देश को पीछे धकेलता बाढ़

Flood
Flood
अजीब विडम्बना है कि देश के बड़े हिस्से में मानसून नाकाफी रहा है, लेकिन जहाँ जितना भी पानी बरसा है, उसने अपनी तबाही का दायरा बढ़ा दिया है। पिछले कुछ सालों के आँकड़ें देखें तो पाएँगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है।

कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहाँ की नदियाँ भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गम्भीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है।

हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बाँध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलबे का नदी में बढ़ना, ज़मीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गम्भीर होते जा रहे हैं।

जिन हजारों-करोड़ की सड़क, खेत या मकान बनाने में सरकार या समाज को दशकों लग जाते हैं, उसे बाढ़ का पानी पलक झपकते ही उजाड़ देता है। हम नए कार्याें के लिये बजट की जुगत लगाते हैं और जीवनदायी जल उसका काल बन जाता है।

सरकारी आँकड़े बताते हैं कि सन् 1951 में भारत की बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह बढ़कर ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। 1978 में बाढ़ से तबाह ज़मीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी आज देश के कुल 329 मिलियन (दस लाख) हेक्टेयर में से चार करोड़ हेक्टेयर इलाक़ा नियमित रूप से बाढ़ की चपेट में हर साल बर्बाद होता है।

वर्ष 1995-2005 के दशक के दौरान बाढ़ से हुए नुकसान का सरकारी अनुमान 1805 करोड़ था जो अगले दशक यानि 2005-2015 में 4745 करोड़ हो गया है। यह आँकड़ा ही बानगी है कि बाढ़ किस निर्ममता से हमारी अर्थव्यवस्था को चट कर रही है।

बिहार राज्य का 73 प्रतिशत हिस्सा आधे साल बाढ़ और शेष दिन सुखाड़ की दंश झेलता है और यही वहाँ के पिछड़ेपन, पलायन और परेशानियों का कारण है। यह विडम्बना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। असम में इन दिनों 18 जिलों के कोई साढ़े सात लाख लोग नदियों के रौद्र रूप के चलते घर-गाँव से पलायन कर गए हैं और ऐसा हर साल होता है।

यहाँ अनुमान है कि सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें- मकान, सड़क, मवेशी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि शामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएँ खड़ा करने में दस साल लगते हैं, जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।

केन्द्र हो या राज्य, सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है, यह दुखद ही है कि आज़ादी के 67 साल बाद भी हम वहाँ बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाये हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ़ से हुए नुकसान व बाँटी गई राहत राशि को जोड़े तो पाएँगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।

देश में सबसे ज्यादा सांसद व प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश की उर्वरा धरती, कर्मठ लोग, अयस्क व अन्य संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद विकास की सही तस्वीर ना उभर पाने का सबसे बड़ा कारण हर साल आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान हैं।

सन् 1953 से लेकर 2010 हम बाढ़ के उदर में 8,12,500 करोड़ फूँक चुके हैं जबकि बाढ़ उन्मूलन के नाम पर व्यय राशि 1,26,000 करोड़ रुपए है। यह धनराशि मनरेगा के एक साल के बजट का कोई चार गुणा है। आमतौर पर यह धनराशि नदी प्रबन्धन, बाढ़ चेतावनी केन्द्र बनाने और बैराज बनाने पर खर्च की गई लेकिन यह सभी उपाय बेअसर ही रहे हैं। आने वाले पाँच साल के दौरान बाढ़ उन्मूलन पर होने वाले खर्च का अनुमान 57 हजार करोड़ आँका गया है। बीते एक दशक के दौरान राज्य में बाढ़ के कारण 45 हजार करोड़ रूपए कीमत की तो महज खड़ी फसल नष्ट हुई है। सड़क, सार्वजनिक सम्पत्ति, इंसान, मवेशी आदि के नुकसान अलग हैं। राज्य सरकार की रपट को भरोसे लायक मानें तो सन् 2013 में राज्य में नदियों के उफनने के कारण 3259.53 करोड़ का नुकसान हुआ था जो कि आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा नुकसान था।

