दक्षिण भारतः शिलालेखों पर सबूत

सरकारी प्रयासों से सिंचाई के लिए नहरों के अलावा कुएं और तालाब भी बनवाए जाते थे। महाभारत में युधिष्ठिर को शासन के सिद्धांतों के बारे में सलाह देते हुए नारद ने विशाल जलप्लावित झीलें खुदवाने पर जोर दिया है ताकि खेती के लिए वर्षा पर निर्भर न होना पड़े। प्राचीन भारतीय शासकों ने सार्वजनिक हित के लिए सिंचाई सुविधाओं के विकास जैसे जो कार्य किए उनके पुरालेखी प्रमाण हाथी गुंफा के शिलालेखों (ई.पू. दूसरी शताब्दी) से मिलते हैं। इनमें कहा गया है कि मगध में नंद वंश के संस्थापक प्रथम नंदराजा महापद्म (ई.पू. 343-321) के काल में राजधानी कलिंग के पास तोसली डिवीजन में एक नहर खोदी गई थी (पूर्व-मध्य भारत का वह क्षेत्र जिसमें अब का उड़ीसा, आंधप्रदेश का उत्तरी हिस्सा और मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा जुड़ा था)। नहरों की खुदाई से सरकार पर उनके रखरखाव की जिम्मेदारी स्वाभाविक तौर पर आ गई। आर्य शासकों के काल में नदियों पर निगरानी, भूमि के नाप-जोख (मिस्र की तरह) और मुख्य नहर से फूटने वाली दूसरी नहरों के लिए पानी के बहाव को रोकने वाले कपाटों की निगरानी के लिए बाकायदा अधिकारी नियुक्त किए जाते थे।

सरकारी प्रयासों से सिंचाई के लिए नहरों के अलावा कुएं और तालाब भी बनवाए जाते थे। महाभारत में युधिष्ठिर को शासन के सिद्धांतों के बारे में सलाह देते हुए नारद ने विशाल जलप्लावित झीलें खुदवाने पर जोर दिया है ताकि खेती के लिए वर्षा पर निर्भर न होना पड़े। बांधों के रखरखाव के प्रति प्राचीन शासकों की उत्सुकता कुंतगनी के शिलालेखों से प्रकट होती है जिसमें लिखा है कि कदंब शासक रविवर्मन ने वरियाका गांव में तालाब के बांध बनाने का आदेश दिया था। कदंबों ने चौथी से छठीं ई. के बीच मैसूर के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र पर शासन किया था। ऐसे सत्कर्मों को बहुत महत्व दिया जाता था। मरम्मत के अलावा तालाब-कुएं खुदवाने के काम को भी गर्व का काम माना जाता था। नागार्जुन कोंडा के एक शिलालेख में सेतगिरि पर कई सामंतों द्वारा अष्टाभियास्वामिन मंदिर की अधिस्थापना का उल्लेख तो है ही, उनके द्वारा सेतगिरि और मुडेरा पर्वतों पर एक-एक तालाब बनवाने का भी उल्लेख है। गुंड के एक शिलालेख में एक अहीर सेनापति रुद्रभूति द्वारा रसोपद्रा गांव में एक तालाब बनवाने का उल्लेख किया गया है। सामंत परिवारों में जन्मे या सामान्य श्रेणी के लोगों द्वारा धार्मिक भावना से भी तालाब और कुएं बनवाने के उदाहरण मिलते हैं।

भारत में हाल में हुए पुरातात्विक खनन से कुछ प्राचीनतम नहरों के निशान सामने आए हैं। नागार्जुन कोंडा में औसतन 50 फुट चौड़ी और 16 फुट गहरी नहर के निशान मिले हैं। यह घाटी के दक्षिण-पूर्वी कोने पर है और चारों तरफ से ऊंची पहाड़ियों से घिरी है। नहर के तटबंध कंकड़-पत्थर और चूने के गारे से मिलाकर बनाए गए थे ताकि पानी के तेज बहाव को थाम सकें। ये इतने पक्के थे कि आज भी कुदाल या सब्बल से भी मुश्किल से तोड़े जा सकते हैं।

चूंकि खेतीबाड़ी के लिए नहरों-तालाबों को आवश्यक माना गया, इसलिए शासन ने इनके इस्तेमाल के किसानों के अधिकारों को सुरक्षित करने के उपाय किए, भले ही वे दूसरों के अधिकार क्षेत्र में हों इसलिए जब गंगा सम्राट- गंगा वंश ने मैसूर राज्य पर 250-1004 ई. तक राज्य किया- देवेंद्र वर्मन ने जब एक ब्राह्मण को मकान और जल स्रोत के साथ भूमि दान में दी तो उसे स्पष्ट निर्देश दिया कि गर्मियों (ग्रीष्मोदक) में वह “दूसरे परिवारों को जल लेने देगा।” शासन द्वारा निर्मित जल स्रोतों और तालाबों के प्रयोग के लिए अधिकारियों से अनुमति लेनी आवश्यक थी। इसीलिए सिद्धार्थक गांव में भूखंड के स्वामी ब्राह्मण को सिंचाई के लिए समीप के राजतातक से पानी लेने के लिए उसे भूमि दान करने वाले से अनुमति लेनी पड़ी।

