डाउनस्केलिंग विधियाँ एवं जलविज्ञानीय निदर्शन पद्धति (Downscaling methods and hydrological modeling approach)


सारांश:


विभिन्न जलवायु परिवर्तन अध्ययनों के लिये वैश्विक निदर्श (जी.सी.एम.) उत्पाद से सीधे व्युत्पतित परिदृश्य एक क्षेत्र के अन्तर्गत किसी विशिष्ट स्थान अथवा विशिष्ट प्रक्रम के निदर्शन हेतु जलवायु निवेश परिवर्तनों को निरुपित करने के लिये प्राप्त स्थानिक या कालिक समाधान नहीं हो सकते हैं। जी.सी.एम. के स्थानिक समाधान का अभिप्राय है कि पर्वतीय तथा भू-सतही अभिलक्षणों का निरुपण क्षेत्रीय जलवायु पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले कुछ अभिलक्षणों की क्रमिक हानि की तुलना में अत्यन्त सरलीकृत है। प्रभाव अध्ययनों के लिये जलवायु परिवर्तन के विस्तृत स्थलीय तथा क्षेत्रीय परिदृश्यों की आवश्यकता पिछले कई वर्षों से महसूस की जा रही है जिसके फलस्वरूप इस प्रकार की सूचनाओं, सामान्यतः जी.सी.एम. से उनकी खामियों के बावजूद भी वो व्युत्पतित करने के लिये अनेक कार्य पद्धतियाँ विकसित की जा रही हैं तथा इन्हें भावी जलवायु के आंतरिक-अनुकूलतम परिदृश्य के निर्धारण के लिये एक अति उत्तम उपलब्ध कार्य पद्धति के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। इन कार्य पद्धतियों को ‘डाउनस्केलिंग’ कहा जाता है तथा डाउनस्केलिंग तकनीकों को इस आशय से तैयार किया जाता है कि जलवायु निदर्शन समुदाय जो सूचनाएँ वर्तमान में उपलब्ध करा सकता है तथा जिनका प्रभाव शोध समुदाय की आवश्यकता होती है, उनके बीच के अंतर को कम किया जा सके।

Abstract


For many climate change studies, scenarios derived directly from global climate model (GCM) output may not be sufficient spatial or temporal resolution to represent changes within a region at a specific location or the climatic inputs to model a specific process. The spatial resolution of GCMs in particular, means that the representation of orography and land surface characteristics is greatly simplified compared to reality with consequent loss of some of the characteristics which may have important influences on regional climate. The need for detailed site or regional scenarios of climate change for impacts studies has existed for number of year and has thus resulted in the development of a number of methodologies for deriving such information generally from GCMs which despite their shortcomings at finer resolution, are recognized as the best available method for determining internally-consistent scenarios of future climate. These methodologies are termed ‘downscaling’ and downscaling techniques have been designed to bridge the gap between the information that the climate modeling community can currently provide and that required by the impact research community.

प्रस्तावना


वर्तमान जलवायु के अनुसार ग्लोबल एटमॉस्फेरिक जनरल सर्कुलेशन मॉडल्स (जी.सी.एम.) विकसित किए गए हैं तथा भावी जलवायु परिवर्तन की भविष्यवाणी के संदर्भ में इनका प्रयोग किया गया है यद्यपि जी.सी.एम. कंटीनेन्टल तथा हेमीस्फेरिक स्थानिक पैमाने पर विशिष्ट कौशल को प्रदर्शित करता है तथा वैश्विक तंत्र की जटिलताओं के एक बड़े हिस्से को समाविष्ट करता है। वे स्वाभाविक स्थानीय उप-ग्रिड-पैमाने पर सुविधाओं और गतिकी को निरूपित करने में असमर्थ हैं। जब वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर विचार करते हैं तो सर्वप्रथम स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर आए वृहत परिवर्तनों पर सामाजिक अनुक्रियाओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। क्षेत्रीय स्थानिक पैमाने पर जी.सी.एम. की कार्य निष्पादन क्षमता और क्षेत्रीय पैमाने पर प्रभाव आकलन की आवश्यकताओं के मध्य मत भिन्नता काफी हद तक निदर्श संकल्प से इस प्रकार संबंधित है कि जब जी.सी.एम. यथार्थता बढ़ते हुए स्थानिक पैमाने पर घटती है तो इसके विपरीत प्रभाव बढ़ जाता है।

