दाह संस्कार ने गंगा को मैला किया

5 Jul 2011
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गंगा तेरा पानी अमृत, आज ये पंक्तियां अतिश्योक्ति ही बनकर रह गई हैं। हर-हर गंगे की गूंज करने वाले भक्तों ने ही मां गंगा का आंचल मैला कर दिया है। संत तुलसीदास की जन्मस्थली सोरों और इसके आसपास के कछला और लहरा गंगा घाट भी इससे अछूते नहीं रहे। मुक्ति की युक्ति में हर रोज गंगा मैली हो रही है। गंगा के शुद्धिकरण को लेकर प्रदूषण बोर्ड या फिर प्रशासन का मस्तिष्क अभी भी साफ नहीं है। भले ही यहां औद्योगिक इकाइयां का कहर न बरपा हो, लेकिन श्रद्धावानों की बेरहमी के कारण प्रदूषण के हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं। जिन क्षेत्रों से गंगा गुजरती है, वहां के बाशिंदों को सौभाग्यशाली समझा जाता है। सोरों स्थित हरि की पौड़ी तथा समीपवर्ती लहरा घाट और कछला घाट आज भी कई प्रांतों के लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बने हुए हैं। यहां के गंगा घाटों पर आस्था की स्थिति यह है कि हर साल ही श्रद्धालुओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसी के सापेक्ष गंगाजल मैला होने की प्रक्रिया भी तीव्र हुई है।

भले ही गंगा की धार से जुड़ी आस्था श्रद्धालुओं को घाटों तक खींचकर ला रही हो, लेकिन यहां पर बढ़ते प्रदूषण को लेकर प्रबुद्ध लोगों की सोच अब बदल रही है। जिस आस्था ने गंगा के जल को अमृत की संज्ञा दे दी, आज उसी आस्था के वाहक गंगाजल का आचमन करने में हिचकते देखे जाते हैं। सोरों, लहरा और कछला घाट गंगा क्षेत्र के अंतर्गत है। इसी तरह पटियाली क्षेत्र से भी गंगा की अविरल धारा गुजरती है। इनमें से सर्वाधिक श्रद्धालुओं की भीड़ सोरों और कछला घाटों पर ही नजर आती है। सोरों से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि क्षेत्रों के लोग पिंडदान जैसी आस्था से जुड़े हैं तो कछला गंगा घाट दाह संस्कारों के मामले में लोगों की श्रद्धा का केंद्र बन गया है। प्रदूषण के मामले में इन क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयां गंगाजल को मैला नहीं कर रहीं हैं। यहां तो प्रदूषण के हालात पूरी तरह मानवीय ही हैं। सोरों में हरि की पौड़ी पर पिंडदान के रूप में विभिन्न सामग्रियां गंगा में प्रवाहित किए जाने से प्रदूषण का दायरा तेजी के साथ बढ़ा है, तो कछला गंगा घाट पर स्नान के लिए श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या और दाह संस्कार की प्रक्रिया के चलते प्रदूषण को बल मिला है।

यहां आने वाले श्रद्धालु पतित पावनी के प्रति श्रद्धावान होते हुए भी गंगाजल को मैला करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। घाटों पर खाने-पीने के साथ-साथ पॉलीथिनों व अन्य सामग्रियों का कचरा वहीं छोड़ देने के कारक भले ही छोटे लगें, लेकिन गंगा मैली करने में इन कारकों का योगदान प्रमुख है। इसके अलावा यहां दाह संस्कार की परिपाटी भले ही प्राचीन हो, लेकिन विगत वर्षों में लोगों की सोच और मुक्ति की युक्ति के चक्कर में गंगा घाटों पर दाह संस्कारों की संख्या में भी भारी इजाफा हुआ है। कछला गंगा घाट पर रहने वाले पुरोहितों के अनुसार यहां रोज एक दर्जन से लेकर अधिकतम तीन दर्जन तक शवों के दाह-संस्कार होते हैं। घाटों पर दाह-संस्कार या शव-विसर्जन के बाद प्रदूषण तो होता ही है। यह प्रदूषण अमृत रूपी गंगा के जल को विषैला बना रहा है। शवों के साथ शेष रही सामग्री भी यही फेंक दी जाती है। बढ़ते प्रदूषण और अमृत से जहर बनने की ओर अग्रसर होते गंगाजल को लेकर चर्चाएं तो होती हैं, लेकिन सार्थक प्रयास कोई नहीं होता।

