देश में कोई नहीं है नदियों का पुरसाहाल

world river day
world river day

विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


इसे हम अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परम्परा कि हमारे यहाँ मेले नदियों के तट पर, उनके संगम पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहाँ तक कुम्भ का सवाल है, वह तो नदियों के तट पर ही लगते हैं जहाँ आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नानकर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं। बल्कि गर्व का अनुभव करते हैं।

लेकिन विडम्बना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते जो आज मरने के कगार पर हैं। यह उन संस्कारवान, आस्थावान, धर्मभीरू, संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिये शर्म की बात है जो नदियों को माँ मानते हैं। निस्सन्देह इससे उन्हें गर्वानुभूति तो नहीं ही होगी। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट मुँह बाये खड़ा है।

क्योंकि आज कमोबेश देश की सभी नदियाँ प्रदूषित हैं और इनमें भी 70 फीसदी नदियाँ तो इतनी प्रदूषित हैं कि यदि यही हाल रहा तो एक दिन उनका केवल नाम ही रह जाएगा। नदियों की यह दुर्दशा उस देश में है जहाँ आदि काल से नदियाँ मानव के लिये जीवनदायिनी रही हैं। उनकी देवी की तरह पूजा की जाती है और उन्हें यथासम्भव शुद्ध रखने की मान्यता व परम्परा है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है।

एक संस्कारवान भारतीय के मन-मानस में नदी माँ के समान है। उस स्थिति में माँ से स्नेह पाने की आशा और उसे सम्मान देना सन्तान का परम कर्तव्य हो जाता है। फिर नदी मात्र एक जलस्रोत नहीं, वह तो आस्था की केन्द्र भी है। विश्व की महान संस्कृतियों-सभ्यताओं का जन्म भी न केवल नदियों के किनारे हुआ बल्कि वे वहाँ पनपी भी हैं।

वेदकाल के हमारे ऋषियों ने पर्यावरण सन्तुलन के सूत्रों को दृष्टिगत रखते हुए नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित पूरे संसार की ओर देखने की सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा को विकसित किया है। उन्होंने पाषाण में भी जीवन देखने का जो मंत्र दिया, उसके कारण देश में प्रकृति को समझने व उससे व्यवहार करने की परम्पराएँ जन्मीं।

यह भी सच है कि कुछेक दशक पहले तक उनका पालन भी हुआ। लेकिन पिछले 40-50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूँकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़े हैं, इसलिये जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा।

असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। नतीजन कहीं नदियाँ गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती है, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का रूप धारण कर लेती हैं और यदि कहीं उनमें जल रहता भी है तो वह इतना प्रदूषित हैं कि वह पीने लायक भी नहीं रहता है।

सही है लेकिन यहाँ सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इसके लिये जिम्मेवार कौन है। हम औद्योगीकरण को तो इस बात के लिये जिम्मेदार ठहराते हैं, यह भी किसी हद तक ठीक है लेकिन नदी पूजने वाले भी इसके लिये कम जिम्मेवार नहीं हैं। वहीं नदियों को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। नदी किनारे बने होटल, संतों के आश्रम व निजी संस्थान भी इसके लिये कम जिम्मेवार नहीं हैं जो खुलेआम गन्दगी को नदियों में गिरा रहे हैं।

राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने इस बाबत पहल की है। उसका निर्णय स्वागत योग्य है कि जो नदी को गन्दा करेगा, उसको दंडित किया जाएगा। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने पिछले कुछ अरसे से पर्यावरण को लेकर जिस तरह के कदम उठाए हैं, उससे उम्मीद की किरण जगी है। प्राधिकरण की यह पहल शायद नदियों को जीवन दे सके। अगर राज्य सरकारें इस पर अमल करें तो कुछ उम्मीद की जा सकती है अन्यथा नहीं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जो लोग नदियों पर निर्भर हैं, वही कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारणों से इसे खत्म करने पर भी तुले हुए हैं। टेरी द्वारा देशभर में कराए गए एक व्यापक पर्यावरणीय सर्वे में यह बात निकलकर सामने आई है। छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदियों जैसे महानदी और अरपा व मध्य प्रदेश की प्रमुख नदियों जैसे नर्मदा और सोन में बहने वाले पानी की गुणवत्ता को नष्ट करने में 43 फीसदी स्थानीय नागरिक जिम्मेवार हैं।