इन समस्याओं से बचने के लिये इकोहाड्रोलॉजिकल प्रक्रमणों के निदर्शन हेतु उच्च स्तरीय मौसम विज्ञानीय निविष्टियाँ जनरेट करने के लिये उपकरणों की आवश्यकता है। ‘डाउनस्केलिंग’ विधियाँ स्थानीय अथवा स्टेशन स्केल मौसम विज्ञानीय श्रृंखला की दीर्घ स्तरीय वायुमंडलीय भविष्यवक्ता चरों की युक्ति के रूप में उभर कर आई हैं, डाउनस्केलिंग विधि की दो सामान्य श्रेणियाँ विद्यमान हैं, गत्यात्मक विधि, जो तंत्र की प्रक्रम आधारित भौतिक गतिशिलिता के स्पष्ट समाधान में शामिल है तथा सांख्यिकीय विधि जो प्रेक्षणीय आँकड़ों से व्युत्पन्न अभिनिर्धारित तंत्र संबंध का प्रयोग करता है।

जलविज्ञानीय निदर्श जलवायु तथा जल संसाधनों के मध्य संबंध की छानबीन तथा संकल्पना निर्धारित करने के लिये एक रूपरेखा उपलब्ध कराते हैं। जल संसाधनों के विभिन्न मुद्दों पर जलवायु परिवर्तन के संभाव्य प्रभाव के निर्धारण के लिये जल वैज्ञानीय निदर्शों के अनुप्रयोग संबंधी अनेक रिपोर्ट पिछले दो दशकों के वैज्ञानिक साहित्य में अन्तर्विष्ट हैं।

जलवायु परिवर्तन अध्ययनों में जलविज्ञानीय निदर्शों का प्रयोग साधारण जल संतुलन निदर्शों के उपयोग द्वारा वार्षिक तथा मौसमी सरित प्रवाह विविधता के मूल्यांकन से लेकर जटिल संवितरित प्राचल निदर्श जो जल ऊर्जा तथा जैव भू-रासायनिक प्रक्रमणों के व्यापक रेंज का अनुसार करता है, के प्रयोग द्वारा सतही तथा भूजल परिमाण, गुणवत्ता और समय में विविधताओं के मूल्यांकन तक किया जा सकता है।

जलविज्ञानीय निदर्शो में प्रयोग हेतु डाउनस्केलिंग जी.सी.एम. जलवायु उत्पाद


क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन प्रभाव अध्ययन के लिये जी.सी.एम. ग्रिड-प्वांइट भविष्यवाणी की सीमाओं को देखते हुए जलविज्ञानीय निदर्शों में प्रयोग हेतु जी.एस.एम. जलवायु उत्पादों को डाउनस्केलिंग करने के लिये प्रत्यक्ष जी.एस.एम. व्युत्पतित जलविज्ञानीय उत्पाद के उपयोग हेतु एक विकल्प है, जलवायुवीय डाउनस्केलिंग की दो श्रेणियों अर्थात गत्यात्मक विधि (जिसमें भौतिक गतिशीलता का स्पष्ट रूप से समाधान किया जाता है) तथा अनुभविक (तथाकथित ‘सांख्यकीय डाउनस्केलिंग’) मौजूद हैं तथा इन पर निम्नलिखित अनुच्छेदों के अनुसार चर्चा की गई है।

