गैट्स में पानी संबंधी प्रस्ताव

पानी के निजीकरण को बढ़ावा देने में गैट्स की बड़ी भूमिका है और भविष्य की वार्ताएं निर्णायक होंगी। इस बारे में विवाद भी है कि जल आपूर्ति सेवाओं को गैट्स में शामिल किया जाए या नहीं। कुछ जानकारों का कहना है कि चूंकि इनका गैट्स की क्षेत्रवार वर्गीकृत सूची में उल्लेख नहीं है, इसलिए जल आपूर्ति को गैट्स में शामिल नहीं होना चाहिए। लेकिन हमें लगता है कि गैट्स में ‘सेवा’ की परिभाषा इतनी व्यापक है कि जल आपूर्ति निश्चित रूप से इसके भीतर आ जाएगी। जैसा कि सभी देशों को बताना है कि वे दूसरे देशों के कौन से सेवा क्षेत्र खुलवाना चाहते हैं। हाल ही में सेवाओं में व्यापार के उदारीकरण (गैट्स 2000) पर डब्ल्यूटीओ वार्ताओं के लिए यूरोपीय आयोग द्वारा बनाए गए कुछ गोपनीय दस्तावेज़ लीक हुए हैं। इन दस्तावेज़ों में यूरोपीय आयोग का एक प्रस्ताव शामिल है जिसके तहत वह भारत, दक्षिणी कोरिया, ब्राजील, मैक्सिको, कनाडा, जापान, अमेरिका समेत 29 डब्ल्यूटीओ सदस्य देशों में सेवाओं के व्यापार को प्रतिबंधित करने वाले क़ानूनों व नियमों को हटाने का अनुरोध करने वाला है। इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि यूरोपीय आयोग सभी डब्ल्यूटीओ सदस्य देशों से पानी क्षेत्र (पानी संग्रहण, शुद्धिकरण, प्रदाय और अवशिष्ट जलशोधन सहित) को अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा के लिए खोलने के लिए कहने वाला है। यूरोपीय आयोग इन वार्ताओं में यूरोपीय संघ के 15 सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करता है।

यह कोई संयोग नहीं है कि पानी के क्षेत्र की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन्हीं देशों की है। इसमें भी कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि जहां सामाजिक संस्थाओं, एनजीओ और जनता के विभिन्न तबकों को इन प्रस्तावों को तैयार करने की प्रक्रिया से दूर रखा गया, वहीं उद्योग जगत को इस पूरी प्रक्रिया में सहज पहुंच हासिल थी।

पानी के निजीकरण को बढ़ावा देने में गैट्स की बड़ी भूमिका है और भविष्य की वार्ताएं निर्णायक होंगी। इस बारे में विवाद भी है कि जल आपूर्ति सेवाओं को गैट्स में शामिल किया जाए या नहीं। कुछ जानकारों का कहना है कि चूंकि इनका गैट्स की क्षेत्रवार वर्गीकृत सूची (डब्ल्यूटीओ की भाषा में w/120) में उल्लेख नहीं है, इसलिए जल आपूर्ति को गैट्स में शामिल नहीं होना चाहिए। लेकिन हमें लगता है कि गैट्स में ‘सेवा’ की परिभाषा इतनी व्यापक है कि जल आपूर्ति निश्चित रूप से इसके भीतर आ जाएगी। मल जल निकास, कचरा प्रबंधन और स्वच्छता सेवाओं को पहले ही पर्यावरण सेवाओं के वर्ग में शामिल कर लिया गया है। इसके अलावा क्षेत्रवार सूचियों में एक विषय को ‘कहीं और शामिल न की गई अन्य सेवाएं’ का शीर्षक दिया गया है। इससे सूची सर्व समावेशी हो जाती है। वैसे वार्ता के दौरान यूरोपीय आयोग ने भारत व अन्य देशों में जल क्षेत्र खोलने का स्पष्ट अनुरोध करके इस बहस का पटाक्षेप कर दिया है।

लेकिन चिंता की बात यह है कि भारत, डब्ल्यूटीओ द्वार बाध्य किए जाने के पहले ही, बहुत से क्षेत्रों को खोल रहा है और डब्ल्यूटीओ की मांग के अनुरूप अपने बहुत से कानूनों और नियमों को उदार बना रहा है। दूसरे शब्दों में, भारत सरकार डब्ल्यूटीओ के कहे बगैर ही इस पचड़े में पड़ रही है। इसका चिंताजनक पहलू यह है कि इससे डब्ल्यूटीओ/गैट्स वार्ताओं में भारत की सौदेबाजी की क्षमता कमजोर पड़ जाएगी।

प्रेरणा स्रोत क्या है


निजीकरण को बढ़ावा देने के इन सभी प्रयासों के पीछे प्रेरणा स्रोत क्या है? जल क्षेत्र से मिल सकने वाला अकूत धन और मुनाफ़ा ही इसके मूल में हैं। विश्व जल आयोग (WCW) के अनुसार विकासशील देशों में जल क्षेत्र में फिलहाल प्रति वर्ष करीब 70 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश होता है (17 अरब डॉलर पनबिजली में, 28 अरब डॉलर जल व स्वच्छता में और 25 अरब डॉलर सिंचाई में)। विश्व जल आयोग के मुताबिक जल सुरक्षा हासिल करने के लिए 2025 तक इसे बढ़ाकर 180 अरब डॉलर पर ले जाना होगा। इसका मतलब हुआ कि आज वार्षिक निवेश करीब 1,34,400 करोड़ रुपए हैं, जिसे ढाई गुना बढ़ाना होगा। इससे यह भी अंदाजा लगता है कि इस व्यवसाय में कितना मुनाफ़ा है।

अन्य जानकारों का अनुमान है कि दुनिया भर का जल सेवा व्यवसाय करीब 10 खरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है। कुछ लोगों का अनुमान तो 70 खरब डॉलर प्रति वर्ष तक का है। सही आंकड़ा जो भी हो, यह साफ है कि पानी का बाजार भीमकाय है।

भारत के संदर्भ में भी अनुमान लगाए गए हैं। विश्व बैंक, ब्रिटिश एजेंसी DFID और भारत सरकार के शहरी मामले व रोजगार मंत्रालय के अनुसार 29 शहरी जल व मल-जल तंत्रों को उन्नत बनाने के लिए आगामी सालों में काफी ज्यादा निवेश की जरूरत होगी। नवीं योजना अवधि (1997-2002) में यह रकम 30,200 करोड़ प्रति वर्ष तक हो सकती है (1996-97 की कीमतों पर)।

ग्रामीण जल आपूर्ति के लिए इसी तरह की एक संयुक्त रिपोर्ट ने आकलन किया है कि: “ग्रामीण आबादी तक पूरी तरह पहुंचने और बिगड़ी हुई परियोजनाओं को सुचारू बनाने (जैसे मरम्मत या पुनर्वास) के लिए न्यूनतम 17 से 20 हजार करोड़ रुपए तक का कुल पूंजीगत निवेश चाहिए होगा।…. इस क्षेत्र में संचालन व रख-रखाव का एक समुचित स्तर बनाए रखने के लिए हर साल करीब 2900 करोड़ रुपए की जरूरत होगी।

बहुराष्ट्रीय कंपनियां कई हजारों करोड़ के इस बाजार और वार्षिक मुनाफे पर लार टपका रही हैं।

तेल जले सरकार का, मियां खेले फाग


अलबत्ता, यह जरूरी नहीं है कि निजी कंपनियाँ खूब पैसा लगाने को तैयार हो जाएं, हालांकि वे भारी मुनाफ़ा कमाने को मरी जा रही हैं। जो लोग भारत के बिजली क्षेत्र से परिचित है, वे जानते हैं कि 1991 के बाद से तथाकथित निजीकरण सार्वजनिक पैसे के दम पर ही हुआ है (या तो भारतीय या अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं के जरिए या फिर सार्वजनिक धन से चलने वाली राष्ट्रीय निर्यात साख एजेंसियों जैसी वित्तीय व गारंटी व्यवस्थाओं के जरिए)। इसका तर्क बिल्कुल आसान है- परियोजनाओं में सार्वजनिक पैसा लगने दो, जोखिम भी सार्वजनिक रहने दो मगर मुनाफा मिले निजी कंपनियों को। जल क्षेत्र में भी यही कहानी दोहराई जा रही है। विश्व बैंक स्वयं इस मुद्दे पर बिल्कुल साफ है। अपने जनवरी 2002 के जल संसाधन क्षेत्र रणनीति मसौदे में विश्व बैंक कहता है।

“यह भी उतना ही स्पष्ट है कि जल संसाधन इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में, कई कारणों से, निजी क्षेत्र अकेला नहीं उतर सकता और नहीं उतरेगा...।”

‘कई कारणों’ में से कुछ हैं:


“ज्यादातर जल इन्फ्रास्ट्रक्चर में धन वापसी की अवधि लंबी होती है जो पूँजी बाजार के साथ ‘संगत’ नहीं बैठती क्योंकि आम तौर पर पूंजी बाजार में परिपक्वता अवधि कम होती है। इसलिए गारंटी व्यवस्थाओं की जरूरत है ताकि लंबी अवधि के लिए पैसा उपलब्ध हो सके।”

यह मसौदा कहता है:


“...वर्तमान परिस्थितियों में निजी क्षेत्र ‘पानी के क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर की वित्तीय खाई’ को पाटने में सिर्फ गौण भूमिका निभाएगा। निजी क्षेत्र की भागीदारी का बाजार तैयार करने के लिए सार्वजनिक-निजी साझेदारी का ज्यादा सहयोगी रवैया अपनाने की जरूरत है। इसमें विश्व बैंक की प्रमुख भूमिका है।”

जल सेवा क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक एस.ए.यू.आर. के मुख्य कार्यकारी जे.एफ.टेल्बोट ने अपने एक दिलचस्प भाषण में स्थिति को एकदम साफ कर दिया है। विश्व बैंक में फरवरी 2002 में दिया गया यह भाषण दरअसल और ज्यादा छूट पाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुहार है। उन्होंने बाकी बातों के अलावा विश्व में जल निजीकरण के कई रूझानों के प्रति शिकायत की:

“सेवा के अयथार्थवादी स्तर पर जोर”
“अनुबंध की अतर्कसंगत अड़चने”
“अतर्कसंगत नियामक शक्ति व दखलंदाजी”
“विकासशील देशों में यूरोपीय मानदंड लागू करने की कोशिशें”
“विकासशील देशों में सबके लिए कनेक्शन की मांग”

इसके बाद वे “इन रूझानों के व्यापारिक प्रभाव” के बारे में बात करते हैं:

“निजी बैलेंस शीट पर ज्यादा बोझ है।” ‘आक्रामक प्रतिस्पर्धा से कीमतें खतरनाक स्तर तक नीचे गिर रही हैं।’ इसके नतीजे में वे कहते हैं-

‘विकासशील देशों में...निजी जल व्यापार को एक सीमित बाजार की ओर धकेला जा रहा है, इससे विकासशील देशों के गरीब बड़े घाटे में रहेंगे।’

“ज्यादा निवेश हासिल करने के लिए जल व्यापार को और ज्यादा आकर्षक बनाना होगा...”

उनके हिसाब से समाधान इस तरह है:
“...आवश्यक निवेश स्तर तक पहुंचने के लिए अच्छे खासे अनुदान और सुगम ऋणों से बचा नहीं जा सकता।”

“जोखिम को सार्वजनिक व निजी क्षेत्रों के बीच नए सिरे से संतुलित करना होगा और पर्याप्त सुरक्षा देनी होगी।”

“सेवा के स्तर को स्थानीय संदर्भ के हिसाब से तय करना होगा।”

संक्षेप में समाधान का आशय यह है कि जोखिम सार्वजनिक क्षेत्र उठाएगा, सेवाओं का स्तर घटिया बना रहेगा और फिर भी निजी क्षेत्र सुगम ऋणों, अनुदानों की मांग करेगा ताकि अच्छा खासा सुनिश्चित मुनाफा बटोर सके।

यानी निजी क्षेत्र और विश्व बैंक जैसे इसके हिमायती कह रहे हैं कि अभी हमारे लिए लागत और जोखिम बहुत ज्यादा है, इसलिए कृपया हमें आश्वस्त कीजिए कि सार्वजनिक खजाना खुला रहेगा और लोग (सार्वजनिक संस्थाएं) सारा जोखिम संभालेंगे और हम मुनाफा संभालेंगे। आजकल फैशन में चल रहे शब्द सार्वजनिक-निजी साझेदारी (PPP) का असली अर्थ यही है।

निष्कर्ष


दुनिया के दूसरे हिस्सों के अनुभव बताते हैं कि भारत में भी जलप्रदाय के निजीकरण के नतीजे खतरनाक होंगे। देश में निजीकरण के शुरुआती दौर में यह दिखाई देना भी शुरू हो गया है।

सबसे बड़ा असर तो गरीबों को झेलना पड़ेगा, जो व्यापारिक जल सेवाओं की पहुंच के दायरे से बाहर फेंक दिए जाएंगे। विश्व बैंक का जल संसाधन रणनीति मसौदा (मार्च 2002) भविष्य की ओर अपशकुनी संकेत भी करता है। यह कहता है:

“...सुधरी हुई सेवाएं हर मामले में… उन बाजार आधारित नियमों को आगे बढ़ाएंगी, जिनके तहत पानी का अधिकार स्वैच्छिक रूप से अस्थाई या स्थाई तौर पर कम पैसे वाले उपभोक्ताओं से ज्यादा पैसे वाले उपभोक्ताओं को हस्तांतरित करना आसान हो जाएगा...”

ध्यान देने की बात यह है कि भारत जैसे देश में ज्यादा पैसे वाले उपभोक्ताओं में गन्ने के खेत, गोल्फ मैदान, वाटर पार्क आदि शामिल हैं। पीने के लिए पानी तो कम पैसे वाला उपयोग ही है।

दूसरा बड़ा असर देश, समुदायों व नागरिकों की संप्रभुता पर पड़ेगा, क्योंकि मुट्ठी भर बहुराष्ट्रीय निगम देश के इस अहम संसाधन पर कब्जा जमा लेंगे।

जबरदस्त अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते पर्याप्त व विश्वसनीय जल सेवाएं सुनिश्चित करने की वैकल्पिक व्यवस्थाओं (जैसे सामुदायिक स्वामित्व वाले जल प्रदाय) के लिए कोई जगह नहीं बचेगी।

यह विवाद का विषय है कि क्या बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस देश की जनता के प्रति जबावदेह होंगी और पेयजल, पर्यावरण संरक्षण, पानी की गुणवत्ता और जन स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं में जनता तक पहुंच जैसे मसलों पर इसका क्या असर होगा।

उतनी ही चिंता की बात यह भी है कि डब्ल्यूटीओ के कसते शिकंजे के चलते संसद द्वारा बनाए गए कानून, कार्यपालिका द्वारा बनाए गए नियम व विनियम और सरकारी नीतियां भी ‘व्यापार को समस्त बाधाओं से मुक्त’ करने की मांग के समक्ष जल क्षेत्र का नियमन नहीं कर पाएंगे। ऐसी हालत में 73वें व 74वें संशोधन के जरिए प्रदत्त अधिकारों का विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्वशासन कागज के शेर बनकर रह जाएंगे।

इस सबको देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि जल सेवाओं का निजीकरण तत्काल रोका जाना चाहिए और देश में इस मुद्दे पर और संभावित विकल्पों पर एक व्यापक बहस छेड़ी जानी चाहिए।

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