ऐसी हालत कमोबेश पूरे देश की है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। असलियत में यह आँकड़ा तो बस बानगी भर है जबकि तकरीब 90 फीसदी लोग तो नदियों के जीवन के बारे में सोचते तक नहीं हैं। इस सर्वे में पाया गया कि 46 फीसदी लोग यह स्वीकारते हैं कि देश के प्रमुख शहरों से गुजरने वाली नदियों के पानी की गुणवत्ता बेहद खराब है। इसके लिये नगर निगमों की भूमिका भी कम दोषी नहीं है।

वे अपने यहाँ के नालों को नदी में गिरने से रोकने में नाकाम रहे हैं। सर्वे में 78 फीसदी मानते हैं कि नदियों को प्रदूषित करने में सबसे अधिक यदि कोई जिम्मेवार है तो वह औद्योगिक कचरा है। 86 फीसदी मानते हैं कि नदियों के पानी का उपयोग घातक है और 56 फीसदी की राय है कि नदियों में होने वाले प्रदूषण से उनके आसपास का बहुत बड़ा हिस्सा प्रभावित हो रहा है।

इस कारण लोग जानलेवा बीमारियों के शिकार होकर अनचाहे मौत के मुँह में जाने को विवश हैं। वह बात दीगर है कि अब लोग पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को लेकर जागरूक हो रहे हैं और सरकारी नीतियों को लेकर अपनी बेबाक राय भी रख रहे हैं।

सच तो यह है कि नदियों के बगैर भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारे देश की पहचान एक नदी से है। सिन्धु से हिन्दू बना। हम हिन्दू इसलिये हैं कि सिन्धु एक नदी है। सिन्धु से ही इंडिया बना। हमारा नाम इण्डिया इसलिये हुआ क्योंकि एक नदी है जिसका नाम इंडस है। हम इंडियन भी इसलिये हुए क्योंकि एक नदी है जिसके पार रहने वालों को इंडियन कहा गया।

पूरी दुनिया में कोई नदी ऐसी नहीं है जिसके नाम से किसी देश, किसी सभ्यता को नाम दिया गया हो। यह सिर्फ पीने के पानी या सिंचाई हेतु जल का सवाल नहीं है, बल्कि यह देश की विरासत, संस्कृति और आस्था का विषय भी है। हमारे यहाँ तो हरेक नदी के साथ आध्यात्मिक परिदृश्य भी जुड़ा हुआ है। हमारे देश में तकरीब 45 हजार किलोमीटर नदियाँ बहती हैं। देश में 12 बड़े और 46 मध्यम एवं 14 लघु नदी बेसिन हैं।

इसमें भी दो राय नहीं है कि नदियाँ कृषि कर्म का आधार रही हैं। जीवन में जल और नदियों का विशेष महत्त्व है। हमारे धार्मिक शास्त्र और पुराण भी कहते हैं कि नदी को गन्दा मत करो। उसमें मल-मूत्र मत डालो। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे एक कल्प पर्यन्त नर्क भोगना पड़ेगा। इस्लाम भी कहता है कि तुम अपना गन्दा जिस्म लेकर दरिया में मत जाओ।

वरना दरिया नापाक हो जाएगा और तुम गुनाहों में मुब्तिला हो जाओगे। यानी पहले नहाओ फिर दरिया में जाओ। हम नदियों से पीने और सिंचाई के लिये पानी लेते हैं। अपनी आध्यात्मिक जरूरतें पूरी करते हैं और बदले में हम अपना कूड़ा-कचरा और मल-मूत्र इन नदियों में फेंक देते हैं। बिना यह सोचे-समझे कि इसके दुष्परिणाम क्या होंगे।