अब तो देश के शहरी क्षेत्र भी बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं, इसके कारण भौतिक नुकसान के अलावा मानव संसाधन का जाया होना तो असीमित है। सनद रहे कि देश के 800 से ज्यादा शहर नदी किनारे बसे हैं, वहाँ तो जलभराव का संकट है ही, कई ऐसे कस्बे जो अनियोजित विकास की पैदाइश हैं, शहरी नालों के कारण बाढ़-ग्रसत हो रहे हैं।

सन् 1953 से लेकर 2010 हम बाढ़ के उदर में 8,12,500 करोड़ फूँक चुके हैं जबकि बाढ़ उन्मूलन के नाम पर व्यय राशि 1,26,000 करोड़ रुपए है। यह धनराशि मनरेगा के एक साल के बजट का कोई चार गुणा है। आमतौर पर यह धनराशि नदी प्रबन्धन, बाढ़ चेतावनी केन्द्र बनाने और बैराज बनाने पर खर्च की गई लेकिन यह सभी उपाय बेअसर ही रहे हैं।

आने वाले पाँच साल के दौरान बाढ़ उन्मूलन पर होने वाले खर्च का अनुमान 57 हजार करोड़ आँका गया है। सनद रहे कि हम अभी तक एक सदी पुराने ढर्रे पर बाढ़ को देख रहे हैं, यानि कुछ बाँध या तटबन्ध बनाना, कुछ राहत सामग्री बाँट देना, कुछ ऐसे कार्यालय बना देना जो बाढ़ की सम्भावना की सूचना लोगों को दे सकें।

बारिश के बदलते मिजाज, भू-उपयोग के तरीकों में परिवर्तन ने बाढ़ के संकट को जिस तरह बदला है, उसको देखते हुए तकनीक व योजना में आमूल-चूल परिवर्तन आवश्यक है। वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं।

जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़कर कंक्रीट जंगल सजाया जाता है तो ज़मीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है। फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुँचता है। फलस्वरूप नदी की जलग्रहण क्षमता कम होती है।

मध्य भारत की बड़ी बसावट, पंजाब और हरियाणा आदि उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहे ज़मीन के अनियंत्रित शहरीकरण के कारण ही बाढ़ ग्रस्त हो रहे हैं। इससे वहाँ भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ रही हैं और इसका मलबा भी नदियों में ही जाता है।

पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है। इससे वहाँ की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलबा नदी-नालों में अवरोध पैदा करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गम्भीर हो जाता है।

सनद रहे हिमालय, पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है। इसकी विकास प्रक्रिया सतत जारी है, तभी इसे ‘जीवित-पहाड़’ भी कहा जाता है। इसकी नवोदित हालत के कारण यहाँ का बड़ा भाग कठोर-चट्टानें ना होकर, कोमल मिट्टी है। बारिश या बर्फ के पिघलने पर, जब पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में पर्वतीय मिट्टी भी बहाकर लाता है।

पर्वतीय नदियों में आई बाढ़ के कारण यह मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है। इन नदियों का पानी जिस तेजी से चढ़ता है, उसी तेजी से उतर जाता है। इस मिट्टी के कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ हुआ करते हैं। लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बाँधा जा रहा है, सो बेेशकीमती मिट्टी अब बाँधों में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है। साथ ही पहाड़ी नदियों में पानी चढ़ तो जल्दी जाता है, पर उतरता बड़े धीरे-धीरे है।

राजस्थान में बाढ़मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है। अतएव बाढ़ के बढ़ते सुरसा-मुख पर अंकुश लगाने के लिये शीघ्र कुछ करना होगा। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीक़त में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के ऊँचाई-स्तर में अन्तर जैसे विषयों का हमारे यहाँ कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठाकर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं।

पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बाँध पर पाबन्दी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीषण विभीषिका का मुँह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading