दुनिया के अन्य इलाकों के अनुभव

जिन परियोजनाओं पर काफी काम हो चुका है, उनमें छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी का निजीकरण, टिहरी बांध से गंगा नहर के जरिए दिल्ली को पानी आपूर्ति का अनुबंध और तिरुपुर परियोजना शामिल हैं। शिवनाथ परियोजना दुर्ग के शहर के पास बोरई औद्योगिक क्षेत्र को जल आपूर्ति के लिए है। इस परियोजना में शिवनाथ नदी के हिस्से को रेडियस वाटर लिमिटेड को सौंप दिया गया है। यह कंपनी एक स्थानीय व्यक्ति कैलाश सोनी की है। सबसे बदनाम मामला कोचाबांबा का ही है, जिसका जिक्र शुरू में किया गया है। लेकिन कोचाबांबा की कहानी संबंधित कंपनी को देश से भगाने के साथ ही खत्म नहीं हुई है।

कंपनी ने अब अंतरराष्ट्रीय निवेश विवाद निपटारा केंद्र (ICSID) में दावा ठोक दिया है। विवादों को सुलझाने का यह केंद्र विश्व बैंक में है और विश्व बैंक द्वारा ही बनाया गया है। एगुअस डेल टुनारी/बेक्टेल ने बोलिविया पर 250 लाख अमेरिकी डॉलर (करीब 120 करोड़ रुपए) के हर्जाने का दावा ठोका है। इस केंद्र में कार्यवाही पूरी तरह गोपनीय होती है और इसमें निर्णय से प्रभावित लोगों या अन्य आम लोगों की कोई सुनवाई नहीं होती। इतना ही नहीं, इस केंद्र तक अपने मामले को ले जाने में बेक्टेल कंपनी छल-कपट का भी सहारा ले रही है। वह स्वयं को एक डच कंपनी बता रही है, ताकि बोलिविया व हालैंड के बीच हुई एक संधि का फायदा उठा सके। इस संधि के तहत किसी व्यापारिक विवाद को ICSID में ले जाया जा सकता है। बेक्टेल ने कोचाबांबा समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद ही अपना पंजीकरण हालैंड स्थानांतरित किया था। सितंबर, 2002 के शुरू में दुनिया भर के सैकड़ों संगठनों ने विश्व बैंक को लिखा था कि विवाद निपटारे की कार्यवाही खुले में की जाए और उसमें बोलीविया के लोगों को भाग लेने की इजाजत दी जाए। इस मांग को लेकर जगह-जगह बड़े और जोशीले प्रदर्शन किए गए। कोचाबांबा तेजी से पानी जैसे संसाधन के कंपनीकरण, भूमंडलीकरण और व्यापारीकरण के खिलाफ विश्व भर के लोगों के रोष के प्रतीक के रूप में उभर रहा है।

कोचाबांबा कोई अलग-थलग मामला नहीं है, बल्कि इस बात का संकेत है कि दूसरी जगहों में क्या कुछ हो सकता है। पनामा, अर्जेन्टाइना, लीमा, रियो डि जेनेरो और त्रिनिदाद में जबरदस्त विरोध प्रदर्शनों के चलते पानी के निजीकरण के कदमों को वापस लेना पड़ा है।

एशिया में जल प्रदाय के निजीकरण को आक्रामक रूप से प्रोत्साहित कर रहे एशियाई विकास बैंक ने कुछ समय पहले ऐसे 10 शहरों का एक अध्ययन करवाया था, जहां या तो जल आपूर्ति का निजीकरण हो चुका है या इसकी योजना बन रही है। इनमें मनीला महानगर, जकार्ता, कराची, कोलंबो व अन्य शहर शामिल थे। इस अध्ययन का प्रमुख निष्कर्ष था कि निजीकरण की सफलता पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।

अध्ययन किए गए ज्यादातर शहरों में पानी की दरें बहुत बढ़ी। हो ची मिन्ह शहर में तो दरें सात गुना हो गई थीं। कुछ शहरों में सरकारों और निजी कंपनियों के बीच अनुबंध की शर्तों को लेकर गंभीर विवाद पैदा हो गए थे। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि “आप यह निष्कर्ष निकालने से बच नहीं सकते कि ज्यादातर निजीकरण उपभोक्ताओं और सरकार द्वारा बेहतर व टिकाऊ सेवाओं क चाह की वजह से नहीं बल्कि ऋणदाताओं व ठेकेदारों की चाह से हुआ।”

इसमें आगे कहा गया है कि “आश्चर्यजनक बात यह है कि विकास की प्रक्रिया में हमने विकासशील देशों की स्वायत्तता रहित सार्वजनिक जल प्रदाय सेवा को सीधे विदेशी निजी ठेकेदार व नियमन के हवाले कर दिया। हमने यह तक देखने का मौका नहीं छोड़ा कि वही सार्वजनिक सेवा एक नियामक संस्था के तहत ज्यादा स्वायत्तता में रहकर कैसा काम करती है और हमने यह भी नहीं देखा कि वह सेवा नियामक संस्था और सिर्फ ‘सिर्फ देशी’ निजीकरण के तहत कैसा काम करती है।”

यह भी कहा गया है, “सरकारों, जल आपूर्ति की सार्वजनिक संस्थाओं और उपभोक्ताओं के निजी क्षेत्र की भागीदारी के अन्य विकल्पों (जैसे ‘डच’ मॉडल और ‘सिर्फ देशी’ निजीकरण) के बारे में अधिक जानकारी मिलनी चाहिए। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि निजी क्षेत्र की भागीदारी के अलावा भी विकल्प हैं, जैसे कि ‘नियामक संस्था और ऊंची दरों के साथ पानी की बेहिसाब बर्बादी में कमी’ ताकि लगाम उपभोक्ता के हाथों में रहे।”

लंदन की अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण व विकास संस्था (IIED) द्वारा एक और अध्ययन कराया गया था। इसमें आबिदजान, ब्यूनस आयर्स, कोरडोबा, मेक्सिको सिटी और मनीला शहरों की केस स्टडी भी शामिल हैं। इस अध्ययन के मुताबिक “यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि विकासशील देशों में कार्यकुशल ढंग से चल रहीं सार्वजनिक जल व स्च्छता सेवाओं के बहुतेरे उदाहरण मौजूद हैं...”

इस मामले में इक्वाडोर, चिली, ज़िम्बाब्वे, और बोत्सवाना के उदाहरण दिए गए हैं। एशियाई विकास बैंक के उपरोक्त अध्ययन में सिंगापुर सार्वजनिक सेवा बोर्ड को एक आदर्श सेवा बताया गया है।

अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण व विकास संस्था के अध्ययन में कहा गया है कि “चार केस स्टडीज में ऐसे ठोस तथ्यात्मक प्रमाण बहुत कम हैं जिनके आधार पर निजी और सार्वजनिक प्रबंधन की आर्थिक कार्यकुशलता की तुलना की जा सके।”

लिहाजा, अन्य देशों के अनुभव से भी यह साफ है कि पानी के निजीकरण से दाम बढ़ेगे। अन्य पहलुओं के भी विस्तृत अध्ययन की जरूरत है। जैसे, गरीब घरों में पहुंच में वृद्धि, सेवा की गुणवत्ता और विश्वसनीयता आदि। यह निष्कर्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि इस बात का कोई साफ प्रमाण मौजूद नहीं है कि निजी क्षेत्र बेहतर ही है। दोनों ही अध्ययन इस बात को रेखांकित करते हैं कि आम धारणा के विपरीत कुशल प्रबंधन वाली सार्वजनिक सेवाओं के भी कई उदाहरण हैं। गिनी व ब्यूनस आयर्स के उदाहरणों को विश्व बैंक वगैरह सफल उदाहरणों में गिनते हैं।

भारतीय तस्वीर (पुस्तिका प्रकाशन के समय)


भारत में जल प्रदाय का निजीकरण अभी शुरुआती दौर में है, पर यह बड़ा रूप लेने की तरफ कदम बढ़ा रहा है। विभिन्न चरणों में परियोजनाओं की संख्या इस तरह है।

सेवा या प्रबंधन अनुबंध

10

पट्टे

5

रियायतें (तिरुपुर, विशाखापटनम, देवास, काकिनाड़ा, हैदराबाद)

5

बूट BOOT

20

विनिवेश

कोई नहीं

 



