और 1928-29 में कई क्षेत्र अकाल ग्रस्त रहें। सन् 1940-41 भी अभाव का वर्ष था। पुन:1965 से 67 भारी अकाल के साल थे जिसमें मध्यप्रदेश के 43 में 38 जिले पूरी तरह प्रभावित हुए थे।'' उपरोक्त विवरण से यही प्रमाणित होता है कि संपूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में विभिन्न सीमाओं तक अभाव की स्थिति बीच-बीच में बनी रही है। इसके बावजूद पिछले तीन दशकों में कोई ऐसा अभाव नहीं हुआ जिससे समस्त छत्तीसगढ़ समान रूप से प्रभावित हुआ हो। पिछली सदी के अंतिम दशक में सरगुजा जिले का एक हिस्सा जरुर अकालग्रस्त हुआ जब कतिपय आदिवासियों की अकाल मृत्यु ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंहराव को क्षेत्र में स्वयं आकर स्थिति का अवलोकन करने हेतु बाध्य किया था।

 

 

 

 

अकाल और हस्तक्षेप


छत्तीसगढ़ में अकाल के विरुद्ध जन हस्तक्षेप को समझने के लिए छत्तीसगढ़ की भौतिक संस्कृति के उस अंश की जानकारी जरुरी है जो कृषि से सम्बद्ध है। इसके अंतर्गत धान की कोठी और विस्तृत जल ग्रहण क्षेत्र युक्त तालाब आते हैं। एक तरफ धान की कोठी की संरचना उसमें रखे गए बीजों की अंकुरण शक्ति कई वर्षों तक अक्षुण्ण रखने की क्षमता के साथ ही अधिक उत्पादकता का प्रतीक है तो दूसरी तरफ जल संरक्षण पारंपरिक विधियाँ तालाब, बांध आदि अनियमित वर्षा के प्रतीक होने के साथ ही कम वर्षा के वर्षों में सुनिश्चित जल का आधार हैं। जिनकी संख्या बहुत है। सर्व श्री हरि ठाकुर , राकेश दीवान एवं अनुपम मिश्र की इस विषय पर की गई खोज ने प्रमाणित किया है कि बिलासपुर जिले की सतनामी समुदाय के लोग तालाब खोदने की तकनीक में संपन्न थे जो समस्त छत्तीसगढ़ में अकालग्रस्त क्षेत्रों में तालाब बनाने के लिए आमंत्रित किए जाते थे। इससे मजदूरों को तात्कालिक रोजी के साथ ही भविष्य के लिए सुनिश्चित जल प्रबंध होता था।

 

 

 

 

पलायन, धर्मपरिर्वतन और प्रवास


19वीं सदी का उत्तरार्ध न केवल ऐतिहासिक अकालों के लिए वरन् इसके कारण हुए राजनीतिक उथल-पुथल के कारण भी ऐतिहासिक महत्व का रहा। इसी दौर में हुए एक अकाल के दौर में सोनाखान के आदिवासी बिंझवार जमींदार नारायण सिंह ने कसडोल के सूदखोर जमींदार से अनाज की मांग की थी जिसके इंकार करने पर उसकी अगुवाई में अनाज की कोठियां लूटकर उसे अकालग्रस्त लोंगों में बांटा और जब सूदखोर साहूकार की सहायता के लिए अंग्रेज हुकूमत ने हस्तक्षेप किया तो वीरनारायण सिंह के रातनीतिक विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध छत्तीसगढ़ में क्रांति की मिसाल बन कर 1857 में शहीद होकर अमरत्व प्राप्त किया। इसके बाद ही छत्तीसगढ़ में रेल लाइनें बिछी जिसने छत्तीसगढ़ के लोगों को मिट्टी खोदने/काटने व बिछाने के काम में मजदूरी दी। रेल की पटरियों के बिछने के साथ ही छत्तीसगढ़ से मजदूरों के पलायन का इतिहास भी शुरु हुआ। इसी समय असम में चाय बागान लगाए जा रहे थे।

