दलदल भरो, दलदल में फंसो

नदी, झील और तालाबों की तरह ही देश के प्राकृतिक दलदलों पर भी संकट छाया हुआ है। हर चीज को आर्थिक लाभ के तराजू पर तोलने वाली आज की निगाह में दलदल एक ऐसी बेकार, बेमतलब जगह है जो बस कीड़े-मकोड़े, सांपों का घर है। इसलिए पहली कोशिश यही रहती है कि दलदल कैसे भर दिया जाए और उस जगह का कोई उपयोग कर लिया जाए। पश्चिम के ही विशेषज्ञ बता रहे हैं कि दलदल बहुत जरूरी है और उन्हीं के सरकारें दलदलों को पाटने के लिए हमारे जैसे देशों को पैसा दे रही हैं।

अपने यहां सबसे अच्छे दलदल हैं। पश्चिम बंगाल में और आज वहीं उन पर सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है। बंगाल की जमीन पर सपाट है, मुहाना है, समुद्र की सतह जमीन से ऊंची है और नदी किनारों में साद जल्दी जमा होती है। अभिक्त बंगाल में 200 से ज्यादा बड़े-बड़े दलदल थे।

दलदलों के अविवेकपूर्ण विनाश का एक बड़ा उदाहरण है कलकत्ते के पूर्वी किनारे पर स्थित बड़े दलदल में उभरता हुआ साल्ट लेक सिटी। वहां लगभग 4000 हेक्टेयर दलदल आज भर दिया गया है। यह दलदल कलकत्ता शहर पर बरसने वाले सारे पानी को अपने में समा लेता था। लेकिन आज भराई के कारण उसकी सतह शहर से ऊंची हो गई है, समूचे पूर्वी किनारे में पानी इकट्ठा हो जाता है। मामूली-सी बौछार पड़े, तब भी शहर में पानी का जमाव होने लगता है।

एक जमाने में मुख्यमंत्री डॉ बीसी. राय ने 4000 हेक्टेयर दलदल के भराव का काम यूगोस्लाविया की एक कंपनी को सौंपा था। उन दिनों सब लोग कंपनी की कारीगरी को देखकर चकित थे। हुगली नदी की तली से रेत पंप की जाती थी और पाइपों के जरिये भराई की जगह पहुंचाई जाती थी। उस परियोजना के दो उद्देश्य थे-गाद निकालकर नदी को बचाना और कलकत्ते के मध्यवित्तिय लोगों को मकानों के लिए जमीन मुहैया कराना।

साल्ट लेक सिटी पूरी बनने से एक लाख परिवारों के रहने का ठिकाना तो हो जाएगा, लेकिन इसके कारण बड़ी समस्या भी खड़ी हो गई है। शहर की जल निकासी व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती जा रही है। इस दलदल से मिलने वाली सालाना 25,000 टन मछली कम हो गई है। मछली पालन केंद्रों को साल्ट लेक सिटी के निर्माण से बुरे दिन पड़े हैं। अब मछली पालन केंद्रों के लिए गंदे पानी का आसरा लेना पड़ रहा है। सिटी के बनने के बाद से मछली के दामों में 700 से 800 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो गई है।

लेकिन सरकार ने कोई सबक सीखा नहीं है। गृह निर्माण और विकास विभाग बचे हुए 4,000 हेक्टेयर दलदल को भी भरवाने का कार्यक्रम हाथ में लेने को तैयार बैठे हैं। इसका विरोध पश्चिम बंगाल के ही मछली पालन और पर्यावरण विभाग वाले कर रहे हैं जो मानते हैं कि शहर के पास इस प्रमुख दलदल को खत्म करने का बड़ा ही दूरगामी दुष्परिणाम होगा।

कलकत्ता के पूर्वी किनारे पर गंदे नाले के पानी में मछली पालन का केंद्र, चीन के बाहर, चलने वाले गिने-चुने ऐसे केंद्रों में से एक है, जहां बड़े पैमाने पर शहरी गंदगी को मछली के आहार के रूप में बदला जाता है। कलकत्ता के थोड़े से कच्चे मल-मूत्र का इस्तेमाल लगभग 25,000 हेक्टेयर मछली तालाबों में खाद के रूप में किया जाता है। जब 1930 से सीवेज मछली पालन केंद्रों की शुरुआत हुई, तो वे 10,000 हेक्टेयर से ज्यादा में फैले थे। लेकिन बाद में जमीन हड़पने के कारण यह इलाका सिकुड़ता गया। मछुआरे कहते हैं कि प्रति हेक्टेयर सालाना 10 से 20 टन तक मछली पैदा कर रहे हैं। एक सीवेज फार्म ने तो 28 टन तक का दावा किया है । लेकिन आज कलकत्तावासियों को 50 साल पहले के इस मछली पालन उद्योग का हाल मालूम नहीं है और न वे यह जानते हैं कि दलदल के भराव से कितना बड़ा खतरा उनके सिर पर मंडरा है।

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