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एलोरा

एलोरा भारत में महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद जिले में दौलताबाद नगर के समीप एक ग्राम है। इसकी स्थिति 20रू 21फ़ उ.अ. तथा 75रू 10फ़ पू.दे. पर औरंगाबाद नगर से लगभग 15 मील उत्तर-पश्चिम है। एलोरा ठोस शिलाखंडों से निर्मित मंदिरों के लिए विश्वविख्यात है। दक्षिण और पश्चिमी भारत में पर्वत की खड़ी दीवार को काटकर जो दरीमंदिर बनाने का अत्यंत कठिन प्रयास हुआ है उसमें एलोरा की गुहापरंपरा का विशिष्ट स्थान है। गुप्तकाल के उत्तरवर्ती युगों में निस्संदेह इतना सफल और प्रणावान्‌ मूर्तिनिर्माण का प्रयास दूसरा नहीं हुआ। अजंता की गुफाएँ मौर्यकाल के शीघ्र बाद ही काटी जाने लगी थीं और उनके निर्माण का प्रयास, कम से कम चित्रण के क्षेत्र में, चालुक्य राजाओं के शासन तक बना रहा। सही, कि एलोरा के दरीगृहों के निर्माण में सदियाँ लगी हैं, तथापि उनके संबंध में यह प्रगतिकाल की दृष्टि से प्राय: एकस्थ हुआ है-पूर्वमध्यकाल से राष्ट्रकूटों के शासनकाल तक। और इन चार पाँच सदियों के भीतर बौद्ध, जैन तथा हिंदू मंदिर बनते चले गए हैं। संभवत: विश्वकर्मा का बौद्ध मंदिर छठी सदी ईस्वी का है, प्रसिद्ध कैलास मंदिर आठवीं सदी का और शेष जैन और हिंदू मंदिर, प्राय: 600 ई. और 750 ई. के बीच के बने हैं। पृष्ठभूमि में सह्यद्रि पश्चिमी घाट की गिरिदीवार उठती दूर तक दौड़ती चली गई है, अग्रभूमि क्षितिज तक फैली हरियाली से ढकी है। प्राचीन इंजिनियरों ने पतली सरिता की धारा मोड़कर कैलाश के निकट से कुछ ऐसा घुमाया है कि उसका जल बूँद-बूँद कर शिवलिंग पर निरंतर डपकता रहता है जो पिछली 12 सदियों से वैसे ही टपकता रहा है। मंदिरों के प्रसार के अंत में शीतल जल का विशाल झरना द्रुत वेग से उनके दक्षिण पार्श्व में गिरता और नीचे के खेतों को सींचता है।

जैसे अजंता की गुफाएँ अपने चित्रों के लिए प्रसिद्ध हैं, वैसे ही एलोरा की गुफाएँ अपनी मूर्तियों के लिए विख्यात हुईं। ऐसा नहीं कि अजंता में मूर्तियाँ न हों अथवा ऐलोरा के चैत्य मंदिरों में चित्र न हों, पर विशेषत: अजंता चित्रप्रधान है और एलोरा मूर्तिप्रधान। मूर्तियों की कला में, उनके वैविध्य और गतिशीलता में एलोरा की मूर्तियों का वही महत्व है जो अजंता में उसके चित्रों का है। गुप्तोत्तर काल में भारतीय कला में मूर्तिनिर्माण के क्षेत्र में असाधारण उन्नति हुई। चट्टानों को काटकर कलाकार की छेनी रूप कोरती चली गई और देवियों तथा देवताओं की अटूट श्रृंखला अपनी विविध भावभंगियों में अभिसृष्टि होती गई। रूप को सजाने से जो मोती और रतन कलावंतों के पास बचे रह गए थे उनको, लगता है, उन्होंने एलोरा की गुफाओं के स्तंभों पर बिखेर दिए हैं। वास्तुगत स्तंभ भारतीय कला में इतने सुंदर और कहीं नहीं बने जितने एलोरा के इन दरीगृहों में हैं।

दशावतार, रामेश्वर, सीता की नहानी, कैलास वस्तुत: वास्तु के आश्चर्य हैं। इनमें शिव के परिवार के विविध व्यक्ति अपने मांसल, भीष्म, करुण, हास्यास्पद व्यक्तित्व में एक ओर कोरे गए हैं, दूसरी ओर स्वयं महादेव का तांडव प्राणवान्‌ गति से मूर्त हुआ है। अवतारों का रूप स्वयं अपने में पूर्ण है और नारीत्व का सौंदर्य विविधि प्रसंगों में जैसे यत्र-तत्र खुल पड़ा है। इन मंदिरों में विशिष्टतम कैलास का है जिसके संबंध में किंचित्‌ विस्तार से उल्लेख अनिवार्य होगा।

कैलास के मंदिर को हिमालय के कैलास का रूप देने में एलोरा के वास्तुकारों ने कुछ उठा नहीं रखा है। महादेव का यह दोमंजिला मंदिर पर्वत की ठोस चट्टान को काटकर बनाया गया है और अनुमान है कि प्राय: 30 लाख हाथ पत्थर उसमे काटकर निकाल लिया गया है। कैलास के इस परिवेश में, समीक्षकों का अनुमान है, समूचा ताज मय अपने आँगन में रख दिया जा सकता है। एथेंस का प्रसिद्ध मंदिर 'पार्थेनन', इसके आयाम में समूचा समा सकता है और इसकी ऊँचाई पार्थेनन से कम से कम ड्योढ़ी है। कैलास के भैरव की मूर्ति जितनी भयकारक है, पार्वती की उतनी ही स्नेहशील है, और तांडव का वेग तो ऐसा है जैसा पत्थर में अन्यत्र उपलब्ध नहीं। शिव पार्वती का परिणय भावी सुख की मर्यादा बाँधता है, जैसे रावण का कैलासत्तोलन पौरुष को मूर्तिमान कर देता है। उसकी भुजाएँ फैलकर कैलास के तल को जैसे घेर लेती हैं और इतने जोर से हिलाती हैं कि उसकी चूलें ढीली हो जाती हैं, और उमा के साथ ही कैलास के अन्य जीव भी संत्रस्त काँप उठते हैं, फिर शिव पैर के अँगूठे से पर्वत को हल्के दबाकर रावण के गर्व को चूर-चूर कर देते हैं। कालिदास ने कुमारसंभव में जो रावण के इस प्रयत्न से कैलास की संधियों के बिखर जाने की बात कही है वह इस दृश्य में सर्वथा कलाकारों ने प्रस्तुत कर दी है। एलोरा का वैभव भारतीय मूर्तिकला की मूर्धन्य उपलब्धि है।

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