इसके लिए बड़ी तादाद में स्थायी मजदूरों की जरुरत थी। इसके लिए बिलासपुर में एक भर्ती कार्यालय खुला जहां से हजारों की तादाद में मजदूर परिवारों को असम ले जाया गया जो प्राय: एक बार यहां से जाने के बाद कभी वापस न आ सके। इनमें सबसे ज्यादा तादाद बिलासपुर के सतनामियों की थी जो परंपरागत रूप से तालाब निर्माण में सिद्धहस्त श्रमिक थे। इसी समुदाय की धार्मिक नेता स्व. मिनीमाता थीं जिनका जन्म असम के ही चाय बागान में हुआ था पर अपवाद स्वरूप वह वापस छत्तीसगढ़ आई और उन्होने इस क्षेत्र का संसद प्रतिनिधित्व भी किया था। इसके ठीक पहले, छत्तीसगढ़ में ईसाई मिशनरियों का आगमन भी इसी दौर में हुआ। उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक में ही विश्रामपुर,बैतलपुर और परसाभदेर गांव बसाये गए। ईसाई मिशनरियों द्वारा बसाये गए गांवों की शतप्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की थी जिन्होंने सतनामी से अपना धर्म परिवर्तन करके मसीहत स्वीकार किया था। बैलगाड़ियों पर नागपुर से आए मिशनरियों ने अकाल और ब्रिटिश हुकूमत का लाभ उठाकर मैदानी इलाके में ही नहीं बस्तर जैसे दुर्गम क्षेत्र में भी चर्च स्थापित किए इस धर्म परिवर्तन से पाश्चात्य शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा की छत्तीसगढ़ में शुरुआत हुई साथ ही आंशिक रूप से पलायन पर भी अस्थायी रोक लगी।

ब्रितानी हुकूमत ने बार-बार पड़ने वाले अकालों के दृष्टिगत यह माना कि <''काम करने योग्य लोगों को अभाव के वर्षों में काम देना सरकार की जिम्मेदारी है किन्तु शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को राहत पहुंचाने का दायित्व धर्मादा निकायों को निभानी चाहिए।'' कुछ वर्षों के बाद ही ब्रितानी हुकूमत को अपनी धारणाओं को बदल कर यह निश्चित किया कि ''सरकार का उद्देश्य हर एक के जीवन की रक्षा करना है'' पहली बार इसकी घोशणा 1868-69 में हुई। इसके बाद ब्रितानी हुकूमत ने और आगे बढ़कर 1877 में सिद्धांत: यह स्वीकार किया कि सरकार को भुखमरी से हर एक व्यक्ति के जीवन की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। लम्बे समय तक अधिकाधिक लोगों को मजदूरी देने के लिए ही ब्रितानी सरकार ने बालोद के निकट आदमाबाद, धमतरी के निकट रुद्री आदि सिंचाई परियोजनांए 20वीं सदी की शुरुआत में प्रांरभ किए जिससे पहले 1890 से 1900 के बीच लागातार कई अकाल पड़े थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसे सिंचाई के उपक्रम साठ के दशक में खरखरा, गंगरेल आदि के नाम पर भी किए गए थे।

1878 में अकाल से राहत देने की प्रविधि बनाने के लिए अंग्रेजों ने पहला अकाल आयोग गठित किया था जिसे तत्कालीन सरकार ने स्वीकार भी किया और उसी की संस्तुतियां 1973 के अकाल संहिता में म.प्र. की सरकार ने भी अक्षरश: स्वीकार किया जिसके तहत निम्नलिखित निर्देश दिए गए है:-

