दक्षिण भारत के अर्द्धशुष्क क्षेत्र में पारम्परिक तालाबों पर जल ग्रहण विकास कार्यक्रम का प्रभाव-एक समीक्षा


भारत एक कृषि प्रधान देश है, जिसकी 75% से अधिक जनसंख्या गाँव में रहती है। उसकी जरुरी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये जल संसाधनों का सही तरीके से पूरा विकास किया जाना चाहिये। जल संसाधनों के विकास में उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, मौसम तंत्र, मृदा, वनस्पति व अन्य जरुरतों को ध्यान में रखा गया था। यह विकास इस तरह से किया गया था, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में रहने वालों की आवश्यक, जरुरत न केवल पूर्ण हो बल्कि पड़ोसी क्षेत्र के रहने वालों के साथ किसी भी तरह का संघर्ष न हो। साथ ही जल संसाधनों का दुरुपयोग भी न हो। इस तरह का जल प्रबंधन 80 के दशक तक अच्छी तरह से चला।

पिछले कुछ वर्षों में भारत व राज्य सरकारों द्वारा चलित जलग्रहण परियोजनाओं के कुछ कार्यक्रम से इस जल संरक्षण व प्रबंधन पर बुरा असर पड़ा है। जलागम कार्यक्रम (watershed programme) में जल संरक्षण (water harvesting) पर अत्यधिक जोर दिया गया है जिसमें जलग्रहण क्षेत्रों के नालों में जल संरक्षण के लिये छोटे-छोटे बाँध (एनीकट व चैक डैम) बनाये गये। इन छोटे-छोटे बाँधों को बनाने में दो बातों को ध्यान में नहीं रखा गया - एक तो जलग्रहण क्षेत्र में जल संरक्षण के लिये जल की उपलब्धता व बनाये गये बाँधों की जगह का उद्देश्य के अनुसार चुनाव। इन्हीं दो कारणों से पारम्परिक तालाबों (Tanks) पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है और गाँव की जीविका कहे जाने वाले ये तालाब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य तालाबों को इस प्रकार से पुनर्जीवित करना है कि तालाब व भूजल (ground water) उपयोग करने वाले किसानों की जीविका की हानि न हो एवं पर्यावरण में सुधार भी हो सके।

दक्षिण भारत के अर्द्धशुष्क क्षेत्र में पारम्परिक तालाबों पर जल ग्रहण विकास कार्यक्रम का प्रभाव: एक समीक्षा (Impact of watershed development programme on traditional tank system in semi arid region of South India : A Case Study)


सारांश:


भारत एक कृषि प्रधान देश है, जिसकी 75 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गाँवों में रहती है। इन लोगों की जरूरी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये जल संसाधनों का सही तरीके से पूरा विकास किया जाना चाहिये। जल संसाधनों के विकास में उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, मौसम तंत्र, मृदा, वनस्पति व अन्य जरूरतों को ध्यान में रखा गया था। यह विकास इस तरह से किया गया था, जिससे की ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों की न केवल जरूरी आवश्यकताएँ पूर्ण हो बल्कि पड़ोसी क्षेत्र के रहने वाले लोगों के साथ किसी भी तरह का संघर्ष भी न हो। साथ ही जल संसाधनों का दुरुपयोग भी न हो। इस तरह का जल प्रबंधन 80 के दशक तक अच्छी तरह से चला। पिछले कुछ वर्षो में भारत व राज्य सरकारों द्वारा चलित जलग्रहण परियोजनाओं के कुछ कार्यक्रमों से इस जल संरक्षण व प्रबंधन पर बुरा असर पड़ा है। जलागम कार्यक्रम में जल संरक्षण पर अत्यधिक जोर दिया गया है जिसमें जलग्रहण क्षेत्रों के नालों में जल संरक्षण के लिये छोटे-छोटे बाँध (एनीकट व चेक डैम) बनाये गये । इन छोटे-छोटे बाँधों को बनाने में दो बातों को ध्यान में नहीं रखा गया - एक तो जलग्रहण क्षेत्र में जल संरक्षण के लिये जल की उपलब्धता व बनाये गये बाँधों की जगह का उद्देश्य के अनुसार चुनाव। इन्हीं दो कारणों से पारम्परिक तालाबें पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है और गाँव की जीविका कहे जाने वाले ये तालाब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य तालाबों को इस प्रकार से पुनर्जीवित करना है कि तालाब व भूजल उपयोग करने वाले किसानों की जीविका की हानि न हो एवं पर्यावरण में सुधार भी हो सकें।