सिंचाई प्रणाली को क्षति पहुंचाना घृणित अपराध माना जाता था, भ्रूण हत्या के अपराध के समान ऐसा अपराध करने वाले के गले में पत्थर बांधकर डुबा देने का दंड दिया जा सकता था। प्रख्यात मनुस्मृति के रचियता मनु ने लिखा है कि बांध काटने वाले को डुबा देने या मार देने की सजा दी जा सकती है। अगर वह बांध की मरम्मत करता है तो भी उसे एक उत्तमसहस का जुर्माना किया जा सकता है।
सिंचाई प्रणाली को क्षति पहुंचाना घृणित अपराध माना जाता था, भ्रूण हत्या के अपराध के समान ऐसा अपराध करने वाले के गले में पत्थर बांधकर डुबा देने का दंड दिया जा सकता था। प्रख्यात मनुस्मृति के रचियता मनु ने लिखा है कि बांध काटने वाले को डुबा देने या मार देने की सजा दी जा सकती है। अगर वह बांध की मरम्मत करता है तो भी उसे एक उत्तमसहस का जुर्माना किया जा सकता है। सार्वजनिक उपयोग के तालाब को क्षति पहुंचाने वाले के लिए मनु ने प्रथमसहस दंड देने की बात लिखी है। सिंचाई प्रणालियों की सुरक्षा के प्रति गांववासी खुद भी सचेत थे। पेड़ों, कुओं, तालाबों आदि को क्षति न पहुंचाने के समझौतों के भी उदाहरण मिलते हैं। समझौते को तोड़ने वाले को दंडित करने के लिए उसकी जमीन का एक हिस्सा जब्त करके स्थानीय मंदिर को सौंप देने के उदाहरण भी मिलते हैं।

नहरों, तालाबों और कुओं से पानी खींचकर सिंचाई करने में बाल्टी, पानी खींचने वाले यंत्र, पेकोत्ता (पानी ऊपर नाले का यंत्र) और ताड़पत्र की टोकरियों का व्यापक इस्तेमाल होता था। दक्षिण में इस तरह के यंत्रों का उपयोग इतना व्यापक था कि ऐसे कारीगरों-औदयमत्रिक- की जाति का गठन हो गया था। महाराष्ट्र प्राकृति के सबसे प्राचीन चयनिका गाथा सप्रशती (या गाथा सतसई) में पानी खींचने वाले यंत्र रहट्ट घड़िया (यानी अरघट्टा) का उल्लेख है।
कदंब राजा काकुस्थ वर्मन के छोटे बेटे कदंब कृष्णवर्मन द्वितीय को बेन्नूर दान से हम ‘राजभाग-दसबंध’ नामक शब्द से परिचित होते हैं। दक्षिण भारत में मिले मध्ययुगीन शिलालेख में इस शब्द का उपयोग तालाब, कुआं या नहर बनाने के एवज में दिए जाने वाले कर, भूमि दान या राजस्व के रूप में किया गया है। दसबंध का अर्थ है तालाब निर्माण जैसे सार्वजनिक कार्य के लिए राजस्व में से दसवां हिस्सा निकालना।

यानी राजा कुएं, तालाब या नहर केवल धार्मिक कार्य के लिए ही नहीं बनवाता था। इससे राजकोष को राजस्व भी मिलता था। ये दसबंधनी इनाम उन व्यक्तियों को दिए जाते थे जो ऐसे तालाब, कुएं, नहर बनाते थे जिससे राजकोष को आय होती थी। इनाम की मात्रा लगाई गई पुंजी और राजस्व के अनुपात में होती थी।

नहरों, तालाबों और कुओं से पानी खींचकर सिंचाई करने में बाल्टी, पानी खींचने वाले यंत्र, पेकोत्ता (पानी ऊपर नाले का यंत्र) और ताड़पत्र की टोकरियों का व्यापक इस्तेमाल होता था। दक्षिण में इस तरह के यंत्रों का उपयोग इतना व्यापक था कि ऐसे कारीगरों-औदयमत्रिक- की जाति का गठन हो गया था। महाराष्ट्र प्राकृति के सबसे प्राचीन चयनिका गाथा सप्रशती (या गाथा सतसई) में पानी खींचने वाले यंत्र रहट्ट घड़िया (यानी अरघट्टा) का उल्लेख है। यह एक ऐसा आविष्कार था जिसका उपयोग कुओं-तालाबों से पानी खींचने के लिए किया जाता था। यह आरे पर चलता था। प्रख्यात पुरातत्वविद् और इतिहासकार हिमांशु प्रभा राय के मुताबिक, अरघट्टा में मिट्टी के कई घड़े पहिए की परिधि पर लगे होते थे। यह पहिया पानी की लहर के जोर से घूमता था। हर जगह अरघट्टा एक ही तरह से काम नहीं करता था। इसका एक रूप उद्घाटन था जिसमें पहिया पीपे के आकार का होता था जो रस्सियों के सहारे पानी पर ऊर्ध्वाकार घूमता था। मिट्टी के घड़े इसमें बराबर दूरी पर बंधे होते थे।

सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरोनमेंट की पुस्तक “बूंदों की संस्कृति” से साभार

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