(क) अभाव की स्थिति से निपटने सदा तैयार रहना।
(ख) समय पर रोजगार देकर काम करने योग्य लोगों की शारीरिक स्थिति को खराब होने से बचा सकने हेतु।
(ग) जिन्हें किसी अन्य प्रकार से सहायता न दी जा सके उन्हें अनुकंपा राहत देने हेतु।
(घ) जिनके लिए सहायता, राहत दी जा रही है उन्हें वह प्राप्त हो इस लिए कार्यों को समय-समय पर निरीक्षण और उसका नियंत्रण करने हेतु।
(च) विशेष प्रकरणों को छोड़कर सामान्य व्यापार-व्यवसाय के कारोबार में हस्तक्षेप न करने हेतु।
(छ) वास्तविक रैयतों की लगान वसूली स्थगित करके उन्हें ऋण और वित्तीय सहायता देने हेतु।
(ज) राहत कार्यों के सुचारु रूप से संचालन हेतु स्थानीय निकायों से सहयोग लेने हेतु हिदायतें दी गई हैं।

उपरोक्त निर्देशों के व्यवस्थित संचालन के लिए रोजगार आश्वासन योजना बनाकर सबसे पहले महाराष्ट्र की सरकार ने मजदूरों को उनके निवास स्थान से 5 कि.मी. के दायरे में ही राहत देने का काम किया। इसके सफल संचालन से 1972-73 के अकाल में महाराष्ट्र की सरकार ने प्रभावकारी श्रेय हासिल किया जिसकी देखा-देखी अन्य राज्यों ने भी इस (ई.जी.एस.) को स्वीकार किया। इसके लिए आवश्यकतानुसार उद्योगों तथा व्यापारियों से राहत के लिए कर वसूले गए।

 

 

 

 

वर्तमान परिदृश्य


मानसूनी वर्षा इस साल हुई 40 प्रतिशत कमी ने पूरे छत्तीसगढ़ किसानों और कृषि मजदूरों को पंगु बना दिया और समय से पहले ही बेकारी की स्थिति ने इन्हें रोजी-रोटी की तालाश में दूर-दूर तक पलायन के लिए मजबूर कर दिया। इस साल अगस्त के महीने से ही ग्रामीण मजदूरों के पलायन का सिलसिला शुरु हो गया था जो सामान्यत: कृषि कार्य का सबसे महत्वपूर्ण महीना होता है, जिसमें ब्यासी, रोपा व निंदाई हुआ करती है। दुखद तथ्य यह है कि अगस्त से लेकर नवम्बर तक चार महीनों मे लाखों मजदूर पलायन कर गए पर तब तक कहीं भी किसी बड़े राहत कार्य की शुरुआत नहीं हो पाई। जब पलायन की गति सर्वाधिक थी उसी बीच छत्तीसगढ़ राज्य के गठन और प्रथम मुख्यमंत्री के मनोनयन को लेकर हर राजनेता व्यस्त थे, नए राज्य के मंत्रियों और मंत्रालयीन कर्मचारियों के लिए बंगलों और आवास की खोज में अधिकारीगण व्यस्त थे ऐसे में गरीब छत्तीसगढ़िया किसान-मजदूरों के कारण लोकतंत्र के सबसे बड़े जश्न को छोड़कर भला राहत की चिन्ता कैसे की जा सकती थी?

विरोधी पार्टी के नेताओं ने भी इस मामले पर वांछित जोर नहीं दिया। छुट-पुट बयानों से राहत देने की नाकाम कोशिश की गई और केन्द्र ने एक समिति भेजी जिसने भ्रमण करके अपनी रिपोर्ट केन्द्र को सौंपी। छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने केन्द्र से 500 करोड़ के राहत कार्य की मांग के बिना किसी ठोस प्रस्ताव के राहत कार्य कहां कैसे और कब तक चलेंगे। इस बार समय पर राहत कार्य के न खोले जाने से सरकार के जिला सरकार और सरकार आपके द्वार, पंचायती राज से सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सारे दावों प्रश्नचिह्न लग गया। अंग्रेज सरकार द्वारा 120 साल पहले मान्य स्वीकृतियों को भी लागू न कर पाया गांधी के सपनों को भारत बनाने का दावा करने वालों की घोर विफलता को ही रेखांकित करता है।