Abstract


Agriculture is the main occupation in India and 75% population of India lives in village. In recent watershed development programme promoting in situ rainwater harvesting and groundwater based irrigation have been extremely successful with increase in production in many arid and semi-arid areas. However, this success has not come without a cost. Findings show that drainage line treatment through water harvesting structures and increased groundwater extraction have drastically reduced average inflows into the tradition tanks. The present case study shows that drastic reduction in inflow into Anubur tank of Bellary district reduction in inflow into Anubur tank of Bellary district in North-East of Karnataka. As the tank in now dry fow longer periods, the utility of the tank has declined for activities such as washing, bathing, watering livestock etc. On the positive side, this changed pattern has resulted in providing better access to irrigation to the farmers in the tank catchment and command. Interestingly, this has not been at the expense of irrigation in the tank command area as the total area irrigated in the command has not changed even through the source of water is now groundwater and not tank release. The feasibility of re-establishing tanks inflows to original levels and increase groundwater without impacting severely on the livelihoods of the new irrigators in the tank catchment and command have also been discussed in this paper.

सामग्री एवं विधि


अध्ययन क्षेत्र: कर्नाटक के अर्द्धशुष्क क्षेत्र में कुछ समय पहले की गई एक खोज से ज्ञात हुआ कि अगर समय रहते उचित उपाय नहीं किये गये तो तालाब एक इतिहास का हिस्सा बनकर रह जायेंगे। जलग्रहण विकास के कार्यक्रम के प्रभाव को जानने के लिये कर्नाटक के अलग-अलग हिस्सों में तीन तालाबों को चुना गया, जो कि गुडलूर तालाब जिला चित्रदुर्ग, अनुबूर तालाब-जिला बेल्लारी में स्थित हैं। कर्नाटक के अर्द्धशुष्क क्षेत्र में बेल्लारी जिले का अनुबूर तालाब-जिला बेल्लारी को विशेष रूप से प्रस्तुत करता है जोकि 2150 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 760 22’ से 760 33’ उ. देशान्तर एवं 140 33’ 140 42’ पूर्व अक्षांश में विस्तरित है (चित्र 1) इसमें पाँच गाँव अनुबूर, बी.जी. हल्ली, जोगी हल्ली, डी.बी.हल्ली उपरहल्ला विकास खण्ड उपरहल्ला में स्थित हैं जिसमें जलग्रहण की मृदा लाल-दोमट जो कि ग्रेनाइट व गनीसिस की परतों से युक्त है। समुद्र तल से ऊँचाई 600-711 मीटर तक है। जलग्रहण क्षेत्र का सामान्य ढलान 1.5 से 3.5 प्रतिशत तक है। इस क्षेत्र की मुख्य क्षेत्रीय फसलें जैसे ज्वार, धान, मक्का, रागी, मूंगफली, सूरजमुखी, कपास, चना तथा सब्जियाँ हैं। इन क्षेत्रों मे जल संरक्षण के लिये जल की उपलब्धता 11 से 18 प्रतिशत तक मापी गई हैं।

अनुबूर तालाबअपवाह जल की गणना: 11 वर्ष (2000-2010) की वर्षाजल अपवाह (Runoff) की गणना करने के लिये बेल्लारी से ली गई क्षेत्र की सामान्य वर्षा 531 मिमी. (401 से 577 मिमी.) पाई गई। एक दिन की 12.5 मिमी. से अधिक वर्षा को कटावी वर्षा मानकर अपवाह जल के लिये कर्व नम्बर विधि से गणना की गई जिसमें कटावी वर्षा 271 मिमी. (सामान्य वर्षा की 51 प्रतिशत) और अपवाह जल करीब 69 मिमी. (सामान्य वर्षा का 11 प्रतिशत) पायी गई (सारणी 1)।

सारणी 1- अनुबूर तालाब का वार्षिक अपवाह

वर्ष

कुल वर्षा (मिमी.)

कटावी वर्षा (मिमी.)

अपवाह (मिमी.)