गतिशील डाउनस्केलिंग विधि का प्रयोग: गतिशील डाउनस्केलिंग तीन विधियों द्वारा किया गया है:

1. भौगोलिक अथवा वर्णक्रमणीय सीमा की स्थिति के रूप में अपरिष्कृत जी.सी.एम. डाटा के साथ एक क्षेत्रीय-पैमाना सीमित-क्षेत्र निदर्श चल रहा है। (जिसे ‘वन-वे नेस्टिंग’ भी कहा जाता है)।

2. उच्च-रिजॉल्यूशन ए.जी.एस.एम. (वायुमंडलीय जी.सी.एम.) के साथ वैश्विक पैमाने पर प्रयोग करना जिसमें अपरिष्कृत जी.सी.एम. डाटा को प्रारंभिक शर्तो के रूप में लिया जाए।

3. एक चर-संकल्प वैश्विक निदर्श का उपयोग करना।

गतिशील डाउनस्केलिंग (अर्थात बड़े पैमाने के जी.सी.एम.डाटा से स्थानीय पैमाने की सूचनाओं को निकालने के लिये) का लक्ष्य सीमित-क्षेत्र निदर्श (LAMS) अथवा क्षेत्रीय जलवायु निदर्शों (RCMS) को विकसित तथा प्रयोग कर प्राप्त किया गया है, RCMS हाल ही में विकसित किए गए हैं जो चयनित विषय क्षेत्रों में दसियों किलोमीटर अथवा उससे कम क्षेत्र में क्षैतिज समाधान प्राप्त कर सकते हैं, इनके अनुप्रयोग से अनेक क्षेत्रों में सापेक्षिक सफलता प्राप्त हुई है।

जी.सी.एम. से तुलना में RCMS का समाधान भूदृश्य-स्तर जलविज्ञानीय निदर्शों (LSHMS) से अधिक निकट है और जलविज्ञानीय तंत्रों के प्रभावों के मूल्यांकन के लिये RCMS तथा LSHMS का संयोजन सशक्त रूप से उपयुक्त है।

गतिशील डाउनस्केलिंग कुछ (उच्च रिजॉल्यूशन) ग्रिड प्वाइंट स्केलों पर प्रचलित होता है और इसलिये परिणाम स्थानिक औसत के रूप में आयेगें। ये निदर्श अभी भी जलविज्ञानीय तंत्र अथवा पारिस्थितिक तंत्र के स्थानिक सुस्पष्ट निर्दशों की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकते हैं और प्रभाव अध्ययनों के लिये अलग-अलग स्थलों अथवा जगहों के ऐसे निदर्शों से परिणामों को डाउन स्केल करने की आवश्यकता पड़ती रहेगी।

सांख्यिकीय डाउनस्केलिंग विधियों का प्रयोग: सांख्यिकीय डाउनस्केलिंग विधि एक दूसरी कम अभिकल्पनात्मक मांग की पद्धति है। इस पद्धति में क्षेत्रीय-स्तर वायुमंडलीय भविष्यवक्ता चरों (वर्षण अथवा तापमान के क्षेत्रीय औसत जैसे) तथा प्रसार अभिलक्षण (माध्य समुद्र-तल दाब अथवा Vorticity जैस) स्टेशन-स्केल मौसम विज्ञानीय श्रृंखला से संबंधित हैं। इसमें शामिल आँकड़े साधारण अथवा गहन हो सकते हैं, परंतु कुछ अवस्थाओं में अंतिम संबंध विशिष्ट हो सकते हैं। प्रयुक्त तकनीकों अथवा चुने गए भविष्यवक्ता चरों के अनुसार सांख्यिकीय डाउनस्केलिंग विधियों को वर्गीकृत किया जा सकता है।

सम्मुकैनन (1997) अध्ययन में सांख्यिकीय डाउनस्केलिंग विधियों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया गया है-

