एक तिहाई मछलियों के पेट में प्लास्टिक

7 Jul 2013
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पानी में रहने वाले जीवों के लिए हम कैसी दुनिया बना रहे हैं। अपना कचरा उनको भोजन के रूप में परोश रहे हैं। हमारे फेंके गए प्लास्टिक मछलियों का भोजन बन रहा है। बिस्फेनोल-ए, पीसीबी जैसे केमिकल और सिंथेटिक रंगों से बनी प्लास्टिक का सेवन करके मछली ज़हरीली हो जाती है। ऐसी मछली के सेवन से कैंसर या शरीर के मुख्य अंगों का रास्ता बाधित हो जाने खतरा रहता है। देश की जानी-मानी राजनीतिज्ञ और पर्यावरणविद् मेनका गाँधी बता रही हैं कि मछलियों के शरीर में गया प्लास्टिक अंत में मानव शरीर का ही हिस्सा बनता जाता है।मछली खाने पर आपको क्या मिलता है? केमिकल! इंसानी मल! प्लास्टिक! सबसे पहले बात करते हैं प्लास्टिक की। ब्रिटेन के प्लाइमाउथ विश्वविद्यालय के मरीन पॉल्यूशन बोर्ड ने हाल ही में एक अध्ययन में पाया कि इंग्लैंड के तट पर पाई जाने वाली एक तिहाई मछलियों के पेट में प्लास्टिक है। उत्तर सागर, अटलांटिक महासागर और ब्रिटेन के आसपास के पानी में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक मछलियों के पेट में जा रहा है।

प्लाइमाउथ के तट से 10 किलोमीटर दूर व्हाइटिंग, हॉर्स मेकेरेल, जॉन डोरी और रेड गर्नार्ड जैसी 504 मछलियां इकट्ठी की गईं। इनमें से 184 मछलियों के पेट से प्लास्टिक के टुकड़े मिले। कुछ मछलियों के पेट से प्लास्टिक बोतल, स्टाइरोफोम, प्लास्टिक दस्ताने, पैकिंग के सामान, प्लास्टिक की रस्सी, प्लास्टिक की फिशिंग लाइन, प्लास्टिक ब्लीच बोतल, लाइटर, स्ट्रॉ, फेस स्क्रब, कॉस्मेटिक, सेनिटरी नेपकिन और सिगरेट बट, धातु और कांच के 351 टुकड़े निकाले गए।

एक अध्ययन के मुताबिक ब्रिटेन के सुपरमार्केटों में 2011 में 8 बिलियन प्लास्टिक के बैग खपे, जो बाद में मछली का भोजन बने। अमेरिका में 2010 में 31 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा पैदा हुआ और इसमें से 92 फीसदी समुद्र में फेंका गया। यूसी सेन डियागो के स्क्रिप्स इंस्टीट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया कि उत्तर पैसिफिक महासागर की मध्य गहराई में मछलियां 24,000 टन तक प्लास्टिक निगल रही हैं।

वहीं एल्गालिटा मरीन रिसर्च फाउंडेशन के आंकड़े बताते हैं कि पैसिफिक महासागर की 35 प्रतिशत मछलियों के पेट में प्लास्टिक था। सस्ता, मजबूत और टिकाऊ प्लास्टिक कई उद्योगों में इस्तेमाल होता है। इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक में से नाममात्र रिसाइकिल होता है, ज्यादातर हिस्सा हमारे वायुमंडल, नदियों और समुद्रों में रहता जाता है।

भारत की बात करें तो अकेले राजधानी दिल्ली में ही 2,50,000 टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। प्लास्टिक बैग, प्लास्टिक चादरें और फिल्में सब कुछ पानी में फेंक दिए जाते हैं। जलीय जीवों और वन्य पशुओं के लिए यह संकट पैदा करता है। प्लास्टिक के कचरे की मात्रा इतनी ज्यादा है कि यह उत्तरी पैसिफिक महासागर में कई सौ किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है। इसका आकार उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे भारत के बड़े राज्यों से भी अधिक होगा। अन्य कचरों की तरह प्लास्टिक सड़ता नहीं है। सूरज की रोशनी से धीरे-धीरे प्लास्टिक के पॉलीमर बॉन्ड टूट जाते हैं। धीरे-धीरे यह और भी छोटे टुकड़ों में बंट जाता है। लेकिन इससे हालात और भी विकट हो जाते हैं क्योंकि तब यह जलीय जीवों द्वारा निगल लिया जाता है और खाद्य श्रृंखला में आ जाता है।

समुद्री कछुओं को यह समस्या और भी ज्यादा प्रभावित करती है। प्लास्टिक बैगों को अपना मुख्य भोजन जेलीफिश समझकर ये खा जाते हैं। जिन समुद्री कछुओं का शिकार किया जाता है, उनके पेट में बड़े पैमाने पर प्लास्टिक मिलता है। उनकी मौत की वजह ज्यादातर यह प्लास्टिक ही होती है।

उद्योगों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक रेसिन पैलेट और समुद्री जहाजों में भरे जाने वाले ग्रेनूल आमतौर पर समुद्र में बह जाते हैं। इन्हें खाने वाली समुद्री चिड़िया अपने बच्चों को भी यही खाना खिलाती हैं। गौरतलब है कि 250 प्रजातियों वाले समुद्री पंछियों में से 63 के पेट से प्लास्टिक के नन्हे कण पाए गए। इससे प्रकृति चक्र में कई तरह की अनियमितताएं देखने को मिल रही हैं। कई तरह की प्रजातियों को खतरा है। फिर भी हम कोई सबक नहीं लेते। कई तरह के कानून, कई तरह की संस्थाओं की चेतावनियां भी किसी काम में नहीं आ रही।

औद्योगिकीकरण की होड़ में क्या इंसान सिर्फ अपने जीने की फिक्र करने लगा है। हम क्यों नहीं इस बात को महसूस करते कि जिस वातावरण को विषैला बना रहे हैं, उसी वातावरण में हम भी तो रहते हैं। यह अलग बात है कि इंसान सीधे रूप में प्लास्टिक नहीं खाता, लेकिन क्या खाद्य श्रृखंला पर कभी गौर से सोचा है हमने।

बिस्फेनोल-ए, पीसीबी जैसे केमिकल और सिंथेटिक रंगों से बनी प्लास्टिक का सेवन करके मछली जहरीली हो जाती है। ऐसी मछली के सेवन से कैंसर या शरीर के मुख्य अंगों का रास्ता बाधित हो जाने खतरा रहता है।

सीवर, टॉयलेट, मेडिकल कचरा या डायपर के तौर पर प्लास्टिक सीधे समुद्र में फेंका जाता है। 1975 में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (भारतीय) ने अनुमान लगाया था कि हर साल लगभग 14 बिलियन पौंड कचरा समुद्र में फेंक दिया जाता है, यानि हर घंटे 1.5 मिलियन पौंड।

1985 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि व्यापारिक समुद्री जहाज प्रतिदिन 4,50,000 प्लास्टिक कंटेनर पानी में फेंक देते हैं। समुद्र में मछुआरों, सैन्य जहाजों, व्यापारिक जहाजों, यात्री जहाजों, गैस और तेल खनन संयंत्रों, प्लास्टिक इंडस्ट्री और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों द्वारा बड़ी मात्रा में कई टन प्लास्टिक समुद्र में उड़ेल दिया जाता है। छोटी मछलियां भूलवश प्लास्टिक को अपना सामान्य भोजन समझकर खा जाती हैं। मछलियों के पेट में प्लेंकटन और प्लास्टिक का जो अनुपात पाया गया है, वह बहुत खतरनाक है।

मुफ्त की चीजें सभी को पसंद आती हैं। मछली का सेवन करने पर आपको मुफ्त में ही ढेर सारा प्लास्टिक भी मिल जाएगा। यही मछली आपको प्लास्टिक बैग में मिलेगी। प्लास्टिक अंदर, प्लास्टिक बाहर। क्यों न बिचौलिए को छोड़, आप प्लास्टिक बैग का ही लंच कर लें?

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