वर्षा के दिन

अपवाह के दिन

2000

547.9

189.1

48.0

43

5

2001

530.1

236.0

76.9

36

6

2002

463.1

200.2

33.3

39

6

2003

506.9

262.0

96.8

36

6

2004

576.8

378.0

108.8

37

10

2005

499.3

257.3

78.7

26

10

2006

568.9

371.8

60.7

33

8

2007

401.3

104.52

20.1

42

3

2008

506.5

348.3

60.6

42

7

2009

654.5

303.0

66.4

47

9

2010

582.2

230.6

41.9

49

7

सामान्य

530.68

270.98

62.9

39

7

 

(51%)

(11%)

 

 

(18%)



कर्नाटक राज्य के कुछ तालाबों के अपवाह जल में आई कमी की जानकारी की संक्षिप्त में समीक्षा

तालाबों का नाम

अपवाह जल में आई कमी के कारण

गुडलूर (जिला चित्रदुर्ग)

नालों में से जमा रेत (silt) का निकालना व खनन के कारण जलग्रहण क्षेत्र में जलभराव की क्षमता का बढ़ जाना।

अनुबूर (जिला बेल्लारी)

जलाशय निर्माण के समय तालाब में दो सहायक नालियों द्वारा अपवाहित जल की आमद होती थी परंतु एक नाली पर जल संरक्षण संरचनाओं के बनने व दूसरी नाली के जलग्रहण क्षेत्र का संरक्षण बहुत अच्छा न होने के कारण अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पा रही हैं।

इनचिगरी (जिला बिजापुर)

इनचिगरी (बीजापुर) जलाशय के अधिग्रहण क्षेत्र में नालियों पर किसानों द्वारा बड़े-बड़े बन्धे बनाने से अपवाह जल की आमद अवरुद्ध हुई है, वह इसके अलावा गन्ना व धान जैसी फसलों के लिये अत्यधिक भूजल दोहन होना, क्षेत्र में पेयजल समस्या का मुख्य कारण है।

परिणाम एवं विवेचना
अनुबूर तालाब का पुराना स्वरूप


अनुबूर तालाब के जल ग्रहण (2150 हे.) में लगभग 531 मिमी. वर्षा होती है। इस तालाब की क्षमता 144 मी है। पहले इस तालाब से करीब 65 है. क्षेत्र सिंचित होता था। अनुबूर तालाब का जलग्रहण क्षेत्र तालाब को पूर्ण क्षमता तक न भरने के कारण दो अतिरिक्त नालियाँ जिनका जलग्रहण क्षेत्र कुल 325 है. (228+98 है.) था। इनके बहाव की दिशा में परिवर्तन कर अपवाह जल को तालाब तक लाया गया जिससे कि तालाब में जल स्तर अपनी क्षमता तक आ सके। वर्ष 2004 में अधिकतम अपवाह जल (270 है.मी.) जलग्रहण क्षेत्र से प्राप्त हुआ था। वर्ष 2007 जो की सूखा वर्ष था उसमें अपवाह जल की मात्रा केवल 50 है. मी. मापी गई। उपरोक्त आंकड़ों से दर्शित है कि यह तालाब पहले वर्षा के समय एक बार अवश्य भरते थे उसके बाद कुछ मात्रा में अपवाही जल निष्कासित (spill over) होकर नीचे के तालाबों को चला जाता था (सारणी 2)।

Sarni-2वर्षा के अध्ययन वर्षों के आंकड़ों से यह ज्ञात हुआ कि 73 प्रतिशत अपवाह जल माह जुलाई, अगस्त व सितम्बर माह में 27 प्रतिशत वर्ष के अन्य महीनों में पाया गया। यह अपवाह जल वर्षा के केवल 7-10 दिनों के अंदर होता है। जब ये तालाब अपनी क्षमता तक भरते थे तब न केवल 65 है. में विभिन्न फसलों की सिंचाई होती थी वरन समाज के विभिन्न वर्गों की जीविका इन्हीं तालाबों पर निर्भर थी जिसके कारण ग्रामीण वर्ग गाँव छोड़कर जीविका के लिये शहर की ओर कम पलायन करते थे।