सतही चरों से डाउनस्केलिंग: इसमें सतही चरों के दीर्घ-पैमानिक औसतों तथा स्थानीय स्केल सतही चरों के बीच अनुभाविक सांख्यिकीय संबंधों का संस्थापन शामिल है। संबंध स्थापित करने के लिये स्थानीय समय श्रेणी से निर्मित दीर्घ पैमानिक औसतों का प्रयोग किया जाता है, अनुप्रयोग में वहीं स्थानीय-स्केल सतही चर भष्यिवक्ता होगें।

उत्तम पूर्वानुमान (पी.पी.) विधि: इसमें दीर्घ पैमानीय युक्त ट्रोपोस्फेयरिक चरों तथा स्थानीय सतही चरों के बीच सांख्यिकीय संबंधों का विकास शामिल है।

मॉडल उत्पाद सांख्यिकी (MOS) विधि: यह विधि पी.पी. विधि जैसी ही है, सिवाय इसके कि सांख्यकीय संबंधों को विकसित करने के लिये जिन युक्त वायुमंडलीय चरों का प्रयोग किया जाता है उन्हें जी.सी.एम.उत्पाद से लिया जाता है।

जलविज्ञानीय निदर्शों के लिये निविष्ट के रूप में काल्पनिक परिदृश्य का प्रयोग:


आदर्शतः जलविज्ञानीय निदर्शों की व्युत्पत्ति के लिये जी.सी.एम. से जलवायु अनुकार को सीधे प्रयोग में लाया जा सकता है जिसे परिणामास्वरूप जलवायु परिवर्तन के जलविज्ञानीय एवं जल संसाधन प्रभावों के मूल्यांकन हेतु प्रयोग में लाया जा सकता है। जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है जलविज्ञानीय प्रक्रमों तथा GCMS के बीच स्पेस स्केल की असंगति के कारण यह मुद्दा जटिल बन गया है। पूर्व में लघु से माध्यम कैचमैंट स्केल (अर्थात दसियों किलोमीटर) पर परिवर्तनीयता को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए तथा बाद में सैकड़ों से हजारों किलोमीटर के पैमाने पर प्रचारित करना होगा। इसमें और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बेहतर प्राचरित GCMS समेत जलवायु निदर्श जलवायु चर परिवर्तनों के पृथक-पृथक मान देते हैं और एक भी विश्वसनीय प्राक्कलन प्रदान नहीं करते हैं जिसे जलविज्ञानीय नियोजन के लिये निश्चयात्मक पूर्वानुमान के रूप में विकसित किया जा सके। तदनुसार, जलविज्ञानियों द्वारा वर्तमान स्थितियों के साथ परिवर्तन परिदृश्यों को अपनाया गया है तथा ‘डबल CO2’ स्थितियों के लिये जलवायु भविष्यवाणियाँ एक मानक बन गई हैं।

सरल परिवर्तन विधि में जलवायु परिदृश्य उत्पत्ति दो चरणों में होती है:

(1) वर्षण तथा तापमान में औसत वार्षिक परिवर्तनों का या तो GCM परिणामों अथवा परिवर्तन के ऐतिहासिक मापनों के प्रयोग द्वारा आकलन करें अथवा व्यक्तिगत आकलनों (विशिष्ट रूप से, ∂T=+1, +2 एवं +40, oa∂P=0,±10%, ±20%) का प्रयोग करें।

(2) ऐतिहासिक तापमान श्रृंखला में ∂T जोड़कर समायोजित करें तथा वर्षण के लिये मानों को (1+∂P/180) से गुणा कर समायोजित करें।

जलविज्ञानीय व्यवहार पर काल्पनिक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के आकलन के लिये सामान्य प्रक्रिया की निम्नलिखित अवस्थाएं हैं,

1. अध्ययन कैचमेंट में वर्तमान जलवायु निर्विष्टयों तथा निदर्श मान्यकरण हेतु प्रेक्षित नदी प्रवाह के प्रयोग द्वारा जलविज्ञानीय निदर्श के प्राचलों का निर्धारण करें।

