दलितों को तालाबों से पानी पीने का हक

13 Apr 2017
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Chavdar pond
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अम्बेडकर जयन्ती 14 अप्रैल 2017 पर विशेष

धरती के भीतर के पानी और उसकी सतह पर बने प्राकृतिक नदी-नालों और तालाबों पर आखिर किसका अधिकार होता है, यह बहस आज भी कई बार उठती है और लोग इस पर अपनी-अपनी तरह से बात करते हुए तर्क भी रखते हैं लेकिन बाम्बे हाईकोर्ट का 1937 का यह निर्णय आज भी हमारे सामाज के लिये मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह बताता है कि किस तरह पानी पर अन्ततः समाज का ही अधिकार होता है। उस समाज का, जो उसके पानी का उपभोग करता है। यह बात करीब 80-90 साल पुरानी है, जब बाबा साहब अम्बेडकर ने सबसे पहले सार्वजनिक तालाबों से दलितों को पीने के पानी का हक दिलाया था। इसके लिये उन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ा, महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में महाड़ कस्बे में उन दिनों पीने के पानी का संकट था और दलितों के जलस्रोतों में पानी नहीं था। उन्हें जीवित रहने के लिये पानी की जरूरत थी लेकिन उन दिनों समाज में छुआछूत की प्रवृत्ति बहुत अधिक होने से सार्वजनिक तालाबों से उन्हें पानी नहीं लेने दिया जा रहा था। अम्बेडकर ने इस संघर्ष की अगुवाई की और लोगों को पानी का अधिकार दिलाया।

हिन्दू समाज में जातिप्रथा व्यवस्था की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसमें दलितों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से हमेशा ही दबाया गया और इन्हें समाज से इतना अलग-थलग कर दिया गया था कि ऊँची जातियों के लोग इनके छूने भर से परहेज करते थे। दलितों के स्पर्श से वे अपने आप को अपवित्र मानते थे। उन दिनों दलित परिवारों के पीने और अन्य कामों के लिये पानी की व्यवस्था उनके आसपास या दूर पृथक से होती थी। ये लोग वही पानी पीने में उपयोग करते थे और उन जलस्रोतों के सूखने या अकाल की स्थिति में भी कभी उन्हें सवर्ण समाज के जलस्रोतों से पानी लेने का कोई अधिकार नहीं हुआ करता था। यहाँ तक कि ये लोग सार्वजनिक तालाबों और कुओं से भी पानी नहीं ले सकते थे।

इन्हीं स्थितियों के खिलाफ अगस्त 1923 में बाम्बे लेजिस्लेटीव काउंसिल (मुम्बई विधान परिषद) में एक प्रस्ताव लाया गया। इसके अनुसार वे सभी जगहें, जिनका निर्माण और देख-रेख सरकारें करती हैं, वे सार्वजनिक हैं और इनका इस्तेमाल कोई भी व्यक्ति कर सकता है। इसी अधिनियम को जनवरी 1924 में महाड़ (जो बाम्बे नगर निगम परिषद् के अधीन था) में लागू किया गया। लेकिन सवर्ण जातियों ने इसका भारी विरोध किया। विरोध इतना बढ़ा कि इस अधिनियम को अमल नहीं किया जा सका।

बाद में जब इसकी जानकारी स्थानीय दलित वर्ग के लोगों ने 1927 में डॉ. अम्बेडकर को दी तो उन्होंने महाड़ के सार्वजनिक तालाब से दलितों के पीने के लिये पानी दी जाने की माँग को लेकर सत्याग्रह करने का फैसला किया। उनके संगठन बहिष्कृत हितकारिणी सभा ने 19-20 मार्च 1927 को दस हजार लोगों की मौजूदगी में एक बड़ा सम्मलेन किया।

इस सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर और अन्य वक्ताओं ने देश में व्याप्त तत्कालीन स्थितियों के साथ उच्च वर्ग और नीचे के वर्ग में भेदभाव तथा छुआछूत को मिटाने और देश को आगे बढ़ाने का महत्त्व लोगों के बीच रखा। यहाँ दलित वर्ग को सन्देश दिया गया कि वे अपने आपको सशक्त बनाएँ तथा उन्हें अपने आपको बुलन्द करने के लिये स्वावलम्बन, आत्मरक्षा और आत्मज्ञान की शिक्षा दी गई। सम्मेलन के बाद यहाँ मौजूद लोगों ने चवदार तालाब (जो उन दिनों शहर का प्रमुख तालाब था और मीठे पानी के तालाब के पानी के लिये पहचाना जाता था) की ओर पैदल शान्तिपूर्ण तरीके से मार्च किया। पैदल मार्च जब डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में चवदार तालाब की पाल पर पहुँचा तो उन्होंने अपने साथियों के साथ इसका पानी पिया।

इसकी खबर जैसे ही सवर्ण जाति के कुछ उग्रवादी कार्यकर्ताओं को लगी तो उन्होंने अफवाहें फैला दी कि डॉ. अम्बेडकर अपने साथ बड़ी भीड़ लेकर पवित्र मन्दिरों में प्रवेश करने आ रहे हैं। इसे लेकर कई लोग लाठी-डंडों से लैस होकर वहाँ पहुँच गए और तालाब से लौटते निहत्थे दलितों की भीड़ पर हमला बोल दिया। लोगों को पीटा गया। दलितों की बस्ती में जाकर दंगा किया गया। घरों से निकाल-निकाल कर बच्चे, बूढ़ों और औरतों तक को पीटा। उनके घरों में तोड़फोड़ की गई।

सवर्ण समाज के लोगों का आरोप था कि अछूतों ने हमारे तालाब से पानी पीकर इसे भी अछूत कर दिया है। यहाँ कर्मकांड करके इसे फिर से शुद्ध करने की कवायद की गई लेकिन डॉ. अम्बेडकर में एक बार फिर महाड़ में 26-27 दिसम्बर 1927 को एक सम्मेलन आयोजित करने की घोषणा की। इसके विरोध में सवर्ण समाज के कुछ लोग चवदार तालाब को गैर सरकारी सम्पत्ति बताते हुए इस मामले को न्यायालय में ले गए। मामला न्यायालय में लम्बित होने से डॉ. अम्बेडकर को सत्याग्रह स्थगित करना पड़ा।

चवदार तालाबउधर न्यायालय में इस मामले की जोरदार पेशी हुई और अदालत ने अछूतों को न्याय देते हुए इंसानियत के पक्ष में अपना फैसला सुनाया। बाम्बे हाईकोर्ट ने दिसम्बर 1937 में अपने महत्त्वपूर्ण फैसले में कहा कि तालाब के पानी पर सबका हक है और सभी वर्ग के लोग इसके पानी का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसी सत्याग्रह ने दलित वर्ग के लोगों के मन में विश्वास पैदा किया कि उन्हें भी न्याय मिल सकता है और बाम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले ने यह साबित कर दिया कि जलस्रोत प्रकृति के अनमोल उपहार हैं और वे समाज के सभी तबकों वर्गों के लिये समान रूप से इस्तेमाल किये जा सकते हैं।

इसके बाद तो दलित समाज के लोगों ने छुआछूत और समाज में ऊँच-नीच की भावना को मिटाने के लिये लम्बी लड़ाइयाँ लड़ीं और जीतीं भी लेकिन महाड़ सत्याग्रह जो सबसे पहले पीने के पानी जैसी बुनियादी आवश्यकता के लिये किया गया, इसने दलित वर्ग के लोगों में एक नई ऊर्जा और हौसले के साथ आत्म चेतना भी जागृत की। आज भी 20 मार्च का दिन महाड़ सत्याग्रह की याद में सामाजिक सशक्तिकरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

महाड़ तालाब पर आज भी एक शिलालेख लगा है, जिस पर बाबा साहब का उस सत्याग्रह के दौरान दिया गया महत्त्वपूर्ण सन्देश अंकित है –पानी मनुष्य के लिये सबसे बड़ी मूलभूत जरूरत है।

धरती के भीतर के पानी और उसकी सतह पर बने प्राकृतिक नदी-नालों और तालाबों पर आखिर किसका अधिकार होता है, यह बहस आज भी कई बार उठती है और लोग इस पर अपनी-अपनी तरह से बात करते हुए तर्क भी रखते हैं लेकिन बाम्बे हाईकोर्ट का 1937 का यह निर्णय आज भी हमारे सामाज के लिये मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह बताता है कि किस तरह पानी पर अन्ततः समाज का ही अधिकार होता है। उस समाज का, जो उसके पानी का उपभोग करता है।

हमारी संस्कृति में हजारों सालों से पानी और पानी के विभिन्न स्रोतों पर समाज की आधिकारिकता, नियंत्रण, पहरेदारी और हिस्सेदारी रही है। लेकिन बीते करीब पचास सालों से हमने जलस्रोतों और पानी के मामले में सरकारों पर अपनी निर्भरता बढ़ा दी है। घर-घर नलजल की वजह से हमने अपने पारम्परिक जलस्रोतों की अवहेलना करते हुए उन्हें उपेक्षित कर दिया। समाज इन्हें उपेक्षित कर जब इनकी पहरेदारी से विमुख हुआ तो तालाबों, कुएँ-कुण्डियों और पानी भी धीरे-धीरे समाज से दूर हो गया। अब हर कहीं जलसंकट की आहट सुनाई देने लगी है।

इस सत्याग्रह से हमें सीखने की जरूरत है कि जब तक समाज उठ खड़ा होकर अपने पानी की चिन्ता नहीं करेगा, तब तक हालात सुधरने की कोई सूरत नजर नहीं आती।

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