दुनिया में कोई नदी ऐसी नहीं है जिसके नाम से किसी देश, किसी सभ्यता को नाम दिया गया हो। यह सिर्फ पीने के पानी या सिंचाई हेतु जल का सवाल नहीं है, बल्कि यह देश की विरासत, संस्कृति और आस्था का विषय भी है। हमारे यहाँ तो हरेक नदी के साथ आध्यात्मिक परिदृश्य भी जुड़ा हुआ है। हमारे देश में तकरीब 45 हजार किलोमीटर नदियाँ बहती हैं। देश में 12 बड़े और 46 मध्यम एवं 14 लघु नदी बेसिन हैं। इसमें भी दो राय नहीं है कि नदियाँ कृषि कर्म का आधार रही हैं। जीवन में जल और नदियों का विशेष महत्त्व है। देखा जाये तो हमने नदी-जल का दोहन करने में कीर्तिमान बनाया है। हमने नदियों का दोहन तो भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब लेकिन यह भूल गए कि कुछ वापस देने का दायित्व हमारा भी है। नदियों से लेते समय यह भूल गए कि यदि जिस दिन इन्होंने देना बन्द कर दिया या वे देने लायक नहीं रहीं, उस दिन क्या होगा?

उस हालत में जबकि आज नदियाँ मलमूत्र विसर्जन का माध्यम और जलस्रोत नरककुंड बनकर रह गए हैं। हमारी नदियों की हालत नालों से भी बदतर हो गई है और अन्धाधुन्ध विकास का परिणाम नदी और भूजल के प्रदूषण के रूप में सामने आया है। गौरतलब है कि हमारे देश में जब-जब नदी बचाने की बात की जाती है तो अक्सर लंदन की टेम्स नदी का उदाहरण दिया जाता है कि हम अमुक नदी को टेम्स बनाएँगे। यमुना के साथ भी यही हुआ।

हजारों करोड़ खर्च करने के बाद आज गंगा और यमुना मैली ही हैं। टेम्स तो नहीं बन पाईं, वे बीमारियों का घर बन चुकी हैं। इसी तरह देश की गोमती, साबरमती, भद्रा, तुंगभद्रा, कावेरी, तुंपा, बेतवा, तापी, बाणगंगा, नर्मदा, कृष्णा, चम्बल, मन्दाकिनी, सतलुज, अडियार, बैगी, वेन्नार आदि बीसियों नदियों की हालत है जिनकी सफाई के नाम पर हजारों करोड़ स्वाहा हो चुके हैं। लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आया है।

सीपीसीबी के अनुसार देश में एक भी नदी ऐसी नहीं है जो पूरी तरह साफ-सुथरी हो। देश की 290 नदियाँ इस कदर प्रदूषित हैं कि उनमें जलीय पौधों और जन्तुओं का जीना दूभर है। नदियों के पानी में मानकों से ज्यादा हजारों-लाखों गुणा बैक्टीरिया मौजूद हैं। साबरमती अपवाद है जबकि देश के सात राज्यों की तकरीब 27 नदियाँ मरने के कगार पर हैं।

एक वेबसाइट के अनुसार 14 बड़ी, 55 मध्यम और सैकड़ों छोटी नदियों में जीवनदायिनी जल की जगह सीवेज का पानी बह रहा है। ऐसी हालत में वह दिन दूर नहीं जब सरस्वती और तमसा की तरह एक दिन ये 27 नदियाँ भी विलुप्त न हो जाएँ। बीते बरसों में यह तथ्य सामने आया कि उत्तराखण्ड में टिहरी जिलान्तर्गत खेतलिंग ग्लेशियर से निकलने वाली भागीरथी नदी की सहायक नदी भिलंगना में पानी पिछले तीन सालों से घटकर आधा रह गया। हालत ऐसी हुई कि वह सूखने के कगार पर पहुँच गई।