2. कुछ जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों के अनुसार जलवायुवीय आँकड़ों की ऐतिहासिक समय श्रृंखला को बाधित करना है।

3. अंशाकित जलविज्ञानीय निदर्श के प्रयोग द्वारा उद्विग्नित जलवायु के तहत कैचमेंट के जलविज्ञानीय अभिलक्षणों को अनुकारित करना।

4. वर्तमान तथा संभावित जलविज्ञानीय अभिलक्षणों के निदर्श अनुकारकों की तुलना करना।

जल निदर्श कार्य प्रणाली
जलवायु परिवर्तन प्रभाव अध्ययनों में जलविज्ञानीय निदर्शों की संभाव्य उपयुक्ता


अनुकार निदर्श, गणितीय शब्दावली के अनुसार वे हैं जो अवरोधक, अन्तःस्यंदन, मृदा-जल पुनर्वितरण, वाष्पन, वाष्पोत्सर्जन, हिमगलन, सतही, उपसतही तथा भूजल प्रवाह जैसे प्रक्रमों के माध्यम से सरित प्रवाह में वर्षण के गतिशील एवं आरेखीय परिवर्तन में शामिल विवरण को वर्णित करते हैं। इसके पश्चात ऑपरेशनल हाइड्रोलॉजिस्ट भिन्न-भिन्न जलवायुवीय दशाओं में एक स्थान अथव अलग-अलग स्थानों पर बाढ़ से सुरक्षा, चरम जलविज्ञानीय घटनाओं (बाढ़, अनावृष्टि) की आवृत्ति तथा अवधि, सिंचाई स्पिलवे डिजाइन, जल विद्युत मूल्यांकन या जलापूर्ति डिजाइन इत्यादि जैसी जल संस्थान से जुड़ी समस्याओं के समाधान ढूंढने में इन निदर्शों का उपयोग करते हैं। जलवायु परिवर्तन प्रभाव अध्ययनों में इस प्रकार के निदर्शों के निम्नलिखित लाभ हैं -

1. भिन्न-भिन्न जलवायुवीय/भौगोलिक परिस्थितियों के लिये परीक्षित निदर्श तथा विभिन्न स्थानिक स्केल के प्रयोग हेतु संरचित निदर्ष आसानी से उपलब्ध हैं।

2. GCM- व्युत्पन्न जलवायु बाधाओं (डाउनस्केलिंग के भिन्न-भिन्न स्तरों पर) को निदर्श निविष्ट के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है।

3. जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों की विभिन्न अनुक्रियाओं को निदर्शित किया जा सकता है।

4. निदर्श जलवायु परिवर्तन उत्पाद को प्रासंगिक जल संस्थान संबंधी चरों में उदाहरणार्थ जलाशय, प्रचालन, सिंचाई मांग, पेयजल आपूर्ति आदि में तब्दील कर सकता है।

जलवायु परिवर्तन प्रभाव अध्ययनों में जलविज्ञानीय निदर्शों का व्यवहारिक अनुप्रयोग


पिछले दो दशकों के वैज्ञानिक साहित्य में जल संसाधन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर जलवायु परिवर्तन के संभाव्य प्रभावों के निर्धारण पर जलविज्ञानिय निदर्शों के अनुप्रयोग संबंधी अनेक रिपोर्ट सम्मिलित हैं। ये जाँच सतही तथा भूजल परिमाण गुणवत्ता और जटिल वितरित-प्राचल निदर्श जो जल, ऊर्जा एवं जैव भू-रासायनिक क्रियाओं का अनुकार करता है, में विविधताओं के मूल्यांकन के लिये साधारण जल संतुलन निदर्शों के प्रयोग द्वारा वार्षिक एवं मौसमी सरित प्रवाह विविधता के मूल्यांकन से पाई जा सकती है। जटिलता के आधार पर इन निदर्शों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

(1) प्रायोगिक निदर्श (वार्षिक आधार); (2) जल-संतुलन निदर्श (मासिक आधार) (3) संकल्पनात्मक लम्प्ड-पैरामीटर निदर्श (दैनिक आधार); (4) प्रक्रिया आधारित वितरित-प्राचल निदर्श (प्रति घंटा सूक्ष्म आधार)।

किसी विशेष केस स्टडी के लिये निदर्श का चयन उस अध्ययन के कई कारकों तथा निदर्श की उपलब्धता पर निर्भर करता है।

जलवायु परिवर्तन अध्ययनों में जलीय निदर्शों का मान्यकरण


जलीय निदर्शों (या तो पूर्वानुमान हेतु अथवा अनुकार के लिये) को स्थिर अवस्थाओं के लिये डिजाइन किया जाता है, तथापि, जलवायु परिवर्तन अध्ययन में नियोजित जलीय निदर्शों को परिवर्तनीय दशाओं में प्रयुक्त किया जाएगा इसलिये विशेष मान्यकरण (परीक्षण) पद्धतियाँ क्रियान्वित की जानी चाहिए। जल-ग्रहण जलविज्ञानीय निदर्शों के मान्यकरण की आम समस्या को मध्य नजर रखते हुए एक परीक्षण रूप रेखा का प्रस्ताव तैयार किया गया। प्रस्तावित योजना को श्रेणीबद्ध कहा गया क्योंकि निदर्शन कार्यों को उनकी बढ़ती हुई जटिलता के अनुसार व्यवस्थित किया जाता है और परीक्षण की मांग भी उसी तरह बढ़ती है।

सरल विभाजित प्रतिदर्श परीक्षण में परीक्षण जल-ग्रहण के लिये उपलब्ध मापित समय-श्रेणी आँकड़ों को दो सेटों में विभाजित करना शामिल है जिसमें से प्रत्येक को अंशाकन तथा मान्यकरण के लिये प्रयोग में लाया जाना चाहिए तथा दोनों व्यवस्थाओं से प्राप्त परिणामों की तुलना की जानी चाहिए। निदर्श को तभी स्वीकार्य माना जाता है यदि दोनों मामलों में निदर्श-मान्यकरण परिणाम स्वीकार्य हों। किसी भी निदर्श जिसे जलविज्ञानीय तथा जलवायुवीय दृष्टिकोण से समरूप क्षेत्र के अंतर्गत भौगोलिक रूप से स्थानांतरणीय माना जाए, उसके लिये भौगोलिक स्थानांतरण की योग्यता हेतु प्रॉक्सी बेसिन परीक्षण आवश्यक है यदि लक्ष्य एक अमापित बेसिन C के लिये सरित प्रवाह अनुकारित करना है तो उपयोग में लाए जाने वाले निदर्श का परीक्षण दो मापित बेसिनों A व B पर किया जाना चाहिए। निदर्श का अंशाकन बेसिन A पर तथा मान्यकरण बेसिन B एवं इसके विपरित किया जाना चाहिए। यदि दोनों प्रॉक्सी बेसिन परीक्षण स्वीकार्य हैं तो निदर्श को भौगोलिक रूप से स्थानान्तरणीय माना जाना चाहिए।

अंतर संबंधी विभाजन-प्रतिदर्श परीक्षण (जलवायुवीय स्थानांतरणीय के लिये) का अनुप्रयोग तब किया जाता है जब परीक्षण जलीय निदर्श उनके अंशाकन में प्रयुक्त निदर्शों से पृथक है।

संदर्भ


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सम्पर्क


मनोहर अरोड़ा, राकेश कुमार एवं एन के वार्ष्णेय, Manohar Arora, Rakesh Kumar & N K Varshney
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की 247 667 (उत्तराखण्ड), National Institute of Hydrology, Roorkee 247667 (Uttarakhand)


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