एक विनाशकारी मरीचिका

नदी जोड़ परियोजना के उत्साह को समझना मुश्किल नहीं है। 5,60,000 करोड़ रुपये जब केन्द्रीयकृत ढंग से खर्च होंगे तो भ्रष्टाचार 10 प्रतिशत होगा। यह 10 प्रतिशत 56,000 करोड़ होता है। यदि इसे 20 वर्ष की अवधि में बांटें तो यह 2800 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष होता है। इसके विपरीत यदि देश के करीब 10 लाख गांवों को 10-10 लाख रुपये वर्षा जल दोहन के लिए दिए जायें तो राजस्थान में तरुण भारत संघ द्वारा किये गये काम की तर्ज पर काम हो सकता है। इसका कुल खर्च एक लाख करोड़ रुपये होगा। यानी नदी जोड़ का मात्र 20 प्रतिशत और यदि हम प्रत्येक गांव को धन एवं तकनीकी ज्ञान उपलब्ध करा सकें तो वर्षा जल दोहन की इस परियोजना को दो साल में पूरा किया जा सकता है। एक राक्षसी परियोजना को गुपचुप ढंग से राष्ट्रीय एजेण्डा में सबसे महत्वपूर्ण परियोजना दर्शाने की कोशिशें चल रही हैं। एक वर्ष पहले तक इस परियोजना पर कोई नजर तक डालने को तैयार नहीं था और यह बात विवाद से परे है कि यह विनाश को न्यौता साबित होगी। मैं नदियों को जोड़ने की परियोजना की बात कर रहा हूं। इससे पहले साठ के दशक में केएल राव ने गंगा-कावेरी लिंक का प्रस्ताव रखा था और कैप्टन दस्तूर ने गारलैण्ड कैनाल का विचार प्रस्तुत किया था।

इन दोनों की गहन छान-बीन के बाद इन्हें अव्यावहारिक पाया गया था। गंगा-कावेरी लिंक के बारे में स्पष्ट था कि इसकी वित्तीय लागत बहुत ज्यादा है और इसमें ऊर्जा की खपत भी बहुत ज्यादा होगी। गारलैण्ड कैनाल तकनीकी रूप से अनुपयुक्त पायी गयी थी। उस समय के बाद से आज पर्यावरण एवं इकॉलाजी संबंधी मुद्दों की समझ बढ़ी है और यह स्पष्ट हुआ है कि बड़े बांधों की वजह से पर्यावरण एवं इकॉलाजी दोनों ही प्रभावित होते हैं।

जंगल एवं कृषि भूमि का डूबना, जैव विविधता की हानि, नदी की संरचना और पानी की क्वालिटी में परिवर्तन, जीव-जन्तुओं के प्राकृत वासों का विनाश, दलदलीकरण और लवणीयता, बांध के नीचे जल प्रवाह में कमी, समुद्र में मीठा पानी पहुंचने में कमी और सागर संगम के जीवों पर इसके प्रतिकूल प्रभाव आदि कुछ महत्पूर्ण चिन्ताएं इस सन्दर्भ में सामने आयी हैं।

इस तरह की परियोजनाओं के विस्थापितों के तमाम आन्दोलनों ने व्यापक अन्याय की बात को भी उजागर किया है। इन बांधों के कारण लोग उजड़ते हैं, बेघर हो जाते हैं, अपनी जड़ें गंवा देते हैं। इस के साथ यह समझ भी बढ़ी है कि वर्षा जलदोहन या सूक्ष्म वाटर शेड विकास के जरिये पानी का दोहन कहीं अधिक गति से और किफायती ढंग से सम्भव है।

हाल ही में विश्व बैंक ने कई अन्य अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर एक विश्व बांध आयोग का गठन किया था। आयोग ने दुनिया भर के बड़े बांधों एवं सिंचाई परियोजनाओं के प्रभावों का अध्ययन किया। इस आयोग में पर्यावरण एवं सामाजिक संगठनों के नुमाइन्दों के अलावा बांध निर्माता उद्योगों के प्रतिनिधि भी शामिल थे।

आयोग ने एक मत से अपनी रिपोर्ट जारी की जिसमें कहा गया है कि बड़े बांधों की लागतें प्रायः कम करके बतायी गयी हैं, जबकि लाभ बढ़ा-चढ़ाकर गिनाये गये हैं। लाभ-लागत के विश्लेषण में इन बांधों के पर्यावरणीय एवं सामाजिक असर को तो शामिल ही नहीं किया गया है। आयोग ने भारत के बांधों का एक विशेष अध्ययन भी करवाया था।

यह अध्ययन देश के सर्वोत्तम विशेषज्ञों ने किया था। इस अध्ययन का निष्कर्ष था - ‘जाहिर है कि अतीत में निर्मित परियोजनाओं का पर्यावरण, सामाजिक एवं आर्थिक आकलन ही नहीं किया गया है और न ही उनकी यथेष्टता को आंका गया है। यह भी दिखता है कि बड़े बांधों की लागतों और लाभों का बंटवारा इस तरह होता है कि सामाजिक-आर्थिक विषमता बढ़ती है।’

इस सबके बावजूद सरकार में उच्च स्तर पर एक कोशिश चल रही है कि येन-केन प्रकारेण ‘नदी जोड़ो’ परियोजना को राष्ट्रीय एजेण्डा पर अंकित कर दिया जाए। पिछले वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रपति के अभिभाषण में इस आशय का एक पैरा जोड़ा गया कि नदियों को जोड़कर देश में बाढ़ एवं सूखे की समस्या से निबटना संभव होगा।

आदेश में कहा गया है कि अदालत द्वारा जारी नोटिस के जवाब में मात्र तमिलनाडु और केन्द्र सरकार ने जवाब पेश किये हैं। यह भी कहा गया है कि केन्द्र सरकार ने अपने जवाब में कहा था कि इस परियोजना की लागत 5,60,000 करोड़ रुपये होगी और इसमें 43 वर्ष का समय लगेगा। तमिलनाडु राज्य द्वारा दिये गये जवाब में लगभग कुछ नहीं कहा गया था। केन्द्र सरकार ने यह भी कहा था कि इस परियोजना के लिए राज्यों की सहमति अनिवार्य होगी।

अदालत की टिप्पणी थी कि चूंकि किसी किसी अन्य राज्य ने जवाब पेश नहीं किया है, इसलिए यह माना जा सकता है कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। अदालत ने मौखिक रूप से यह भी टिप्पणी दी कि राष्ट्रहित की किसी परियोजना के लिए धन आड़े नहीं आना चाहिए। अपने आदेश में अदालत ने कहा कि परियोजना 10 वर्षों में पूरी हो जानी चाहिए और यदि राज्य सरकारें इस परियोजना को मंजूरी नहीं देतीं, तो केन्द्र सरकार एक कानून बनाकर उनकी सहमति की अनिवार्यता को समाप्त कर सकती है।

यह सब एक ऐसी परियोजना के लिए, जो अगले 44 वर्षों तक देश का पूरा सिंचाई बजट लील जायेगी और यह आदेश पारित करने से पहले सभी संबंधित पक्षों की तो क्या, राज्यों की बात सुनने की भी प्रतीक्षा नहीं की गयी। इस पर बहस-चर्चा नहीं हुई है, परियोजना की व्यावहारिकता का कोई अध्ययन नहीं हुआ है। सामाजिक पर्यावरणीय एवं आर्थिक प्रभावों का कोई आकलन तक नहीं हुआ है।

इतनी लापरवाही के साथ इस देश को एक ऐसे रास्ते पर धकेला जा रहा है जिसके वित्तीय, सामाजिक एवं पर्यावरणीय नतीजे अभूतपूर्व होंगे और सरकार को तो जैसे इस अदालती फरमान की प्रतीक्षा ही थी। आदेश पारित होते ही इस परियोजना को राष्ट्रीय एजेण्डा पर स्थापित करने की कवायद शुरू हो गयी। बताया जाने लगा कि यह अदालत द्वारा आदेशित परियोजना है।

आनन-फानन में टास्क फोर्स का गठन कर दिया गया। इसमें मात्र सिविल इंजीनियर्स और जल संसाधन मंत्रालय के अधिकारी शामिल हैं। टास्क फोर्स को यह काम दिया गया है कि इस परियोजना के क्रियान्वयन की एक विस्तृत योजना बनये। टास्क फोर्स ने अपना काम इस फुर्ती से किया है कि उसने हाल में ही अदालत में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कह दिया है कि इस वर्ष कम से कम एक या दो नदियों को जोड़ने का काम शुरू हो जायेगा।

यह मानकर चला जा रहा है कि ऐसी परियोजना के लिए नियोजन की जो अनिवार्य प्रक्रिया होती है उसे बाईपास कर दिया जायेगा। जैसे पर्यावरण संबंधी मंजूरी वगैरह को यह कहकर चकमा दिया जायेगा कि यह तो अदालत का आदेश है और यह परियोजना राष्ट्रीय महत्व में सर्वोपरि है।

यह विज्ञापित किया जा रहा है कि यह परियोजना देश की जीवन रेखा है, जैसे सरदार सरोवर गुजरात की जीवन रेखा है। आज-कल की सरकारें मीडिया के जरिये आसानी से मरीचिकाएं और सफेद झूठ बेचने की क्षमता रखती हैं (जरा याद कीजिये कि कैसे यू एस सरकार ने ‘आतंकवाद के खिलाफ जंग’ अपने देश में बेची थी, जो आज प्रजातंत्र पर सबसे बड़ा खतरा बन कर उभरी है)।

यह समझने के लिए किसी गहन तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है कि नदियों को आपस में जोड़ना एक बेतुका विचार है और यह विनाश का बुलावा होगा। दूर-दूर से पानी आयात करने से पहले हमें उस पानी के बारे में सोचना चाहिए जो हमारे सिर पर, छतों पर गिरता है। यह अनुमान लगाया गया है कि कहीं दूर किसी बड़े बांध में पानी इकट्ठा करके उसे नहरों से ढोने की अपेक्षा स्थानीय वर्षा जल दोहन की लागत मात्र 20 प्रतिशत होती है।

लिहाजा अपने इलाके के वर्षाजल को बचाकर उसका उपयोग न करे दूर-दूर से पानी लाने की बात असंगत है। इन बुनियादी मुद्दों के बावजूद केन्द्र सरकार एक ऐसी परियोजना को आगे बढ़ाना चाहती है जिसके लिए देश के अगले 44 वर्षों के पूरे सिंचाई बजट की आवश्यकता होगी। इस सन्दर्भ में गौरतलब है कि हम अपनी अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक एक लाख करोड़ रुपये नहीं जुटा पा रहे हैं। न तो हम मौजूदा सिंचाई क्षमता का पूरा उपयोग कर पा रहे हैं और न ही वर्षा जल का।

नदी जोड़ परियोजना के उत्साह को समझना मुश्किल नहीं है। 5,60,000 करोड़ रुपये जब केन्द्रीयकृत ढंग से खर्च होंगे तो भ्रष्टाचार 10 प्रतिशत होगा। यह 10 प्रतिशत 56,000 करोड़ होता है। यदि इसे 20 वर्ष की अवधि में बांटें तो यह 2800 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष होता है। इसके विपरीत यदि देश के करीब 10 लाख गांवों को 10-10 लाख रुपये वर्षा जल दोहन के लिए दिए जायें तो राजस्थान में तरुण भारत संघ द्वारा किये गये काम की तर्ज पर काम हो सकता है।

इसका कुल खर्च एक लाख करोड़ रुपये होगा। यानी नदी जोड़ का मात्र 20 प्रतिशत और यदि हम प्रत्येक गांव को धन एवं तकनीकी ज्ञान उपलब्ध करा सकें तो वर्षा जल दोहन की इस परियोजना को दो साल में पूरा किया जा सकता है। मगर इतने विकेन्द्रित काम में 10 प्रतिशत ‘किकबैक’ थोड़ा मुश्किल है। इसीलिए केन्द्रीकृत परियोजनाओं को तरजीह मिलती है।

अब तक सरदार सरोवर पर 14,000 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। यदि यही पैसा गुजरात में वर्षा जल दोहन पर खर्च किया जाता तो गुजरात कब का सूखा-प्रूफ हो जाता। मगर सरदार सरोवर के शुरू हुए 24 साल बीत गये हैं और अभी यह पूरा होता नहीं दिखता। शायद अभी 25 वर्ष और 30,000 करोड़ रुपये और लगेंगे। इस दौरान गुजरात की सारी सिंचाई परियोजनाएं ठप हैं और आगे भी रहेंगी।

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