अनुबूर तालाब का वर्तमान स्वरूप


वर्तमान अध्ययन व तालाब के अपवाह जल की मात्रा को देखने के बाद पाया गया कि यह तालाब पिछले 11 वर्षों में अपनी पूर्ण क्षमता तक नहीं भर सका। शोध द्वारा यह पता चला कि तालाब के जल आवक में आई कमी के अनेक कारण हैं, उनमें से मुख्य कारण निम्न हैं: जलग्रहण क्षेत्र में अत्यधिक जलसंरक्षण के लिये संरचनाओं (structures) का निर्माण होना, भूजल का अत्यधिक दोहन, बंजर जमीन को कृषि योग्य बनाकर खेती करना; तथा सरकारी नीतियाँ।

जलग्रहण क्षेत्र में अत्यधिक जल संरक्षण के लिये संरचनाओं का निर्माण होना


अनुबूर तालाब के जलग्रहण क्षेत्र में जलागम परियोजना वर्ष 1995 में प्रारम्भ हुई जिसमें विभिन्न प्रकार की जल एवं मृदा संरक्षण की 26 संरचनाओं का निर्माण हुआ (सारणी 3)। जिसके कारण अधिकतर अपवाह जल इन संरचनाओं के पीछे रुक जाता है जिससे तालाब तक बहुत कम अपवाह जल ही जा पाता है। इस अध्ययन से एक विशेष जानकारी यह भी मिली कि इन जल संरक्षण संरचनाओं के पीछे एकत्रित जल का वाष्पीकरण स्तर तालाब के जल के वाष्पीकरण स्तर से कहीं अधिक होता है उससे कहीं अधिक मात्रा में जल का वाष्पीकरण द्वारा क्षरण भी होता है (सारणी 4)।

सारणी 3- अनुबूर तालाब जलग्रहण क्षेत्र में जल संरक्षण संरचनाओं का विस्तृत विवरण

गाँव/संरचनाओं के प्रकार

संरचनाओं की संख्या

जल फैलाव क्षेत्र (हे.)

क्षमता क्षेत्र (हे.)

बी.जी.हल्ली

चेक्डैम

4

1.60

0.64

नाला बन्द जोगीहल्ली

1

4.00

5.60

चेक्डैम

5

1.50

0.60

नाला बन्द डी.बी.
 हल्ली

1

2.25

2.80

चेक्डैम

2

1.24

0.144

नाला बन्द अनुबूर

1

2.00

2.40

चेक्डैम

10

2.00

0.60

नाला बन्द

2

4.00

5.60

कुल मात्रा

26

17.59

15.54

Sarni-4

भूजल का अत्यधिक दोहन


किसी भी क्षेत्र में अगर सिंचित फसलों की पैदावार और बारानी क्षेत्र की फसलों की तुलना की जाय तो यह पाया है कि सिंचित क्षेत्र की फसलों द्वारा 3-5 गुना अधिक लाभ होता है। इसी कारण किसानों ने जल ग्रहण क्षेत्र में सिंचाई के लिये गहरे कुएँ खोदने शुरू कर दिए। 1990 से पहले किसान केवल कम गहरे 76 कुएँ, जिनकी गहराई 10 मीटर तक थी, पर ही आश्रित थे पर आज जल ग्रहण क्षेत्र के अंदर इस स्तर के कुएँ सुख गये हैं। अब इनके स्थान पर नई तकनीकी वाले बोरवेल व ट्यूबवेल बनने लगे हैं, जिनकी गहराई 300 मीटर से भी अधिक है। इस प्रकार के बोरवेल के कारण क्षेत्र के अंदर भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ व भूजल स्तर बहुत तेजी से नीचे गिरता गया। जिसके कारण असंतृप्त क्षेत्र में वृद्धि हुई इसके कारण तालाबों व नालियों के अंदर बहुत कम समय के लिये जल नजर आता है (सारणी 5)।

Sarni-5Sarni-6

बंजर जमीन को कृषि योग्य बनाकर कृषि करना


जलागम परियोजना के अंतर्गत इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है कि किस तरह से बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाया जाय। इसके लिये बंजर भूमि पर बड़े-बड़े मिट्टी के बंधे बनाये गये व वर्षाजल को रोका गया। उन खेतों में संकर प्रजाति की फसलों को उगाया जाता है यह सब प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है, जिसके कारण जल उपयोग संकर जाति की फसलों को उगाने में अत्यधिक होता है। शोध से यह ज्ञात हुआ कि जहाँ पहले 214 हेक्टेयर की सिंचाई होती थी वह बढ़कर 336 हेक्टेयर (57% अधिक) तक पहुँच गई। वही पर भूजल उपयोग 207 है.मी. से बढ़कर 340 है.मी. (65% अधिक) पहुँच गया (सारणी 6)।

सरकारी नीतियाँ


जलाशयों की वर्तमान स्थिति के लिये सरकारी नीतियाँ भी दोषपूर्ण हैं इनमें संशोधन अति अनिवार्य लगते हैं, वे इस प्रकार से है:

1. जलागम विकास परियोजना के तहत निर्मित संरचनाओं के कारण तालाबों के अंतर्गत अपवाह जल, भूगर्म जल पुनर्भरण (groundwater recharge) में कमी आई। 7.5 अश्वशक्ति (HP) तक के पम्पों पर निःशुल्क बिजली देना व पम्प के लिये 75 प्रतिशत तक अनुदान या बहुत ही सस्ती दरों पर कर्ज मिलना।

2. भूगर्भ जल निकालने के लिये कुएँ खोदने या बोरिंग करने के संबंध में सरकारी ठोस नीति का न होना। इसके साथ जल का उपयोग करने वाले लोगों का सक्षम संगठन न होना।

3. भारत में 70-80 के दशक में हरित क्रान्ति पर बहुत जोर दिया गया जबकि हरित क्रान्ति के साथ-साथ शुष्क खेती (dry land agriculture) के विकास पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये था जिससे की जल संसाधन पर कम दबाव पड़ता।

4. दक्षिण भारत के तालाबों की पहले सामाजिक देख-रेख में मरम्मत व रख-रखाव होता था परंतु बाद में सरकारी नियंत्रण में हो जाने इनके रख-रखाव में बहुत कमी आई।

तालाबों के सुधार हेतु विशेष सुझाव


यह पाया गया है कि आज भी नये जल संसाधनों का विकास करने में जितना खर्च आता है, उससे बहुत कम खर्च में इन तालाबों का जीर्णोद्धार किया जा सकता है। यदि इन पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार किया जाता है तो समाज के विभिन्न वर्गों के लिये जीवन-यापन करने का सहारा मिल जायेगा साथ ही गाँवों से लोगों का पलायन भी रोका जा सकेगा। इसके लिये निम्न तथ्यों पर ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी है-

1. जो समाज आज इन तालाबों से अलग हो चुका है उसको दुबारा से इनके सुधार व रख-रखाव में सहभागी बनाए जाए और ग्राम सभा जैसी चुनी हुई संस्थाओं से भी जोड़ा जाए।

2. जलागम परियोजना के तहत जल संरक्षण के लिये जो संरचनाएं बनाई जाती है उनके लिये अपवाह जल की मात्रा का विशेष रूप से ध्यान रखा जाए। अपवाह जल की मात्रा तालाब की क्षमता से अधिक होने पर ही जलागम क्षेत्र में जल संरचनाएं बनाई जाए अन्यथा इन्हें न बनाया जाए।

3. जल संरक्षण की संरचनाओं की अभिकल्पनाएं (design) इस प्रकार से हों कि इन संरचनाओं में जल अपनी क्षमता का एक गुना ही रुके। शेष जल निचले स्तर के तालाबों व नालियों में पहुँच सके यह तभी संभव है जब जल संरक्षण के लिये संरचनाओं में जलद्वारों का निर्माण किया जाए जिससे कि जब वर्षा समाप्त होने को हो और नालियों में स्वच्छ जल बह रहा हो तो उस समय जलद्वारों को बंद कर दिया जाए। इस प्रकार जल संरक्षण संरचनाओं में मिट्टी का जमाव रोक जा सकेगा और इनकी क्षमता लम्बे समय तक बनी रहेगी।

4. जैसा कि सर्वविदित है कि तालाब प्राचीन काल से ही अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र में बहुत उपयोगी होते हैं। यदि जलग्रहण क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियां अनुकूल हों तो वहाँ पर भू-सतह के नीचे जल संरक्षण सरंचनाओं (sub surface water harvesting structures) का निर्माण किया जाए जिससे जल संरक्षण संरचनाओं के एकत्रित जल के वाष्पीकरण को कम किया जा सके।

5. नालियाँ जो कि तालाब में जल लाती हैं उनकी लगातार सफाई होनी चाहिए जिससे कि अपवाह जल की गति में अवरोध न हो सके, साथ में एक सुनिश्चित समय अंतराल पर तालाबों की मिट्टी को बाहर निकलवाते (desiltation) रहना आवश्यक है।

6. जलग्रहण क्षेत्र के अंतर्गत बेकार पड़े हुए कुएँ व बोरियों को जल पुनर्भरण के उपयोग में लाया जाय।

7. गहरे जलस्रोतों से जल निकालने की प्राथमिकता केवल पीने के पानी के लिये ही होनी चाहिए यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है।

8. तालाबों में उचित मात्रा में जल होने पर लिट सिंचाई योजना के तहत किसानों को जलग्रहण क्षेत्र में जल दिया जाए वहीं कमाण्ड क्षेत्र में भू-गर्भ जल निकालने की अनुमति होनी चाहिए जिससे कि लाभार्थी किसानों को समान रूप से लाभ मिल सके।

9. तालाबों के पानी से सिंचाई होने की दशा में जलग्रहण क्षेत्र में इस तरह की फसलों का चयन हो जिनमें जल मांग कम व लाभ भी औसत स्तरीय हो, इससे तालाबों में अधिक समय तक जल बना रह सकेगा।

10. पारम्परिक जल संरक्षण की अन्य विधियों जैसे छत के पानी को इकट्ठा कर उपयोग में लाये जाने की विधि को प्रोत्साहित करने की ओर भी ध्यान दिया जाए।

11. कुछ तालाबों में दूसरे जलग्रहण क्षेत्र से जल लाने के लिये नालियों का निर्माण किया जाए या दुबारा से चालू किया जाए।

तालाबों का सुधारने के लिये कानूनी व प्रशासनिक सुझाव


1. योजना का प्रारूप बड़े स्तर पर तैयार हो परंतु कार्यक्रम ग्राम स्तर से ही शुरू हों।

2. प्राकृतिक संसाधनों के रख-रखाव की योजना लम्बे समय के लिये होनी चाहिये।

3. तालाबों के जल पर पीने के पानी का अधिकार पहले होना चाहिये। उसके बाद भूजल भरण व सिंचाई के लिये प्राथमिकताएं होनी चाहिए।

4. प्रोत्साहन व प्रातड़ना का कानूनी अधिकार जल उपयोग समिति के पास रहना चाहिए, जिससे भ्रष्टाचार कम हो। इन सबके साथ-साथ भूजल दोहन व प्रबंधन के लिये भी प्रभावी कानून बनने चाहिए और ईमानदारी के साथ लागू भी होने चाहिए।

5. तालाब सुधार योजनाओं को राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना जैसी परियोजनाओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए।

निर्णायक परिणाम


तालाबों की वर्तमान स्थिति के लिये सारांश में जलग्रहण विकास से ज्यादा छोटे बाँधों का बनना, भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन व खेती के क्षेत्र में बढोत्तरी, तालाबों के उचित रख-रखाव में कमी व सरकारी कानून को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। आज इन पारम्परिक बहुउद्देशीय तालाबों को दुबारा से जीवित करना बहुत जरूरी हो गया जिससे की इनके द्वारा पर्यावरण व समाज के सब वर्गों को दुबारा से लाभ मिल सके, उसके लिये ऊपर बताये गये कारणों को समझकर उनका समय रहते समाधान निकालना होगा तभी तालाबों की बहुउद्देशीय पहचान बन सकेगी और गाँव के प्राकृतिक वातावरण को जीविका के साधन बढ़ाने के लिये और अच्छा बनाया जा सकता है।

सम्पर्क


ए के सिंह एम एस राम मोहन राव एवं आर एन अधिकारी, A K Singh, M S Rama Mohan Rao & R N Adhikari
केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, अनुसंधान केद्र छलेसर, आगरा 282006 (उ.प्र.), केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, अनुसंधान केद्र बेल्लारी कैट, बेल्लारी, 583104 (कर्नाटक) Central Soil and Water Consrevation Research and Training Institute, Research Center, Chhalesar, Agra 282006(U.P.), Central Soil and Water Consrevation Research and Training Institute, Research Center,Bellary Cantt, Bellary 583104 (Karnataka.)

भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, 01 जून, 2012


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