कहीं-कहीं तो उसमें पत्थर ही पत्थर नजर आने लगे थे। इससे उत्तराखण्ड में बिजली पैदा करने वाली कम्पनियों के होश उड़ गए थे और वह इसे ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम बताने लग गईं थीं। यह स्थिति पर्यावरण के लिये भयावह है। दुख इस बात का है कि इस खतरे के बारे में कोई नहीं सोचता।

आज जरूरत इस बात की है कि नदियों को अविरल और शुद्ध बहने देने के लिये अब कायदे-कानून बनाने ही होंगे। यह भी कि शहर की गन्दगी नदियों में नहीं बहाई जाएगी और भविष्य में नदियों को बाँधने के प्रयास कतई नहीं किये जाएँगे जैसाकि आजकल सरकार विकास के नाम पर नदियों को बाँधने के काम पर आमादा दिख रही है।

वह कहती कुछ है और करती कुछ है। एक ओर वह नदी संरक्षण की बात करती है, वहीं दूसरी ओर वह सुप्रीम कोर्ट से जल विद्युत परियोजनाओं के लिये पर्यावरण क्लीयरेंस देने पर लगी रोक हटाने की माँग कर रही है।

विडम्बना यह कि पहले सरकार उत्तराखण्ड की इन 45 परियोजनाओं को पर्यावरण के लिये खतरा करार दे रही थी और इन्हें बन्द करने पर आमादा थी। यह उसके दोहरे चरित्र का जीता-जागता सबूत है। इन हालात में नदी संरक्षण का सवाल अटपटा सा लगता है।

प्रदूषित गंगा नदीआज संकट की इस घड़ी में नदियों को सहेजना सबसे बड़ी जरूरत है। इनसे भोजन, पानी, जंगल और इनसे जुड़े तमाम उत्पाद निर्भर हैं। हमें यह जान लेना होगा कि केवल सरकारी योजनाओं और मात्र सरकार की भागीदारी से ही नदी और लोगों का भला नहीं होने वाला। नदियों को बचाने हेतु देश में आन्दोलन हो रहे हैं।

कुछ लोग व्यक्तिगत स्तर पर संघर्षरत हैं। कुछ वैचारिक अभियान चला रहे हैं। उनके प्रयास प्रशंसनीय हैं लेकिन नदियों को बचाने के लिये सबको एकजुट होना होगा। यह समय की माँग है।

हमारे देश में आजकल नदियों की सफाई का अभियान जारी है। इसका हश्र क्या होगा, पिछले 28 साल के इतिहास से इसका सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है। गंगा-यमुना और डेढ़ दर्जन से अधिक ऐसी नदियाँ जिनकी सफाई के लिये करोड़ों की राशि आवंटित हुई, उन सबका हश्र क्या हुआ, वह सबके सामने है।

हाँ सरकारी अधिकारियों की पौबारह हुई, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। नदियों की शुद्धि, उनका संरक्षण तो तभी सम्भव है जबकि नेतृत्व में टेम्स जैसी इच्छाशक्ति हो। सबका सामूहिक सामाजिक दायित्व हो, सरकार को कोसने से आज तक कुछ नहीं हुआ और आगे भी कुछ नहीं होने वाला। इसमें भी जनसहयोग के बिना कामयाबी की उम्मीद बेमानी है। इसलिये अब भी समय है, सम्भल जाओ, नदियों पर तरस खाओ।

तत्काल कार्यवाही करो अन्यथा आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ नहीं करेंगी। यदि समय रहते हम कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब नदियों के साथ इतिहास तो खत्म हो ही जाएगा, हम भी मिट जाएँगे। इसलिये आइए, हम नदियों को सहेजने, उन्हें साफ रखने का संकल्प लें, तभी वे हमें सहेजेंगी और तभी मानव सभ्यता अक्षुण्ण रह पाएगी।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading