धुआँ-मुक्त ‘सिटी ऑफ जॉय’

21 Feb 2017
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वायु प्रदूषण से मुक्ति की दिशा में भारत में पहला औपनिवेशिक हस्तक्षेप

scan0006भारत में शहरी वायु प्रदूषण एक गम्भीर चिन्ता और खतरे का कारण बन चुका है। इस पर काबू पाने के उपायों को लेकर आजकल काफी कुछ लिखा जा रहा है। कोलकाता विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों में शुमार है, लेकिन यहाँ का तीक्ष्ण बदबूदार माहौल और दूर तक फैला धुँधला आकाश हाल ही में उत्पन्न समस्या है।

यह शहर अतीत में धुएँ से अपेक्षाकृत मुक्त हुआ करता था। इतिहासविद एम.आर. एन्डर्सन के अनुसार, कोलकाता (पूर्व में कलकत्ता) में ईंधन के खपत के आधार पर शहर में वायु प्रदूषण को मोटे तौर पर तीन ऐतिहासिक अवधियों में विभाजित किया जा सकता है। वर्ष 1855 से पूर्व की अवधि, जब घरों में जलने वाली लकड़ी, उपले और रोशनी के लिये जलते वनस्पति तेल की वजह से धुएँ फैलता था। यहाँ तक कि कोयले का जलाया जाना सन 1820 के बाद ही प्रचलित हुआ। दूसरी अवधि 19वीं सदी के मध्य दशकों के दौरान मानी जाती है। इस अवधि में कोयले के जलने से निकलने वाले धुएँ में अत्यधिक बढ़ोत्तरी देखी गई। इसने जैव ईंधन जनित उत्सर्जन को जन्म दिया। सन 1855 के बाद, कोयले के उपयोग में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई और तीसरी अवधि, अर्थात सन 1880 के बाद, बॉयलर और घरों में उपयोग होने वाले कोयले के धुएँ ने कोलकाता में वायु गुणवत्ता को पूरी तरह बदल डाला। गर्मी, धूल, आर्द्रता और बदबू के अलावा धुएँ को 18वीं सदी में कोलकाता में रहने वाले यूरोपीय लोगों के लिये स्वास्थ्य के खतरे के तौर पर चिन्हित किया गया था। कोलकाता इसलिये भी वायु प्रदूषण की चपेट में आने को अभिशप्त था क्योंकि यह भारी उद्योगों का केन्द्र था। बंगाल की कोयला खदानें कोलकाता से काफी नजदीक थीं। अपनी विशेष भौगोलिक एवं मौसम सम्बन्धी परिस्थितियों के कारण भी कोलकाता में वायु प्रदूषण बहुत सघन था क्योंकि यहाँ का धुआँ आस-पास के वायुमण्डलीय क्षेत्र में नहीं फैल पाता था।

मुम्बई (तब बम्बई) की तरह कोलकाता की हवा धुएँ को अपने साथ नहीं घोल पाती थी, खासकर नवम्बर और मार्च के महीनों के दौरान। शहर लगातार तापमान के व्युत्क्रम की चपेट में था, जिससे हवा के नीचे से ऊपर की तरफ जाने में बाधा उत्पन्न होती थी और धुआँ वायुमण्डल के निचले हिस्से में ही फँसा रह जाता था। लन्दन की तरह कोलकाता अक्सर धुँध की चपेट में भी रहता था। सन 1870 तक, धुएँ का प्रकोप कोलकाता शहर के जीवन की एक नियमित पहचान बन चुका था।

सामान्य तौर पर, कोलकाता के निवासी अधिकतर गहरे और भयंकर बदबूदार धुएँ के बारे में शिकायत करते थे, हालाँकि यह जरूरी नहीं था कि हानिकारक अवयवों से युक्त अपेक्षाकृत साफ-सुथरे नजर आने वाले धुएँ के मुकाबले यह अधिक नुकसानदेह होगा। मतलब कम गंदा दिखाई देने वाला धुआँ भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है। यूरोपीय लोगों ने उपलों और रोशनी के लिये इस्तेमाल होने वाले ईंधन को लेकर बहुत हाय-तौबा मचाई। कोलकाता में घरेलू ईंधन के तौर पर इनका बहुत इस्तेमाल होता था। लेकिन अँग्रेज लकड़ियों को जलाने से निकलने वाले धुएँ को सहन कर गए। इसी तरह बंगालियों ने उपलों के धुएँ को अनदेखा किया, लेकिन औद्योगिक कोयले से निकलने वाले धुएँ को लेकर शिकायतें करते रहे।

वर्ष 1855 में कोलकाता को रानीगंज कोयला खदानों से जोड़ने वाली देश की पहली समुचित रेल सेवा की शुरुआत होने के साथ कोयले के उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। भाप इंजनों को चलाने के लिये स्थानीय कोयला उपलब्ध होने की वजह से कोलकाता, हुगली औद्योगिक क्षेत्र का केन्द्र बन गया। इसे एशिया की ‘रूर घाटी’ भी कहा जाता था। इसी के साथ यहाँ हवा में प्रदूषण भी बढ़ता गया। भारतीय कोयले की खराब गुणवत्ता के कारण धुएँ की समस्या और अधिक विकराल होती गई। इसमें वजन के हिसाब से 14.8 प्रतिशत से 47 प्रतिशत तक राख होती है और ब्रिटिश कोयले के मुकाबले यह अधिक धुआँ छोड़ता है।

धुएँ की बढ़ती समस्या ने अधिकारियों में चिन्ता और बेचैनी पैदा कर दी। और इस तरह वर्ष 1863 में कोलकाता धुआँ रोकथाम कानून लागू करने वाला विश्व का पहला शहर बना। वायु प्रदूषण की समस्या की पड़ताल करने के लिये वर्ष 1879 में गठित समिति ने लीड्स के धुआँ निरीक्षक फ्रेडरिक ग्रोवर को सन 1902 में कोलकाता भेजा, ताकि वे धुएँ के निपटने के बारे में अपनी सिफारिशें दें। ग्रोवर की रिपोर्ट के आधार पर ही सन 1905 में ‘द बंगाल स्मोक न्यूसेंस एक्ट’ सामने आया और आगे चलकर ‘द बंगाल स्मोक न्यूसेंस’ कमीशन की स्थापना हुई। इस आयोग ने औपनिवेशिक अवधि के दौरान शहर में एक व्यवस्थित लेकिन चुनिंदा तरीके से धुआँ नियन्त्रण कार्यक्रम लागू किया।

कोलकाता के धुएँ की समस्या की राजनीतिक तत्परता को ब्रिटिश साम्राज्य में शहर की अहमियत से जोड़कर देखा जाने लगा। कोलकाता वर्ष 1911 तक ब्रिटिश सत्ता का केन्द्र और पूरे उपमहाद्वीप की राजधानी था। हालाँकि, कोलकाता में पर्यावरणीय समस्याओं के दो बिल्कुल विभिन्न पहलुओं पर जोर दिया गया था। पहला, इसकी भीड़भाड़ वाली सड़कें और साफ-सफाई की कमी, जिसे यूरोपीय लोगों ने औपनिवेशिक एशिया के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया और दूसरा, सामाजिक भेदभाव तथा भारी प्रदूषण जिससे वे यूरोपीय औद्योगीकरण के कारण भलीभाँति परिचित थे।


धुएँ की बढ़ती समस्या ने आधिकारिक चिन्ता और घबराहट पैदा कर दी और वर्ष 1863 में कोलकाता धुआँ रुकावट कानून लागू करने वाला विश्व का पहला शहर बन गया

शहर की प्रभुत्व वाली यूरोपीय आबादी ने कोलकाता को केवल वैज्ञानिक नियन्त्रण के अनुशासन के अभ्यास के कारण रहने योग्य बनाए रखा। औद्योगिक धुआँ कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं था, न तो साम्राज्यवादियों के लिये और न ही राष्ट्रवादियों के लिये। लेकिन सामाजिक संघर्ष के लिये यह महत्त्वपूर्ण मुद्दा अवश्य था जैसा कि इसने भविष्य के शहरी समाजों और भारत में औद्योगीकरण पर एक गम्भीर प्रश्न खड़ा कर दिया था, साथ ही साथ पर्यावरणीय दुर्दशा के परिप्रेक्ष्य में राज्य की जिम्मेदारी पर भी सवालिया निशान लगा दिया था।

स्मोक न्यूसेंस एक्ट के तहत पर्यावरण प्रबन्धन और इससे जुड़े नियम-कायदों को लागू करने के लिये व्यवस्थित निगरानी, तकनीकी विशेषज्ञता तकनीकी समाधानों पर निर्भरता और उद्योग एवं नौकरशाही के बीच घनिष्ठ तालमेल पर जोर दिया गया।

औद्योगिक श्रम पर हुक्म चलाने तथा अधीनस्थ वर्गों की सामाजिक प्रथाओं को अनुशासित करने के लिये नए तौर-तरीके आजमाए जाने लगे। भले ही स्मोक न्यूसेंस कमीशन का औपनिवेशिक अवधि के बाद के वर्षों में चीजों को जलाने के तरीकों और औद्योगिक धुएँ के स्तर पर काफी गहरा प्रभाव रहा, लेकिन इसके महत्त्व पर अक्सर जरूरत से अधिक बल दिया जाता रहा है। कोलकाता में प्रदूषण का ज्यादा सम्बन्ध शहरी जनसंख्या में आ रहे बदलावों, आबादी के घनत्व तथा ईंधन की कीमतों से था। सामाजिक तौर पर गूढ़ हो चुकी जलाने की प्रथाएँ उतनी ही महत्त्वपूर्ण थीं जितनी कि नई तकनीक। वर्ष 1950 तक, कोयले से चलने वाले भाप इंजन पुराने और बेकार हो चुके थे, और यह अधिनियम ऑटोमोबाइल प्रदूषण के सापेक्ष शक्तिहीन हो चुका था। धुएँ को नियन्त्रित करने की क्षमता भारत के औद्योगीकरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली थी। अलोकप्रिय तकनीकी और आर्थिक परिवर्तनों के खिलाफ पर्यावरण का नुकसान एक बड़ी चुनौती थी। इससे पहले कि यह गम्भीर सामाजिक विरोध बनकर फूटता सरकार ने औद्योगीकरण के खिलाफ आपत्तियों को दूर करने का काम प्रारम्भ कर दिया। हालाँकि, औद्योगीकरण को पूरी तरह बन्द नहीं किया गया, बल्कि इसके सबसे बुरे प्रभावों पर लगाम कसने की कोशिश की गई। धुएँ के नियन्त्रण ने सामाजिक और उत्पादक जीवन पर आधिपत्य जमाने का एक संकरा रास्ता प्रदान किया।

धुआँ हर ओर फैला हुआ था और कुछ लोगों को तो इसके कम होने पर ही शंका होने लगा था। जैसे-जैसे धुएँ को नियन्त्रित करने की प्रशासनिक क्षमताओं का विस्तार होता गया, सरकार के अग्रदूत एक विनम्र लेकिन महत्त्वपूर्ण पहल की ओर अग्रसर होते गए। वैज्ञानिक कुशलता के भेष में आई ‘कंबस्चन इंजीनियरिंग’ सभी को प्रभावित करने में सक्षम थी, चाहे वह कोलकाता कानून-व्यवस्था हो या फिर श्रमिक सम्बन्ध। हालाँकि विशुद्ध रूप से तकनीकी समाधान के आकर्षण ने प्रबन्धकों और मालिकान में निराशा को जन्म दिया। धुएँ को सार्वजनिक बहस के बजाय तकनीकी नियन्त्रण का मुद्दा मानने के निर्णय पर फिर कभी भी सवाल नहीं उठाया गया।

धुएँ की रोकथाम ने वैज्ञानिक भाषा का इस्तेमाल कर इस साम्राज्यवादी दावे को आगे बढ़ाया कि बेहतर तकनीक और कुशल प्रशासनिक संगठन के जरिये मानव पर्यावरण को राजनीति के कब्जे में किया जा सकता है। धुएँ पर नियन्त्रण उन जबरन तर्कों पर आधारित था जिनके अनुसार पर्यावरण के बेहतर प्रबन्धन के लिये सत्तावादी प्रशासन का होना आवश्यक है।

पर्यावरण के इतिहास पर सीएसई से वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तक “Environmental History Reader” का अनुवादित अंश

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