करीब 40 जल व दूषित जल उपचार परियोजनाएं और करीब 70 ठोस निपटान परियोजनाएं हैं। इनके बारे में टुकड़े-टुकड़े सूचना ही उपलब्ध है। लेकिन इतनी सूचना से भी पता चलता है कि अन्य जगहों के अनुभव से जो मुद्दे उठे हैं, वे यहां भी सामने आते जा रहे हैं। ग़ौरतलब है कि यह तालिका पूरी नहीं है और चूंकि पूरी सूचना नहीं मिली है, इसलिए इसमें कुछ परियोजनाओं की ताजा जानकारी शायद न हो। (ये आंकड़े पुस्तिका प्रकाशन के समय के तथा एकदम शुरुआती हैं। आज एक दशक बाद पानी के निजीकरण की नीतियाँ और परियोजनाएं संख्या और दायरे के हिसाब से काफी आगे बढ़ चुकी हैं। पानी के निजीकरण से संबंधित ताजा आंकड़े और जानकारी मंथन की वेबसाईट पर देखी जा सकती हैं।)

जिन परियोजनाओं पर काफी काम हो चुका है, उनमें छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी का निजीकरण, टिहरी बांध से गंगा नहर के जरिए दिल्ली को पानी आपूर्ति का अनुबंध और तिरुपुर परियोजना शामिल हैं। शिवनाथ परियोजना दुर्ग (छत्तीसगढ़) के शहर के पास बोरई औद्योगिक क्षेत्र को जल आपूर्ति के लिए है। इस परियोजना में शिवनाथ नदी के हिस्से को रेडियस वाटर लिमिटेड को सौंप दिया गया है। यह कंपनी एक स्थानीय व्यक्ति कैलाश सोनी की है। दो साल पहले उसे नदी पर एक बांध बनाने के लिए ‘सरकारी रियायत’ दी गई और 23.6 किलोमीटर लंबे जलाशय और इसमें संग्रहित पानी पर पूरा अधिकार दे दिया गया। इसमें आसपास के उद्योगों को जल आपूर्ति का एकाधिकार शामिल है। जब से बांध बना है, तब से गांव वाले पहले की तरह न तो नदी में मछली पकड़ पाते हैं, न घाटों का इस्तेमाल कर पाते हैं और न ही नदी से अन्य ज़रूरतें पूरी कर पाते हैं। वे नदी के लिए अब पूरी तरह सोनी की मर्जी के ग़ुलाम हैं। लोगों में गुस्सा भड़क उठा है और अब बहुत से जन संगठन बड़े पैमाने पर इसका विरोध कर रहे हैं। वे न सिर्फ लोगों के अधिकार छीने जाने की बात कर रहे हैं, बल्कि इससे जुड़े दूरगामी मुद्दे भी उठा रहे हैं। छत्तीसगढ़ सरकार अब राजधानी रायपुर के जलप्रदाय के निजीकरण पर विचार कर रही है और सोनी इस दौड़ में भी आगे-आगे है। छत्तीसगढ़ ने एक अंतरराष्ट्रीय सलाहकार संस्था प्राइस वाटरहाउस कूपर्स (PWC) से पानी पर एक नीतिगत मसौदा बनाने को कहा था। यह मसौदा राज्य में पानी के ज्यादा से ज्यादा निजीकरण की सलाह देता है।

एक और मामले में फ्रांसीसी कंपनी डेग्रेमोंट (पानी क्षेत्र की एक विशाल कंपनी सुएज की साझेदार) को मुरादनगर (उत्तर प्रदेश) के पास ऊपरी गंगा नहर से पानी लेकर दिल्ली पहुंचाने की रियायत दी गई है। यह रियायत 6250 लाख लीटर पानी प्रतिदिन की आपूर्ति के लिए है। खास बात यह है कि नहर में पानी टिहरी बांध से आएगा। पाइप लाइन पर काम शुरू भी हो चुका है और स्थानीय लोग इतनी ज्यादा मात्रा में पानी मोड़ने का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इससे उनकी खेती तबाह हो जाएगी, जो पहले ही पानी की कमी के चलते मुसीबत में है। किसानों ने एलान कर दिया है कि वे किसी कीमत पर पाइप लाइन नहीं बिछने देंगे।

इन दो मामलों से ही पता चल जाता है कि पानी का निजीकरण देश में बहुत गंभीर सवाल खड़ा करने वाला है। इससे उतने ही बड़े संघर्ष उठ खड़े होंगे, जैसे कि बड़े बांधों के सवाल पर पिछले दो दशकों में चले हैं।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading