एम. पी. मथरानी का बागमती सिंचाई परियोजना प्रस्ताव (1956)

किसानों के कल्याण के लिए सुनिश्चित सिंचाई से बेहतर कोई बात नहीं होती और इस बात को सभी अच्छी तरह समझते हैं। इस पानी में बागमती जैसी नदी की अपूर्व उर्वरा शक्ति वाली गाद अगर मिल जाए तो होने वाली फसल की कल्पना मात्र से किसानों की बाछें खिल जाती हैं। सरकार की इच्छाशक्ति और इंजीनियरों के शिल्प-कौशल से जिस बागमती सिंचाई परियोजना का जन्म होना था, दुर्भाग्यवश वह शुभ मुहूर्त आज तक (2010) नहीं आया।

आजाद भारत में एक बार फिर नये सिरे से बागमती से सिंचाई के प्रस्ताव जनता और जन-प्रतिनिधियों की ओर से आने लगे। 1953 में आयी भयंकर बाढ़ के बाद और कोसी योजना की स्वीकृति से पहले बिहार विधान सभा में ठाकुर गिरिजा नन्दन सिंह ने बागमती परियोजना का सवाल उठाया। उनका कहना था, ‘‘...बागमती में कम से कम दस बार बाढ़ आती है और दस बार पानी निकलता है। मगर बागमती की पहले जो हालत थी वह धीरे-धीरे बदलती जा रही है। इतना ज्यादा सिल्टिंग हो गया है कि पानी निकलने में देर होती है। बागमती का पहले जो रुख था यदि उस स्थिति में आज उसे ला दिया जाए तो बागमती से लोगों को उपज के संबंध में भी फायदा होगा। ...ऐसी नदी जिस प्रदेश में हो, जिस एरिया में हो उसे अन्न का भण्डार समझा जाता है मगर सरकार का ध्यान उस तरफ अभी नहीं गया है।’’

पहली पंचवर्षीय योजना के अन्त में नदी पर बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई परियोजना के निर्माण के लिए प्रस्ताव का स्वरूप कुछ-कुछ स्पष्ट होने लगा था। अब यह तय हुआ कि बागमती नदी पर दो अलग-अलग वीयर बनाये जायें। पहला वीयर नदी पर भारत नेपाल सीमा पर प्रस्तावित हुआ तो दूसरा वीयर परदेसिया गाँव में बनाने की बात उठी। इसी जगह से नदी की एक नयी धारा फूटती थी और यह जगह लालबकेया और बागमती के संगम से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण में तथा हिरम्मा गाँव से 24 किलोमीटर उत्तर में है। हिरम्मा में नदी की एक दूसरी धारा फूटती है।

बिहार के तत्कालीन चीफ इंजीनियर एम. पी. मथरानी की एक रिपोर्ट (1956) के अनुसार नेपाल के तराई वाले हिस्से से लेकर कमला से बागमती नदी के संगम तत्कालीन मुंगेर जिले के झमटा गाँव तक बागमती नदी के दोंनों किनारों पर बाढ़ सुरक्षा के लिए तटबन्धों का प्रस्ताव किया गया था। इस परियोजना का नाम बागमती तटबन्ध परियोजना था। प्रस्तावित वीयरों के निर्माण का उद्देश्य सिंचाई के साथ-साथ नदी की दिशा स्थिर करना तथा उसे एक हद तक नियंत्रित करने का प्रयास भी करना था। बागमती नदी का अक्टूबर महीने का प्रवाह 1500 क्यूसेक के आस-पास रहता है जिसमें से इस योजना में 750 क्यूसेक नेपाल के लिए नियत किया गया था और 750 क्यूसेक पानी भारत के हिस्से में आने वाला था।

भारत नेपाल सीमा पर बनाये जाने वाले पहले वीयर के माघ्यम से नेपाल में स्थानीय उपयोग के लिये 750 क्यूसेक पानी को उपलब्ध करवाना था जबकि भारत के लिए नियत 750 क्यूसेक में से 375 क्यूसेक पानी इसी वीयर से सिंचाई के लिए मिलना था। बाकी के 375 क्यूसेक पानी को वीयर के ऊपर से बहते हुए भारत में प्रवेश करना था जहाँ नीचे उसका उपयोग होता। पहले वीयर से आने वाले इस प्रवाह को हिरम्मा वाले दूसरे वीयर में अटका लेने की बात थी। प्रस्तावित पहले वीयर और दूसरे वीयर के बीच में ही लालबकेया नदी बागमती से संगम करती है और यह उम्मीद की गयी थी कि दूसरे वीयर (हिरम्मा) में लालबकेया का कुछ पानी और शामिल हो जायेगा पर क्योंकि लालबकेया में इसी दरम्यान पहले से ही एक वीयर बना कर उसके पानी को पूर्वी चम्पारण की तरफ मोड़ दिया गया था इसलिए हिरम्मा में पानी की आमद पर कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला था।

हिरम्मा में प्रस्तावित वीयर से वहां की मुख्य नहर से कोई 350 क्यूसेक पानी मुहैया करवाने की बात थी। बागमती से फूटकर निकलने वाली एक धारा बिलन्दपुर गाँव के पास शुरू होती थी जिसे सियारी धार कहते हैं। पूरब की ओर बहती हुई यह धारा पहले मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी सड़क को कटौंझा के पास एक पुल से पार करती थी और लगभग 64 किलोमीटर की यात्रा तय करके मुजफ्फरपुर जिले के गायघाट प्रखंड में भागवतपुर (भगमतपुर) गाँव के पास लखनदेई नदी से मिल जाती थी। यह संगम स्थल मुजफ्फरपुर-दरभंगा मार्ग से लगभग 13 किलोमीटर नीचे पड़ता है। 1950 के दशक के पूर्वार्द्ध में सियारी धार की उड़ाही की गयी थी और इसी का उपयोग नहर के रूप में करने का प्रस्ताव किया गया था।

पूरब में लखनदेई, दक्षिण में सियारी धार और दक्षिण-पश्चिम में बागमती नदी से घिरे इस क्षेत्र का रकबा 330 वर्ग मील (लगभग 850 वर्ग किलोमीटर या 2,11,200 एकड़) है। 750 क्यूसेक उपलब्ध पानी से रबी के मौसम में प्रायः 11,000 एकड़ क्षेत्र पर सिंचाई करना मुश्किल नहीं होता, ऐसा मथरानी का मानना था।

इस कथित क्षेत्र में बारिश कम नहीं होती और इसका परिमाण 51 इंच के आस-पास रहता है और यह किसी भी मायने में धान के लिये पर्याप्त होता है मगर समस्या तब आती थी जब दो बारिशों के बीच का अन्तर असामान्य रूप से बढ़ जाए और सिंचाई विभाग के अनुसार ऐसा अक्सर होता था। इस वजह से खरीफ की फसल पर आँच आती है। खरीफ की फसल बहुत कुछ हथिया नक्षत्र में बरसने वाले पानी पर निर्भर करती है। 1919 और 1933 के बीच के पन्द्रह वर्षों में, जिसके लिए आँकड़े उपलब्ध थे, हथिया में 9 सालों में वर्षा 1.5 इंच से भी कम हुई जबकि मात्र 6 वर्षो में बारिश 1.5 इंच से ज्यादा हुई। ऐसी परिस्थिति में खरीफ की फसल बचाने के लिए यह जरूरी माना गया कि सिंचाई का पुख्ता इंतजाम मौजूद रहे। सरकार का मानना था कि अगर खरीफ की फसल को सींचने की सुनिश्चित व्यवस्था कर दी जाती है तो यह फसल कभी भी मारी नहीं जायेगी और कुछ पानी रबी की फसल के लिए भी दिया जा सकेगा। 1956 में बागमती परियोजना में सिंचाई का जो प्रस्ताव किया गया था उसकी लागत 2,36,37,500 रुपये थी और उसमें 56,250 एकड़ जमीन पर सिंचाई कर लेने का अनुमान किया गया था।

किसानों के कल्याण के लिए सुनिश्चित सिंचाई से बेहतर कोई बात नहीं होती और इस बात को सभी अच्छी तरह समझते हैं। इस पानी में बागमती जैसी नदी की अपूर्व उर्वरा शक्ति वाली गाद अगर मिल जाए तो होने वाली फसल की कल्पना मात्र से किसानों की बाछें खिल जाती हैं। सरकार की इच्छाशक्ति और इंजीनियरों के शिल्प-कौशल से जिस बागमती सिंचाई परियोजना का जन्म होना था, दुर्भाग्यवश वह शुभ मुहूर्त आज तक (2010) नहीं आया। सिंचाई के वायदे की केवल राजनीति हुई।

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