धरती मांगे और बारिश

28 Jul 2010
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माना इस बार अच्छे मानसून की उम्मीद है लेकिन भूमिगत जल स्तर बढने की फिलहाल कोई सूरत नजर नहीं आती। एक मानसून क्या कई मानसूनों की अच्छी बारिशें धरती की सूखी कोख को तर करने के लिए चाहिए। इंसानी करतूतों ने इस जमीं के जल को इतना निचोड लिया है कि धरती पूरी तरह रीत चुकी है। आज जरूरत है बारिश की एक-एक बूंद को सहेजने की। ऎसे में धरती मांग रही है और बारिश। भूजल संकट पर गजेंद्र गौतम की खास रपट-
मैं सुनीता को तब से जानता हूं जब उसने आठवीं बोर्ड की परीक्षा में 80 फीसदी अंक लाकर पूरे गांव को चौंकाया था। बेहद सीमित संसाधनों के जरिए अपनी पढाई करने वाली सुनीता को उम्मीद थी कि दसवीं में इस रिकॉर्ड को कायम रखते हुए वह डॉक्टर बनने के अपने लक्ष्य की तरफ बढेगी। लेकिन पिछले दो साल में हालात बदल गए हैं। सुनीता जिस गांव की रहने वाली है, वह पानी की भीषण किल्लत का सामना कर रहा है। उसके घर के नजदीक लगा हैंडपंप नाकारा हो चुका है। पूरा गांव अब महज एक हैंडपंप पर निर्भर है, जो सुनीता के घर से खासी दूरी पर स्थित है। जब पूरा गांव पेयजल के लिए इसी हैंडपंप पर निर्भर हो तो जाहिर है कि पानी के लिए जद्दोजहद भी बढेगी और लगने वाला समय भी। सुनीता पर भी यह जिम्मेदारी है कि वह परिवार की जरूरतों के लिए पानी इस हैंडपंप से लेकर आए। वह यह काम कर भी रही है, लेकिन अपने कॅरियर की कीमत पर। पानी लाने के इस पूरे काम में उसके चार घंटे से अधिक जाया होते हैं और दसवीं में उसके अंकों का आंकडा गिरकर 51 फीसदी पर आ गया हो, तो दोषी किसे ठहराया जाए।

इस गर्मी में पानी की भीषण किल्लत से जूझ रहे देश में ऎसी कहानियां आम हो चली हैं। पानी ने लोगों की दिनचर्या बदल दी है। विवाह, मेले और सामाजिक उत्सव पानी की किल्लत को देखते हुए स्थगित किए जा रहे हैं या पानी की उपलब्धता के मुताबिक हो रहे हैं। राजस्थान की बात करें तो यहां की 90 फीसदी आबादी पेयजल के लिए भू-जल स्त्रोतों पर निर्भर हैं और भूजल रसातल में समाता जा रहा है। 80 फीसदी क्षेत्र में भूजल चिंताजनक स्थिति तक नीचे चला गया है और भू-गर्भ से पानी निकालने के लिए खनन करना पड रहा है। क्या गांव और क्या शहर, इस संकट से कोई अछूता नहीं है।

 

 

चुकानी होगी कीमत


बैंक एकाउंट में जमा धन की तरह है भू-गर्भ में जमा जल। हम जमा करने से अधिक रफ्तार से धनराशि निकालें तो बैंक एकाउंट खाली होने में ज्यादा दिन नहीं लगेंगे। भूजल के साथ भी यही हो रहा है। बढता नगरीकरण, कंक्रीट के जंगल, निरंतर कम होती बरसात और पानी को सहेजने के प्रति बढती असंवेदनशीलता से भू-गर्भ में पहुंचने वाले जल की मात्रा खासी कम हो गई है, वहीं भू-गर्भ से जल दोहन में हमने कोई कसर नहीं छोडी है। इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के अध्ययन को आधार मानें, तो देश में हर घंटे करीब 25 क्यूबिक मीटर पानी भू-गर्भ से निकाला जाता है। राजस्थान की जल नीति जाहिर करती है कि पेयजल के 90 फीसदी और सिंचाई के 60 फीसदी जल की आपूर्ति भूजलीय स्रोतों से होती है।

भू-जल उपयोग के कठोर कानून के अभाव में भू-जल का दोहन अनियंत्रित होता जा रहा है। लोगों के बीच जिस तरह से आर्थिक और सामाजिक विषमताएं बढी हैं। उससे तेज अनुपात में जल वितरण में असमानताएं दिखने लगी हैं। जहां जल वितरण का ढांचा संगठित है, वहां जरूर लोगों को सुचारू तौर पर पेयजल मिल रहा है, लेकिन यह अनुपात जरूरतमंदों का तकरीबन 20 फीसदी ही है। 80 फीसदी लोगों को पेयजल मुहैया कराने की व्यवस्था असंगठित है। जाहिर है कि ऎसे में वह लोग पानी के लिए हैंडपंप, ट्यूबवैल आदि पर निर्भर हैं, जिन्हें भू-जल स्रोतों से पानी मिलता है। लिहाजा राज्य में भू-जल स्तर प्रतिवर्ष औसतन एक से तीन मीटर तक नीचे चला जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि हर वर्ष करीब तीन चौथाई हैंडपंप या तो नाकारा हो जाते हैं या मरम्मत की मांग करते हैं, लेकिन यह तदर्थ उपाय भी ज्यादा दिनों तक राहत नहीं दे पाते।

जलस्तर के गहराने के साथ ही इससे प्राप्त जल की गुणवत्ता भी संदेह के घेरे में आती है। कई हानिकारक रसायनों के मिलने और जल के खारा होने से ऎसा भू-जल पेयजल के सर्वथा अनुपयुक्त होता है, लेकिन विकल्प के अभाव में लोग इसे ही पीने के मजबूर हैं। आविष्कारिक आंकडों के अनुसार फिलहाल राज्य की करीब 25 फीसदी ग्रामीण आबादी फ्लोराइड युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। शोधकर्ता फ्लोराइड युक्त जल को मानव स्वास्थ्य के लिए 'टाइमबम' बताने से नहीं चूकते, क्योंकि इसका सेवन कई शारीरिक और मानसिक बीमारियों को निमंत्रण देता है।

 

 

 

 

पाताल में पहुंचा पानी


राजस्थान में गत कुछ वर्षो से बारिश औसत से कम हो रही है। वर्ष 2009 में भी औसत वर्षा सामान्य से 31 फीसदी कम रही। लिहाजा राज्य के अधिकांश भागों में सूखे के हालात बन गए हैं। चारे और पानी का संकट गहरा गया है। सूखे ने भू-जल स्तर पर भी गंभीर असर डाला है। राज्य के भू-जल विभाग ने हाल में भू-जल स्तर पर सूखे के असर को जांचने के लिए सर्वे किया, तो नतीजे चौंकाने वाले सामने आए। राज्य के 26 जिलों के 204 ब्लॉक में सर्वे किया गया। इसमें पाया गया कि कुल 153 ब्लॉक में भू-जल स्तर औसत से नीचे चला गया है। भू-जल विभाग का मानना है कि इन ब्लॉक में इस वर्ष गर्मी में पानी की भीषण किल्लत रहेगी। इन ब्लॉक में जून 2009 से मार्च 2010 की अवधि में भू-जल स्तर में आए परिवर्तन के विश्लेषण के आधार पर राज्य के 20 जिलों में भू-जल की स्थिति को 'क्रिटिकल' माना गया है। सर्वे में साफ किया कि इन ब्लॉक में वर्ष 2009 के मानसून पूर्व के स्तर की तुलना में भू-जल स्तर में अधिक गिरावट दर्ज की गई है। चौंकाने वाली बात यह है कि जिन जिलों में भू-जल स्तर से अधिक गिरावट दर्ज गई है, उनमें से अधिकांश जिले बरसात के लिहाज से राज्य में अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति वाले जिले हैं। पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित इन जिलों के कई ब्लॉक में औसत जलस्तर 25 से 50 मीटर तक नीचे चला गया है।

 

 

 

 

घर का पानी घर, खेत का खेत में


राजस्थान के कई क्षेत्रों में अनेक प्रगतिशील किसानों ने ऎसी व्यवस्था विकसित की है, जिसमें खेतों में मेडबंदी कर खेत का पानी खेत में ही रोका जा रहा है। इससे न केवल खेत को जरूरी नमी मिलती है, बल्कि भू-जल स्तर में भी बढोतरी होती है। जिसका नतीजा एक अच्छी फसल के तौर पर सामने आता है। मकान की छत पर गिरने वाले पानी के संग्रहण का एक और तरीका है, जिससे भू-जल स्तर को बढाया जा सकता है। अब इसे हरेक घर में बनाना अनिवार्य किया जा रहा है। जानकार बताते हैं कि राज्य में होने वाली औसत बारिश से एक पक्के मकान की 25 वर्ग मीटर छत से इतना पानी संरक्षित हो सकता है जिससे 10 लोगों की 200 दिन की पेयजल व अन्य जरूरतें पूरी हो सके। भू-जल का सर्वाधिक इस्तेमाल सिंचाई कार्य के लिए होता है। जाहिर है कि सिंचाई कार्य में भू-जल का संतुलित इस्तेमाल करके ही भू-जल स्तर को गिरने से रोका जा सकता है। इसके लिए बूंद-बूंद और फव्वारा सिंचाई को प्रभावी तरीके से लागू करने की जरूरत है। नर्मदा नदी से निकली नहरों से जिन क्षेत्रों में सिंचाई होगी, वहां बूंद-बूंद सिंचाई को अनिवार्य बनाया गया है। राज्य के कृषि वैज्ञानिकों ने कम पानी की लागत वाली सिंचाई पद्धतियां 'फ्री' और 'सिरी' विकसित की है, जिनका प्रयोग भू-जल के अनियंत्रित दोहन पर रोक लगाएगा। राज्य की तमाम सिंचाई परियोजनाओं में कम लागत वाली इन सिंचाई पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है। चंबल, बनास और माही परियोजनाओं के कुछ क्षेत्रों में इन सिंचाई पद्धतियों का प्रयोग आरंभ कर एक शुरूआत की जा सकती है। सबसे महžवपूर्ण है भू-जल के दुरूपयोग पर रोक लगाने के लिए एक प्रभावी कानून का निर्माण और उसका सख्ती से क्रियान्वयन।

 

 

 

 

पूरा देश भूजल संकट की चपेट में


भारत की प्रमुख नदी गंगा भी धीरे-धीरे मरती जा रही है। भूजल भंडार सूख रहे हैं, नदियां खत्म हो रही हैं। इससे आने वाले समय में लोगों की पानी तक पहुंच साल दर साल और भी मुश्किल होती चली जाएगी। भारत में बढती ब्लॉक डार्क जोन की तादाद को देखते हुए कहा जा सकता है कि भूजल भंडार खत्म होने की कगार पर है। दुनिया में सबसे ज्यादा करीब 22 लाख ट्यूबवैेल भारत में ही हैं, जो धरती का सीना चीरकर अंधाधुंध पानी खींच रहे हैं। भविष्य की चिंता किसी को नहीं है। 'नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी' के अध्ययन के अनुसार भारत की आर्थिक विकास की रफ्तार बढने के साथ ही देश में जल संकट और भी गहरा जाएगा। अभी भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पानी की मांग 85 लीटर है जो 2025 तक 125 लीटर हो जाएगी। उस समय तक भारत की आबादी भी बढकर एक अरब 40 करोड के आसपास हो जाएगी। जल संकट बढने से एक समस्या लोगों के विस्थापन के रूप में भी सामने आएगी। चूंकि कई क्षेत्रों में पानी लगभग पूरी तरह से खत्म हो जाएगा, ऎसे में लोग उन क्षेत्रों में जाएंगे, जहां पानी उपलब्ध होगा। ऎसे में जलयुद्ध होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

वैश्विक जलसंकट विशेषज्ञ और काउंसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउथी बालरे ने अपनी किताब 'ब्ल्यू कविनेंट' में लिखा है, 'वर्ष 2050 तक मनुष्य के लिए पानी की आपूर्ति में 80 फीसदी की बढोतरी करनी होगी। लेकिन परेशानी इस बात की है कि आज के हालात को देखते हुए नहीं लगता कि 2050 की आपूर्ति के लिए देश में कहीं पानी बच पाएगा। भारत में 2020 तक वर्षा पर निर्भर कृषि से उत्पादन 50 फीसदी कम हो जाएगा। 2025 तक भारत में पानी की मांग में 7900 करोड लीटर की वृद्धि हो जाएगी। 2030 तक हिमालय से मिलने वाले पानी की मात्रा में 20 फीसदी तक की कमी हो सकती है। गौरतलब है कि 1970 और 1992 में केंद्र की ओर से मॉडल ग्राउंड वाटर (रेगुलेशन एंड कंट्रोल) बिल लाया गया, लेकिन इनका मकसद पूरा नहीं हो सका। सरकार ने सेट्रल वाटर अथॉरिटी का गठन किया है, जिसने भूजल को बचाने के लिए कई अहम सुझाव दिए हैं। इन सुझावों का तभी कोई अर्थ निकलेगा, जब उन पर अमल किया जाए। भूजल के स्वामित्व और उसके इस्तेमाल की मात्रा या तौर-तरीके को लेकर मौजूद इन उलझनों को यथाशीघ्र दूर किया जाना चाहिए।

प्रस्तुति - विनोद सिंह चौहान
भूजल>

 

 

 

 

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