3 जुलाई, रथयात्रा पर्व के दिन इस बार एक बूंद भी बारिश नहीं हुई जिसने स्थानीय लोगों की इस मान्यता को ही सही सिद्ध कर दिया कि ''रथयात्रा सूखा तो किसान भूखा'' सूखे की खबरें 2 अगस्त से छापने लगीं। सिलियारी, सरायपाली आदि से सूखे की वजह से फसल नष्ट होने की खबरों के बीच ही। एक अगस्त को संयुक्त राष्ट्र आपदा राहत कोष के संयोजक के हवाले से यह खबर भी प्रकाशित हुई कि एशिया के 6 करोड़ लोगों को सूखे से राहत देने के लिए एक सुनियोजित कार्यक्रम जरुरी है। बिगड़ती हुई हालातों के बीच पूर्व सांसद संत पवन दीवान और पूर्व मंत्री धनेन्द्र साहू ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की छत्तीसगढ़ के परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ की आर्थिक योजना बनाने की मांग की। गरियाबंद, राजिम आदि क्षेत्रों से भी सूखे और पलायन की खबरें आने लगी।

छत्तीसगढ़ के बुजुर्ग व्यवसायी, कांग्रेसी नेता, उद्योगपति और ''राइस किंग'' के रूप में विख्यात सेठ नेमीचंद श्रीमाल न बताया कि पिछले चार दशकों में उन्होने ऐसा भीषण अकाल कभी न देखा था। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के मौसम विज्ञानी डॉ. शास्त्री ने सांख्यिकीय विवरण देते हुए बताया कि ऐसा अकाल साठ साल पहले एक बार हुआ था। जिसे मिलाकर? विगत 100 सालों में यह स्थिति तीसरी बार बनी है। छत्तीसगढ़ की 800 चावल मिलों में से 700 बंद पड़ी हुई हैं सिर्फ 100 चावल मिलें ही कार्यरत हैं। ये वहीं मिलें हैं जिन्हें शुरुआती सालों में लेव्ही और टैक्स में रियायतें मिल रही हैं। चावल मिल मालिक संघ-अकाल के साल में भी लेव्ही नीति बदलने के लिए जोर डाल रहा है और वस्तुत: अकाल के बावजूद बाजार में धान की कमी न होने के कारण नई चावल मिलें भी खुल रहीं हैं जिनमें से एक का उद्घाटन पाटन में छत्तीसगढ़ के मंत्री भूपेश बघेल ने किया। इस विचित्रता को क्या कहेगें कि छत्तीसगढ़ में रबी फसल में उगाए गए धान अब तक उचित मूल्य के अभाव में नहीं बिक सके हैं, खरीफ फसल चौपट हैं, 700 मिलें बंद हैं, नई मिलें भी खुल रही हैं, छत्तीसगढ़ के सारे गोदामों में अनाज अटा-पड़ा है और किसान मजदूर भुखमरी के कारण पलायन कर रहा है। किसानों का क्रोध लखौली में स्पष्ट दिखा जहां बिना किसी संगठित या योजनाबद्ध तरीके के स्वस्फूर्त आंदोलनरत किसानों ने नहर पानी न दिए जाने पर न सिर्फ कलेक्टर से हुज्ज की वरन् एक नेता की कार भी जला दी क्योंकि कलेक्टर ने उन्हें कह दिया था कि गंगरेल बांध का पानी भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए सुरक्षित है जो किसी भी हाल में नहरों से खेतों में नहीं दिया जा सकता।

 

 

 

 

औद्योगीकरण से बेरोजगारी बढ़ी


यहां इस बात पर ध्यान देना होगा कि पिछले पाँच दशकों में छत्तीसगढ़ में स्थापित भिलाई इस्पात संयंत्र, बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना, ए.सी.सी. जामुल, सीमेंट कार्पोरेशन की मांढर व अकलतरा इकाइयां, मोदी (अंबुजा) सीमेंट, टाटा (लाफार्ज) सीमेंट, रेमंड सीमेंट, सेंचुरी सीमेंट, ग्रासीम सीमेंट, लार्सन टूब्रो सीमेंट, दक्षिण-पूर्वा कोयला प्रक्षेत्र, एनटीपीसी थर्मल पावार बालकों आदि संयंत्रों के खुलने से छत्तीसगढ़ के लाखों लोगों को अपनी पैतृक भूमि से बेदखल किया गया, सैकड़ो गाँव खाली कराए गए, छत्तीसगढ़ की जमीन पर ही उद्योग लगे जिसमें पैसा भी जनता का (राष्ट्रीयकृत बैंकों) का ही था पर छत्तीसगढ़ के लोगों को इसका कोई भी लाभ नहीं मिला। इसके विरुद्ध इन्हीं पांच दशकों में उपरोक्त उद्योगों में काम करने के लिए लाखों की तादाद में अन्य राज्यों कें लोगों ने आकर डेरा जमा लिया। छत्तीसगढ़ में हुए औद्योगिक विकास ने सिर्फ पूंजीवादी साम्राज्यवाद की पकड़ को ही घनीभूत किया है।

इसी बीच सन् 1962 से फोर्ड फाउंडेशन समर्थित तथा उन पर आधारित हजारों मध्यम एवं लघु औद्योगिक इकाइयों तथा हरित क्रांति के अंतर्गत सघन कृषि विकास भी तत्कालीन रायपुर जिले (रायपुर,महासमुंद, और धमतरी) में शुरु हुई जिसके तहत ताइचुंग ने टिव से शुरु करके अनेक उच्च उत्पादकता संपन्न धान बीजों के प्रसार के नाम पर स्थानीय जैविक संपदा को खत्म करने के साथ ही रासायनिक खाद और कीटनाशकों को छत्तीसगढ़ के बाजार में खपाया गया। इससे फसल तो बढ़ी पर लाभान्वित सिर्फ बड़े किसान हुए वह भी कुछ वर्षों के ही लिए। छोटे किसान भूमिहीन हो गए। हलों का स्थान ट्रेक्टरों ने लिया,ग्रामीण रोजगार की संभावना लगातार कमतर होती गई। देश प्रेमी कृषि वैज्ञानिक डॉ. रिछारिया ने पारंपरिक जैविक विविधता को पुर्नस्थापित करके, देशी बीजों के सवर्धन से ही स्थानीय समस्याओं का समाधान करना चाहा था इसीलिए उनकी परियोजना यकायक बंद कर दी गई और उनके द्वारा संग्रहित हजारों किस्म की बीजों को अंतर्राष्ट्रीय चावल शोध संस्थान मनीला भिजवा दिया गया। छत्तीसगढ़ के जैविक संपदा की इस लूट के क्या अर्थ होते हैं? क्या यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित के लिए किया गया एक षड़यंत्र नहीं है?

 

 

 

 

पलायन की समस्या का मूल क्या है?


सरसरी तौर पर तो यही लगता है कि अल्पवर्षा के कारण ही छत्तीसगढ़ से ग्रामीणों के पलायन की स्थिति बनी पर वस्तुत यह सत्य से परे है। प्रो. अमर्त्य सेन ने लिखा है- यदि हम छत्तीसगढ़ के श्रमिकों के पलायन के चरित्र को गौर से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि एक बड़ी संख्या में इस क्षेत्र के श्रमिक सामान्य वर्षा के सालों में भी पलायन के लिए बाध्य हैं जो उत्तरी और पश्चिमी भारत के ईट भट्ठों या निर्माण कार्यों पर कमाने जाते हैं। इसका कारण है-

(1) स्थानीय किसानों का तेजी से सीमांत कृषकों या भूमिहीन हो जाना।
(2) सिंचाई सुविधों का अभाव जो उन्हें 2/3 साल बेकार बना देता है।
(3) वनों की कटाई से अनियमित वर्षा होना तथा आदिवासी क्षेत्रों मे वनीकरण के काम पर स्थानीय लोगों को काम पर न लगाया जाना।
(4) सरकारी अधिकारियों का स्थानीय जनता के प्रति हेयभाव होना।
(5) पंचायती राज के नाम पर भ्रश्ट नेताओं द्वारा अपने ही क्षेत्र के लोगों के प्रति बढ़ती हुई उपेक्षा का भाव।

 

 

 

 

 

 

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