सरकार की प्रदूषण नियंत्रण की मंशा के लिए भी इन गंगा घाटों पर न तो राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ही पहल दिखाई देती है और न ही प्रशासन ने ही समय-समय पर प्रदूषित होती गंगा के प्रश्न को गंभीरता से लिया। यहां तक कि प्रदूषण की स्थितियां मापने की सरकारी व्यवस्थाएं तक यहां नहीं हैं। सिर्फ गंगा के बदलते रंग और प्रदूषण कारकों की बहुलता देखकर ही मैली होती गंगा का अंदाजा लगाया जाता है। स्थानीय कारणों और निवारणों पर नजर डाली जाए तो प्रशासनिक सक्रियता से प्रदूषण फैलाने वाली स्थितियों पर नियंत्रण किया जा सकता है। मानवीय प्रदूषण पर अंकुश के लिए यदि प्रशासन की ओर से पहल की गई होती यथा श्रद्धालुओं को जागरूक करने के अलावा गंगा घाटों पर स्वच्छता की दैनिक व्यवस्थाएं बनाई जाती तो यह दुखद स्थिति सामने न आती। फिर खास बात तो यह है कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का क्षेत्रीय कार्यालय अलीगढ़ में होने के कारण वहां की टीमें भी समय-समय पर प्रदूषण के आंकलन के संबंध में न तो कोई रिपोर्ट प्रशासन को सौंपती हैं और न ही ऐसी रिपोर्टों को सार्वजनिक करके लोगों को जागरूक करने का प्रयास ही किया जाता है। विगत वर्षों में गंगा में मछलियों के मरने जैसे मामले भी सामने आ चुके हैं। यह गंगा के पानी के अमृत से विष बन जाने की ही निशानी है। यही हाल रहा तो यही कहा जा सकेगा कि राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते-धोते।

 

 

रेल विभाग लाखों कमाता है


भले ही कछला गंगा घाट पर होने वाले प्रदूषण को साफ करने के लिए कोई व्यवस्था न हो, लेकिन हर साल रेल विभाग इन्हीं घाटों के ठेके उठाकर लाखों रुपए वसूल करता है। घाटों पर झोपड़ियों में बैठे पुरोहित यूं ही बैठे नजर नहीं आते, बल्कि वह भी बैठने के लिए ठेका लेते हैं। उनका उद्देश्य भी यजमानों से दो पैसे कमाना ही होता है न कि गंगा को मैला होते देख इसकी स्वच्छता के लिए पहल करना। रेल विभाग लाखों कमाकर भी साल में घाटों की स्वच्छता के नाम पर एक रुपया भी खर्च करता नजर नहीं आता।

 

 

 

 

पालिका को प्रशासनिक सहयोग मिले


मैली होती पतित पावनी गंगा की पवित्रता को बनाए रखने के लिए सोरों की हरि की पौड़ी के लिए पालिका ने पिछले वर्षों से अनोखी पहल की है। इसके अंतर्गत पालिका द्वारा गंगा को मैला करने वाले कारकों के रूप में पिंडदान सामग्रियों को सीधे गंगा में फेंके जाने के बजाय पुरोहितों का सहयोग मांगा है। इसके तहत पिंडदान की प्रक्रिया गंगा घाट पर थालों में पूर्ण करने जैसे प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा गर्मियों के दिनों में पालिका सफाई की व्यवस्था के लिए भी तत्पर हुई है, जबकि लहरा व कछला घाट के लिए कहीं भी प्रशासन सक्रिय नहीं है, अन्यथा प्रशासनिक सहयोग से प्रदूषण रोकने के मामले में बड़ी सफलता पाई जा सकती है।

 

 

 

 

गंगा प्रदूषण मुक्ति आंदोलन नाकाम रहे


किन्हीं कारणों से प्रदूषित हो रहे गंगा घाटों पर प्रबुद्धजनों का जाना होता है तो उनके द्वारा प्रदूषण पर बहस छेड़ दी जाती है। प्रदूषण से मुक्ति के लिए जागरूकता का मन भी बनाया जाता है, लेकिन कुछ दिन बाद ही सब भूल जाते हैं। मैली हो रही गंगा को देखकर यहां भी पतंजलि योग समिति या फिर कई सामाजिक संगठनों ने प्रदूषण मुक्ति आंदोलन चलाने के लिए हुंकार तो भरी थी, लेकिन यह हुंकार प्रशासन को एक-दो ज्ञापन सौंपने के बाद लॉप होकर रह गई। गंगा प्रदूषण मुक्ति के लिए ठोस सामाजिक पहल आज तक सामने नहीं आई है, जिससे कि मानवीय प्रदूषण को रोके जाने से यहां की गंगा मैली होने से बच सके। शव के दाह संस्कार के बाद बची सामग्रियों को भी गंगा में बहा दिया जाता है।

 

 

 

 

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